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बाई प्रजीतमति उसके समकालीन कवि
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रत्नत्रय भूषण सुभ चित । एकरूप देषण परि मित्त ॥ प्रानंदकरण ज ज जगदीस । जै जै कसनासर सिब ईस ।।१७३॥ सुभ चित्त दोऊ सिरनाइ । बैठे चरन कमल तट जाइ ।। तब सुदरि बोली करि भाउ । हौं वापिनी मोहि समझोउ ||१७४।। भी स्वामी का ज्ञान पयासि । संस मेरै चित को नासि ॥ जै जै मुनि श्रीपाल निहार । नाह भीष दे चित्त उदार ||१७५॥
कछू धरम स्वामी कहि सोइ । कुष्ट व्याधि जाते क्षय होइ ।। मुनि द्वारा संबोधन
मुनिवर कह पुत्ति सुनि एह । अणुवत गुण समकित तू लेह ।।१७६।। पुनि सिष्यात सुनहु विधारी । पभने मुनिवर पक्षाहारि ।। गुरुवो धरम प्रगट्यो जो प्राहि । नीकै करि सुनि भाषों ताहि ॥१७७।।
मुनीश्वरोवाच हे पुत्री भूपता ।। धर्मे मतिर्भवति कि बहुना अतेन । जोवे दया भवति, कि बहुभिः प्रदानः ।। शांतिमंनो भवतु किं कुजनश्चसुष्ट : । पारोग्यमस्तु विभवेन बलेन किंवा ॥१७॥ बुद्ध फलं तस्यविचारणं च । देहस्य सारं प्रसधारणं च ॥
प्रर्थस्य सारं किल पात्रदांन ।
बाच; फलं प्रीतिकरं मरारण ॥१७६।। सिद्धचक्रवत लेने के लिये कहना
चौपई निर्मल सिद्धचक्रवत हु । अष्टान्हिका बहो व्रत एहु ।। तब ताप मुनियो बिघि साधि । वसु दिन सिद्धचक्र प्राराधि ।।१८।। प्रथमह मंडल का बांनि ! ॐकार प्रथम हि जांनि ।। चहूं कूर्ण लिषि सोलह घट्ट । मझि पंच परमेट्ठि गगरराष्ट्र ॥१८१॥ दल दरन ते लिषिए बसु वर्ग । अ क च ट त प य स ये वसु एर्ग ॥ दल अंतर अंतर सुवनाय । दरसन ज्ञान चरित्र सुभाय ।।१८२।।