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बाई अजीनमति एवं उसके समकालीन कवि
सर्व परीग्रह कोच स्वाज्य | अथवा विविध पात्र दोन भाग | प्राकांक्षा रहित जे करि । ते संसार माहि नव्य फरि ।। १२५ ।। परीग्रह सह दूर मुए । अथवा मनसंबर कए । तृष्णा नदी उलंधि जेह । मुगली मारग सही लागो तेह ।। १२६ ।। त्रिकरण सु घरि ब्रह्मचर्य व्रत माचार माहिये वयं 11 तेरिग ग्राचारयो सही सहू धर्म
। करितु मुर्गात माननी सुख सर्म ।। १२७ ।।
दूहा
लेश्या वर्णन
सिद्ध स्वरूप
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इस प्रकार धर्म का मुनीवनि उत्कृष्ट । अंस पर जो पाए. श्रावकनि परण सुष्ट || १॥
पीत पद्म शुक्ल कही, गण्या लेस्या जे अन्य ॥ सुगति जावा कारण सही जे जाशि ते धन्य || २ ||
धमं शुक्ल ने ध्यान ते. आपि श्रविचल वास ॥ मन पवन षा की नई अस्था अनुभवावा सिद्ध सौस्य न स्वाधीन नी जे || इन्द्रीय रहीत जे प्रनुपसू सास्वसू कही यि ते
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कोटवाल तब बोलियो, जाणं हे सिद्ध भेद || गुटिका सिद्ध भंजन सिद्ध, ग्रहस बीसि नहीं खेद ॥ ५ ॥
मुनि कही ते कपटी सही व्यसनी लोटा अपार ।। सोध नीरंजन नीरूपमो, जान तो आाधार ॥ ६ ॥
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संभम तेजस रूपए, कोणि के तेज न हरणाय 11 से से कुछो नैन दूख रहा बराबर समाय ॥७॥ ज्ञान तेज मोटिम परिंग, राम्रो सहू मध्य गख ।। किहिनि नही मागाडि, जल कमलह पेर भाख ||5|| केवलीनि गोचर होय, जीव मुक्त विशेष ॥ तेह बिना गोचर नही, जोहू जारिए छि अमेस 11६11
मूको ते साकर खाया, करसीर धूणी देखाय ।। स्वाद जाणि हरखीत होय, जिम जीभि न कवित्राय ॥१०॥