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________________ बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि समुद्र विजय मिवादेवी यंद. तीन मुवन माहि रे हवो आणंद । तु जनमि बाध्यो धर्म कंद, तुझ चररिंग नमि देवता वद । ३ । हरिवसं नभसी तु उग्यो सूर, नेमीनाथ तुरे बलवंत भूर । जेणे जोबन पगिण तजि नारी दूर, मोह मयण रायतितो कीधा चूर ||४|| वारिध सुर सुभट सुराय, सुः मा जन माहिर जाप । क्रम लावा तीतर चरणे चंपायि, ध्यान मोर दहुका रंग उपायि ॥५॥ सागवाडा नयरे चि बहु अास, श्रीम संधनी पुरचो स्वामी प्रास । सुभ असुभ कर्मनो करो बीनास, बाइ अजीतमसी ए बोली भास ॥६॥ धन जोबन ठकरी बहत परी । तेह प्रतीत हये । तीन भुवनि के राय उलि बल सबहि अतीत भये ।। १।। ।धन।। चेतो चेतो रे तह्मि बापु रे, लक्ष चौरासि बहु तफ पाये । काबहि न छाडे भये । धन जोवन ॥२॥ दरसन ज्ञान चरण तप बहुत बार लहे। मोह मयण रायि जब कोप्पो तब मुझ कु न रहे | 'धन।।३।। हैं किसको नहि को नहि मेरो जब सुन्य ध्यान घरे। कर चंडौ बाइ अजितमति कहे तेस के काज सरे ।।धन॥४॥ राग बसन्त Hi n adine हुँ दलिहा। चेतन की, जो चेतन सुचित लाये रे । वसुकवाद लि पायाघे तो ते सहु विकटी जाये रे ।।१।। मोह फांद गति फांदीयो, तोह जु भनचेते काय रे । प्रकन अरुषी ज्ञान सरुपी, ते तुझ क्यों न सुहाय रे ॥२॥हु।। जे विनासि पवारण दिसी ते उपरि बह रंग रे । मोहनि कर मिहु लपटापो, तो फीफी पम्यो भंग रे ।। ।।३।। जासु पयास भवदु तर तरी शुभ सुदर सीपु जाय रे। कर जोडी बाइ अजितमति कहि, सुद्ध भाव धरो मन लाइ रे ।।हु ।।४।।
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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