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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
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मास जसोधरनी भदोभरण जरण प्रानद काज, तीर्थकर देव ।
चोवीश जिनस्तव जूजू प्रा बहू भावसू हैव ।।१।। चौबीस तीर्थकर स्तवन
प्रथम जिनेश्वर वृषभनाथ, नाथ्यो जेरिण काम । धर्म कर्म प्रगटी की पाभ्यो सिव ठाम ।।२।। अजित जिनाधिप विजित कोह, मोह मछर धारण । केवल वोघ सुवचन दिप, भव्य दुरित निवारण ।।३।। संभव संभव्य भव्य पुण्य, पुण्यम सशसभ मुख । त्रिभुवन अन उदरी करी, करी शिववधू मुख ॥गा अवनी अनोपम अवतरयु, हरपो मिथ्यानन्धकार । अभिनन्दन जिन जाणे भाग, जाणे कमल विस्तार ॥५॥ सुति तीर्थंकर सुमति दान, मान मातंग शिनी। तत्त्वप्रकाशी शिव गयी, जयो सो जिगि बहुपरी ॥६॥ पद्मप्रभ जिन पन भास, भाषा जित जलधर । धर्मामृत रसि सींचीया, भवीयासस्योत्कर ॥७॥ मरकत कांति सुपार्श्वदेव, देवेन्द्रवी वंदीय । बण्यकाल बसु सिसुपणि, परिण भूषणे भूषीय ॥८॥ पन्द्रप्रभ जिन पति हरो, नषो अवनी चन्द । कुमति कमल कोमलालो साघु, वाध्यु हरख रामुद्र ॥६॥ पंच कल्याणे पूजीयो, जयो जिन पुष्पदन्त । तमु जीत नारद चन्द्र वद, कुंद को कली दंत ॥१०॥ सीतल सीतल वचन पंप, मंग सप्त तरंग। चारणी गंगा प्रक्षालया, मंत्रीमा अंतरंग ॥११॥ श्रेयह दायक श्री श्रेयांस, हंस रणाण सरोवर । सुर नर फणधर करी प्रसंस, संसार भयंकर ॥१२॥ बसुक्षायक बजुपूजस, पूजीय पितृवास । यासुपूज्य जा पूजीउ, जीतु काम बिलास ॥१६॥ बिमलजिन प्रमु विमल लक्षण, इसग सुखदायक । रखपत माह सहित अनुछ, श्री क्छ छषादिक ||१|