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बाई प्रजीतमति
अजीतमति ने अपने आपको बाई अजीतमति लिखा है । वह भट्टारक वादिचन्द्र (१६वी-१७वीं शताब्दी) की प्रमुख शिष्या थी। उन्हीं के संघ में बहचारिणी साध्वी के रूप में रहती थी । वादिचन्द्र स्वयं अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् भट्टारक थे। जो मूलसंघ के भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य एवं प्रभाचश्व के शिष्य
। स्वयं वादिचन्द्र एक समर्थ साहित्यकार थे जिन्होंने संस्कृत एवं हिन्दी में कितनी ही रचनायें निषा करने का श्रेय प्राप्त किया था । साध्वी प्रजीतमति ने इन्हीं के संघ में रहकर शिक्षा प्राप्त की थी।
कवयित्री मजीतमति हंबह जाति के श्रापक कान्ह जी की पुत्री पी कालजी अपने समय के प्रभावशाली व्यक्ति थे । वे हंबच जाति के शिरोमणि थे। उनका निवास स्थान सम्भवतः सागवाड़ा था जिसका उन्होंने एक गीत में निम्न प्रकार उल्लेख किया है--
"सागवाडा नयरे छि बहु प्रवास, श्रीय संपनी पुरषो स्वामी प्रास"
इसके अतिरिक्त कवमिंत्री का जन्म कब हुआ, कहाँ हुमा इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन उसके स्वयं का हाथ लिखा हुमा जो गुटका मिला है उसमें कवयित्री द्वारा रचित सभी पाठों का संग्रह है । गुटका का लेखनकाल संवत् १६५० (सन् १५६३) है इससे उसके जन्म काल का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है । इसके अतिरिक्त उसने गुटके में जो पाठ लिखा है वह ऐतिहासिक तथ्यों से युक्त है इसलिये यदि उसकी प्रायु उस समय ४० वर्ष की भी होगी तो उसका जन्म संवत् १६१० (सन् १५५३) के पास पास हुआ होगा ।
अजीतमति की शिक्षा दीक्षा के बारे में भी कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन क्योंकि उसके शुरु भ, वादिचन्द्र स्वयं प्रच्छे विद्वान थे, ग्रन्थों के निर्माता थे। संस्कुत, हिन्दी एवं गुजराती में प्रत्य रचना करने में प्रवीण थे । इसलिये मजीतमति की शिक्षा दीक्षा भी अच्छी होनी चाहिये । इसके अतिरिक्त जिस तरह की उसकी रचनायें मिली हैं उनसे भी पता चलता है कि उसने सभी रचनायें स्वान्तः सुखाय लिखी थीं।