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यशोधर रास
तहाँ तो तेह मानो नहीं, समकीत परयू प्राण ॥ करो जिन धर्म दया परो, केम चालि राज काज ||1| देकी पूजा कीजिये, होह विषन विनाश ॥ भाई अंबा ए कही, तूठी पूरि प्रास ।।८।। छाग महीस प्रादि जीवडा, बल दीजि सही राय ।। मायु बाधि २: रिये, विकारोत्रि नटी जा साधुश्रीपरमेष्ठिनः सकरुणा षड्जीवरक्षाकरा । प्रात्तौद्यद् अत गुप्तिसत्समितिका बद्रिमाः सालिकाः ॥ लोचास्नानविलको स्थितिमु नो पूजद्विकाशना । श्रीदेवेन्द्रसुविवेकतपदः कुर्व तु बो मंगलं ॥१॥ इति श्री यशोधर महाराज चरिते रासचूडामणी नाम काव्यप्रतिछंदो भूदेव कनि श्री विक्रमसुन देवेन्द्रविरचित कामकेमिस्त्रीदुश्चरिता दर्शन शौर्यान्वित खङ्गानप्रभातवर्णनो नाम पंचमोऽधिकारः ॥५।।
षष्ठ अधिकार
भास हीदोलहामी यशोषर द्वारा देवी के सामने बली का विरोष करना
वचन सुनी हू बोलीयो; मात सुणी मुझ गात । ऊत्सम कुलना ऊपना हीदोलहारे । केम करीमि जीव वात ॥१॥ उत्तम मध्यम कुनै कला, जीव हिंसा ना भेद । उत्तम जोई हिंसा करे ।ही। उसम गुण होए खेद ॥२॥ जीव हिंसा वीधन टालि । ए मुझ वज समान पर ना प्राण विषन करें।ही, विपन विशेष होयें मान ।।३।। दीन दुखी थे वापड़ा । धन वस्त्रादिक रहित ॥ परभव जीय वध्या तणांही। फल जाण्यो हट चीत ॥४॥ प्राधलां विहिरा पांगला । मुगा गाहिला जेह ।। जिनवाणी माहिं हम कहा ही जीव हिंसा फल एह ॥५॥ कोबी करपा रोगीया । इष्ट वियोगीया जेह । जिनवाणी माहि इम का ही जीव हिंसा फल एह ।।६।।