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बाई अजीतमति
अन्तिम पद्य में पंच परमेष्ठी की शरण ही एक मात्र उत्तम शरण है इसी। भाव को उसमें बतलाया गया है।
३. बाई मजीतमति ने कुछ पद श्री लिसे थे जिनकी संख्या अभी तक सात
प्रथम पद में चोवीस तीर्थकों को नमस्कार किया गया है लेकिन पद शैली में लिखा होने से "नेमजी तू मुझ महलामो" स्थामी अन्तरा है। यद्यपि इसमें पद का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसमें १३ अन्तर हैं। भाषा एवं मौली दोनों ही सामान्य हैं। इस पद को सम्भवत: उजीलगढ़ में जो पर्वत शिखर पर स्थित था, लिखा गया था । कवयित्री ने इसका निम्न प्रकार उल्लेख किया है--
उनीलगढ गिरिवर सगो मेमी मिनरामः । कर जोड़ प्रबीसमली कहि, नित सेवरे पाय ॥१॥
दूसरे पद में ऋषभदेव की स्तुति की गयी है। तीसरा पद मानव को चेतावनी के रूप में हैं । चौथा पद नेमिनाथ स्तवन है जिसे कवयित्री ने सागवाडा नगर में निर्मित किया था । ५ ६ असार । काम पर में धन यौवन पर हमने बहुत अभिमान किया इसका वर्णन किया गया है । छठा पद उपदेशी है तथा सातवां पद पायर्वनाथ स्तवन के रूप में है। भाषा एवं भावों की दृष्टि से सभी पद मामान्यतः मन्छे हैं।
४. ऐतिहासिक लेख
यह एक ऐतिहासिक लेख है जिसमें वृषभनाथ के पौत्र मारिधि द्वारा दूसरे मतों की स्थापना से प्रारम्भ होता है । भरत चक्रवर्ती के द्वारा ब्राह्मण मत की स्थापना की गयी। तीर्थकर शीतलनाथ के पीछे यज्ञशालाभों की स्थापना हुई थी । भगवान पार्श्वनाथ के युग में पिहितानव के शिष्य बुधिोति धारा बुद्ध मत की स्थापना की गमी। जो मांस मध सेवन में दोष नहीं मानते थे। विक्रमादित्य के पीछे सम्बत १३० में सत्याचार्य भद्रबाहु के शिष्य जिनम्रन्द्र ने स्वेतानर सम्प्रदाय की स्थापना की थी। जो स्त्री की मुक्ति, केवली कथलाहार, आहार और नीहार, गर्भापहरण, केवली उपसर्ग प्रादि मान्यताप्नों को मानने वाला है। ५३६ वर्ष पश्चात् पूज्यपाद के शिष्य वजनन्दि द्वारा द्वाविरु संघ की स्थापना, संवत् ७४३ में कुमारसेन द्वारा काष्ठा संघ की स्थापना, चमरों की पीछी का ग्रहण, इसी तरह विक्रम संवत् २००