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श्रीपाल चरित्र
पंचामृन माल्यो दिन होई । छहरस भोजन हम वै सोई ।। ते सुष पुषी भुगतन लेई । तू तो कई कर्म मो देई ।।३०८।। मौ कौ प्रादि बहुत संदेह । तेरे गुरनि पढायो येड़ ॥
मैना का प्रत्युत्तर
जय नृप निन्दा गुरु की करी । तब बोली मनासुदरी ।।३०६।। सुनि अविवेकी तात बिचारि । सो सौ कहीं कथा विसताये। मैं सुभ कर्म कमायो सार । सेरै घरि पायौ अवतार ||३१०॥ तातै भोजन भुगतो सुख । पावती नहीं कहू दुःख ॥ कीयो हौ तौ अशुभ मैं कर्म । नीच घरां तो लेती जनम ।।३११५ तहां दुःस्ल लहती अधिकाइ । सुष तू तहां न देतो माह ।। कहां पयांन होइ नर नाथ । शुभ अरु अशुभ कर्म के हाथ ।। ३१२।। तुमतौ रूपन्नत को देहु । अर श्री तात सर्व गुनगेहु ।। अरु जो होइ महा जई मूर । काहि कोड़ि कातर कर ॥३१३।। यह तुम सुनी बात सब ठौर 1 विध्वानि कर और की और ।। माता पिता बहुत हित करें । भावी लिषी न टारी टरै ।।३१४।।
पिता द्वारा रोष प्रकट करना
पुत्री बचन सुने सब सार । राजहि रिसि उपजी अधिकार ॥ मन मैं घरस दुष्ट मति गयो। मुह करि करि कछु न उत्तर दयौ ।३१५॥ कवि परमल्ल कहै सत भाउ । मन में है चितयों राउ ।। मब हूं निज के परषो तितो । देषों याहि कर्म फल किसौ ॥३१६॥ जाको कियो बहुत दिठाउ । देवी सास करम को सहाउ ।।
जीयमैं इसो पिसुनता धरी । मुहं कहि पनि मैना सुंदरी ।।३१७।। मंना को सन्दरता
पुत्री उठि चाली निजगह 1 करौ पारनी पीनी देह ।। तात वचन सुनि उठी तुरंत । परफुल्लित मनड़े विहसंत ॥३१८।। पंथ मांहि सो निकसी जाइ । पुरजन रहे देषिनि कुताइ ।। घोषं रहै मुहांमुह चाहि । यह घों कुंवरि कौन की प्राहि ।।३१६॥