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अध्यात्म प्रवचन
प्रथम भाग
उपाध्याय अमर मुनि
coc श्री सन्मति ज्ञान- पीठ, आगरा
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सन्मति-साहित्य-रत्न-माला का ६५ वा रत्न
अध्यात्म-प्रवचन
प्रवचनकार
उपाध्याय अमर मुनि
सम्पादक विजय मुनि शास्त्री
श्री सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
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अमर ग्रन्थ-माला का दसवाँ पुष्प
पुस्तक
अध्यात्म-प्रवचन
प्रवचनकार
उपाध्याय अमर मुनि
प्रवचन स्थल
कलकत्ता, वर्षावास - १९९१
सम्पादक
विजय मुनि 'शास्त्री '
प्रकाशक
सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
द्वितीय मुद्रण सितम्बर, १९६१
मुद्रक विकास प्रिंटर्स
१६, सुरेश नगर, न्यू आगरा
4 मूल्य चालीस रुपये
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प्रकाशकीय
श्रद्धेय उपाध्याय श्री जी का गम्भीर चिन्तन धर्म, दर्शन, अध्यात्म तथा समाज, संस्कृति की गहराई को जिस सूक्ष्मता के साथ पकड़ता है, वह अद्भुत है। उनका चिन्तन मौलिक तो होता ही है, मधुर एवं सरस भी होता है। तर्क-प्रधान एवं सारग्राही होता है । प्रस्तुत पुस्तक 'अध्यात्म-प्रवचन' में पाठक उनके आध्यात्मिक चिन्तन की अतल गहराइयों में पैठकर नई स्फूर्ति और नया विचार- मौक्तिक पाकर प्रसन्नता से झूम उठेंगे ।
'अध्यात्म-प्रवचन' कलकत्ता के ऐतिहासिक चातुर्मास में उपाध्याय श्री जी द्वारा दिए गए अध्यात्म-रस से ओत-प्रोत गंभीर विश्लेषण एवं चिन्तन प्रधान प्रवचनों का संकलन है ।
प्रवचनों का संपादन हमारे जाने माने तरुण - साहित्यकार श्री विजयमुनि शास्त्री ने किया है । कहने की आवश्यकता नहीं कि वे संपादन में उपाध्याय श्री जी के विचारों की मूल आत्मा को सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखने में कहाँ तक सफल हुए हैं ? यह सब तो पाठक स्वयं पढ़कर ही साक्षात् अनुभूति से प्रमाणित कर सकते हैं ।
उपाध्याय श्री जी के ऊर्ध्वगामी चिन्तन का प्रतिबिम्ब ही तो श्रीविजय मुनि में उतरा है । वे सिर्फ उपाध्याय श्री जी के अन्तेवासी शिष्य ही नहीं, बल्कि ज्ञान -पुत्र भी हैं । उपाध्याय श्री जी के भावों को सुरक्षित रखने में एवं यथा प्रसंग स्पष्टीकरण करने में उनसे अधिक प्रामाणिक और कौन हो सकता है ? श्री विजय मुनि जी की सरस, धाराप्रवाह एवं विवेचन- प्रधान लेखनी से हमारा पाठक वर्ग चिर परिचत है ही, हमें उनसे बहुत आशाएँ हैं ।
प्रवचनों का संकलन करवाने में कलकत्ता श्री संघ के उत्साही कर्मठ कार्यकर्त्ताओं ने जो सहयोग एवं सद्भाव दिखाया है, उसके लिए वे सन्मति ज्ञानपीठ की ओर से ही नहीं, उपाध्याय श्री जी के प्रवचनों के समस्त पाठक वर्ग की ओर से भी शतशः धन्यवाद के पात्र हैं ।
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साथ ही कलकत्ता के उत्साही युवक श्री ऋषीश्वर नारायणसिंह बी० ए०, एल-एल० बी० का सहयोग भी पुस्तक के साथ चिरस्मरणीय रहेगा, जिन्होंने प्रवचनों का संकलन (लिपि-लेखन) बड़े ही उत्साह के साथ किया है।
पुस्तक के प्रूफ संशोधन आदि आवश्यक कार्यों में श्री श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' ने जो सेवा एवं सहयोग किया है उसके लिए भी हम उन्हें धन्यवाद देते हैं।
कलकत्ता चातुर्मास के प्रवचन इस पुस्तक में सब नहीं आ गए हैं, लगभग आधे से भी कम ! बाकी के प्रवचन भी यथा समय हम विज्ञ पाठकों के समक्ष पहुँचाने का प्रयत्न कर रहे हैं।
हम आशा करते हैं कि प्रस्तुत पुस्तक, पाठकों को और खासकर अध्यात्म-रसिक सज्जनों को रुचिकर लगेगी, वे इसे अधिकाधिक मात्रा में अपनाकर साहित्य-सेवा के साथ-साथ अध्यात्म-प्रेम का भी परिचय देंगे।
विनीत मंत्री, सन्मति ज्ञानपीठ
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सम्पादक की कलम से
आज का युग भौतिकवाद का है । मानव भौतिकवाद की दौड़ में अध्यात्मवाद को भुलाये जा रहा है । त्याग से भोग की ओर बढ़ रहा है । अपरिग्रह से परिग्रह की ओर झुक रहा है। यह अभियान उसे आरोहण की ओर नहीं, अवरोहण की ओर खींच रहा है। मानव उत्थान के शिखर पर नहीं, पतन की गहरी खाई में गिर रहा है ।
एक युग था जब भारत का चिन्तन अध्यात्मवाद से अनुप्राणित था । भारतीय दर्शन और चिन्तन की आत्मा अध्यात्मवाद से परिस्पन्दित होती रही थी। भारत के चिन्तन-सागर में अध्यात्म-वाद और आत्मविद्या की तरंगें लहरा रही थीं।
अध्यात्म एवं आत्म-विद्या से अनुप्राणित ऊर्ध्वमुखी चिन्तन ने युग की चिन्तन धारा को मोड़ दिया था। भगवान महावीर के विराट ज्ञानालोक ने अध्यात्मवाद को नया स्वर दिया - 'जे एगं जाणई से सव्वं जाणइ' एक आत्मा को जानने वाला सब कुछ जान लेता है। 'आया सामाइए'-आत्मा ही सामायिक-समता का अधिष्ठान है, यही तप है, यही संयम है, यही ज्ञान है ।' आचारांग, स्थानांग, भगवती, ज्ञाता धर्मकथा, उत्तराध्ययन आदि आगमों में उनका गभीर अध्यात्म दर्शन बीजाक्षर की तरह आज भी अध्यात्म का विराट रूप लिए उपलब्ध है। अपने युग के वे महान अध्यात्मवादी ऋषि थे। उनके अध्यात्मदर्शन की प्रतिध्वनि भारतीय चिन्तन में गूंज उठी। जहाँ एक ओर वेदान्त ने अद्वैतवाद को जन्म दिया, तो वहीं दूसरी ओर बौद्ध चिन्तन ने विज्ञानाद्वैत एवं शून्यवाद के रूप में अध्यात्म को उजागर
किया।
___ भगवान महावीर के आध्यात्मिक दर्शन को पल्लवित करने का सर्वाधिक श्रेय आचार्य कुन्दकुन्द को है । महावीर के अध्यात्म दर्शन की आत्मा का जो रूप आज निखरा हुमा मिलता है, वह आचाय कुन्द-कुन्द के विशुद्ध एवं सूक्ष्म अध्यात्म चिन्तन शिल्प का चमत्कार है । उनके चिन्तन की गरिमा से आज श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं का चिन्तन गौरवान्वित है, ऋणी है।
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दर्शन शास्त्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर खड़े होकर जब हम देखते हैं तो उस युग के चिन्तन का एक स्पष्ट चित्र हमारे सामने उभर आता है। प्रत्येक धर्म-परम्परा अपने आध्यात्मिक परिष्कार में लगी थी। विचारों का नया परिवेश सजाने में व्यस्त थी। बौद्धों के आचार-प्रधान हीनयान का विचार-प्रधान महायान में बदल जाना, वैदिक परम्परा के कर्मकाण्ड प्रधान पूर्व-मीमांसा का ज्ञान-प्रधान उत्तर मीमांसा एवं वेदान्त में परिवर्तित हो जाना, अवश्य ही किसी गंभीर चिन्तन एवं विचार मन्थन के परिणाम रहे होंगे ?
