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प्रध्यात्मिक छन्द
प्रा परमाणदं नरवा अनिभारति देवी गुणं परीया । छंदो परमाणेदो भाणंदो एहि गुणकंदो ।
हवि छंव प्रातम प्रापज दृष्टि जोवि, परम जोत घर भीतर होवि । जो खरी दृष्टि करी लिलावि, भान जोत पर भीतर पावि ॥ १॥ गीत कवीति क्या लिसाया, गुणी छोडि निर्गुणी कुं ध्याया । गंध वररण रस उसका नाही, परम जोन सोहे घट माहि ॥२॥ घट छोडी उर क्या तुं चाहि, घट मांहि न्यान पट सोहि । घट भूला तु' फरे सायणा, घट मा सुता धतुर सुजारणा ॥३॥ नीर विकल्प तु काहे नहीं ध्यावि, विकल्प सेथि क्या लिलाधि । एह विकल्प छि जीव का जाणा, परम जोत कुनहीं समाण। ।।४।। रे प्रातम चित किहा फिरावि, जे न्या हालि सो घट मां पावि । एक समी जब रूदि पेस्वे, ज्ञान जोत घर भीतर देख ॥१॥ न्यान छोडी जीष उर कु च्यावि, वीषया सेथि चिन्ह घसावि । इसि मन कुतु अंतर ल्यावि, परम समाधी समिमा पाधि ॥६|| जो जूयि तो अप्पा जूयि, परकि जूयि ज्ञान न होयि । परका उजवल क्या तु धोवि, अपणा मैल कदि नही खोहोवि ।।७।। जो झगडु मन होपि तेरा, पर कि झगडि जायि घरोरा । परकि झगडि छोडन पावि, अंतर छोडी उर कु ध्याधि ॥८॥ रे जीव ज्ञान काहा तु जोवि, जे जूयि सो घटा होवि , सूता जे मन जाइ जगाया, मन मारी अपणे घरे प्राया |६|| मन रूची करी का नहिं राखि, बौखया फल या फरी फरी चाखि । जाग्या जब अपणे धरि भावि, तब होनी लगता नहीं प्रावि |१०||