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________________ २१३ बाई अजीतमती एवं उनके समकालीन कवि सूर्य कांति सूरज ने तडिकि । दीसि कही एक मानी भरपके। मृग प्रावंतां संके ॥३॥ चन्द्राप्ति निसि चंपने तेजि । जल पर वाह भरण होड सिहिजि । नदी वाघि ससी हेजि ॥४॥ काही एक रातां किरण विस्तरए । आणी सीमाल रुधीर मही झरए। क्षण चाटता फीरए ।।५।। कहीं एक पीला किरण विस्तार । हरी व भय न करे संचार । भूली ता गमार ॥६॥ नीलकिरण विस्तरए दीहि । चक्रवाक वियोग मुंयविहि । निसि समय लेखिसीहि ।।७।। भीलते चंदुक सीलापि अपार । घसतां बाण वलगे ते वार । देवी कही मागि गंमार || तरु फूल रेणु पवन घणं, बड़ए । नदीम नीर माहि ते पडए । कनकह उपमा घडए ।।॥ धनबाडी सेह काठे सोहि । अनेक वृक्ष लक्ष मन मोहि। कोए तक नि:फल नाहि ।।१०।। नदी कांठि तर फल्या अपार । अलिपिसि प्रतिबिंब विचार । कर वा प्रति उपकार ।।११।। द्रह माहि चपल खेलता मछ। मोती सीपउ डा पुछि। पहि तसि मोती अनुछ ।।१२।।
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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