महायान का विज्ञानाद्वैत एवं शून्यवाद और वेदान्त का अद्वैतवाद जब जन-चेतना के समक्ष प्रस्तुत हुआ तो सहज ही उस युग की जन-चेतना स्थूल से सूक्ष्म की ओर, बाह्य से अन्तर की ओर प्रयाण कर रही थी।
यूग-चेतना के इस प्रवाह में जैन परम्परा के लिए भी यह आवश्यक हो गया था कि वह अपने मूल आगमों में सूत्र रूप से निहित अध्यात्मवादी चिन्तन को पल्लवित पुष्पित करके नये रूप में युग के समक्ष प्रस्तुत करे । इस महान् कार्य को संपन्न किया-आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने । आचार्य सिद्धसेन का कार्य सीमित क्षेत्र में हुआ और धीरे-धीरे उसकी दिशा दूसरी ओर मुड़ गई । आचार्य कुन्दकुन्द का क्षेत्र असीम था। उन्होंने आगमसागर का मन्थन करके अध्यात्मवाद का अमृत निकाला और उसे युग की शैली और अध्यात्म की गंभीर भाषा में प्रस्तुत किया। अध्यात्म चिन्तन को इस कड़ी को पूरी करने वाले आचार्य अमृतचन्द्र आये । कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर उन्होंने स्वतन्त्र एवं विशद टीकाएं लिखकर उनके चिन्तन को और प्रखरता के साथ व्यक्त किया। विज्ञानाद्वैतवाद और शून्यवाद से प्रभावित जन मानस को वीतराग दर्शन की ओर आकर्षित करने के लिए यह प्रयत्न आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य था।
उत्तर काल में अध्यात्म पर जितना चिन्तन मनन हुआ है वह सब विचार रूप से आचार्य कुन्दकुन्द का ऋणी है, इसमें कोई दो मत नहीं। समय-समय पर प्रत्येक अध्यात्मवादी चिन्तक उस चिन्तन के आधार पर युग की भाषा में अपना नवीन एवं सुलझा हआ चिन्तन प्रस्तुत करके जनमानस की आध्यात्मिक क्षुधा को परितृप्त करते आ
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प्रस्तुत पुस्तक 'अध्यात्म-प्रवचन' पूज्य गुरुदेव कविरत्न उपाध्याय श्री जी के उन प्रवचनों का संपादन है, जो उन्होंने कलकत्ता की अध्यात्म-रसिक जनता के समक्ष सन् १९६१ के वर्षावास में वहाँ किए थे। पाठक देखेंगे कि उपाध्याय श्री जी ने अध्यात्म जैसे गंभीर विषय को किस प्रकार अपनी विलक्षण प्रतिभा, समन्वय-बुद्धि एवं आकर्षक, तथा सरस शैली से युग-बोध की भाषा में प्रस्तुत किया है। उनके प्रखर चिन्तन में अध्यात्म के नये-नये उन्मेष खुलते हुए से प्रतीत होते हैं।
प्रस्तुत प्रवचनों में मूख्यतया सम्यग्दर्शन पर सर्वांग और विशद विवेचन किया गया है । अन्त के सात प्रवचनों में सम्यग् ज्ञान, प्रमाण, नय आदि ज्ञान के समस्त अंगों पर भी स्पष्ट एवं विस्तृत विश्लेषण हुआ है। सम्यक चारित्र का विवेचन स्वतंत्र रूप से इन प्रवचनों में नहीं आया है। यों सम्यक चारित्र की भी सामान्य चर्चा प्रवचनों में यत्र-तत्र काफी हो चुकी है । पाठक को अधूरा या खालीपन जैसा कुछ नहीं लगेगा। ____ मैंने पूज्य गुरुदेव के गंभीर विचारों को अधिक से अधिक प्रामाणिकता एवं सूबोधता के साथ रखने का प्रयत्न किया है। फिर भी छमस्थ व्यक्ति की एक सीमा है, अतः कहीं कुछ त्रुटि रह गई हो, तो तदर्थ क्षमाप्रार्थी हूँ। ___ अध्यात्म-रसिक जन इस पुस्तक से अधिकाधिक लाभ उठाएंगे, इसी आशा और विश्वास के साथ 'विरमामि ।
-विजयमुनि कलकत्ता अगस्त, १९६६
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प्रवचन-क्रम
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सम्यग-दर्शन मीमांसा १ १ अध्यात्म-जीवन २ मुक्ति का मार्ग ३ रत्नत्रय की साधना ४ विवेक-दृष्टि ५ अध्यात्म-साधना ६ साधना का लक्ष्य ७ साध्य और साधन ८ अध्यात्मवाद का आधार ६ सम्यग् दर्शनः सत्य-दृष्टि १० धर्म साधना का आधार ११ सम्यग् दर्शन की महिमा १२ सम्यग दर्शन के भेद १३ उपादान और निमित्त १४ पंथवादी सम्यग् दर्शन १५ अमृत की साधनाः सम्यग् दर्शन १६ जैन दर्शन का मूलः सम्यग् दर्शन १७ संसार और मोक्ष १८ सम्यग् दर्शन के विविध रूप १६ सम्यग् दर्शन के लक्षणः अतिचार २० आठ अङ्ग और सात भय २१ तीन प्रकार की चेतना
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मुक्ति का मार्ग | १७
as - प्रकृति की सत्ता होने पर भी उसमें ज्ञान एवं चेतना नहीं है । ज्ञान एवं चेतना शून्य होने के कारण, पुद्गल को अपनी सत्ता एवं स्थिति का बोध नहीं हो पाता । जब उसे स्वयं अपनी सत्ता एवं स्थिति काही बोध नहीं है, तब उसे अपने से भिन्न दूसरे की स्थिति और सत्ता का बोध कैसे हो सकता है ? जड़ प्रकृति सत्ताशील एवं क्रियाशील होकर भी ज्ञान शून्य एवं चेतना विकल होने के कारण, अपने स्वरूप को जान नहीं सकती । इसका अर्थ यह है कि वह द्रष्टा नहीं बन सकती, केवल दृश्य ही रहती है । उपभोक्ता नहीं बन सकती, केवल उपभोग्य ही रहती है । द्रष्टा और उपभोक्ता वही बन सकता है, जिसमें ज्ञान एवं चेतना का प्रकाश हो। जिसमें ज्ञान एवं चेतना का त्रिकालाबाधित दिव्य प्रकाश होता है, उसे दर्शन - शास्त्र में जीव, चेतन एवं आत्मा कहा जाता है । प्रकृति जड़ है, अतः उसमें अंशमात्र भी चेतना का अस्तित्व नहीं है ।
प्रकृति- जगत के बाद एक दूसरा जगत है, जिसे चैतन्य - जगत कहा जाता है । इस चैतन्य जगत में सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल प्राणी विद्यमान हैं । गन्दी नाली के कीड़े से लेकर सुरलोक के इन्द्र, जिसके भौतिक सुख का कोई आर-पार नहीं है, सभी चैतन्य जगत् में समाविष्ट हैं । मैंने अभी आपसे कहा था कि जड़ के पास सत्ता तो है, पर चेतना नहीं है । इसके विपरीत चैतन्य जगत में सत्ता के अतिरिक्त चेतना भी है । उसका अस्तित्व आज से नहीं; अनन्त अतीत से रहा है और अनन्त अनागत तक रहेगा । वह केवल कल्पना - लोक एवं स्वप्नलोक की वस्तु नहीं है । वह अखण्ड सत् होने के साथ-साथ चेतन भी है । भारतीय तत्व - चिन्तन का यह एक मूल केन्द्र है । भारत के विचारक और चिन्तकों ने जीवन के इसी मूल केन्द्र को जानने का और समझने का प्रयत्न किया है। क्योंकि इसी मूलकेन्द्र को पकड़ने से मानवीय जीवन आलोकमय बनता है तथा परंम जीवन का भव्य द्वार खुल जाता है । यदि इस चैतन्य देव के स्वरूप को नहीं समझा, नहीं जाना, तो समस्त तपस्या और समग्र साधना निष्फल एवं निष्प्राण हो जायगी । पवित्र जीवन का भव्य द्वार कभी खुल न सकेगा । अतः अखण्ड चैतन्य सत्य का बोध होना आवश्यक है । चेतन जगत के पास सत्ता एवं बोध दोनों ही हैं, जिससे उसे स्वयं अपना भी ज्ञान होता है और दूसरों का भी । जीव अपनी ज्ञान-शक्ति के द्वारा अपने स्वयं के उत्थान और पतन को भी समझ सकता है तथा दूसरे जीवों के विकास
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१८ | अध्यात्म-प्रवचन
और ह्रास को भी वह देख सकता हैं । जिसने स्वयं को जाना, वही दूसरों को जान सकता है । जिसने स्वयं को सँभाला, वही दूसरों को सँभाल सकता है । जिसके पास स्वयं है, वही दूसरों को भी प्रकाश दिखला सकता है | भला, जो स्वयं अन्धा है, जिसके पास अपनी स्वयं की दृष्टि नहीं है, वह दूसरे को दृष्टि कैसे दे सकता है ? चेतन के पास स्वयं अपना प्रकाश है, स्वयं अपनी दृष्टि है और स्वयं अपना ज्ञान है । चेतन में जो बोध-शक्ति है वह कहीं बाहर से नहीं आई, स्वयं उसकी अपनी ही है ।
मैं आपसे जड़ और चेतन की बात कह रहा था। मैंने जड़ और चेतन के स्वरूप को संक्षेप में बतलाने का प्रयत्न किया है । किन्तु याद रखिए - इस दृश्यमान जगत में एक सत्ता और है, जिसे हम परमसत्ता कहते हैं । इस जगत में एक चेतन और है, जिसे हम परम वेतन कहते हैं । यह परम सत्ता एवं परम चेतन क्या वस्तु है ? उसे समझने एवं जानने की अभिलाषा एवं जिज्ञासा आप में से प्रत्येक व्यक्ति के मन में उठ सकती है, और वह उठनी भी चाहिए। उस परमसत्ता एवं परम चेतन को भारतीय दर्शन में विविध संज्ञाओं से सम्बोधित किया गया है - भगवान्, ईश्वर और परमात्मा आदि । चैतन्य के बाद परम चैतन्य की सत्ता है । चैतन्य के आगे इस परम चैतन्य की सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। भारतीय दर्शन के अनुसार मानवीय चैतन्य का लक्ष्य संसार की अँधेरी गलियों में भटकना नहीं है । उसका लक्ष्य है - चैतन्य से परम चैतन्य होना ।
परम चैतन्य सत्त्व में सत्ता और चेतना के अतिरिक्त आनन्द भी माना गया है । संसारी जीव में सत्ता एवं चेतना तो हैं, किन्तु आनन्द नहीं है । आनन्द नहीं है, इसका इतना ही अर्थ है, कि उसका सुख सहज, निर्विकार एवं स्थायी नहीं है । स्थायी सुख एवं स्थायी आनन्द केवल परम चैतन्य में ही रहता है। हम जिस प्रत्यक्ष जगत में रह रहे हैं, वह भी एक सत्ता है और उससे परे भी एक विराट परम सत्ता है, जिसके विषय में पर्याप्त तर्क वितर्क, विवाद और संघर्ष चला करता है । परन्तु वह विराट, परम चैतन्य या परम सत्ता कहीं अलग नहीं है । जो हम पर शासन करती हो और जड़ एवं चैतन्य विश्व को मनचाहा रूप देती हो । जैन दर्शन का लक्ष्य यह नहीं है कि हम किसी अदृश्य शक्ति के हाथ की कठपुतली हैं । उस कठपुतली के अनुसार ही हम सोचते और विचारते हों, या संकल्प एवं विकल्प करते हों । इस
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[ मुक्ति का मार्ग | १६ प्रकार की किसी भी बात में जैन दर्शन की श्रद्धा और मति नहीं है । जैन दर्शन का अपना विचार यही है कि पाप और पुण्य के अनुसार जीव को फल भोग करना पड़ता है । फिर भले ही वह संसार का कोई साधारण व्यक्ति हो अथवा असाधारण व्यक्ति हो । किन्तु संसार-चक्र का एक भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो स्वतन्त्र रूप से अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता न हो । जब मैं आपसे परम चैतन्य और परम आत्मा की बात कहता हूँ, तब आप इसका अर्थ यह न समझ लें कि वह परम चैतन्य और परम आत्मा तथाकथित विश्वनियंता ईश्वर के रूप में कोई व्यक्ति विशेष है और वह कहीं अन्यत्र रहता है । ईश्वर और परमात्मा कहीं अन्यत्र नहीं, तुम्हारे ही पास में है । तुम्हारे ही पास में क्या, वह तुम्हारे अन्दर ही हैं । और अन्दर की भी बात गलत है, तुम स्वयं ही ईश्वर हो, और परमात्मा हो । किन्तु आपका वर्तमान रूप कुछ इस प्रकार का है कि इसमें आपकी चैतन्य - ज्योति की चमक-दमक पूर्णरूपेण अभिव्यक्त नहीं हो रही है । जब तक राग-द्वेष का, मोह माया का आवरण विद्यमान है, तब तक वह विशुद्ध परम तत्त्व पूर्णतया व्यक्त नहीं हो पाता । किन्तु आप इस बात पर विश्वास कीजिए, कि आप स्वयं ही ईश्वर हैं और स्वयं ही परमात्मा हैं । आप स्वयं ही प्रकाशपुंज उस सूर्य के समान हैं, जो काली घटाओं के बीच घिरा रह कर भी प्रभा एवं प्रकाश के रूप में अपनी अभिव्यक्ति किसी न किसी अंश में करता रहता ही है । सूर्य घटाओं से घिर जाता है, यह सत्य है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है, कि उसकी प्रभा और प्रकाश सर्वथा विलुप्त हो जाते हों । जीव के साथ कर्म का, माया का, अविद्या का आवरण रहता है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है, कि उस आवरण से उसका विशुद्ध स्वरूप सर्वथा ही विलुप्त हो जाता हो । आप अपने अन्दर इस संकल्प को बार-बार दुहराइए कि मैं ज्योति-रूप हूँ, मैं अनन्त हूँ, मैं शाश्वत हूँ और मैं एक अजरअमर तत्व हूँ । संसार के यह भव-बन्धन तभी तक हैं, जब तक मैं अपने विशुद्ध स्वरूप को पहचान नहीं लेता हूँ ।
जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा में परमात्म-ज्योति विद्यमान । प्रत्येक चेतन में परम चेतन विराजमान है । चेतन और परमचेतन दो नहीं हैं, एक हैं । अशुद्ध से शुद्ध होने पर चेतन ही परम चेतन हो जाता है । कोई भी चेतन, परम चेतन की ज्योति से मूलतः शून्य या
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२० | अध्यात्म-प्रवचन
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रिक्त नहीं है । वह दीन, हीन एवं भिखारी नहीं है । यह मत समझिए कि कर्म - आवरण के कारण जो आत्मा आज संसार में भटक रहा है, वह कभी संसार के बन्धनों से मुक्त न हो सकेगा । इस विराट विश्व का प्रत्येक चेतन अपने स्वयंसिद्ध अध्यात्म - राज्य के सिंहासन पर बैठने का अधिकारी है, उसे भिखारी समझना भूल है भिखारी हर चीज माँगता है और साधक प्रत्येक वस्तु को अपने अन्दर से ही प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । मैं आपसे कहता हूँ कि प्रत्येक साधक अधिकारी है, वह भिखारी नहीं है । अधिकारी का अर्थ है- अपनी सत्ता पर विश्वास करने वाला और भिखारी का अर्थ है-अपनी सत्ता पर विश्वास न करके दूसरे की दया और करुणा पर अपना जीवन व्यतीत करने वाला | जैन- दर्शन का तत्व चिन्तन उस ज्योति, प्रकाश और परमात्व-तत्व की खोज कहीं बाहर नहीं, अपने अन्दर ही करता है । वह कहता है कि 'अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है । 'तत्वमसि' का अर्थ भी यही है कि आत्मा केवल आत्मा ही नहीं है, बल्कि वह स्वयं परमात्मा है, परब्रह्म है और ईश्वर है । मात्र आवश्यकता है - अपने को जागृत करने को और आवरण को दूर फेंक देने की ।
भारत के कुछ दर्शन केवल प्रकृति की व्याख्या करते हैं, पुद्गल के स्वरूप का ही वे प्रतिपादन करते हैं । भौतिक दर्शन पुद्गल और प्रकृति की सूक्ष्म से सूक्ष्म व्याख्या करता है, किन्तु पुद्गल और प्रकृति से परे आत्म-तत्व तक उसकी पहुँच नहीं है । भौतिकवादी दार्शनिक पुद्गल और प्रकृति के सम्बन्ध में बहुत कुछ कह सकता है और बहुत कुछ लिख भी सकता है, परन्तु वह स्वयं अपने सम्बन्ध में कुछ भी जान नहीं पाता, कुछ भी कह नहीं पाता और कुछ भी लिख नहीं पाता । वह अपने को भी प्रकृति का ही परिणाम मानता है । अपनी स्वतन्त्र सत्ता की ओर उसका लक्ष्य नहीं जाता। इसके विपरीत अध्यात्मवादी दर्शन प्रकृति के वात्याच में न उलझकर आत्मा की बात कहता है । वह कहता है कि आत्मा स्वयं क्या है और वह क्या होना चाहता है ? अध्यात्मवादी दार्शनिक यह सोचता है और विश्वास करता है कि मेरी यह आत्मा यद्यपि मूल स्वरूप की दृष्टि से शुद्ध, बुद्ध, निरञ्जन एवं निर्विकार है, फिर भी जब तक इसके साथ कर्म का संयोग है, जब तक इस पर माया एवं अविद्या का आवरण है, तभी तक यह विविध बन्धनों में बद्ध है । पर जैसे ही यह आत्मा निर्मल हुई कि शुद्ध-बुद्ध होकर समस्त प्रकार के बन्धनों से सदा के लिए विमुक्त हो
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मुक्ति का मार्ग | २१ जाती है, परमात्मा बन जाती है । अध्यात्मवादी दर्शन आत्मा की शुद्ध अवस्था की ओर अपने लक्ष्य को स्थिर करता है । जैन दर्शन में कहा है कि विश्व की प्रत्येक आत्मा अपने मूल स्वरूप में वैसी नहीं है, जैसी कि वर्तमान में दृष्टिगोचर होती है । यह तो केवल व्यवहार नय है । शुद्ध निश्चय नय से तो प्रत्येक आत्मा ज्ञान- स्वरूप और परमात्मस्वरूप है । निश्चय नय से संसारस्थ आत्मा में और सिद्ध आत्मा में अणु मात्र भी भेद नहीं है । जो कुछ भेद है वह औपाधिक है, कर्मप्रकृति के संयोग से है । अतः प्रत्येक आत्मा को यह विश्वास करना चाहिए कि भले ही आज मैं बद्ध-दशा में हूँ, किन्तु एक दिन मैं मुक्तदशा को भी प्राप्त कर सकता हूँ, क्योंकि आत्मा चैतन्य स्वरूप है और उस चैतन्य स्वरूप आत्मा में अनन्त - अनन्त शक्ति है । आवश्यकता शक्ति की उत्पत्ति की नहीं, अपितु शक्ति की अभिव्यक्ति की है ।
जब भी कोई रोती एवं बिलखती आत्मा सद्गुरु के समक्ष हतास और निराश होकर खड़ी हुई, तब भारत के प्रत्येक सद्गुरु ने उसके आँसुओं को पोंछकर उसे स्वस्वरूप की शक्ति को जागृत करने की दिशा में अमोघ सांत्वना एवं प्रेरणा दी है । साधना के मार्ग पर लड़खड़ाते पंगु मन को केवल बाह्य क्रियाकलापरूप लाठी का सहारा ही नहीं दिया गया, बल्कि इधर-उधर की पराश्रित भावना की वैसाखी छुड़ाकर उसमें अध्यात्म मार्ग पर दौड़ लगाने की एक अद्भुत शक्ति भी जागृत कर दी । सद्गुरु ने उस दीन-हीन आत्मा की प्रसुप्त शक्ति को जागृत करके उसे भिखारी से सम्राट बना दिया । उस दीन एवं हीन आत्मा को, जो अपने अन्दर अनन्त शक्ति होते हुए भी विलाप करता था, अध्यात्म-भाव की मधुर प्रेरणा देकर इतना अधिक शक्तिसम्पन्न बना दिया, कि वह स्वयं ही सन्मार्ग पर नहीं अग्रसर हो गया, बल्कि दूसरों को भी सन्मार्ग पर लाने के प्रयत्न में सफल होने लगा ।
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राजा प्रदेशी की जीवन-गाथा को सुनकर ग्लानि भी होती है और आश्चर्य भी । ग्लानि इस अर्थ में कि जिस समय राजा प्रदेशी की शास्त्र अंकित जीवन-गाथा को पढ़ते एवं सुनते हैं, तब उसका वह रौद्र रूप हमारी आँखों के सामने आ खड़ा होता है, जिसमें तलवार लेकर वह प्राणियों का वध इतनी निर्दयता के साथ करता है कि कुहनी तक दोनों हाथ खून से रंग जाते हैं, फिर भी वह प्राणि-वध से विरत नहीं होता । उसने अपने जीवन में अगणित पशु-पक्षी और मनुष्यों का वध किया । दया और करुणा क्या है, यह कभी स्वप्न में भी उसने समझने
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२२ | अध्यात्म-प्रवचन
का प्रयत्न नहीं किया । किन्तु सद्गुरु केशीकुमार श्रमण की संगति से एवं उनके सानिध्य से उसी क्रूर प्रदेशी में इतना बड़ा परिवर्तन आया, कि जिसे सुनकर हम सबको आश्चर्य होता है । क्रूरता एवं निर्दयता की चरम सीमा पर पहुँच कर राजा प्रदेशी, दया और करुणा के रस से इतना आप्लावित हो गया था, कि स्वयं उसकी अपनी रानी सूर्यकान्ता ने भोजन में विष दे दिया और राजा को उसके षडयन्त्र का पता भी चल गया, फिर भी वह शान्त एवं प्रसन्न रहा । उसने अपने मन में विषमता नहीं आने दी । क्रोध और द्वेष की एक सूक्ष्म रेखा भी उसके समत्व पूर्ण मन पर अंकित नहीं हो सकी । मैं पूछता हूँ आपसे कि राजा प्रदेशी में इतना महान अन्तर कैसे आ गया और कहाँ से आ गया ? निश्चय ही यह परिवर्तन कहीं बाहर से नहीं, उसके अन्दर से ही आया था । उसकी मोह-मुग्ध आत्मा जो अभी तक प्रसुप्त थी, जागत होकर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो गई । क्रूरता का भाव निर्मल प्रेम और सद्भाव में परिणत हो गया । एक प्रदेशी ही क्या, जीवन का यह अद्भुत तेज प्रत्येक आत्मा में छुपा हुआ है | अध्यात्म-साधना का यही एकमात्र लक्ष्य है, कि उसे जैसे भी हो प्रकट किया जाए ।
किसी भी प्रसुप्त आत्मा में प्रबुद्ध भाव कब आ जाएगा ? सर्व साधारण की दृष्टि में इसकी कोई तिथि निश्चित नहीं होती । आत्मा में परिवर्तन की प्रक्रिया सतत होती रहती है । क्रूर से क्रूर आत्मा कभी सहसा दयाशील बन जाता है और कभी-कभी दयाशील आत्मा अति क्रूर भी बन सकता है । आपने भारतीय इतिहास में महाकवि बाल्मीकि का नाम सुना होगा । उसका पहला नाम रत्नाकर था और उसका पहला काम लोगों को लूटना एवं मारना था। धन के लिए, न जाने उसने अपने जीवन में कितनी हत्याएँ कीं । उसके पापों की परिगणना नही की जा सकती । वह अपने जीवन की अधम से अधम स्थिति में पहुँच चुका था । मैं पाप कर रहा हूँ और वह किसलिए कर रहा हूँ एवं किसके लिए कर रहा हूँ, इस बात को समझने का भी उसने कभी प्रयत्न नहीं किया । सम्भवतः लूट और मार के अतिरिक्त अन्य किसी भी कार्य को वह नहीं जानता था । संसार में धन से बढ़कर श्रेष्ठ वस्तु उसके लिए दूसरी कोई नहीं थी । किन्तु नारद ऋषि की संगति से जब उसका दृष्टिकोण बदला और उसने यह समझा कि अभी तक मैं अन्धकार में ही डूबा हुआ था, मुझे जीवन का प्रकाश
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मुक्ति का मार्ग | २३ नहीं मिला । इस मोह माया के प्रगाढ़ अन्धकार में भटकते हुए मैंने कितने भयंकर पाप कर्म कर डाले ? अतीत जीवन के अपने पापों के स्मरण से वह काँप उठा । उसके मन में अन्धकार से प्रकाश में आने की एक दिव्य भावना जगी । नारद ऋषि का यह बोध सूत्र उसके जीवन के कण-कण में रम गया, कि जिस परिजन और परिवार के लिए मैं इतना पाप कर चुका हूँ, क्या मेरा वह परिवार और उसका एक भी व्यक्ति उस समय मेरी सहायता कर सकेगा, जव कि मैं अपने कृत कर्मों का फल भोगूँगा । उसके अन्दर से आवाज आई, नहीं । जो पाप तूने स्वयं किया है, उसका अच्छा या बुरा फल भी, तुझे स्वयं को ही भोगना है । रत्नाकर को इस घटना ने महर्षि वाल्मीकि बना दिया । भारतीय दर्शन कहता है कि संसार की कोई भी आत्मा, भले ही वह अपने जीवन के कितने ही नीचे स्तर पर क्यों न हो, भूल कर भी उससे घृणा और द्वेष मत करो। क्योंकि न जाने कब उस आत्मा में परमात्म-भाव की जागृति हो जाए । प्रत्येक आत्मा अध्यात्म - गुणों का अक्षय एवं अनन्त अमृत कूप है । जिसका न कभी अन्त हुआ और न कभी अन्त होगा । विवेक ज्योति प्राप्त हो जाने पर प्रत्येक आत्मा अपने उस परमात्म रूप अमृत रस का आस्वादन करने लगता है । आत्मा का यह शुद्ध स्वरूप अमृत कहीं बाहर नहीं, स्वयं उसके अन्दर ही है । वह शुद्ध स्वरूप कहीं दूर नहीं है, अपने समीप ही है । समीप भी क्या ? जो है वह स्वयं ही । बात इतनी ही है, जो गलत रास्ता पकड़ लिया है, उसे छोड़कर अच्छी एवं सच्च राह पर आना है । जीवन की गति एवं प्रगति को रोकना नहीं हैं, बल्कि, उसे अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध की और मोड़ देना है ।
जिस कूप में जल का एक बिन्दु भी न हो, जो सर्वथा सूखा हो, उसमें आप चाहे कितनी सी बार डोल डालें, किन्तु उसमें से जल की एक बूंद भी नहीं मिल सकती । जब स्वयं कूप में जल का एक भी बिन्दु नहीं है, तब डोल में जल कहाँ से आएगा ? इसके विपरीत स्वच्छ एव निर्मल जल से परिपूर्ण कृप में जब कभी भी आप डोल डालेंगे, तब वह स्वच्छ, निर्मल एवं शीतल जल से लवालब भरा हुआ बाहर आ जाएगा, जिसे पीकर आपकी चिर तृषा शान्त हो जायगी और आप एक प्रकार से विलक्षण ताजगी का अनुभव करेंगे । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक चेतन एवं प्रत्येक आत्मा का. अक्षय एवं अनन्तकूप
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२४ | अध्यात्म-प्रवचन के समान है, जिसमें शुद्ध अमृत रस का अभाव नहीं है, प्रत्येक आत्मा में अनन्त-अनन्त गुण हैं । वह कभी गुणों से रिक्त एवं शून्य नहीं हो सकता । आत्मा उस धन-कुबेर के पुत्र के समान है, जिसके पास कभी धन की कमी नहीं होती, भले ही वह अपने उस अक्षय भंडार का दुरुपयोग ही क्यों न कर रहा हो। शक्ति का अक्षय धन तो आपके पास है, परन्तु उसे दुरुपयोग से हटा कर सदुपयोग में लगाना है। यदि इतना कर सके, तो आपके जीवन का समस्त दुःख सुख में बदल जाएगा- अशान्ति शान्ति में बदल जाएगी और विषमता समता में बदल जाएगी। जीवन का हा-हाकार जय-जयकार में परिणत हो जायगा । फिर जीवन में किसी भी प्रकार के द्वन्द्व, संघर्ष और प्रतिकुल भाव कभी नहीं रहेंगे । ___मैं प्रवचन के प्रारम्भ में ही आपसे कह चुका हूँ कि संसारी आत्मा के पास सता भी है और चेतना भी है। यदि उसके पास कुछ कमी है तो स्थायी सुख एवं स्थायी आनन्द की है। आत्मा को परमात्मा बनने के लिए यदि किसी वस्तु की आवश्यकता है, तो वह है उसका अक्षय एवं अनन्त आनन्द । अक्षय आनन्द की उपलब्धि के लिए आत्मा में निरन्तर उत्कण्ठा रहती है। वह सदा आनन्द और सुख की खोज करता है । संसार के प्रत्येक प्राणी को सुख की खोज क्यों रहती है ? इसलिए कि सुख और आनन्द आत्मा का निज रूप है। चींटी से लेकर हाथी तक और गन्दो नाली के कीट से लेकर सुरलोक में रहने वाले इन्द्र तक सभी सुख चाहते हैं, आनन्द चाहते हैं। विश्व की छोटी-सेछोटी चेतना भी सुख चाहती है। भले ही, उस सुख को वह अपनी भाषा में अभिव्यक्त न कर सके। और यह भी सम्भव है कि सबकी सूख की कल्पना एक जैसी न हो। किन्तु यह निश्चित है कि सबके जीवन का ध्येय सुख प्राप्ति है। सुख कहाँ मिलेगा, कैसे मिलेगा? यह तथ्य भी सबकी समझ में एक जैसा नहीं है। किन्तु सचेतन जीवन में कभी भी सुख की अभिलाषा का अभाव नहीं हो सकता, यह ध्रुव सत्य है । सुख की अभिलाषा तो सभी को है, किन्तु उसे प्राप्त करने का प्रयत्न और वह भी उचित प्रयत्न कितने करते हैं ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। जो उचित एवं सही प्रयत्न करेगा वह एक-नएक-दिन अवश्य ही सुख पाएगा, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है । सुख की अभिलाषा प्रत्येक में होने पर भी वह सुख कहाँ मिलेगा, इस तथ्य को बिरला ही समझ पाता है । निश्चय ही उक्त अनन्त एवं
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मुक्ति का मार्ग | २५ अक्षय सुख का केन्द्र हमारी स्वयं की आत्मा है । आत्मा के अतिरिक्त विश्व के किसी भी बाह्य पदार्थ में सुख की परिकल्पना करना, एक भयंकर भ्रम है । जिस आत्मा ने अपने अन्दर में - अपने स्वरूप में ही रहकर अक्षय आनन्द का अनुसंधान कर लिया, उसे अधिगत कर लिया, दर्शन की भाषा में वह आत्मा सच्चिदानन्द बन जाता है | सत् और चित् तो उसके पास व्यक्तरूप में पहले भी थे, किन्तु आनन्द के व्यक्तरूप की कमी थी । उसकी पूर्ति होते ही, आनन्द की अभिव्यक्ति होते ही वह सच्चिदानन्द बन गया, जीव से ईश्वर बन गया, आत्मा से परमात्मा बन गया, भक्त से भगवान बन गया और उपासक से उपास्य बन गया । यही भारतीय दर्शन का मर्म है । इसी मर्म को प्राप्त करने के लिए साधक अध्यात्म साधना करता है ।
भारत के अध्यात्म-दर्शन में स्पष्ट रूप से यह बतलाया गया है कि जीवन के इस चरम लक्ष्य को कोई भी साधक अपनी साधना के द्वारा प्राप्त कर सकता है । भले ही वह साधक गृहस्थ हो अथवा भिक्षु हो । पुरुष हो अथवा नारी हो । बाल हो अथवा वृद्ध हो । भारत का हो अथवा भारत के बाहर का हो। जाति, देश और काल की सीमाएँ शक्ति पुञ्ज आत्म तत्व को अपने में आबद्ध नहीं कर सकतीं । विश्व का प्रत्येक नागरिक एवं व्यक्ति राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध बन सकता है । किन्तु जीवन की इस ऊँचाई को पार करने की उसमें जो क्षमता और योग्यता है, तदनुकुल प्रयत्न भी होना चाहिए । भारतीय संस्कृति में महापुरुषों के उच्च एवं पवित्र जीवन की पूजा एवं प्रतिष्ठा तो को गई, किन्तु उसे कभी अप्राप्य नहीं बताया गया । जो अप्राप्य है, अलभ्य है, भारतीय संस्कृति उसे अपना आदर्श नहीं मान सकती । वह आदर्श उसी को मानती है - जो प्राप्य है, प्राप्त किया जा सकता है । यह बात अलग है कि उस आदर्श को प्राप्त करने के लिए कितना प्रयत्न करना पड़ता है, कितनी साधना करनी पड़ती है। भारतीय दर्शन यथार्थ और आदर्श में समन्वय करके चलता है । भारत का प्रत्येक नागरिक यह चाहता है, कि मेरा पुत्र राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध बने तथा मेरी पुत्री ब्राह्मी, सुन्दरी, सीता और द्रौपदी बने । जीवन का यह आदर्श ऐसा नहीं है, जिसे प्राप्त न किया जा सके । भारतीय जीवन की यह एक विशेषता है कि वह अपनी संतान का नाम भी महापुरुषों के नाम पर रखती है । भारत के घरों के कितने ही आंगन ऐसे हैंजिनमें राम, कृष्ण, शंकर, महावीर और गौतम खेलते हैं । सीता,
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२६ | अध्यात्म-प्रवचन द्रौपदी, पार्वती और त्रिशला भी कम नहीं हैं। इसके पीछे एक ध्येय है और वह यह कि जैसा तुम्हारा नाम है वैसे ही तुम बन सकते हो । ये नाम केवल आदर्श नहीं हैं, यथार्थ हैं। हाँ तो, एक साधक अपने जीवन में एक आदर्शवादी दृष्टिकोण को लेकर चलता है, किन्तु उसका वह आदर्श केवल आदर्श ही नहीं है, जीवन के धरातल पर उतरने वाला एक यथार्थवाद है, आदर्श को यथार्थ में बदलने की और यथार्थ को आदर्श में बदलने की कला का यहाँ चरम विकास हुआ है । भारतीय संस्कृति का यह एक स्वस्थ, संतुलित, सुन्दर एवं मधुर सिद्धान्त रहा है कि जीवन को शान्त एवं मधुर बनाने के लिए विचार को आचार में बदला जाए और आचार को विचार में बदला जाए। भारतीय दर्शन का आदर्श आत्मा के सम्बन्ध में सच्चिदानन्द रहा है । जहाँ सत् अर्थात् सत्ता, चित् अर्थात् ज्ञान और आनन्द अर्थात् सुख तीनों की स्थिति चरम सीमा पर पहुँच जाती है, उसी अवस्था को यहाँ परमात्म-भाव कहा गया है । उसकी प्राप्ति के बाद अन्य कुछ प्राप्तव्य नहीं रहता। इसकी साधना कर लेने के बाद अन्य कुछ कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। आप ही विचार कीजिए - जब अनन्त आनंद मिल गया, अक्षय सुख मिल गया, फिर अब क्या पाना शेष रह गया? कुछ भी तो शेष नहीं बचा, जिसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया जाए एवं साधना की जाए । भारतीय दर्शन में इसी को मोक्ष कहा गया है, इसी को मुक्ति कहा गया है और इसी को मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य माना गया है। एक बात याद रखिए-जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का अनन्त आनन्द सत् है, असत् नहीं । वह केवल दुःखाभावरूप तुच्छ अभाव नहीं है । अपितु अनन्त काल से विकृत चले आ रहे आनन्द का शुद्ध रूप है। जब आत्मा स्वयं सत् है, तो उसका आनन्द असत् कैसे हो सकता है ? जब आत्मा स्वयं सत् है, तो उसका चित् (ज्ञान) असत् कैसे हो सकता है ? आत्मा में सत्, चित् और आनन्द शाश्वत हैं, नित्य हैं, इनका कभी अभाव नहीं होता।
प्रश्न किया जा सकता है कि जब आत्मा सुख-रूप एवं आनन्द रूप है, तब उसमें दुःख कहाँ से आता है और क्यों आता है ? इसके उत्तर में मैं आपसे केवल इतना ही कहूँगा, कि दुःख का मूल कारण बन्धन है। जब तक आत्मा की बद्ध दशा है, तभी तक आनन्द विकृत होकर दुःख की स्थिति में बदला रहता है। दुःख एवं क्लेश का मूल कारण कर्म, विद्या, माया एवं वासना को माना गया है। जब तक
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मुक्ति का मार्ग | २७ आत्मा कर्म के बन्धन से बद्ध है, तभी तक आनन्द विकृत रहता है, तभी तक उसे दुःख और क्लेश रहते हैं । जब आत्मा का कर्म के साथ संयोग न रहेगा, तब आनन्द अपने शुद्ध रूप में परिणत हो जायगा, फलतः सर्व प्रकार के दुःख एवं क्लेशों का क्षय हो जाएगा। ___आप यहाँ एक बात और समझ लें, देह का नाश या शरीर का छूट जाना ही मोक्ष नहीं है। ग्राम, नगर और समाज को छोड़कर शून्य निर्जन वन में चले जाना ही मोक्ष नहीं है । इस प्रकार का मोक्ष तो एक बार नहीं, अनन्त-अनन्त बार हो चुका है। वास्तविक मोक्ष यही है, कि अनन्त-अनन्त काल से आत्मा के साथ सम्बद्ध कर्म, अविद्या
और माया को दूर किया जाए। विकारों से मुक्ति ही सच्ची मूक्ति है । जीवन्मुक्ति पहले है, और विदेह मुक्ति उसके बाद में है।
