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श्रीपाल चरित्र
कडक कीन्ही सुन्दर माल । स्वेत मरुन देधिए विसाल ।। कम कुसुम भति झूटे सए । भरि भरि अंजुरि जिन को दए ॥२०॥ नइवेदक पकवान प्रपार | श्री जिन मार्ग रचे प्रबार । बारि परे तहां दीप भनूप । पेयौ बर कृष्णागर धूप ॥२०॥ नाना विधि फल घरे सवारि । मनबंछित को कहे विषारी !! श्रीपाल पूजा की जहां । माठौं तथ्य चलाए तहां ॥२०६।1 कुसमांजुलि दे सिर नाइयो । दुष्य जनांजलि पानी दयौ ।। प्रथम ज पूषा इक गुनि करी । न न दह गुन वितरी ॥२१०।। नीज सौ गुनि पूजा सची । सहस गुनी चौथे दिन रची ।। पंचम दससहन गुन भनी । समगुणी षष्ठं दिन तनी ।।२१।। सातै दिन दसलक्षण गुणी जानि । प्रष्टम कोटि गुणी परवानि ॥ ठासे सब सुर कौतिग हार । मनमें कीयो हरिप अपार ।।२१।। प्रति सुकंठ लीनी माल । उपज्यो कौतूहल तिह काल ।। सुंदरि महा पारती रचे । इंद्र इन्द्राइनि दोऊ नये ॥२१३।। सुर बाजे बाजे मनिवार । मधुरी पुनि सोभा अधिकार ॥ जिनके नाम न बरने जाहिं । ना किरि प्रति मुसकाहि ।।२१४।। ममरेसुर सम चढं विमान । पहुंचे भाप आपने धान । पूजा करी भरम सब भग्यो । कोटीमट माठौं मिलि बग्यो ।।२१५
कुष्टरोग नष्ट होना
तीन दिवस गंधोदक न्हाइ । कोढ़ मिट्यो पर्योषह राजा कंचन वनं भयो तनु इसो । सोहत कामदेव को जिसी ॥२१६।। पौर जुबली सास मित्त । तिनहू के तन भये पवित ।। पौर जु कुष्ट देह हे जिते । गंधोदिक नीके भये तिते ॥२१॥ मृत पिसाच निसाचर मंत । नासै गंधोदिक परसंत ।। मोहन बसीकरन वे पाहि । विसहर संशनि साइनि चाहि ।।२१।। नैननि रंध अपन विनि जिते । नीके भए सबै नर तिसे ॥ भर जे दुष्ट कर्म दुष दगे । सुष पार्व गंघौदिक लो ।।२१।। नर नारी भन सच करि कोह । सिट पक्र मारा ओइ ॥ सो प्रगटै तिहुं लोक मझार । सो मुबह सुख अधिकार ॥२०॥