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बाई मजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
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मन उडयो मिथ्यात महामह । संसार कृ नासे पाग्रह ।।
निग्रह तहना कीजि ॥२३॥ काम पारधी मुझ मृग ने रंजाणि । नारी नयण शर मेरे संघारिण ।
तुझ बिण कोण राखी जारिण ॥२४॥ मासा नदी सागर संसार ! लोभ मगर मुखें पडयो गमार ।।
राक्ष तू जगदाधार ||२५।। विषय गहन इन्द्री गज रुः । तृष्णा भगन स्वासर प्रति कुद्ध ॥
तिहां थी राम्न समृध ॥२६॥ दोष कंटक भव वन मझार । गर्भ पिसाच भमाडि अपार ।।
ते मुझ फेरो निदार ॥२७॥ हाकिनी साकिरणी मूत विताल । वाघ सिंघन नाडि विकलाल ॥
तुझ नाम ध्योता दयाल ॥२८॥ मगि मंगल कारी वीर जीरेंद्र । प्रभाचन्द्र वादीचन्द्र गणेंद्र ।।
स्तवि विक्रम देवेन्द्र ।।२६।।
एणी पिरि बीर जिरणवर तण, स्तवन करी सुजाण ।। गरावर गोतम मादि करि, मुनी वांया सुबखाण ||१|| मनुज सभा माहि बीसिज, भाव सहित गुणवंत ॥ धर्म कया रस साभली, दीप धुनि जयवंत ।।२।। योजन मान सु विस्तरी, वाणी प्रमिम समान ।। प्रगटी वीर बदन घकी, निर्मल जिम हिम भान ॥३॥ तत्त्व पदारथ संभली, पाम्यो परमानन्द ।। पुनु चछाय सभा थकी, बंदीमा गोयम गणेद ।।४।। भाव घरी मन माहिं घणं . पूछि कथा विचार ।। राय जसोधर तेहनी, कहो स्वामी दया मंडार ॥६॥ श्रीमंतो जिननायकाः शुभ चतुर्विगन् महाभयंकाः ।। त्रैलोकेश्वर पूजिता, जितमदाः सत् पंचकन्याएकाः ।। अहंन् श्री परमेष्ठिनः सुखकपः सत्प्रातिहार्याष्टकाः ।। श्री देवेन्द्र सुविक्रमस्तुतपदा: कुर्वन्तु वो मंगनं ॥१॥