भारतीय दर्शन का लक्ष्य आनन्द है । भले ही वह दर्शन भारत की किसी भी परम्परा से सम्बद्ध रहा हो। किन्तु प्रत्येक अध्यात्मवादी दर्शन इस तथ्य को स्वीकार करता है, कि साधक के जीवन का लक्ष्य एकमात्र आनन्द है । यह प्रश्न अवश्य किया जा सकता है, कि उस अनन्त आनन्द की प्राप्ति वर्तमान जीवन में भी हो सकती है, या नहीं? क्या मृत्यु के बाद ही उस अनन्त आनन्द की प्राप्ति होगी? मैं इस तथ्य को अनेक बार दुहरा चुका हूँ कि मुक्त एवं मोक्ष जीवन का अंग है। स्वयं चैतन्य का ही एक रूप है। एक ओर संसार है और दूसरी ओर मुक्ति है। जब यह जीवन संसार हो सकता है, तब यह जीबन मोक्ष क्यों नहीं हो सकता? जीवन से अलग न संसार है और न मोक्ष है । संसार और मोक्ष दोनों ही जीवन के दो पहलू हैं, दो दृष्टिकोण है। दोनों को समझने की आवश्यकता है। यह बात कितनी विचित्र है, कि संसार को तो हम जीवन का अंग मान लें, किन्तु मुक्ति को जीवन का अंग न मानें । जैन दर्शन कहता है, कि एक ओर करवट बदली तो संसार है और दूसरी ओर करवट बदली तो मोक्ष हैं । किन्तु दोनों ओर करवट बदलने वाला जीवन शाश्वत है। वह संसार में भी है और मोक्ष में भी है । इसलिए मोक्ष जीवन का ही होता है, मोक्ष जीवन में ही होता है, मृत्यु में नहीं। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह भी आखिर क्या वस्तु है ? जीवन का ही एक परिणाम है अथवा जीवन की ही एक पर्याय है । मोक्ष एवं मुक्ति यदि जीवन-दशा में नहीं मिलती है, तो मृत्यु के बादे वह कैसे मिलेगी ? अतः भारतीय दर्शन का यह एक महान आदर्श है, कि जीवन में ही मुक्ति एवं मोक्ष प्राप्त
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२८ | अध्यात्म-प्रवचन
किया जाए। इसकी दर्शन - शास्त्र में अरिहंत दशा एवं जीवन्मुक्त अवस्था कहा जाता है । जीवन्मुक्ति का अर्थ है - जीवन के रहते हुए ही, शरीर और श्वासों के चलते हुए ही, काम-क्रोध आदि विकारों से यह आत्मा सर्वथा मुक्त हो जाए । काम-क्रोध आदि विकार भी रहें और मुक्ति भी मिल जाए, यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । जैन दर्शन के अनुसार राग एवं द्वेष आदि कषायों को सर्वथा क्षय कर देना ही मुक्ति है ।
मोक्ष क्या है, यह एक चिरन्तन प्रश्न है । यह प्रश्न लाखों वर्षों से होता चला आया है और लाखों वर्षों तक होता रहेगा । आत्मवादी दर्शन के समक्ष दो ही ध्रुव केन्द्र हैं- आत्मा और उसकी मुक्ति । मोक्ष क्या वस्तु है ? इस प्रश्न के उत्तर में अध्यात्मवादी दर्शन घूमफिर कर एक ही बात और एक ही स्वर में कहते हैं कि मोक्ष आत्मा की उस विशुद्ध स्थिति का नाम है-जहाँ आत्मा सर्वथा अमल एवं धवल हो जाता है । मोक्ष में एवं मुक्ति में जीवन का विसर्जन न होकर उसके प्रति मानव-बुद्धि में जो एक प्रकार का मिथ्या दृष्टिकोण है, उसी का विसर्जन होता है । मिथ्या दृष्टिकोण का विसर्जन हो जाना, साधक जीवन की एक बहुत बड़ी उत्क्रांति है । जैन वर्शन के अनुसार मिथ्यात्व के स्थान पर सम्यक् दर्शन का, मिथ्या ज्ञान के स्थान पर सम्यक् ज्ञान का और मिथ्या चरित्र के स्थान पर सम्यक् चारित्र का पूर्णतया एवं सर्वतो भावेन विकास हो जाना ही मोक्ष एवं मुक्ति है । मोक्ष को जब आत्मा की विशुद्ध स्थिति स्वीकार कर लिया जाता है, तब मोक्ष के विपरीत आत्मा की अशुद्ध स्थिति को ही संसार कहा जाता है । संसार क्या है ? यह भी एक विकट प्रश्न है । स्थूल रूप मैं संसार का अर्थं आकाश, पाताल, सूर्य, चन्द्र, भूमि, वायु, जल और अग्नि आदि समझा जाता है । परन्तु क्या वस्तुतः अध्यात्म-भाषा में यही संसार है ? क्या अध्यात्म - शास्त्र इन सब को छोड़ने की बात कहता है ? क्या यह सम्भव है, कि भौतिक जीवन के रहते इन भौतिक तत्वों को छोड़ा जा सके ? पूर्ण अध्यात्मिक जीवन में भी, मोक्ष में भी आत्मा रहेगा तो लोक में ही, लोकाकाश में ही । लोकाकाश के बाहर कहाँ जाएगा ? जब एक व्यक्ति वैराग्य की भाषा में संसार छोड़ने की बात कहता है, तब वह क्या छोड़ता है ? अशन, वसन और भोजन इनमें से वह क्या छोड़ सकता है ? कल्पना कीजिए, कदाचित् इनको भी वह छोड़ दे, फिर भी अपने तन और मन को वह कैसे छोड़
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मुक्ति का मार्ग | २६ सकता है ? इस भूमि और आकाश का परित्याग भी वह कैसे कर सकेगा? तब फिर उसने क्या छोड़ा? हम वैराग्य की भाषा में यह कहते हैं कि एक वैराग्यशील ज्ञानी ने संसार को छोड़ दिया, किन्तु इस परित्याग का क्या अर्थ है । संसार छोड़कद वह कहाँ चला गया? और उसने छोड़ा भी क्या है ? वही शरीर रहा, वस्त्र भी वही रहा, भले ही उसकी बनावट में कुछ परिवर्तन आ गया हो ? एक गृहस्थ की वेशभूषा के स्थान पर एक साधू का वेश आ गया हो ? शरीर पोषण के लिए वही भोजन, वही जल और वही वायु रहा, तब संसार छोड़ने का क्या अर्थ हुआ ? इससे यह स्पष्ट होता है, कि यह सब कुछ संसार नहीं है । तब संसार क्या है ? अध्यात्म-भाषा में यह कहा जाता है, कि वैषयिक आकांक्षाओं, कामनाओं और इच्छाओं का हृदय में जो अनन्त काल से आवास है, वस्तुतः वही संसार है, वस्तुतः वही बन्धन है । उस आकांक्षा का नाम और वासना का परित्याग ही सच्चा वैराग्य है । कामनाओं की दासता से मुक्त होना ही संसार से मुक्त होना है। जब साधक के चित्त में आनन्द की उपलब्धि होती है, जब उसके जीवन में निराकुलता की भावना आती है, जब साधक के जीवन में व्याकुलता-रहित शान्त स्थिति आती है और यह आकुलता एवं व्याकुलता-रहित अवस्था जितने काल के लिए चित्त में बनी रहती है, शुद्ध आनन्द का वह एक मधुर क्षण भी मानव जीवन की क्षणिक मुक्ति ही है। भले ही आज वह स्थायी न हो और साधक का उस पर पूर्ण अधिकार न हो पाया हो, परन्तु जिस दिन वह उस क्षणिकता को स्थायित्व में वदलकर मुक्ति पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेगा, उसी दिन, उसी क्षण उसकी पूर्ण मुक्ति हो जायगी । जो अध्यात्म-साधक शरीर में रहकर भी शरीर में नहीं रहता, जो जीवन में रह कर भी जीवन में नहीं रहता और जो संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहता, वही वस्तुतः विमुक्त आत्मा है। देह के रहते हुए भी, देह की ममता में बद्ध न होना, सच्ची मुक्ति है। जो देह में रह कर भी देह-भाव में आसक्त न होकर देहातीत अवस्था में पहुँच जाता है, वही अरिहत है, वही जिन है और वही वीतराग है। अध्यात्म-दर्शन साधक को जगत से भागने-फिरने की शिक्षा नहीं देता, वह तो कहता है कि तुम प्रारब्ध कर्मजन्य भोग में रहकर भो भोग के बिकारों और विकल्पों के बन्धन से मुक्त होकर रहो, यही जीवन की
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३. | अध्यात्म-प्रवचन सबसे बड़ी साधना है। जीवन की प्रारब्ध प्रक्रिया से भयभीत होकर कहां तक भागते रहोगे और कब तक भागते रहोगे ? आखिर, एक दिन उससे मोर्चा लेना ही होगा । देह आदि की तथाकथित आवश्यकता की पूर्ति करते हुए भी विकारों से निर्लिप्त रहना ही होगा, अन्तर्द्वन्द्व में विजेता बनना ही होगा, यही जीवन को सच्ची कला है।
भारत के अध्यात्म साधकों की जीवन-गाथा एक-से-एक सुन्दर है, एक-से-एक मधुर है। भारत के अध्यात्म-साधक शूली की नुकीली नोंक पर चढ़कर भी मुक्ति का राग अलापते रहे हैं। भारत के अध्यात्म-साधक शूलों की राह पर चलकर भी, मुक्ति के मार्ग से विमुख नहीं हो सके हैं। चाहे वे भवन में रहे हों या वन में रहे हों, चाहे वे एकाकी रहे हों या अनेकों के मध्य में रहे हों, चाहे वे सुख में रहे हों या दुःख में रहे हों, जीवन की प्रत्येक स्थिति में वे अपनी मुक्ति के लक्ष्य को भूल नहीं सके हैं। शूली की तीक्ष्ण नोंक पर और फूलों की कोमल सेज पर अथवा रंगीले राजमहलों में या वीरान जंगलों में रहने वाले ये अध्यात्म-साधक अपने जीवन का एक ही लक्ष्य लेकर चले और वह लक्ष्य था-मुक्ति एवं मोक्ष । और तो क्या भारत की ललनाएँ अपने शिशुओं को पालने में झुलाते हुए भी उन्हें अध्यात्मवाद की लोरियां सुनाती रही हैं । मदालसा जैसी महानारियाँ गाती हैं "तू शुद्ध है, निरंजन है और निर्विकार है । इस संसार में तू संसार की माया में आबद्ध होने के लिए नहीं आया है। तेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, भव-बन्धनों का विच्छेद करना, माया के जाल को काट देना, और सर्व प्रकार के प्रपंचों एवं समग्र द्वन्द्वों से विमुक्त होकर रहना ।' मैं आपसे कह रहा था, कि जिस भारत की ललनाएँ अपने दुधमुहे शिशुओं को पालने में झुलाते हुए लोरियों में भी अध्यात्मवाद के संगीत सुनाती हैं, उस भारत के समक्ष मोक्ष एवं मुक्ति से ऊँचा अन्य कोई लक्ष्य हो नहीं सकता। ___अब प्रश्न यह उठता है कि जिस मुक्ति की चर्चा भारत का अध्यात्मवादी दर्शन जन्म-घुट्टी से लेकर मृत्यु-पर्यन्त करता रहता है, जीवन के किसी भी क्षण में वह उसे विस्मृत नहीं कर सकता, आखिर उस मुक्ति का उपाय और साधन क्या है ? क्योंकि साधक बिना साधन के सिद्धि को प्राप्त कैसे कर सकता है ? कल्पना कीजिएआपके समक्ष एक वह साधक है, जिसने मुक्ति की सत्ता और स्थिति पर विश्वास कर लिया है, जिसने मुक्ति प्राप्ति का अपना लक्ष्य भी
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मुक्ति का मार्ग | ३१ स्थिर कर लिया है, यह सब कुछ तो ठीक है-परन्तु यदि उसे यह मालूम न हो कि मुक्ति का साधन और उपाय क्या है, तब उसके सामने एक बड़ी विकट समस्या आ जाती है । साधक के जीवन में इस प्रकार की स्थिति बड़ो विचित्र और बड़ी विकट होती है । जो अकुशल नाविक नाव में बैठकर किसी विशाल नदी को पार कर रहा हो, और ऐसे ही चलते-चलते मंझधार मैं पहुँच भी चुका हो, परन्तु इस प्रकार की स्थिति में यदि सहसा झंझावात आ जाए, तूफान आ जाए, तब वह अपने को कैसे बचा सकेगा? यदि उसने बचने का उपाय पहले से नहीं सी वा है, तो । नौका एक माध्यम है जल धारा को पार करने के लिए । परन्तु नौका चलाने की कला यदि ठीक तरह नहीं सीखी है, तो कैसे पार हो सकता है ? यही स्थिति संसार-सागर को शरीर रूपी नौका से पार करते हुए अध्यात्म-साधक की होती है । मुक्ति के लक्ष्य को स्थिर कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, उससे भी बढ़कर आवश्यक यह है कि एक साधक उसे कैसे प्राप्त कर सके ? भारत के अध्यात्मवादी दर्शन में केवल मुक्ति के लक्ष्य को स्थिर ही नहीं किया गया, और केवल यही नहीं कहा गया कि मुक्ति एक लक्ष्य है और वह एक आदर्श है, बल्कि, उस लक्ष्य तक पहुँचने और उसे प्राप्त करने का मार्ग और उपाय भी बताया गया है। मुक्ति के आदर्श को बताकर साधक से यह कभी नहीं कहा गया कि वह केवल तुम्हारे जीवन का आदर्श है, पर तुम कभी उसे प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि उसकी प्राप्ति का कोई अमोघ साधन नहीं है। इसके विपरीत उसे सतत एक ही प्रेरणा दी गई, कि मुक्ति का आदर्श अपने में बहुत ऊँचा है, किन्तु वह अलभ्य नहीं है । तुम उसे अपनी साधना के द्वारा एक दिन अवश्य प्राप्त कर सकते हो। जिस आदर्श साध्य की सिद्धि का साधन हो, वह साध्य ही कैसा!
