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________________ पाई प्रजीतमति एवं उसके समकालीन कवि २२१ ममिध्य साधि रोग कम दलि । अथवा कदाच रोग जाय । डाहा उत्तम जाणताहीका ममेध्य कहो किम साय ॥७॥ विघन जावान कारणें । न करू' होस का। वचन सूरणी माय मोली यूनही । पुत्र मोह्यो जिनधर्म ।।८।। निः कर्म मार्ग कल गयो । न लाह वेदना भेद । कामें कनें जीव हिंसता ही नहीं होये धर्म न छेह ।।६।। जीव हिसा धर्मह होय । इम कहि खोटा लोक ।। दान पूजा तप व्रत क्रीया ही। जीव दया विणु फोक ।।१०।। मुझ सभाग्रह घरगो करयो । एक जीव हराया जाए। खडग काबधो सब भापरणो ही देवा में प्रापमा प्रारण ॥११॥ राय मोटे मुझ कर घकी । लोधो तब ते क्रपाणु । विलखी थई माय एम बदे ही। सभिलि पुत्र सुजाण ।।१२।। चन्द्रमती द्वारा पाटे के कमरे का वध करने का प्रस्ताव मात पिता पचनहतणे । मंगकीधि हई पाप । पीठ न दीजि कूकडो हीं। जिम टालि सोक संताप ।।१३॥ लाजि मुनि रह्यो । साभली दीन वर्चत ।। श्रीनय करी मन गह परभो ही। नीगम्यु धर्म रतन ।।१४।। पीउनु कूकडो करावयो । बीत्र वीवीत्र अपार ॥ देवीमा बालीयो ही। माय सहीत तेणी वार ।।१५॥ डम डम मरू सफलो । खडग तणा झबकार ।। रण काहलवली बाजता ही०। पोहोतां देवी मठ बार ।।१६।। अश्वन मास अजु पालडो । अष्टमी मंगलवार ॥ देवी नमी हूँ बोलीयो ही। वली लेई करो जयकार ||१७|| खडग काठी कुकडो हण्यो । सबद हवो मसार । जाणे मुझ नि तेडती ।ही। वेगलें दुर्गत्य नार ॥१८॥ माय कहे ए प्रशिका । लीधे होय कल्याण ॥ जे जे मागे मिथ्या कह्यो ।ही। तिमि करयो मि अजाण ॥१६॥ जेहेवी होय भवितव्यता । दुष्य सेहेबी होय ॥ कर्म मधीन सही जीवडो ।ही। पापकरतो न जोय ।।२।। पर ते राज बिसाइयो । सोप्पु अर्थ मंडार ।।
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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