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________________ बाई जीतमसी एवं उसके समकालीन कवि कोई पार नहीं था। विवाह के पश्चात् राजा यशोध ने राजकुमार यशोधर को पूर्ण रूप से योग्य मान कर उसका अपने ही हाथों से राज्याभिषेक कर दिया। राजा यशोधर राज्य करने लगे । गनी अमृत मती भी जीवन का प्रानन्द लेने लगी वसन्त ऋतु प्राने पर वसन्तोत्सव मनाया गया तथा राजा एवं रानी बन क्रीड़ा करने गये । कबि ने बसन्तोत्सव का सूर्योदय एवं सूर्यास्त दोनों का अच्छी तरह वर्णन किया है । कुछ समय पश्चात् रानी का महलों नीचे रहने वाले कुबड़ा से प्रेम हो गया और वह एक रात्रि को राजा को सोता हुआ जानकर पूरे शृंगार के साथ अकेली ही उसके पास चली. राजा भी जग गया और उसके पीछे पीछे चलने लगा। वहां राजा को यह देख कर महान आश्चर्य हुया कि किस प्रकार एक रानी दुर्गन्ध युक्त कुबड़े की मिन्नत कर रही है । एक बार नो राजा ने अपनी तलवार से उसे मारना चाहा लेकिन बाद में उसने स्थिति को देख कर वापिस पलंग पर सो गया । कुछ समय पश्चात् रानी भी यहीं प्राकर सो गयी। यशोधर राजा को जब दुस्वप्न की शान्ति के लिए एवं सुख समृद्धि के लिए देवी के सामने जीवों का बष करने के लिए उसकी माता चन्द्रमती ने बहुत समझाया लेकिन राजा ने कहा कि हिंसा करने से पाप लगता है, नीव गनि का बंध होता है । उसकी माता ने एक प्राटे का कूमाड़ा बनाया और उसी का बध करने का माग्रह किया राजा ने माता की बात मानली और प्राटे कुकड़े का बध कर दिया। इस से यशोधर ने वल पश्चानाप किया और गृह त्याग कर तपस्वी बनने का निर्णय लिया । गनी को जब यह मालुम हया तो वह रोने लगी और विना पति के जीना ही व्यर्थ समझा । उसने राजा से प्रार्थना करी कि वह एक बार उसके यहां प्राहार लेवे उसके बाद दोनों ही तपस्वी बन जायेंगे | रानी ने राजा को एवं माता चन्द्रमती को विष के मद्दष्ट स्थिला दिये जिसके कारण गजा वध २ करता हमा पर गया । इसके पश्चात् रानी ने रोना पीटना प्रारम्भ किया। और प्रजनों को ऐसा आभास करा दिया जैसे राजा की प्राकृतिक मृत्यु हुई हो । यशोधर की मृत्यु से सारे नगर में शोक छा गया । राजा की५०० रानियों में से कितनी ही स्वनः ही मर गयी। कुछ ने वैराग्य धारण कर लिया। राजा का दाह संस्कार कर दिया गया । बाह्मणों को खूब दान दिया गया । काम ठाम घी ब्राह्मण माग्पा, बयर दान देवाय । धन कांचन करण घृत पणा, मणी वस्त्रादि अपार ||१| गड मश्व रप गो महीसी, मादि बाह दीघां दान । बस वाचर जीके बाहया, ब्रह्म भोजन विधान ॥३।
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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