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________________ २६४ यशोधर रास ब्रह्म सिद्ध स्वरूप छि, व्यापक प्रफल प्रनत ॥ जामी पनि पाराघवो, अजर अमर छि महंत ।।११।। विष्णु संमु संकर कयो । ब्रह्म सुबुष दली होय ॥ सलख निरंजन प्रकलए । नाम अनंता जोय ।।१२।। भोला विष्णु व्यापक कहि । जल थल गिहि में अपार ।। माया मोही वेगलो । बली कहि धरि प्रवतार ।।१३॥ भगत उद्धरवा कारणि । निरंजन काम परि रूप ।। करम काया भी बेगलो । ब्रह्म जो सहज स्वरूप ॥१४॥ मम आणी मम दुढ रुझम बरियतार। अहिए हण्यो ब्रह्म जलिहिए कि वचन व्यापार ॥१५॥ ध्यान बलि कर्म जीकीयि । होय ब्रह्म ज्ञान प्रयास ॥ तेज सुतेज जई मले । काल अनंत विलास ॥१६॥ पुत्र कलत्र मित्र नहीं । नहीं नगर पुर हाट । वरण तणो मेघष नहीं । नहीं पीता उचाट ॥१७॥ भोजन भाजन सजन नहीं। नहीं प्रम सेवक भेद ।। पगतला सवा सूवू नही । नही मुख नो पली छेद ॥ इस्यादिक गुण सिझना । गुण गातां होय पुण्य ।। freम देवेने स्तम्यो । तेह कई होई धन धन्य ।।१६।। भार मम्मामलोनी कोटमास की स्तुति तब कोटबास मनें हरस्त्रयो तो। भाम्मारुली । धनषन मुनीवर भासतो ।। खेद मद थीको वेगलो तो भग क्षमातगो भावास तो ॥१॥ जीव द्रव्य एणि उलस तो ।म। हम स्वरूप ललो जोय तो।। गाल फूलावे बीजा सही तो भि० तत्व ज्ञानी एह सही होय तो ॥२॥ मखीजवयो बहु पगै तो भ०) वांझो वचन बोलय तो ॥ जीवक याप्यो बड्ड परी तो भला धारबाक मत सेय तो ॥३॥ बलीए निधो में घर तो भिमा नागो प्रसूची प्रजासो" पण ए हरी सचढी नही तो भि। ए सही अतीही सुजाण ठो ॥४॥ सत्रु मित्र एह मने समा तो भ० लोष्ट कनक सम भावतो ।। विकार अंग एहन नहीं तो भला ए भवसागर नाव तो ॥५॥
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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