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श्रीपाल चरित्र
चौपाई
राजा श्राय गयी ति बार । पहुत्यो सो रांनी पंधार ॥
जो दे
तो बिलसी भाइ | लागी पूछन सकुचत ताहि ।। ११६ ।। ग्राम पियारी ए बरनारि । कारन कहा सु कहहिं बिचारि ॥ ह्सइ न बोलें जी मुरझाइ । रांनी कहि विरतंत सुनाइ ॥। ११७ || बोली एक चेटिका तबै । राजा बात सुनों यह श्र ॥ तुम श्रावक व्रत दीयो सुनेर नि ननमहि ।।११७॥
अरजन मैं दीने डरवाइ । करि उपर्म तब लिए कढाइ ॥ बाहू गोसों कट्टियो ६ तरतें । पक रही मुरझाई १,११६॥ यह सुनि राउस लज्जित भयो । अपनी चुक जोनि परनयो । बार बार जप है त्रिया मी पापी कर्मु सब किया ।। १२० ।। मो तैं अशुभ उदय भयो भाइ | सेए मिथ्या गुर के पाइ ॥ ताकी सीष नीकै सुनि लई | नांदी सुमति कुमति अति भई ।। १२१ ।।
पापी पातिक की मूर हों गुम हीन महा जड़ कर ॥
हों अभिमान महा मद भरी । देषत संघ कूप में परो || १२२ ॥
तुम सौं कहा कहीं हो साखि । नर्क पंथ तें ले मो राषि ॥ राणी वचन सुणे ए जये । दयावंत हूँ बोली तर्ज || १२३ ।।
स्वामी तुमी सन जुगती करी । धर्मकथा मन तँ बीसरी मुनिवर निदे प्रति दुषदयो । सुनि के मोहि महा दुष भयो || १२४ ।। अब तुम सुनहु धर्म की रीति । बहुत न्याई मति राख्यो प्रीति ॥ जिन सासन वृत निवे जोड़ | भवमैं चनुंगति भ्रमि है सोइ ।। १२५ ।। जो पापी निर्दे बहु भाइ । सो निचे करि नकह जाय ॥ पंच प्रकार सुदेषहि दुःष किंचित कहून पावे सुख ।। १२६||
सोप्रांनी पीडिये दुषा । कंपित सूली दीजें जाइ ॥ पुनि उषल मैं छरिये सोइ । मूर मेट जब ताकी होइ १२७।।
बहु
उपजे ताहि सरीर । बहु दुःष पावै प्रानी कीर ।। संडासनी तन तोरे मारि। नीर्द ताहि देइ बहु गरि ।। १२६ ।। गाली रांग ताकी मुष भरं । कुसघाइनि मुहं ल चौकरं || ददाति श्रवि पुतरी लाइ भेटावे गर कंठ लगाई ।। ११६ ।।