आश्चर्य है कुछ लोग आदर्श की बड़ी विचित्र व्याख्या करते हैं । उनके जीवन के शब्द-कोष में आदर्श का अर्थ है-'मानव-जीवन की वह उच्चता एवं पवित्रता, जिसकी कल्पना तो की जा सके, किन्तु जहाँ पहुँचा न जा सके ।' मेरे विचार में आदर्श की यह व्याख्या सर्वथा भ्रान्त है, बिल्कुल गलत है। भारत की अध्यात्म संस्कृति कभी यह स्वीकार नहीं कर सकती कि 'आदर्श आदर्श है, वह कभी यथार्थ की भूमिका पर नहीं उतर सकता । हम आदर्श पर न कभी पहुंचे हैं और न कभी पहुंचेंगे ।
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३२ | अध्यात्म-प्रवचन
अध्यात्मवादी दर्शन यह कैसे स्वीकार कर सकता है, कि जीवन की जिस उच्चतम और पवित्रता का हम चिन्तन तो कर सकें, किन्तु जीवन में उसका अनुभव न कर सकें। मैं उस साधना को साधना मानने के लिए तैयार नहीं हैं, जिसका चिन्तन तो आकर्षक एवं उत्कृष्ट हो, किन्तु वह चिन्तन साक्षात्कार एवं अनुभव का रूप न ले सके। केवल कल्पना एवं स्वप्नलोक के आदर्श में भारत के अध्यात्मवादी दर्शन की आस्था नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए । यहाँ तो चिन्तन को अनुभव बनना पड़ता है और अनुभव को चिन्तन बनना पड़ता है। चिन्तन और अनुभव यहाँ सहजन्मा और सदा से सहगामी रहे हैं। उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। मानव-जीवन का आदर्श स्वप्नलोक की वस्तु नहीं है कि ज्यों-ज्यों उसकी ओर आगे बढ़ते जाएँ, त्यों-त्यों वह दूर से दूरतर होती जाए। आदर्श उस अनन्त क्षितिज से समान नहीं है, जो दृष्टिगोचर तो होता हो, किन्तु कभी सुलभ न हो। धरती और आकाश के मिलन का प्रतीक वह क्षितिज, जो केवल दिखलायी तो पड़ता है, किन्तु वास्तव में जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता । मानव-जीवन का आदर्श इस प्रकार का नहीं है। भारत का अध्यात्मवादी दर्शन मानव-जीवन के आदर्श को भटकने की वस्तु नहीं मानता । वह तो जीपन के यथार्थ जागरण का एक मूल-भूत तत्त्व है। उसे पकड़ा जा सकता है, उसे ग्रहण किया जा सकता है और उसे जोवन के धरातल पर शत-प्रतिशत उतारा जा सकता है। मोक्ष केवल आदर्श ही नहीं, बल्कि, वह जीवन का एक यथार्थ तथ्य है । यदि मोक्ष केवल आदर्श ही होता, यथार्थ न होता, तो उसके लिए साधन और साधना का कथन ही व्यर्थ होता । मोक्ष अदृष्ट दैवी हाथों में रहने वालो वस्तु नही है, जिसे मनुष्य प्रथम तो अपने जीवन में प्राप्त ही न कर सके, अथवा प्राप्त करे भी तो रोने-धोने, हाथ पसारने और दया की भीख माँगने पर, अन्यथा नहीं । जैन-दर्शन में स्पष्ट रूप से कहा है कि, साधक ! मुक्ति किसी दूसरे के हाथों की चीज नहीं है। और न वह केवल कल्पना एवं स्वप्नलोक की ही वस्तु है, बल्कि, वह यथार्थ की चीज है। जिसके लिए प्रयत्न और साधना की जा सकती है तथा जिसे सतत अभ्यास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जैन-दर्शन ने स्पष्ट शब्दों में यह उद्घोषणा की है, कि प्रत्येक साधक के अपने ही हाथों में मुक्ति को अधिगत करने का उपाय एवं साधन है । और वह साधन क्या है सम्यक् दर्शन ? सम्यक् ज्ञान और सम्यक्
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मुक्ति का मार्ग | ३३ चारित्र | इन तीर्थों का समुचित रूप ही मुक्ति का वास्तविक उपाय एवं साधन है ।
कुछ विचारक भारत के अध्यात्मवादी दर्शन को निराशावादी दर्शन कहते हैं । भारत का अध्यात्मवादी दर्शन निराशावादी क्यों है ? इस प्रश्न के उत्तर में उनका कहना है कि वह वैराग्य की बात करता है, वह संसार से भोगने की बात करता है, वह दुःख और क्लेश की बात करता है । परन्तु वैराग्यवाद और दुःखवाद के कारण उसे निराशावादी दर्शन कहना कहाँ तक उचित है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । मैं इस तथ्य को स्वीकार करता हूँ कि अवश्य ही अध्यात्मवादी दर्शन ने दुःख, क्लेश और बन्धन से छुटकारा प्राप्त करने की बात को है । वैराग्य- रस से आप्लावित कुछ जीवन-गाथाएँ इस प्रकार की मिल सकती हैं, जिनके आधार पर अन्य विचारकों को भारत के अध्यात्मवादी दर्शन को निराशावादी दर्शन कहने का दुस्साहस करना पड़ा । किन्तु वस्तु-स्थिति का स्पर्श करने पर ज्ञात होता है कि यह केवल विदेशी विचारकों का मतिभ्रम मात्र है । भारतीय अध्यात्मवादी दर्शन का विकास अवश्य ही दुःख एवं क्लेश के मूल में से हुआ है, किन्तु मैं यह कहता हूँ कि भारतीय दर्शन ही क्यों, विश्व के समग्र दर्शनों का जन्म इस दुःख एवं क्लेश में से ही होता है । मानव के वर्तमान दुःखाकूल जीवन से ही संसार के समग्र दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ है । इस तथ्य को कैसे भुलाया जा सकता है, कि हमारे जीवन में दुःख एवं क्लेश नहीं है । यदि दुःख एवं क्लेश है, तो उससे छूटने का उपाय भो सोचना ही होगा । और यही सब कुछ तो अध्यात्मवादी दर्शन ने किया है, फिर उसे निराशावादी दर्शन क्यों कहा जाता है ? निराशावादी वह तब होता, जबकि वह दुःख और क्लेश की बात तो करता, विलाप एवं रुदन तो करता, किन्तु उसे दूर करने का कोई उपाय न बतलाता । पर बात ऐसी नहीं है । अध्यात्मवादी दर्शन ने यदि मानव-जीवन के दुःख एवं क्लेशों की ओर संकेत किया है, तो उसने वह मार्ग भी बतलाया है जिस पर चलकर मनुष्य सर्व प्रकार के दुःखों से विमुक्त हो सकता है । और वह मार्ग है -- त्याग, वैराग्य, अनासक्ति और जीवन-शोधन का ।
अध्यात्मवादी दर्शन कहता है कि- दुःख है, और दुःख का कारण है । दुःख अकारण नहीं है क्योंकि जो अकारण होता है उसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता, किन्तु जिसका कारण होता है, यथावसर
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३४ | अध्यात्म-प्रवचन
उसका निराकरण भी अवश्य किया जा सकता है । कल्पना कीजिएकिसी को दूध गरम करना है । तब क्या होगा ? दूध को पात्र में डालकर अँगीठी पर रख देना होगा और उसके नीचे आग जला देनी होगी । कुछ काल बाद दूध गरम होगा, उसमें उबाल आ जाएगा । दूध का उबलना तब तक चालू रहेगा, जब तक कि उसके नीचे आग जल रही है । नीचे की आग भी जलती रहे और दूध का उबलना वन्द हो जाए, यह कैसे हो सकता है ? उष्णता का कारण आग है और जब तक वह नीचे जल रही है, तब तक दूध के उबाल और उफान को शान्त करना है, तो उसका उपाय यह नही है कि दो-चार पानी के छींटे दे दिए जाएँ और बस ! अपितु उसका वास्तविक उपाय यही है, कि नीचे जलने वाली आग को या तो बुझा दिया जाए या उसे नीचे से निकाल दिया जाय । इसी प्रकार अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में दुःख को दूर करने का, उस दुःख को दूर करने का जो आदिहीन काल से आत्मा में रहा है, वास्तविक उपाय यही है, कि उसे केवल ऊपरी सतह से दूर करने की अपेक्षा उसके मूल कारण का ही उच्छेद कर दिया जाए । मानव-जीवन में दुःख एवं क्लेश की सत्ता एवं स्थिति इस तथ्य एवं सत्य को प्रमाणित करती है, कि दुःख का मूल कारण अन्यत्र नहीं, हमारे अन्दर ही है । जब तक उसे दूर नहीं किया जाएगा, दुःख की ज्वाला कभी शान्त नहीं होगी । अध्यात्मवादी दर्शन कहता है - दुःख है, क्योंकि दुःख का कारण है । और वह कारण बाहर में नहीं, स्वयं तुम्हारे अन्दर में है । दुःख के कारण का उच्छेद कर देने पर दुःख का उबाल और उफान स्वतः ही शान्त हो जाएगा । तब दुःख का अस्तित्व समाप्त होकर सहज और निर्मल आनन्द का अमृत सागर ठाठें मारने लगेगा ।
शरीर में रोग होता है, तभी उसका इलाज किया जा सकता है । रोग होगा, तो रोग का इलाज भी अवश्य होगा । यदि कोई रोगी वैद्य के पास आए और वैद्य उसे यह कह दे कि आपके शरीर में कोई रोग नहीं है, तो उसका यह कथन गलत होगा । शरीर में यदि रोग की सत्ता और स्थिति है, तो उसे स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है । शरीर में रोग की सत्ता स्वीकार करने पर भी यदि वैद्य यह कहता है, रोग तो है, किन्तु उसका इलाज नहीं हो सकता, तो यह भी गलत है । जब रोग है तब उसका इलाज क्यों नहीं हो सकता ? संसार का कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इस तर्क को स्वीकार नहीं कर
