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बाई अजीतमप्ति एवं उसके समकालीन कवि
विनती करै जोरि दो हाथ । सब कुटंब सौंपे जो साथ ।। भावै अंध होइ मतिहीन । भाव होहु कला परबीन ।।२६५।। भाय कुबज होहु तनु वुरी । भाव गूगु होहु पांगरी ॥ भावं रोगी च्यापत पीर । भावं कुष्टी होइ सरीर ॥२६८|| भावं बालक होहु अयांन । भाव होहु सर्व मुन जान 11 भावं वृद्ध होहु विकराव । भावं जोगी होहु गवारु ॥२६७।। सब परियन सौंप जा बांह । चलै कुलीनु तास की छह ॥
यह कुल कर्म सुनौ चित लाइ । अरु विभ्रम दै सब मिटकाइ ।।२६८।। कर्म की महिमा
चलि हौं कुल मारग सुनि तात । हहै कर्म लिषी जो बात ॥ कर्म हो त होइ है राइ । कर्महि त जु रंक होइ जाइ ||२६६।। कर्महि तैं जस होइ अभक । कर्महि त नर बहै कलंक ।। होइ कर्म से पाछी भाम । कर्म हि त पावं सुभ धाम ।।३००॥ कर्महि त त्रिय होइ मुहाग । कम रूप होइ प्रगट भाग ।। अरु अति सुख कर्म तै लोइ । दुषी दुहागनि करम ते होई ।।३०१॥ कर्म हि ते जु होइ तन भंग । कर्मत होइ सोभित अंग ।। यह परपंच कर्म को सर्व । कोक और करी मति गर्व ।।३०२॥ विधना जो कछु लिथ्यौ लिलार । मुभ अरु अशुभ अंक शुभ सार ।। जसो निमित्त जासको होइ । ताहि मिटाइ सकं नहि कोइ ।।३०३।। अमर खचर पर गण गंधर्व । मासुर सुर गुर रवि ससि सर्व ।। जो ए सब मिली कर सहाव । कर्मरेष नहि मिटि है काव ।।३०४१॥ पुरच ते पछिम रचि उर्व । नर फुनि भेरु चूलिका छुदै ।। सायर हू पं धरि उडाइ । भावी तक न मेटी माइ ॥३०॥ पवनी जु महि मंडल परिहर । प्रानी काल हमें ऊबरं ॥
घासुर ते निशा फुनि होइ । भावी लिपी न मेटै कोइ ।।३०।। पिता का उत्तर
से बचन सुने जब राइ । मन कोपंत भनी अनुराई ॥ सुनि सुनि पुत्री तजौ अनि । कहा कर्म तेरौ दिनमान ||३०||