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चौपई
सुनि निरंद भए लोचन भीन । कही साधु पुत्री फुंनि तिन भाष्यो मन अविवेक । मलिन वचन
बोहा
अति सुन्दर गुनवंत रु, जो को भाव तोहि । आज सु उत्तर समभिक दीजे पुत्री मोहि ।। २५६ ।।
चौपई
मैना सुन्दरी की बशर
इन नरनाह मांहि जो कोइ । मन भाय वरु मांगहि सोइ ||
ताहि समप्पु जोगु ज श्राहि । सूबो संन तात वचन जब सुनियों कान सब चित मनमैं भयो बहुत अनुराउ । मानौ ऐसौ घोल सत्रु नहीं कहै। यह दिशो जोवे ग्रुप करि रहे । बार बार सो लेइ उसास । बोलि न सके राइ के त्रास ।। २५६ ।। राइ बचन मन पर्यो दिठाइ । ना कछु को नहीं जाइ ॥
मनमैं दुष्ट दुष्ट उच्चारय । कहा पाप इन जिय मैं वरयी ॥ २६०॥ अति प्रविले लीन सो जांनि । कुल मारग तिहू तज्यों प्रवानि | प्रलिषो वोल व मतिहीन । मूरिख कछू लाज नहिं कीन ।। २६१ ।। बहुत बात को करें बढाइ । याकी है सब नींव सुमाउ
जाके नहीं फुल मारग देव | जाने नहीं दह लक्षिन भेव ॥२६२॥
मपाल चरित्र
परवीन ॥
तिन बोल्यो एक ॥२५५॥
भावे नकन बात विचारि धरती पौर्द दुचित भई
देऊ बहू ताहि || २५७११ मांहि गए श्रसान ।
भयौ बच को घाउ ।। २५६८ ।।
जाकं गुर निरगंध न कोइ । ताहि विवेक कहां ते होइ ॥
यह पुत्री मन में चितई । नीची दिष्टी न ऊंची भई ॥ २६३ ॥
रही मुरभि मनावरी । प्रति विचित्र सबही गुन भरी ॥ पिसुन बात ते कोपी हियौ ।। २६४||
तातहि उत्तर कुछ नहीं दियो
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संसं दह मैं परि कुवारि ॥ फुंनि नर
वंसो पूछन लई ॥२६५॥