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अजोतमति एवं उसके समकालीन कवि
व्हा
अंत:पुर सज था, पावेए मन प्रानंद ॥ बिसी सुखासन पालखी, सखीनां साथि बृद ।।६।। कंचूनीया अनुगामी, प्रामि कनक दंड धार ।। वाडी धवलहर माहि माहि रमिसुविचार ॥७॥ राय चाल्यो तब नेलवा । खेलवारु छि साथ ।। हाथो घंटा चालि मलपती । जलमती हय नर नाय ।।८।। अनेक राय घण' मंडीयो । खडीयु रीपु दलमान ।।
उडी रज खराया मही । रहोयो ऊ पाई भान 11६|| सन्तोत्सव मनाने राजा का बाहर जामा
राय चाल्यो तब जाणीयो । प्राणीयो लोकि पाणंदी ।। क्रीडा कर वा उछक्क हवा । कि हिबा लागा नारी वृद ।।१०।। सहा प्रात्रु ब्रह्म सांथि । ए नाथि दीधी सीस ॥ आगि नारी वली परीय । पिहरीय चीर सरीय ।।११।। पिहिरा पोती भरी कांचली । चंचली अांखें अंजेस ॥ बंटी करवा आभूषरण । भूषणडा बहु लेय ।।१२।। वीछोया पागडां घूधरा । नेउरनू झमकार ॥ हंस गामिनी जाणे मंगल मेखला नु धमकार ।।१३।। मोतीयुनु हार ललकि 1 ढलिकि टोडर कंटे चंग ।। एक दाणीज बली पद कडी । जडीय छि रतने सुरंग ॥१४॥ मोहोडीयि सोहि बिहिषो । सिहिरषी चंपाकली हार ॥ करवली कंकण चूडीय । रूडीय मूद्रडी सार ॥१५॥ नाके अमूलफ मोती । पनोती कानें सोही झाल । नलवट टीलू जडाव । सोहावि ए पीसलदो गालि !1१६।। सिंथो फूलो सेस फूल । प्रमूलक राषडी वेण ।। गोफण झुललकावि । लोडावि बाहुडी तेरण ।।१७॥