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श्रीपान चरित्र
चौपई
मी की वृत दी सुभसार | जो चहुंगति कुल छेदन हार ।
यह स नि मुनिवर जपं एह । धनि । जिन यह को नई ॥२७० श्रीपाल द्वारा मुनि दीक्षा ग्रहण करना
बहरयो तू भव दुष न लहैं । जामन मरन सब भी है। यह सुनि श्रीपाल जीय पर्यो । सिमां सिमंतर सबस्यो को 1।२०१।। मित्र भाष सबलों परगासि । राग रोस दोन जिय नाषि || पुनि सेहर मगि नषित सीस । छिन मैं लयो उतारि नर ईस ॥२०२।। कंकन कुडल दीए डारि । मूके वस्त्राभरण उतारि ।। पंच महाप्रत पर चित्त दियो । पंच मुठि सिर लुचन कियो ॥२०३।। वास्याम्यंतर गुध संभयो । अति निर्ग'थ भयो गथु गयो ।। जो हौं सब सुष सेबन जांनि । तिन दिल्या खीनी परवानि ॥२०४|| कुशपहू रानी सुभ बित्त । अजियो को वृत लियो पवित्त ॥ मैंनासुदगि सब सुष कर्न । दिण्या लीनी जिनवर सर्न ।।२०५॥ बछाभरण भोग सब गर्नु । छिनमै छाडि दियौ तिह सव॑ । रेनमंजूसा अर गुन माल । तिनहूं दिव्या लई गुनाल ।।२०६।। चित्तरेह पौमा परधान । और ज अंतेवर कल्लु पान ।। दीक्षा सनि लई घर भाउ । माया को सब तज्यों उपाउ ।।२०७।। और जु हृते सातस अंग । दिष्या तिन हूं गही अभंग ।। जो कछ राज मित्त है और । दिष्या सनि लई तिह मैंर ।।२०।। मध श्रीपाल भ्रमैं बतराइ । महा मुनिसर भयो शुभाइ ।। ताके सिर परि ग्रीषम भान । महा तप को कहै वषान ।।२०।। वर्षा मीत पर असरार । सह दुष मनमैं अधिकार ।। कृष्णागर वहु कुकुम गारि । तन चरचतो निहारि निहारि ।२१।। सीत तुसार छाया ता देह । तपमै तो जान्यौ प्रति नेह ।। घालं महावरा की छांह । इन्द्रो बन डाल्यो छिन माह ॥२१॥ दिख चरित्र धर्यो जिय जोइ पिठावीस गुन पार सोई॥ निज पद पारा गुन राउ । भ्रमैं अकेली पित्त शुभाउ ।।२१२॥ देइ जोग बन भीतर जाई । बहुत सह उपसर्ग सुभाइ ।। धरं ध्यान अति धीरी चित्त । ठाडो मानों मेर पबित्त ।।२१।।