________________
Tई अजितमती एवं उसके समकालीन कवि
परमाकषि मुनी स्मरण विशेष 1 रोग मस्तकनो आय गली ए ।। सर्वावधि मुनीने जन्ममूर्त । जाणे । हणि पनीर ।। अनंत अवधि जाणे जग स्वरूप । शम्म ग्रह रोग हरिए । कोष्ट बुधी रुधी परभाव । शूल गुल्मोदर नाश करेय ।।५।। सर्वशास्त्रनू बीज प्रबर लही जाणि सर्वशास्त्र ।। बीजबुधी स्वास सही होए । श्रुत लही माहोमाहि वैर लहंत ॥ और तजि पदानुसारी गुरिणए ।६॥ सभीन श्रोत्र मुनी रीध्य ध्यायंत । स्वास खास क्षय रोग हरे ए ॥ सयं बुधी रुषी मुनी तणं, ध्यान | कवित कला फल जगि जोविए ।।७।। वाद विद्या होय जेहनि ध्यान । प्रत्येक बुषि मुनी कला ए॥ बोत्रीत बुधि वुधी गभिर । तत्त्व पदारथ जारपी रह्या ए ।।८।। सरलपणे मन चीत्पो पदारथ । जाणे रुजू मनी रुधो घणीए ।। विपुलमती कहिं कुटिल विचार । मन अर्थ चिता घणी ए ॥६॥ जेहनी भक्त नर सहं जाणि अंग । दशपूर्व रुधी गुण जाणीथिए । स्वसमय पर समय लहि मेद । चौदस पूर्व बसारणीयिए ।।१०।।
अनेक प्रकार जाणे निमित्त । अष्टांग निमित्त कुशल मुनीए ।। ऋद्धियों का वर्णन
प्रणीमा महिमा प्रादि रोधी दातार । विकुर्वण कृघि छि पावनी ए ॥११॥ लघु प्रणु सम मोटू मेक समान । सरीर करि रिधी बलें ए ।। प्राकाशगामिनी ध्याता दीधि । सीधी विद्याधर रिषी फलिए ॥१२॥ हृदयचीता मुष्टीगत वस्तु । चारण रुघी जाणि सहीए ।। अंग साथि जारिग श्रुत मुनीन्द्र । पण समणाण रुधी कहीं ए ।।१३।। मेरु सीखर जई स्पर्श करत । आकाशगामि रुध तणे फलिए ।। प्रासी वीखि रौसि दांत पीसंत । चक्रवत्ति सैन्य क्षणि बलिए ॥१४॥ जो फरवति तनु करे बेखंड । कोप न करें सही क्षमा बलिए ।। दृष्टि दिख जो क र करि दृष्टि । चक्रवत्ति सेन नो ठाम टले ए ॥१५॥ घन धन मुनीए बडी छती सक्त । पप को प्रति कोप न करिए। तेह रूपी मुनी ध्यातां सुणो राय । अनेक प्रकारे विख हरिए ॥१६॥ धीर परिण तप थी न चलंत । उग्र ताप कधी फल लह्यो ए । सरीर कांति जाए मंधकार । जिनवाणी जिके मिथ्यात कझो ए 1१७॥