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बाई अजीतमती एवं उनके समकालीन कवि
सूर्य कांति सूरज ने तडिकि । दीसि कही एक मानी भरपके। मृग प्रावंतां संके ॥३॥
चन्द्राप्ति निसि चंपने तेजि । जल पर वाह भरण होड सिहिजि ।
नदी वाघि ससी हेजि ॥४॥ काही एक रातां किरण विस्तरए । आणी सीमाल रुधीर मही झरए। क्षण चाटता फीरए ।।५।।
कहीं एक पीला किरण विस्तार । हरी व भय न करे संचार ।
भूली ता गमार ॥६॥ नीलकिरण विस्तरए दीहि । चक्रवाक वियोग मुंयविहि । निसि समय लेखिसीहि ।।७।।
भीलते चंदुक सीलापि अपार । घसतां बाण वलगे ते वार ।
देवी कही मागि गंमार || तरु फूल रेणु पवन घणं, बड़ए । नदीम नीर माहि ते पडए । कनकह उपमा घडए ।।॥
धनबाडी सेह काठे सोहि । अनेक वृक्ष लक्ष मन मोहि। कोए तक नि:फल नाहि ।।१०।।
नदी कांठि तर फल्या अपार । अलिपिसि प्रतिबिंब विचार । कर वा प्रति उपकार ।।११।।
द्रह माहि चपल खेलता मछ। मोती सीपउ डा पुछि। पहि तसि मोती अनुछ ।।१२।।