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यणोपर राम
मनि का उत्तर
मुनी बोलि एक प्राणी मजूस । संख सहित नर रह्यो पेस ।। लाक्षा बीडी तीवं संख वाजयो । लोक कानें सबद छाजयो ।।१२।। श्रीगन पडयो तीरिंग लगार । स्मूल शब्द बली छे अपार ।। नाल ने मडके गीरीवर ध्रसि । प्राप प्रमुरत क्रेम दृष्टी असि ॥५३॥ चर्म मसक वाली तो लेप । वायू भरी पुनरपि तो लेय || भार समान जो पवन प्रचण्ड । तरु अऊ मेने करे खंडो खंड ।।५४॥ रूपी वायु जे नध्य देखाय । प्रात्मा केम दृम गोचर थाय ॥ समडी काष्ठ खंडो संघ करयो । जोयो अगनी पण नहीं नीसरभो ।।५।। जे वन तरुवर नगर दह य । एह वा अगन ने नयरण नग्रह य ।। मूर्ति पदारथ ने दृष्टी अग्रह । क्षयोपसम योग्यता ए हि ।।५६।। खठग धार तीखी नभ न छेदाय । घपल बालके नीज खंधन चढाय " तीम नीर्मल ए दृष्टि छि घरणी । नाप रूपन देखि प्रापणी ।।५।। नव्य देखीयि ते नी जे कहि । साहू मूर्ख माहिव उपए लहि ।। मास तात लपू पण थी मूयो । विरण दीठि तिणे केम मानव ॥१८॥ भूत प्रेस व्यंवर राक्षसो । विण दीठि छि केम भानसो ।। दूर पावतो सबद न देखाय । पण कान सू मलयो भी जाय ॥५६।। इंद्रि निज निज विखय महेवाय । अमूरत सानोनिमी बाय थाय ।। मा केसू कमि रूप देखाय । कामें सू भोजन स्वाद जणाय ||६०॥ जीणीमि निज निज सही जोग्यसा । रूपीयि रूपनी भोग्यता ।। सूक्ष्म भाप स्पूले न जणाय । हाथी सूहे राई न लेवाय ॥६१।। तिल मांहि तेल मली जेम रह्यो । दूध माहि यम वृतित करो ।। काष्ट माहि वम अग्नी समाय । तिम तनु माहि जीव जणाय ॥६२।। सूरज कौति माहि जिम अग्गी। चंद्र काति जल रह यो विलम्गि ।। पाखारा माहि जिम छि धात । सिम तनु मांहि जीव विख्यात ।।६।। सुख दुखादि दृष्टांत अनेक । चेतना लक्षण जाण विवेक ।। बुद्धि व्यापार जू जू आजोय । मातमा उपजो गमय होय ।। ६४। केम जीव देहांतर परि । किम संसार माहि ए फरि ॥ मुनीवर कहि सांभलो थोर चित्त । जिम होद तह्मा जीवह हित ।।६।। आठ करम अठताल सुप्रकृत । अवादि मल्यो पण एहछि विकृत ।। झानदर्शनावरण ए वेहो । वेदनी मोहनी अायुछि भेह ॥६६॥