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मुक्ति का मार्ग | ३५ सकता कि रोग होने पर उसका प्रतिकार न हो सके। रोग को दुस्साध्य भले ही कहा जा सके किन्तु असाध्य नहीं कहा जा सकता। यदि चिकित्सा के द्वारा रोग का प्रतिकार न किया जा सके, तो संसार में चिकित्सा-शास्त्र का कोई उपयोग न रहेगा। विचारक लोग उसे व्यर्थ समझ कर छोड़ बैठेंगे । अस्तु चिकित्सा-शास्त्र अपने उपयोग एवं प्रयोग के द्वारा रोग का स्वरूप निश्चित करता है, रोगोत्पत्ति का कारण मालूम करता है, रोग को दूर करने का उपाय एवं साधन बतलाता है, वस्तुतः यही उसकी उपयोगिता है। इसी प्रकार अध्यात्मशास्त्र में यदि कहा जाता है, कि दुःख तो है, किन्तु उसे दूर नहीं किया जा सकता, तो यह एक ऐसा तर्क है जो किसी भी बुद्धिमान के गले उतर नहीं सकता। जब दुःख है, तो उसका प्रतिकार क्यों नहीं किया जा सकता ? दुःख के प्रतिकार का सबसे सीधा और सरल मार्ग यही है, कि दुःख के कारण को दूर किया जाए । भारत का अध्यात्मदर्शन दुःख की सत्ता और स्थिति को स्वीकार करके भी उसे दूर करने का प्रयत्न करता है, साधना करता है और उसमें सफलता भी प्राप्त करता है। इसी आधार पर मैं कहता है-भारत का मध्यात्मवादी दर्शन निराशावादी दर्शन नहीं है, वह शत प्रतिशत आशावादी है । जीवन को मधुर प्रेरणा देने वाला दर्शन है । अध्यात्मवादी दर्शन मानव-मात्र के सामने यह आघोषणा करता है, कि अपने को समझो और अपने से भिन्न जो पर है, उसे भी समझने का प्रयत्न करो। स्व और पर के विवेक से ही तुम्हारी मुक्ति का भव्य द्वार खुलेगा। शरीर में रोग है, इसे भी स्वीकार करो, और उसे उचित साधन के द्वारा दूर किया जा सकता है, इस पर भी आस्था रखो। दुःख है, इसे स्वीकार करो, और वह दुःख दूर किया जा सकता है, इस पर भी विश्वास रखो। साधन के द्वारा साध्य को प्राप्त किया जा सकता है, इससे बढ़कर मानव-जीवन का और आशावाद क्या होगा? भारत का अध्यात्मवादी दर्शन कहता है, कि साधक तू अपने वर्तमान जीवन में ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है, आवश्यकता है, केवल अपने जीवन की दिशा को बदलने की ।
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रत्नत्रय की साधना
साधक, साधन द्वारा ही साध्य को प्राप्त कर सकता है। बिना साधन के साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । कार्य छोटा हो या बड़ा, उसकी सफलता तभी होती है, जबकि उसके करने की विधि का परिज्ञान हो जाए । यह देखा जाता है कि प्रत्येक कार्य करने से पहले उसके साधन और उपायों पर विचार और चिन्तन किया जाता है । जीवन को किसी भी योजना को फलान्वित करने के लिए, उसे लागू करने के नियम और उपनियमों का विचार अवश्य किया जाता है । जीवन के सामान्य धरातल पर भी जब कार्य की सिद्धि के लिए उसके कारण, उपाय और साधनों पर विचार किया जाता है, तब मोक्ष जैसी विशाल, विराट और उदात्त सिद्धि के लिए, उसके साधन और उपायों पर अवश्य ही गम्भीरतर विचार होना चाहिए ।
वर्तमान में हम जो कुछ हैं और जैसे हैं, वैसा रहना ही हमारा उद्देश्य नहीं है । हमारे जीवन का परिलक्ष्य यह है कि हम अणु से महान बनें, क्षुद्र से विराट बनें और ससीम से असीम बनें । आत्मा ज्ञान रूप से अनन्त है, किन्तु वर्तमान में उसके ज्ञान पर आवरण होने के कारण वह अल्पज्ञ बना हुआ है । आत्मा में अनन्त शक्ति है, पर वर्तमान में उसकी वीर्य-शक्ति पर आवरण होने के कारण वह दुर्बल प्रतीत होता है । आत्मा में अनन्त सुख है, किन्तु वर्तमान विपरीत परिणति के कारण इसकी उचित अभिव्यक्ति नहीं होने पाती है, फलतः वह खिन्न और विपन्न बना हुआ है ।
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रत्नत्रय की साधना | ३७ मैं आपसे यह कह रहा था, कि शक्तिरूप में आत्मा अनन्त है, अगाध है और अपार है । उस शक्ति की अभिव्यक्ति करने के लिए ही, साधक के लिए साधना का विधान किया गया है। जैसे अणरूप बीज में विराट वृक्ष होने की शक्ति है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति तभी होती है, जबकि उसे अनुकूल पानी, प्रकाश और पवन की उपलब्धि होती है । साधना के क्षेत्र में भी यही सत्य है और यही तथ्य है, कि आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वार्य होने पर भी वर्तमान में उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो रही है । इस शक्ति की अभिव्यक्ति को ही मैं साधना कहता हूँ। आत्मा का लक्ष्य अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख प्राप्त करना है, किन्तु वह कैसे हो? इसके लिए जैन दर्शन में रत्न-त्रयी की साधना का विधान किया है। रत्नत्रयी का अर्थ है-सम्यग् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । वस्तुतः यही मोक्ष-मार्ग है, यही मोक्ष साधना है और यही मोक्ष का उपाय है । रत्न-त्रयी में आत्मा के समग्र अध्यात्म-गुणों का कथन हो जाता है। अतीत काल के तीर्थकरों ने, गणधरों ने और श्रुतधर आचार्यों ने इसी रत्न-त्रयी का साध्य की सिद्धि के लिए उपदेश दिया है और अनन्त अनागत काल में भी इसी का उपदेश दिया जाता रहेगा । जैन-दर्शन की साधना समत्व-योग की साधना है, सामायिक की साधना है एवं समभाव की साधना है। साधक चाहे गृहस्थ हो अथवा साधू हो, उसकी साधना का एकमात्र लक्ष्य यही है, कि वह बिषमता से समता की ओर अग्रसर हो। विषमभाव से निकलकर समभाव में रमण करे। इस समत्व योग में कौन कितना और कब तक रमण कर सकता है, यह प्रश्न अलग है और वह साधक की अन्तःशक्ति पर निर्भर करता है । परन्तु निश्चय ही अबल और सबल दोनों ही प्रकार के साधकों के जीवन का लक्ष्य आत्मा के निज-गुणस्वरूप अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख को प्राप्त करने का है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अथवा साध्य की सिद्धि के लिए, जैन दर्शन ने रत्न-त्रयी का विधान किया है । रत्न-त्रयी का नाम ही मोक्षमार्ग है। मार्ग का अर्थ यहाँ पर पथ एव रास्ता नहीं है, बल्कि, मार्ग का अर्थ है-साधन एवं उपाय । मोक्ष का मार्ग कहीं बाहर में नहीं है, वह साधक के अन्तर् चैतन्य में ही है, उसकी अन्तरात्मा में ही है । साधक को जो कुछ पाना है, अपने अन्दर से पाना है।
विविध शास्त्र के अध्ययन और चिन्तन से यह ज्ञात होता है, कि
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३८ / अध्यात्म-प्रवचन
आत्मा की उच्चतम एवं पवित्रतम स्थिति की सिद्धि, सिद्धत्व, अपुनावृत्ति, मुक्ति, निर्वाण तथा मोक्ष-इत्यादि विविध संज्ञाओं से कहा गया है। इस सम्बन्ध में अध्यात्मवादी दर्शन में सबसे बड़ा प्रश्न यह है, कि मोक्ष एवं मुक्ति आत्मा का स्थान-विशेष है अथवा आत्मा की स्थितिविशेष है ? सिद्ध-शिला और सिद्ध-लोक जैसे शब्द स्थान-विशेष की ओर संकेत करते हैं । तब क्या यह माना जाए कि कर्म-विमुक्त आत्मा का भी, अपना कोई रहने का स्थान है, जहां वह शाश्वत रूप में अनंत काल तक आवास करता रहता है। व्यवहार नय से यह कथन सत्य है, इसमें किसी प्रकार का भेद एवं विभेद नहीं है। परन्तु निश्चयनय से विचार करने पर मोक्ष आत्मा का स्थान नहीं, बल्कि एक स्थितिविशेष ही है । मोक्ष और उसका मार्ग, साध्य और उसका साधन, क्या अलग-अलग हो सकते हैं ? निश्चय नय की दृष्टि से साधन और साध्य में किसी प्रकार का भेद स्वीकार नहीं किया जा सकता। अध्यात्मवादी दर्शन में मोक्ष और उसके मार्ग में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता। मार्ग की, साधना की पूर्णता का नाम ही मोक्ष है । उक्त अभेद दृष्टि के अनुसार मोक्ष किसी क्षेत्र अथवा आकाश-विशेष में नहीं होता है, वह तो आत्मा में ही होता है। जहाँ आत्मा है, वहीं उसका मोक्ष है । आत्मा कहीं-न-कहीं रहेगा ही । और वह आत्मा के ठहरने का स्थान है, क्योंकि आत्मा एक द्रव्य है, और जो द्रव्य होता है, वह कहीं-न-कहीं रहेगा ही, आकाश के किसी-नकिसी देश-विशेष का अवगाहन करेगा ही। यह सम्भव नहीं है, कि आत्मा द्रव्य होकर भी किसी आकाशीय देश-विशेष का अवगाहन करता है, तब आत्मा भी एक द्रव्य होने के कारण अनन्त आकाश के किसी-न-किसी असंख्यात प्रदेशात्मक देश-विशेष का अवगाहन अवश्य ही करेगा । आत्मा-द्रव्य जिस किसी भी आकाश-देश में स्थित है, वही उसका स्थान है और वही उसका धाम है। परन्तु ध्यान रखिए आत्मा एक द्रव्य हैं, इसी आधार पर उसका एक स्थान-विशेष भी है। किन्तु मोक्ष द्रव्य नहीं है, वह आत्मा का निज-स्वरूप है । अतएव मोक्ष आत्मा का स्थान-विशेष नहीं है, बल्कि मोक्ष आत्मा की स्थितिविशेष है । जिस द्रव्य का जो स्वरूप है, वह स्वरूप अपने आधारभूत द्रव्य से अलग कैसे हो सकता है ? आत्मा पृथक रहे और उसका स्वरूप मोक्ष उससे कहीं दूर अन्य जड़ द्रव्य में अटका रहे-यह सम्भव नहीं है, न यह शास्त्र-सम्मत है और न यह अनुभव-गम्य ही है। इसी आधार पर मैं आपसे यह कह रहा था, कि जहाँ आत्मा है
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रत्नत्रय की साधना | ३६
वहीं पर उसका मोक्ष है, वहीं पर उसकी मुक्ति है । ओक्ष और आत्मा को हम अलग-अलग नहीं कर सकते । अतः जहाँ आत्मा है वहीं उसका शुद्ध स्वरूप मोक्ष भी है और जहाँ पर मोक्ष है वहाँ पर उसका द्रव्य आत्मा भी है । मोक्ष और आत्मा के पार्थक्य भाव की कल्पना नहीं की जा सकती ।
