________________
श्रीपाल चरित्र
प्रेसी विपति मांहि विहसंत । बहुत दिवस बीते निबसंत ॥ कोठा रूख रहे चहुं पास । सुदरि देर लेह उसास ।।१६२॥ ए बिधना दोघन के राइ । नेर म - दरनी जाह । तेरी सरन अाइ जिह लयौ । ताको दुःष बहुत दियो ।।१६३॥ अरु जे फिर्यो दुष्ट तो साथ । ताकौं भले लगाए हाथ ।। तेरी पास रह्यौ जिय सोइ । अंतकाल ताकी दुष होइ ॥१६४॥ जिह का तो को सुप दियौ । ताकौं बुरी सर्वथा कियो ।। जिह तेगै सेयो पर संग । ताको मदा भयो सुष भंग ।।१६५।।
बोहा
जिह मार्यो तू त्रु:षदे, रे विधि अष्ट प्रकार ।। सो पहुँचै वकुठ की, तेरे मुष द छार ॥ १६६।। जिह तेरी पासा तजी, कीनों मूल चिनास । तिह भब दुषसागर तज्यो, लौ मुकति बर बास ।।१६७॥
चौपई
नंद्या बहुत करम की करी । और न काहू ऊपरि धरी । मैंना सुदार उटी सुरंत । दिव्य अंबर पहरे बिहसंत ॥१६८।। सोलवत अब गुनह निधान । निज बालम संजुत्त समान । मगमें उपज्यो सुष असेस । श्री अिन भुवन कियौ परवेस ॥१६६। तीन प्रदक्षण उत्तम वृधि । कीनी मन वच काय त्रिसुनि ॥ दंपति लागे अस्तुति कर्न । जै जै मुनिवर भव भम हर्न ।।१७।।
मैनासुवरी एवं श्रीपाल द्वारा मनि के पास जाना
बै मिथ्यातम हरन पतंग । सेवत सुर नर षेचर अंग ।। निरदद निरामय नोहन कोष । छय कीने अष्टादश दोष ॥१७॥ अनंत चतुष्टय गुनह निवास । इन्दी घेदन सदा उदास ।। गदित सप्त तत्त्वारथ भास 1 बजदंड मोहारि निनास ।।१७२।।