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देवेन्द्र कवि
इसके पश्चात् राजा यशोधर एवं माना चन्द्रमती के भवों का क्रम प्रारम्भ होता है । राजा यशोधर मर कर स्वान हुग्रा और चन्द्रमति मोर हुई। एक दिन मोर चंद्रमती रानी के महल की छत पर था। वहां से उसने रानी एवं कुबडे को कुकर्म करता हुआ देख लिया । मोर ने कुबड़े को अपनी चोंचों से पायल कर दिया यशोमतीने मोर को पाला था जिसने लपककर मोरनी की गर्दन दबोच ली जिसमे बहु तत्काल मर गयी । कुत्ते को बनमें दोड़ते हुए बाघनीने खा लिया । इसके पश्चात स्वान मर कर सर्प हुआ तथा मोर मरकर सेहलु हुई। जब सेहलु ने सर्प को देखा तो उसकी पूंछ पकड़ कर चया लिया । अगले भवन सेहलु मर कर बडा मगर हुआ और सर्प रोही ( संमार) हो गया ।
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एक दिन राजा की नर्तकी तलाब पर नहा रही थी तभी उस मगर ने उसे पकड़ लिया। जब राजा को समाचार मिला तो मगर को पकड़ने का आदेश हुआ । अन्त में उस संसुमार ने मगर को पकड़ लिया और लकड़ी मूसल श्रादि से उसे खून मारा । बहु अत्यन्त बेदना के साथ मर गया और नगर के समीप ही बकरी हुई। कहां यशोध राजा की रानीहांजीत सत्सकले को मारने से गति प्राप्त हुई । रोहित मर कर बड़ी मछली हुई । जिसे तल २ खाया गया फिर वह मर कर बकरा हुआ। बकरा मर कर पुनः उसी बकरी के गर्भ से बकरा हुआ 1 बकरा मर कर पुनः भैंसा हुआ जिसे वरदल बाजारा भार लादने के काम में लेने लगा । वे फिर दोनों मर कर मुर्गा मुर्गी की की योनी में पैदा हुए। उन दोनों को मुनिराज से धर्मोपदेश सुन कर जाति रमरा हो गया तथा व्रत ग्रहण किए ।
तव श्रमे बेहू कुकड़े, सुयुं अश्मनि भवांतर सार ।
जाति समर उपनु सही, श्रहमे पर बीघा वरत भवतार २९॥१०२॥
दोनों मुर्गा मुर्गी प्रसन्नता से क्रू कू कर रहे थे तभी राजा ने दोनों को शब्द भेदी बाण से मार दिया। फिर वे ही कुसुमावली रानी के गर्भ से पुत्र पुत्री के रूप मे पैदा हुए। जिनका अभयरूचि एवं प्रभवमति नाम रखा गया। कवि ने शोचर एवं चन्द्रमती के भवों का निम्न प्रकार वर्णन किया है
श्रमृायि जसोधर चन्द्रमनी मारया, मोर कुतरा भव भव भागो रा तीहां भी मरी सिहिलो सांप हवां, बली रोहीत ससुमार । चन्द्रमती छाली हवा तेह गर्भीराव याग हबो वे बार सा०||२५||
चन्द्रमती महीम योनि पढ्या तहां भी कुकड़ा हवा हु । कृतम जीवद्दि साफल माम्या, भवि भमतां नही ह || सा ||२६||