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________________ १०८ १० राग कानरो सेवत विषय पति नहि मानें, मदन महारिपु के मद जैसे स्थान अस्थि च ॥ तं चादि यधिर मनरेष जाने ।। भट्टारक महेन्द्र कीसि Toll भ्रम बसि मूलि गयो ग्रात्मनिधि, मूड और की ओर ही ठारों ॥० ॥ निज स्वभाव तजि परसंग रांच्धो, मोह विकल ममता चित बार्शी ॥ महेंद्रकीशि प्रभु से जिनेश्वर, पूतीनि भवन के राम्रो ||२|| P ११ राग केशरी सब दुःख मूल है मिथ्यात | जाके उर्द जीव नहीं चेत करें प्रात्मघात || स० १ १७ मोह दर्शन नाम जार्क घरं प्रति उतपात ॥ छांड दोष पचीस तम घन होइ समकति प्राप्त || स०||२|| पंच गुरु पद नाम घ्यायो, द्रिढ रहे तात रमात ॥ महेंन्द्रकीति से श्री जिनवर, होनी निर्मल गात ॥ ० ॥३॥ १२ राग केदारी महिमा अपार आके गुणाको न प्रारावार. जग को अधार इसो देव जिरण देव ध्याइये || इन्द्रादिक देव जाकी, मन अवकाय करें सेव, तीस प्यारि प्रतिसय बिराजमान गाइये ॥ अनंत चतुष्टय प्रगट प्रतिभास सदा, आठ प्रातिहार्य महाविभूति पाइये || ग्रहो भव्य बृन्द तजि मोह मान मावा कंद, वीतराग पद चंद निश् चित लाइये ||
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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