SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ बाई सात रची चहूं पास पुर वाहरि राखियो नरेस प्रजा द्वारा दुःख प्रकट करना नौतन दीए कराइ प्रावास 11 दिए बहुत पुर पट्टन देस ॥ १३८ ॥ ॥ बहुत दीए वाजने निसांन । दियो सुखी बिना उनमान ॥ राजा दियौ प्रति घन जितौ । कवि परमल न बन्यो ति ।। १३६ ।। 1 सई कुबरि चौठोर चढाह । सिरीपाल धरि गयो लिवाइ ॥ यह सुनि नगर भयो कहाउ | सभी कहैं धृग घृग यह राउ || १४० रो परियन के उनमांन । रौवं मंत्री ग्ररु परधांन ॥ रोवं रयति कुली छत्तीस श्रीपाल चरित्र 1 रोबत पशु पंछी सब दीस ।। १४१ ।। तू विनां प्रति षोटो आहि । बुरे भने नहि दे चाहि ॥ घर घर घेर कर विलषांहि । राजइ गारि देहि पिछलाहि ।। १४२ ।। बहुत बात को करें विचार । सुष निवसे श्रीपान कुंबार ॥ मैंनासुदरि मन की ईा । एकै दिन एकासन विखा ।। १४३ ।। संगति का महारथ्य 1 तब श्रीपाल कहै ए नारि प्रांन पियारी देषि विचारि ॥ तू त्रिसुद्ध गुन सील अभंग । रूपवंत कंचन मैं अंग ।। १४४ ।। चन्द्रभुषी सुनि अभी निवास । मति आग तू मेरे पास जौली असुभ मो कर्म । तौ तौ राषि श्राफ्नो धर्म ।। १४५ ।। बार बार हूं जिनक तोहि । सुदरि मति आलं मोहि ।। ए बलभा तुम सुषदातार संगति बाढ दोष पार ।। १४६ ।। संगति गुनी निरगुनी होइ संगति होत कुबुधी लोइ ॥ संगति तपा भ्रष्ट व्रत तजं । संगति पाइ सुरभी भजे ।। १४७ ।। संगति साधु सुरा प्राचरं । संगति हो चोरी न करें ॥ संगति सींह स्यार होइ जाइ । संगति श्रावक श्रामिष षा ।। १४८ ।। I संगति चित्र तर्फ पट कर्म्म संगति से ह्न धर्म धर्म ॥ संगति सील तजें बरनारि । भामनि मनमै देषि विचारी ।। १४६॥ संगति कोड च दुप लहै । सिरीपाल सुंदरियों कहै || मेरो संग बुरी मनि भानि । सुंदरि बात हमारी मांनि ।। १५० ।।
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy