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________________ बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि सुनि पुत्रि पर उत्तर भासि । कहां मिस चितई प्रकासि || जैसे सुरसुंदरि बदियौ । माग्यो नाह ब्याह करि दियो ।। २६६५ तू काह राजहिं जांनि । परनि कुंवरि मनके सुषमांनि ॥ बार बार ताल यौं भने । पुत्री धिरकारे अवगत २६७॥ चितं सुध सजायी राज । अलि निष्टष्टु मूरिय अधिकार || जिसो निरंकुस मत्तगयंदु | करं श्राप श्रायौ मतिमंदु || २६८ ।। जैसे बालक होय यांत । जो सो बोले कछ न ज्ञान ।। जैमैं अंशु बहुत दुख है । चहूँ दिसि जोवे पंथ न लड़ें ॥ २६६॥ त्यों नृप लाज दई टिकाइ । जोय रचत सो कहत बनाइ ॥ निज गुर वचन निपोषण श्रबं । संतोषी परिजन सब तब ॥२७०॥ जुरिच सुमान सील धुरंधर नुनह वरी जतात सुनी करि ने अजुगत बात कही तुम एहु ।। २७१ || जिनसूचि मुनिवर नहि भी सुनहु तात सबही वर सुदरि जो हो कुलीन । लोक लाज नहि तर्ज प्रवीन ॥२२७२ || अपजस धाम श्राहि जो बात सोई तुम भाषत होतात ।। लोक व याहि यह कर्म्मा । मन वांछित बर रहेन घम् || २७३ ।। मन भायौ जो करें विवाह । लोक सुहांती हास्य उछाह || कछु रहेनहि कुल की रीति । सब को भावे महा धनीति || २७४ ॥ अमितही तित होइ बिचार कोउ न घर सील को भार !! यह फेर सब कोऊ न करें । आपुन वंछि बरहिं जो वरै ।। २७५|| ● और कहां नौ सुनि हो रा । तो सौं कहीं कथा समझाइ ॥ श्री श्रीश्वर प्रथम जिनंदु | तार्क बारे पाप निकन्दु || २७६ ।। प्रगट पुराननि मैं बरनम् । कछ सुकछ द्वौ राजा भए । तिनके मई सुभद्रा दोइ । नंद सुनंदा जांन सोइ ।। २७७ ।। रीति जु लिये ॥ २७८ ॥ | जोवन वंत भई ते बाल । रूपवंत अरू गुनह विसाल || तिनहू बंधि वरकिय । रही सक्ष कुल तात बुधि ताकौं जो दई । थाइ सुरन ताकौ ते भई लीन जिनेस्वर पाइ । बहुत बात को सो मारग सो सुनि बात । मोषं खांड्यो जाइ न तात ॥ पुंनि ब्रह्मी सुंदरि पुत्ति । नंदिहि भई सर्व गून जुत्ति || २६०|| परनई ॥ कहै बढाइ || २७६॥ ४७
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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