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बाई अजितमति एवं उसके समकालीन कवि
दोहा
सिद्ध चक्रवत प्रगट करि , पंच मवहात मडि ॥ थीपाल मुक्तिह गयौं, भव सुह सयस दिछडि ॥१४॥ इति श्रीपाल चरित्र महापुराण भव्यसंघ मंगरम करणं । बुधजन मन रंजन, पातिग गंजन सिद्धचक्र विधि दुखहरनं । त्रिभुवन सुष कारण भबजल लारण चौपई बंष परिमल्लकृतं । " वह राजवि किनउ जग जस बिनउ बहु विभूति को वरनि कहै । पूर पट्रन सव्वं परहरिगव्यं पंचमहावत सार लयं । सुभ ग्यान उपायो त्रिभुवन गायो कोटी भटु सो मुक्ति गयं । ११९४।।
चौपई
मैनासुन्दरी को तपस्या
पुनि मैंनासुदार बत्त सीन । कर महातप वन अति बीन ॥ सारा कही न माह । नाना वितिको कहे बनाय १॥ कंचन बरन देह प्रौतरी ।कूमम मंडित ही पल धरी । कामातुर रहती पिय संग । सो वन बस सह दुष अंग ॥ ॥ अति सुवास कम रस गारि । मृषन बहुत पहरती नारि ॥ सरद महल रहती सुषबास । कुमुम सेज सोवती उल्हास ।। ३॥ दीपग जोति घहति ही जाहि । सुष रहती रन दिन चाहि ॥ मंद पवन बहती दिन राति । कुसुमनि को वीजनी सुहाति ।। ४ा अाप प्राप वोसरै सुजान 1 दासी सेवतिही दिन मान ।। झीन बस्त्र पहनती सरीर । बहती तहां स्वेद की भीर ।। ५। अंजन मंजन भूषन साध । तन भूषती प्रीति प्रिय काज ।। अंबुज दल रहती कर लयं । रहती पालकनि परि पग दयें ।। ६।। खाती अति सुगंध बन सार । सऊ तपति करतौं प्रतिमार ॥ मो ठाडी गिर परि सुकमाल । सिर पर तपं भान तिहकाल ।। ७॥ पालिक पर रहती मन घाउ । भुवि परि भूलि न धरती पाउ । कोमल कमल नन अधिकार । पम नेवर पहरै नकार ॥ ८॥ महि उपरि मुवती शुभशान । तउ पग देती मनी मराल ।। स्याम वरन छिपतो तिह वाइ । मरुनाई पड़ती बहू भाइ ।। ६.