SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपाल परित्र फुष्ट व्याधि त लषी उधार मानहानी नाति दूहूं परसपर मुष अपार । भोग भोगये विविध प्रकार ॥२३३।। जिन मंदिर दिन दिन पग धरै । निज गुर की ते प्रस्तुति करें। बिल से बिभौ देहि बगुदान | गुनी जन गर्व लहै तिहा मांन ||२३४।। अहि निसि सिध जंत्र गुण माहि । मूल मंत्र जप पूर्जे ताहि ।। महासुख उपनौ नौरंग । सेवा क. सात से अंग ॥२३॥ इति श्रीपाल परित्र महापुराणे भव्य संग भंगल करणं । बुधजन मन रंगम, पातिग गंजन, सिघचक विधि दुव हरणं ॥ त्रिभुवन सुष कारण, भषजल तारण, सौपई परिमल कृतं ॥ बरु सुवरि पाई, विषा गुमाई, श्रीपाल सुख राज करे ।। ति x x x x x x इसके पश्चात् श्रीपाल का जीवन ही बदल जाता है। यह विदेश यात्रा करता है । चारह वर्ष सक विभिन्न द्वीपों में भ्रमण करता है । उसे यात्रा के मध्य में अनेकों विपत्तियों का सामना करना पड़ता है । लेकिन अन्त में वह पूर्ण सफलता प्राप्त करता है। अन्त में पूर्ण बंभष एवं सेना के साथ वह वापिस मैंनासुन्दरी के पास लौटता है । कुछ समय तक अपने ससुर के यहां रहने के पश्चात् यह बापिस अपने देश को लौट जाता है । x x x x x x
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy