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________________ बाई भजीतमति एवं उसके समकालीन कवि कवि ने इस व्रत के मण्डल मांडने, फिर उस पर पूजा करने प्रादि क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया है। इससे पता चलता है कि परिमल कांद पर भी थे। सोन विस गंगोषक हाय, कोढ़ विध्ठ पर्यो पहराम । कंचन वरण भयो तनु सिौ, सोहतु हाम देवको जिसी ।। श्रीगाल जब विदेश गमन करने लगे लो मैना मुन्धी अतीव धर्मात्मा होने पर भी पति विरह के दुग्व को सहन नहीं कर सकी और पति को अपनी विरह व्यथा निवेदन करने लगी यह कहि गवनु कीयो परवीर, कामिनि व्याकुल भी सरीर । लोधन भरे चिस उमगो, मनु गाडी करि प्रचसु गही श्रीपाल की बलि देने के लिये उसे घपल सेब के पास ले गये । श्रीरास मुदरता की प्रतिमूर्ति होने पर भी धवल सेठ के हृदय में किम्बित् भी दया नहीं मापी। पौर उसने उसकी बलि देने की स्वीकृति दे दी । लोभ मनुष्य का गला काटता है। इस प्रसंग में कवि ने लोभ रूपी गाप का विस्तृत वर्णन किया है लोभ अंध जो मान होई, पाप पुन्य जामे महि सोई। लोम पंप वाक है प्राण, मलिन भाष महि तर्ष निवाल ||६.१॥ लोभ ग्रंथ जो प्राणी चित, सो पर जो न म नित्त । लोभ प्रग्ध आरको मन रहै, सो न भलो कार को कहै ।।१०२॥ श्रीपाल का जीवन विदेश में भी पूर्णतः धार्मिक था। जहां भी उसे जिन चत्यालय मिलता, वह वर्णन करके ही भोजन करता । यदि मुनिराज होते तो फिर उनके भी वर्भाम करता। मिन पस्पाली बंधी जाय, तब ही भोजन करि ही प्राप। पर मुनिवर के बंदे पाय, भोजन करो सवारी जाय ॥ धवल सेठ ने जब रनमंजूषा के रूप को देखा वह, फामान्ध बन गया और पिता पुत्र के सम्बन्ध को भुला बंटर । वास्तव में मनुष्य जब काम का शिवार बन जाता है तो वह भाई बहिन, माता पिता, पुत्री के सम्बन्ध को मुला बटला हे इसी को कदि के शब्दों में देखिये काम सुरा लामा परहरं, पर्थहीन कछु क्रिया न करे ।
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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