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बाई अजीतमति एवं उनके समकालीन कवि
मिथ्या कर्म उदै भया तास , सेवं मुरभिस्या को स. कपहूं जन पंथि नहि जाइ । मिथ्या ग्यांन सुने चित लाइ ॥११॥ एक योस सातसं अंग । वन क्रीडा पहुतो ले संग ॥ मुनिवर एक वेषियी इसी । जाने चेतन गुन है जिसी ॥१०॥ सह परीसा माईस सार । मलिन देह पीती अधिकार ॥ हेम पटल सौ रहियो डाह । रवि प्राकार न बरनि जाई ।।१०३।। ध्यानांहढ सुद्ध मनधीर 1 देह जोग ठाडो गंभीर ।। ताहि षि सिम प्रसुगुन कियो । कोही कोडी जैपन लियौ ॥१४॥ सागर मै हरवायो सोइ । ताको मन घलु नैक न होइ ।। पुनि करुना वसजी मन आइ । जलमैं सैनिकसायौ घाइ।।१०।। कन्नु पाप को बंध वं गयो । निज मन्दिर मो पावन गयो ।। अंनह दिन बन मयो तुरन्त । वेष्यो तिन मुनिवर पावंत ।।१०६॥ पर मत नु जाने मुनिराउ । राग रोस छाइयो बरि भाउ ।। घोर धीर तइ पीनों मंगु । भरयो घूरिसो धीमै मंगु ||१७|| रत्नत्रय व्रत ध्यावं चित्त । मांस एक विन पाहार निमित ॥ पाषत हो सो नगर मझार । देगि राइ दुष कियो अपार ।।१०।। पोल्यो मुनियर सौं तिहबार । तै कत षोई लाग गंवार । नांगो भयो फिरत बेकाज । काया मैलो अति वेसाज ||१०|| मार मार करि उठियो चाहि । असिवर लै सिर काटी याहि । बहु उपसर्ग तास को करयों । बारंबार भृष्ट उपरयो ॥११॥ प्रति हास्य कियो सा सनौं । कवियन कदै कहालौं भनी ।। बहुर्यो कृपागंत पति मयो । ताहि वंचि प्रागै चलि गयो ॥११॥ महा पाप बंध त गयो । काहू नै श्रीमती सौं करो ॥ प्रजुगत बात करत तो कंत । मुनि निदित डौलत विहांत ।। ११२॥ कबह जलम देत हराइ । भांड भांड उपसर्ग कराई। यह सुनि रानी विकरत भई । यह बात सौचन नई ॥११३।। कौन पाप यो करत गवार 1 जानत नहिं धर्म व्योहार ।। महा कुसंगति सो क्यों भई । हा मिपि करम कहा ते ठई ।' ११४।।
दोहा
यह चितति रानी हिय, मलिन भई जिसषाइ ।। निदा अपनी करत सो, पौडि रही मुरजाह ।।११५।।