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बाई अजितमति एवं उसके समकालीन कवि
धर्म पसाइ सुरभि तनु होइ । धर्म पसाह जाइ गद गोइ ।। धर्म पसाइ मिल वरनारि । ससि यदनी रंभा उनिहारि ।।२५।। अमृत वैन सुष को धाम । सील धुरंधर से काम ।। धर्म पसाइ हो हि सुत घने । जिनकी सोभा कहत न बने ।।२६॥ धर्म साइ सेज सुप बसे । धर्म पसाइ काल नहि उसे ।। धर्म पसाइ न बैरी लरं । धर्म पसाइ छिद्र नहि छरें ।।२।। धर्म पसाइ सिंघ बसि होइ । धर्म पसाइ जाय गज गोइ ।। धर्म पसाह ज्वाला नहिं जरं । सो प्रांनी अतुर है परं ।।२।। धर्म पसाइ शेर मरि जाइ। धर्म पसाइ परं सब पाई ।। धर्म पसाइन मूस चोर । धर्म गसाइन व्यापं घोर ॥२६॥
धर्म साइ होह जल पार । नदी सरोवर सागर पार ।। धर्म पसान दोहै घाउ । धर्म पसाई मिटै पल भाउ ॥३०॥ धर्म पसाइ देव बांस रहै । बम पसाइ मली सब करें। धर्म पसार उचाटन लगे । धर्म पसाई देषि रिपु भंग ॥३१॥ धर्म पसाइ अघ मुंबन लहै । धर्म पमाइ सोक सब बहै ।। धर्म पसाइ धरम मति होइ । माया मोह निवारै सोइ ॥३२॥ धर्म पसाइ देह वह दान । धर्म पसाई मिटै अवसान ।। धर्म पसार पंषत घरं । भव में दुःष सर्व परिहरे ॥३३॥ धर्म पसाश डिग नहि चित्त । माराचै जिन नाम पवित्त ।। धर्म पसाइ कर्म को नास | धर्म पसाई ज्ञान परकास ।।३४।। धर्म पसाह वहस को कहै । प्रानी मुक्ति जाय बर लहै ।। इंद्र आदि सब से पाई । बहुरि न भव में पाये जाइ ।।३।। धर्म पसाइ मी गति होइ । धर्म पसाद मुक्ति पर सोइ ।। धर्म पसाइ पंच पद होइ । ताते धर्म करो सव कोच ।।३६।।
बोहा
धानी सुनौं चरिस सब. अरु देषी जिय जोछ ।। धर्म हितु संसार मैं, जात सित्र पद होइ ।।३।।