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राग केदारो
तू तो वृषभ जिनेस्बर वृषम जन सहु कृत वृषभ लांछन सोवनमि' काया करी मोहि राया वृष मगट को राजसह परहगी मुगति ग्यरिग सुति चित्त लाया ॥१॥ कुमार पदवी सलाग्य पूरबगयो. त्रिसिट लाख पूरब काल सुखमि हुयो । एक लास पूरब काल जब रह्यो, तब जिनवर वैराग भयो ||२|| लोकालिक देव जय जय करतु हि, जीव जीवतु नंद नंद । तप कुठार करी कर्म कानन वन, तेह नी कीधो स्वामीतिनी कंद ।।३।। नृत्य नीलंजसा देखी नी मीत करी, संजम श्री सृतिचित्त घरी ।। कर जोडी बाद प्रजोतमती कहि, मुगति रमणि जिन वेग वरी ॥४॥
राग कैवारी तु घेते चेतन चतुर नरा. मेग ब्रह्म भलो नही चिन्त थीरा । कर्म नो कर्म भावणि पाछादीयो, ते सुर सुभट तू जीत घिरा ॥१॥ रुदय कमल सेज्यामि सुत्रत हि, जागत ऐनस पास नावि । जनम जरा मरण दूरी करी, ते नर सिव पुरी वेगे जावि ॥२॥ दुष दमि जिम कांचन विराजतु हि, तेम देह मां देही तु परम देवा । त्रिकाल जोग बीरी कर्म सहु नजिरी प्रगति रमणि तुझ करइ सेवा ॥३॥ अतुल बल वीर्य पराक्रम पुरतु, तुझ सम नही कोइ परम जीया । कर जोडी बाद अजीतमती कहि. तुझ समरे मुनी मुगाप्ति गया ।।४।।
राग बसन्त
श्री सरसति देवी नमीय पाय, गाएसु गुण श्री नेमि जिनराय । जेह नामि सौक्ष अनंत थाय, भूरी पातिग भर दुरे पलायि ।।१।। सीव नारी मु नेम रमि वसंत, अतिसि सजनि वीघो मुणबंत । न्यान सरोवर सात रसि भरयू माहंत, मुनी हंसी की सरोवर सोहंत ॥२॥