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याई मजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
मंवत् १६३८ प्रासोज सुदी २ शुक्रवार है । रात की रचना महुभा नगर (गुजरात) हुई थी और वह भ० वादिनन्द्र प्रादेश से लिखी गयी थी।
देवेन्द्र कवि भगवान मुनिसुनत्त नाथ के परम उपासक थे इसलिए मथ का प्रारम्भ उन्हीं के मंगलाचरण परमान भी नहीं करना है। शोर रास ६ प्रषिकारों में विभक्त है तथा वह प्रबन्ध काव्य के रूप में है । कवि ने रास का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया है इसके पश्चात् सरस्वती बन्दना की गयी है और "गासू' यशोधर गस" के रूप में रारा रखने का मंकल्प व्यक्त किया है। स्वाद्वाद प्रकासिनी जगन्माता शारदा के स्तवन के पश्चात् चौबीस सीकिरों का २४ पद्यों में स्तबन क्रिया है और फिर तीर्थंकरों के गण घरों की संख्या का उल्लेख करते हुए भगवान महावीर के निर्माण के पश्चात् होने वाले तीन केवलियों एवं पांच शु तकेवलियों केनामों का स्मरण किया है ।
थत केवलियों के पश्चान् विशाखाचार्य प्रादि दश पूर्वधारी एवं नक्षत्रादि ११ अभ के पाठियों का भी स्मरण किया है । इसके पश्चात् प्राचार्यों को स्थान दिया है जिसमें कुन्दकुन्दाचार्य, उमाम्बामि समन्तभद्र, पूज्यपाद, जिनसेन, प्रकलंक, एयं गुरगभद्र जैसे प्राचार्यों का उल्लस एवं गुणानुवाद किया है।
एकादपांग सुजाण नक्षत्रादि सोहामरणाए ।
अनुकमि श्री कुदकुद पंच नामि कोडामणीए ।।२०।। जिन चरण कमल सेवि ।साल। करि जिन शास्त्र अभ्यास तो। ४ संवन् १६ पाठ त्रिसि |सा। पासो सुद तीज बीजि शुत्रवार तो।
रास रच्यो नवरस भरयो ।सा महूया नगर मझार तो ।। ५ प्रवनी अनोपम रूप, बादीच'द तम पाट मोहिए । वादी रायल सणगार । भवी अग अन तो मन मोहिए ||२६||
दोहा एह गच्छपती प्रादेस श्री, रास रचेवा प्राज । उद्यम मांड्यौ मन रली, सजन प्रानन्दह काज ॥१॥४॥ अनुक्रमि गौतम स्वामि, सुधर्माचारज केवलीए । अतिम केवली जागा, जंबूस्वाभि कीगती भलिए ॥१६।। श्रत केवनी बनी पंच, पंच संसार दुःख हरए । दिहणुनंदि मित्र होय. अपराजित बिजित स्मरए ।।१७।। गोवरधन गुणवंत , याणी भवी अण उद्धरेए । भद्रवाह वह भेद, चन्द्रगुपती संसय हरेए ।।१८॥