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बाई मजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
करें कूबडो प्रासंघती । ते कर रह्यां झाड । दांत उघाड़ा सबा रिहि । सकन खाणे संग ॥१२॥ रूप एह यो हो मिल गयो । कोदोयो सरीर ग़पार । काम ठाम कीठा मधवचि ! पासि फूरडो गमार ॥१३॥ तेहू पण वीठते हषु । हूं हरक्षो मन माहि । हवि ए जोडू सरळू ययू । देवतणी गत्य चाहि ॥१४॥ महिष मांस में रुचि नहीं। मम बोली से दुष्ट । कुपर जसोमती मन रली । क्लतु बोल्यो द्रष्ट ।।१५।। प्रयोनी संभव ए बोकडो । पितरानि कहयो योग्य । जसोधर नि चन्द्र मती । एगि स्थगि पामि भोग ।।१६।। तब तेणि जांघ छेवाबई । मझ तणी प्रतीय । भूष तरस दु:खि पीडियो । पिर पिर पांडू रीव ॥१७॥ से सेकी सराप करप । मुझ निकलप्पु चंग। खाधू मासु सुसे मली। लेई मुझ नाम उत्तंग ॥१८॥ मितु काई लहूं नही । सहयूतीयच गति दुःख । मिथ्यातहि साफल सही । साहू तृषा चहू भूष ॥१६॥
मास मारबाहुनी चन्द्रमती नु जीव स्वानमें साप । मरी इकोसिसो मार जे पाष । मरीनि खाली जे हवीसपो ए ॥१॥
जसोमती कुंअर हणी जे जाण । फलिंग देश हवो महीख वखाणों।
बरदत्त साहा घेर भारवाहिए ।।२।। परबत प्यापारी का महिष
तीणों सींग नयण छि रातो । मोटी मयोड़ी दीसि मद मातो। जातो हाथी सम मलपवोए ॥३॥
सासू मोटु' मुख मोटु विसाल । महिख सू बढतो जाणे काल । पालवी नाथ ते बस करधो ए॥४॥