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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
जल गंधाक्षत पुहुप अनूप । नेवज दीपक भह सुभ धूप ।। फल नाना विधि अरघ चदाइ । अष्ट प्रकारी पूज कराइ ।।२३।। ताफै रोग सोग नहि रहै । अग्नि रूप दारिद्रनि रहै 11 पुत्र कलित्र वियोग न होइ । भूह पिसाच दुख कोइ ।।२४॥ डाइन साइन जोगन जाति । जे मसान गाजें दिन राति ।। इनकी मैन ताहि संचरं । जो को सिद्धचक्र प्रत धरै ॥२५॥ नेन निरंध नन हूँ लहै । रसना हीन वेद धूनि कहे ।। अवन हीन सब सुन सरूप । कुष्टी तन सौं होइ मन प ।।२६।। कनक बरन तन ताकी होइ । मन बच क्रम बत पाले सोइ ।।। सुष अपार भुजे पावं हम # म २७। पाच रतन हीर मनि चंद । पार्य हेम पेम सुष कंद ।। प्रतेवर अपचरा उनिहारि । पार्य इंछ जु मनह मझारि ।।२८।। होहि दास अरु दासि बने । सेर्व पति महि मंडल धनें ।। दंत गहे तिन मान हारि । नापस नैक न सकई दापि ||२६।। मुगै सुष जो मनमैं धरै । इन्द्र समान राज सो करें । अति महिमा को कहै बहाद । निहाचे सो नर मुक्तिह जाई ।।३०।। श्रीपाल जैसो फल लहौ । कवि परिमल्ल प्रगट करि कहो।। भविजन सुनौं सुफल तिय जांनि । यह बत भाराष परवानि ।।३१॥ एक चित्त राषो मन ध्यान | सुष निषि उपजं सोग्यांन ।। या संसार सयल सुख लहै । बहुयॊ मुक्ति पाइ दुष दहै ।। ३२४॥
काव्य उग्रं गोपरी रंचदुर्गमगढ़ रत्नं वरं भूषितं शं धीरे कृतिमंबरं मदगलं पाषान एरावतं । तन्मध्ये श्रीमानसिंह अधिपते भूलोकदर बंद्यले । तराज्य सुरनाथ तुल्यगवितं तत् केन संवर्म्यते ॥३३॥ सुजस रजत कुसलो नामेन चंद्रनयं । मत्सुत्रो गुरु रामदास विपुल मुक्त त भोग्यं सदा ।। तत् सुनुकलदीपकस्स्तु प्रकट नामा सकरणो सुमं । तस्पुत्रं परिमहल धर्मसदनं ग्रन्थं इयं क्रीयते ॥१४॥