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________________ ४ লাল অঙ্গি जननी भार धरं दस' मांस । दुर्जन डर न ताक त्रास ।। जाविंग जाकी पास न करै । ते मुत गर्भ माहि किन गरे ॥१७॥ तुमतो सब लायक गुन सार । सीघ लेहु राज को भार ।। लभिजत हे जु' नवाबो सीस | अनि रूपो देख्यो नर ईस ।।१७।। यह सुनि कुबर कियो थिर चित्त । राज भार तब लयो पबित्त ।। राम हरष सुत क्रौं मुष चाहि । राज पट्ट बांध्यो सिर ताहि ।। १७३।। कहै राक सुनि कुवर सुजान । नीक फरि मिख' ले परवान ।। सील भार जे अंचहि बंध। पररव नी की देषत अंध ।।१७४।। मिथ्या दरमन देषन जांहि । लोचन सफल सदा सरमांहि ॥ विष राग कबहु नहि सुन । मिथ्या कथा ने मनमें गुन १७५॥ अर कबहुं न सुनै परपीर । तेइ सफल श्रवनसुनि बोर ।। नाना विधि के पहा अपार । जिन की प्रति सुबास अधिकार १७६।। तिन ने प्रमुदित रोई गुचित । नापा सफल जानियौ नित्त ।। कबहूं होन बात नहि चर्व । वाब हूँ'गुन पासाप न तबै ।।१७७|| स्वाद प्रमाद न मांने सोइ । रसना सफल मानिय जोड ।। सुरत संग नहि बंछ चित्त । मंद्री सफल महा सुनि निस ॥१७८।। दया भाउ मनमै राषियौ । मधुर बैन सबसौं भाषियो । न्याय पंथ पर लिए न जानि । तजिए नहीं धर्म की बानी !।१७६।। सुष रहियं माया के पास । पुयन सौ रहै उदास ।। पिसुन बात सुनिय न हि काम । जीव में न दीजिय जान ।।१०।। पर उपगार कीजिए प्रीति । वौल सांच राज की रीति ॥ कबहूँ लोभ न कीजे चित्त । परधन परदारा परमित्त ।।११।। बहुत देस पुर पटन जिते । मुजयल जीति कीए बसि तिते ।। सुत संतोष चित्त मति करौ। बरी विभो त्रषा मति धरी ।।१८।। बहुत सीप दीन्ही अधिकार । प्रापन बन पग धारं सार ॥ बन मछत जानियौ नरेभ । यो पुरजन सकल असेस ।।१३।। कोऊ रुदन कर दिलषाइ । कोऊ बिलसं प्रति सुषपाद ।। कोऊ कहै बुरी अति भई चंपापुर की सोभा गई ।। दयावंत सब सुष को धाम । रूपवंत माने सुर काम ।।१८४।। महाबली भुजवलि उदारि । दल सुडोल पछ कवं विचारि ।। राजरीति धिसी राम । महि मंडल में जाको नाम ।।१८५।।
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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