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बाई श्रजीतमती एवं उनके समकालीन कवि
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परत्रिय रावन लेहु सुप एह । भोग कर यासों करि नेह ॥
कछु जीम मति करहु संताप । सो कहि यौन कियो तं पाप ॥१३०॥
ते जिन व्रत मेमन उ तें परधन हर्षित है हरयी ॥ मुनिवर निदे अनिवार दिन कारन दुष दये अधिकार ।। १३१|| तं पर हर्यो सीलव्रत जांनि । तू केवल पापिन की पांनि ।।
यह दुष भुजि जाह संसार । करहि धरम रुष अंछि गवार ।। १३२ । ।
सुन स्वामी नरकह दुष इसी । तो सौं मैं जु प्रकास्यो तिखौ || या भवमें कछु पुन्य उपजा । मुनि पैं जिनवर व्रत ले जाइ ॥ १३३॥ यह सुनि राजा त्रिया समन । पहुच्यौ जाइ जिनेसुरथांन ॥ कहां मुनीसर देयों बीर । सुष की निधि ग्रह गुन गंभीर ।। १३४||
ग्यान घर त्रिसुध उदास । बंदे चरण कवल सुभ जाल ।। जप राउ जोरि ही हाथ ही पापी प्रति सुनि हीं नाय ||१३५|| बहुत पाप में कियो विचारि नरक पद्धते लेहु उबारि ॥ धर्म पयासि पंद्रह धरन श्रबहू मायो तेरी खरन ॥ १३६ ॥ श्रीपाल द्वारा पूर्वभव में सिद्धचक्र व्रत ग्रहा
यह सुनि मुनिवर भयौ दयाल | सिद्ध चक्र व्रत ले भूपाल ।। तास होइ पापक छेद । ताकी जुगति सुनौं यह भेद || १३७||
कातिक फागन मास घसाढ | स्वेत पक्ष सब सुष की बाद || अष्टमी दिन उपवास कीजिए। वसु दिन सिद्ध चक्र पूजिये ||१३८ || संत निसिजागरन करेइ । दान सुपात्रहि सो पुन देह || वसु दिन फील बरत पारिए । भेदाभेद चित्त धारिए ।। १३९ ॥ पुनि जोवन करं धरि भाउ । करं प्रतिष्ठा प्राय बनाउ ॥ अथवा सांतिक विधिकों करें। श्री जिन पूज करें भी हरे ।। १४०॥
अजिया सारी दी जानि । पुस्तक दीजे मुनिवर मांनि ॥ भृंगार तारक दीजे इते । या प्रवान कहे हैं जिते ।। १४१ ।। श्रीगरणहर भाष्वौ व्रत एह करें जो यह सुनि राज जिनेस्वर वदि । त्रिय
सुख भूजे सिव गेह ॥
संयुक्त गृह गर्यो अदि || १४२ ।।
गह्य वृत मन बच अरु काय । पूर्जे सिद्ध चक्र सुष पाय ॥ तीन धार सो देइ प्रवानि । जनम जरा नासन सुष पानि ॥ १४३॥
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