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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
मास एक दिन लेह अहार 1 सहै परीसा बाईस सार 11 पावस रित द्रम तरि सौ रहै । ग्रीम रित गिर परि दुष सहै ।।२१४।। सीत मास सागर के तीर । जोग देह दुप सहै सरीर ।। बहुत भई प्रति पीनी देह । छांडे सर्व सुप मद नेह ॥२१५।। हिम पटल तन छायो ताहि । सब मुष नहिए तात न चाहि ।। एक ध्यान ठाढौ सो रहै । कोऊ ताको भेद न लहै ॥२१६।। कोऊ कहै चित्र निरमयो । काह तन पाहन की चयाँ । कोऊ कह काऊ को देह । मन बच क्रम में थिर नेह ।।२१।। बनचर जीउ न भी मन धरै । तासौं देह घसे सूष करें ।। पंषी बैठे अरु उडि जाहि । ताकी संक न कछ करांहि ॥२१८।। हंस तुल्य की संज्या बीर । जो सोवंतो साहम धीर ।। गिर कंदरा सैन सो करै । कछुन दुःष अपने मन धरै ।। २१६।। जो चलती बहु दल बल साजि 1 हय उपरि जो पढतों गाजि ।। विनहि सुखासन चलतो राउ । छत्र छोह चलती परि भाच ॥२२०।। ताके सिर प ग्रीषम भांन । महा तपै को कर वषांन ।। वर्षा सीत परै असरार । सहै दुःष मनमै अधिकार 1॥२२१॥ कृष्नागार बहु कू कम गारि । तन चर्च ती निहारि निहारि ।। सो तुसार छायो ता देह । तवते' अय यासौं अति नेह ॥२२२।। अट्ट सहस्र त्रिय रमतो हो । सहै परीसा घाईस सोई॥ मन बघ काय बिचारं चित्त । जान एक सत्त अरु मित्त १२२३।
दोहा भोपाल मुनि को कैवल्य प्राप्ति
तप करत मन सुद्धधर, कियो करम को नास । ताको उपज्यो विमल पद, केवल ग्यान पयास ।।२२४।।
चौपई गंषकुटी की रचना
आसन कंपे देवनि तर्ने । प्राए सब सुर जै जै भने । धनपति निर्माप्पी सुभयान | गंधकुटी रचियो परवान ।।२२५।।