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________________ श्रीपाल चरित्र २४न लेकिन माज के युग की तरह उस युग में मांग ठहराब प्रथवा जोर जबरदस्ती कुछ भी नहीं होता था जो कुछ भी दिया जाता उसे सहर्ष स्वीकार करने की परम्परा थी। और इसी परम्परा से समाज जीवित भी रह सका । श्रीपाल को भी दहेज में अपार चल एवं अचल सम्पत्ति मिलती हे कवि ने उसका अच्छा वर्णन किया है। छन चमर पौ? भंडार, बीने मैगल वरीय से सार । पाटघर दीए बहु धोर, जिन सग निर्मोसिंक होर ॥१३४॥ सहस दास सुन्दर पुन बेह, बीए सिरोपाल को तेह । सेवग भले भसे जो भए, बहुत मौर सेवा को पए ॥१३६॥ पत्नी के लिए पति चाहे कैसा ही क्यों न हो वही उसका देवता कहलाता है । श्रीपान ने विवाह के पश्चात मैनासुन्दरी से दूर रहने के लिए कहा क्योंकि वह उस समय कुष्ट रोग से पीड़ित था। कहा रूप लावण्य की खान मैनासुन्दरी और कहां कुष्ट रोग से पीड़ित श्रीपाल ।लेकिन मैनासुन्दरी ने श्रीपाल को जो उत्तर दिया वह बहुत मार्मिक एवं पड़ने योग्य है : विधिना मोहि यह लिखि वियो, सोहि मोको नि भयो । तुम मेरे प्रीतम भरतार, तुम मेरे मामा नि माधार ॥१५३।। तुम प्रति रूपवंत गुमवंत, तुम हो मुख सागर बलिवंत । लोचन मुखी जो लोए चार, तो लों बेख मैं निहार ।।१५४।। श्रीपाल जब विदेश यात्रा के लिए रवाना हमा। उसके पूर्व उसकी माता ने सुखद यात्रा के लिए कुछ बीज मंत्र दिये। ऐसी शिक्षा श्रीपाल के लिए ही नहीं सभी के लिए हितकारी सिद्ध हो सकती है कवि ने इन सबका बड़ा अच्छा वर्णन किया है - अन दीनो मनि लीजहु वित्त, परदारा भति लावहि चित्तु । नौं ते बड़ी नारि जो होग, मात बराबर जारिणय सोय १७७०॥ होय त्रिया जो ताहि समान. ताहि जानि जो बहिन समान । जो कामिनि तौते लघु आहि. पुषी सम जो जारिणो ताहि १७७१।। गुणिजन मन को धरियो मानु, दुखी दीन जन दीजो दान । बहुत बात का कहै सुजान, बलियो व्रत संजम परवान ॥७७२।।
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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