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________________ प्रतिमानों का इन पदों में उल्लेख किया गया है। जैन कवियों ने इस प्रकार के बहुत कम पद लिखे हैं । प्रस्तुप्त भाग के चतुर्थ कवि भट्टारक महेन्द्रकीति है जो प्रजमेर की भट्टारक गादी के सन्त थे । महेन्द्रकीर्ति के पदों का प्रकासन भी प्रथम बार हो रहा है। डिग्गी प्राम के दिगम्बर जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत एक गुटके में इनके पदों का संग्रह मिला है। भ. महेन्द्रकीति पूर्णतः प्राध्यात्मिक सन्त थे। उनके पदों के अध्ययन से पता चलता है कि जैसे प्रध्यात्म उनके जीवन का प्रमून मंग था। कवि के सभी पद एक से बढ़ कर है। सरल एवं ललित भाषा में निबद्ध है। चेतन काहे भरम लुभाना एवं चेतन घेतत क्यूं नहि मन में जैसे पद कवियर मूघर दास, बनारसी दास, रूपचन्द द्वारा लिखे हुए पयों के समान है । देवेन्द्रकास इस पुष के अन्तिम कवि, जिन्हें महाकवि की उपाधि से भी सम्बोधित किया जा सकता है। देवेन्द्रकीर्ति १६वों एवं १७वीं शताब्दि के एक सशक्त कवि थे जिनका एक मात्र रास फाव्य यशोधर रास अपने युग का महाकाव्य है । यद्यपि काव्य की भाषा जटिल एवं दुरुह अवश्य है लेकिन जब रास का गहराई से प्राध्ययन किया जाता है तो कन्त्रि के काध्य कौमाल को देख कर मन झूमने लगता है । एक महाकाव्य के लिये जो प्रावश्यक तथ्य स्वीकृत किये गये है वे सब इस रास काव्य में है। पमोधर रास की कथा में पूर्व कवियों द्वारा प्रतिपादित कथा ग्रहण करने के पश्चात् भी कवि ने प्रत्येक घटना का वर्णन जितना गहन, रोमाञ्चक एवं अलंकारिक किया है वह अपने ढंग का अनूठा है । कवि ने राजगृह नगर, राजपोर नगर एवं प्रमन्ती एवं उज्जयिनी नगर चारों का बहुत विस्तृत वर्णन किया है। पवन्ती की शोभा का तो पूरे ४० गयों में वर्णन हुमा है नगर के वैभव एवं समृद्धि फा वर्णन करते हुए उसे इन्द्रपुरी से भी उत्तम नगर सिञ्च किया है। घनद तिहां एक प्रहां अनेक, इन्द्र घणा नर प्राहां मुविवेक चनुर घणा नर सुर गुरु समा, वणी घणी मोम तिलोतमा ॥४॥ मवे नार भर्ता उर्वसी, घिर घिर नार सुकेसी जी । रंभा जणी ऊर घणी माननी, रंभा वन मंडित भवनी ।।४।। इसी तरह कवि उज्जयिनी के बर्णन में इतना इब गया कि उसका वर्णन ५१ छन्दों में भी कठिनता से पूर्ण हो पाया है। काय ने घीन देश की साड़ियों का उल्लेख किया है । एक वर्शन में कवि ने लिखा है कि वहां स्फटिक के उतृग भवन थे इसलिये जब जाली में से चन्द्रकिरण माती थी ती भोली युवतियां उसे चन्द्रहार समझ कर दूलने लगती थी। जब कभी चन्द्रमुखी चे प्रकाश पर रात्रि को बैठ (xii)
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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