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१० राग कानरो
सेवत विषय पति नहि मानें, मदन महारिपु के मद जैसे स्थान अस्थि च
॥
तं चादि यधिर मनरेष जाने ।।
भट्टारक महेन्द्र कीसि
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भ्रम बसि मूलि गयो ग्रात्मनिधि, मूड और की ओर ही ठारों ॥० ॥ निज स्वभाव तजि परसंग रांच्धो, मोह विकल ममता चित बार्शी ॥ महेंद्रकीशि प्रभु से जिनेश्वर, पूतीनि भवन के राम्रो ||२||
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राग केशरी
सब दुःख मूल है मिथ्यात |
जाके उर्द जीव नहीं चेत करें प्रात्मघात || स० १ १७
मोह दर्शन नाम जार्क घरं प्रति उतपात ॥ छांड दोष पचीस तम घन होइ समकति प्राप्त || स०||२||
पंच गुरु पद नाम घ्यायो, द्रिढ रहे तात रमात ॥ महेंन्द्रकीति से श्री जिनवर, होनी निर्मल गात ॥ ० ॥३॥
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राग केदारी
महिमा अपार आके गुणाको न प्रारावार. जग को अधार इसो देव जिरण देव ध्याइये ||
इन्द्रादिक देव जाकी, मन अवकाय करें सेव, तीस प्यारि प्रतिसय बिराजमान गाइये ॥
अनंत चतुष्टय प्रगट प्रतिभास सदा, आठ प्रातिहार्य महाविभूति पाइये || ग्रहो भव्य बृन्द तजि मोह मान मावा कंद, वीतराग पद चंद निश् चित लाइये ||