विचार कीजिए - आपके सामने अग्नि जल रही है, और आप देख रहे हैं कि उसकी दहकती ज्वालाएँ चारों ओर फैल रही हैं। अग्नि की उष्णता इतनी तीव्र है कि आप सहन नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए आप उससे दूर हटने का प्रयत्न कर रहे हैं। आपका अनुभव यह कहता है कि अग्नि की ज्वालाओं से जितनी दूर रहा जाएगा, उतना ही हम उसकी उष्णता के परिताप से बच सकेंगे । मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ, कि अग्नि और उसकी उष्णता अलग-अलग रहती है अथवा एक ही स्थान पर ? अग्नि का क्षेत्र और उसकी उष्णता का क्षेत्र अलग-अलग है, यह कहना गलत होगा । पदार्थ - विज्ञान की दृष्टि 'वास्तव में उन दोनों का एक ही क्षेत्र है । क्या आपमें से कोई भी मुझे यह बतला सकता है, कि अग्नि का क्षेत्र तो यह है और उसकी उष्णता का क्षेत्र उससे कहीं दूर अन्यत्र है । इसके विपरीत आपका अनुभव, और आपका ही क्या, संसार के प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव यह कहता है कि जहाँ अग्नि है, वहीं उसकी उष्णता है और जहाँ उष्णता है वहीं अग्नि है । भले ही इस प्रत्यक्ष अनुभव को अभिव्यक्त करने की शक्ति हर किसी व्यक्ति में न हो । वह अग्नि और उष्णता में रहने वाले तादात्म्य रूप अविना भाव सम्बन्ध को न बता सकता हो । अग्नि का स्थान बताया जा सकता है, किन्तु अग्नि से पृथक् उसकी उष्णता का स्थान नहीं बताया जा सकता । क्योंकि अग्नि एक द्रव्य है और उष्णता उसका स्वरूप है, अग्नि धर्मी है और उष्णता उसका धर्म है । धर्म बिना धर्मी के नहीं रह सकता । जहाँ पर धर्मी रहता है, वहीं पर उसका धर्मं भी अवश्य रहेगा । अग्नि कहीं पर भी. क्यों न रहे, उसमें किसी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हो सकती । किन्तु इतना निश्चित है कि अग्नि का स्वरूप उष्णता अग्नि में ही रहेगा, कहीं बाहर नहीं । यही बात और यही तर्क आत्मा और मोक्ष के सम्बन्ध में भी है । आत्मा द्रव्य है, और मोक्ष उसका स्वरूप है, आत्मा धर्मी है और मोक्ष उसका धर्म है । अतः जहां आत्मा है उसका मोक्ष भी वहीं रहेगा। जबकि मोक्ष आत्मा का स्वरूप है, तब वह आत्मा से बाहर अन्यत्र कहाँ रह सकता है ? इस
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४० | अध्यात्म-प्रवचन
eft से जब मोक्ष को आत्मा का शुद्ध स्वरूप मान लिया गया है, तब वह शुद्ध स्वरूप अपने स्वरूपी से अलग एवं पृथक् कैसे हो सकता है, और भिन्न किया भी कैसे जा सकता है ? आप एक बात ध्यान में रक्खें, कि जब कोई अनुभवी सन्त अथवा शास्त्र सिद्ध-लोक, सिद्धशिला और सिद्ध-धाम का वर्णन अथवा कथन करता है, तब वह यह बताता है, कि व्यवहार दृष्टि से यह सब कुछ आत्म रूप द्रव्य का ही स्थान - विशेष है । मोक्ष का स्थान- विशेष नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो उसका निज स्वरूप ही है और जो स्वरूप होता है, वह कभी अपने स्वरूपी से भिन्न नहीं हो सकता ।
अस्तु जहाँ आत्मा है बहीं उसका मोक्ष है और जहाँ आत्मा है वही उसका मार्ग भी है। जैन दर्शन में मोक्ष के मार्ग की धारणा एव विचारणा आत्मा से बाहर कहीं अन्यत्र नहीं की गई है । यहाँ पर मार्ग का अर्थ है - साधन, उपाय, हेतु एवं कारण । निश्चय दृष्टि का सिद्धान्त यह है कि कारण और कार्य को एक स्थान पर रहना चाहिए । यदि कारण कहीं रहे और कार्य उससे दूर कहीं अन्यत्र रहे, तब वह कार्य-कारण भाव कैसे होगा ? दूरस्थ कारण कार्य हों, तो फिर वह कारण अमुक एक कार्य का ही कारण क्यों हो, दूसरे कार्य का कारण क्यों नहीं ? जब कि कारण से कार्य का दूरत्व एवं भिन्नत्व उभयत्र समान ही है । अतः निश्चय की भाषा में जहाँ मोक्ष है वहीं उसका मार्ग भी रहेगा, वहीं उसका साधन अर्थात् कारण भी रहेगा । मोक्ष रहता है आत्मा में, अतः उसका मार्ग भी आत्मा में ही रहता है । मोक्ष मार्ग क्या है ? सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । तीनों आत्मा के निज स्वरूप ही हैं, फिर आत्मा से अलग कैसे रह सकते हैं । अतः मोक्ष और मोक्ष का मार्ग दोनों सदा आत्मा में ही रहते हैं, आत्मा से कहीं बाहर नहीं रहते ।
कारण कार्य की एक स्थानीयता के सम्बन्ध में यहाँ पर मुझे एक अनुभवी सन्त के जीवन का संस्मरण याद आ रहा है । यह संस्मरण एक वह संस्मरण है, जो साधक की मोह-मुग्ध आत्मा को झकझोर कर प्रबुद्ध कर देता है ।
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एक बार एक सन्त घूमता फिरता और रमता हुआ हरिद्वार जा पहुँचा । वहाँ इधर-उधर घूमते हुए उसने बहुत कुछ देखा और सुना चिन्तनशील सन्त का यह स्वभाव होता है, कि वह जो कुछ देखता है अथवा जो कुछ सुनता है, उस पर विचार और चिन्तन भी करता
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रत्नत्रय की साधना | ४१ जाता है। देखना और सुनना चेतना का सहज भाव है, किन्तु मनुष्य की चेतना पशु की चेतना से अधिक विकसित है, फलतः जहां पशु देख और सुन कर भी कुछ विशिष्ट विचार नहीं कर पाता, वहाँ बुद्धि का धनी मनुष्य जो कुछ देखता और सुनता है, उस पर गम्भीर एवं उदात्त विचार भी करता है। __सन्त ने देखा कि एक श्रद्धाशील भक्त गंगा के निर्मल प्रवाह में से एक लोटे में जल भरता है, उसे अपने दोनों हाथों में ऊँचा उठाकर सूर्य की ओर अपना मस्तक झुकाता है और जल-धारा छोड़ देता है।
सन्त ने पूछा कि "यह क्या हो रहा है ?" ___ गंगा तट के पास खड़े पण्डों ने कहा कि “आपको पता नहीं ? सूर्य को जल चढ़ाया जा रहा है।"
अनुभवी एवं ज्ञानी सन्त ने यह सब देखा, और सुना तो अपने मन में उठने वाले तर्क को वह रोक न सका। किन्तु उसकी अभिव्यक्ति सन्त ने अपनी वाणी के माध्यम से न कर अपनी कृति के माध्यम से की।
वह सन्त गंगा की धारा में गया और कमण्डल में जल भर कर सूर्य से विपरीत दिशा की ओर फेंकने लगा।
तट पर स्थित पण्डों ने और उनके श्रद्धाशील अनेक भक्तों ने इस अजीबो-गरीब नजारे को देखा तो हसने लगे। दो-चार पण्डे आगे बढ़े और मुस्करा कर सन्त से पूछने लगे-"महाराज, आप यह क्या कर रहे हैं ? सूर्य को गंगा-जल अर्पण न करके इधर कहाँ और किसे जल चढ़ा रहे हो? बहुत देर से हम आपके इस अनोखे कार्य को देख रहे हैं, पर कुछ समझ में नहीं आया कि आपका क्या तात्पर्य है ?" ____ अनुभवी एव ज्ञानी सन्त ने गम्भीर होकर पण्डों की बातों को सुना और मुस्करा कर बोले-"मैं बहुत दूर से आया है। मेरे देश में बहुत सूखा है, जल का अभाव है । अतः मैंने सोचा कि गंगा का जल बड़ा ही स्वच्छ और पवित्र है, क्यों न मैं यहाँ बैठा-बैठा गंगा के स्वच्छ एवं पवित्र जल को अपने देश के सुदूर खेतों में पहुँचा दूं ? मुझे सूर्य को जल नहीं चढ़ाना है, मुझे तो अपने देश के खेतों को जल पहुँचाना है। अतः अपने देश की ओर ही जल अर्पण कर रहा हूँ, ताकि मेरे देश के सूखे खेत हरे-भरे हो उठे।"
यह सुनकर सब के सब भक्त और पण्डे हँस पड़े और बोले"मालूस होता है आपका दिमाग ठिकाने पर नहीं है । भला यहाँ दिया
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४२ | अध्यात्म-प्रवचन गया पानी आपके सुदूर देश के खेतों में कैसे पहुँच जाएगा? यहां की गंगा का जल आपके देश के खेतों को हरा-भरा कैसे कर देगा? आपके देश के खेतों के लिए तो आपके देश का जल ही काम आ सकता है । आप यहाँ इतनी दूर बैठे, इस प्रकार गंगा-जल अपने देश के खेतों में कैसे पहुंचा सकते हैं।"
सन्त स्वर में माधुर्य भरते हुए बोले-“जब आपका किया हुआ जलदान इस मृत्युलोक से सूर्यलोक में पहुँच सकता है और वहाँ स्थित अतृप्त सूर्यदेव परितृप्त हो सकता है, अथवा सूर्य के माध्यम से पितृलोक में पितरों को जल मिल सकता है; तब मेरा यह जल-दान मेरे देश के खेतों में क्यों नहीं पहुंच सकता? मेरा देश तो आपके सूर्यलोक एवं पितृलोक से बहुत निकट है । मैं समझता हूँ जब यहाँ का जलदान एक लोक से दूसरे लोक में पहुंच सकता है अथवा पहुँचाया जा सकता है, तब इसी धरती का जल इसी धरती के दूसरे देश में क्यों नहीं पहुँच सकता अथवा क्यों नहीं पहुँचाया जा सकता ?"
सन्त का तर्क बड़ा ही प्रखर एवं जोरदार था। सब सकपका कर रह गए। किसी से कोई उत्तर नहीं बन सका। सब सन्त के मुख की ओर देखने लगे। सबने देखा कि सन्त के मुख मण्डल पर और उसके सतेज नेत्रों में ज्ञान की आभा चमक रही है।
सबको मौन देखकर सन्त ने गम्भीरता के साथ कहा-"मेरी बात आप लोगों की समझ में आई या नहीं ? मनुष्य जो भी कर्म अपनाए, पहले उसे बुद्धि और विवेक से छान लेना चाहिए ?"
एक वयोवृद्ध पण्डे ने कहा-"महाराज, आपकी बात समझ में तो आती है। परन्तु हमारे पास शास्त्र का आधार है। जब कि आपके पास वह आधार नहीं है। शास्त्र एवं पुराणों में सूर्य को जलदान का विधान किया गया है, इसलिए हम लोग हजारों पीढी से इस कार्य को कर रहे हैं। भला, शास्त्र की बात से कौन इन्कार कर सकता है ? शास्त्रों के प्राचीन विधान से इन्कार कैसे किया जा सकता है।"
सन्त ने गम्भीर होकर कहा-“शास्त्र जो कुछ कहता है, वह जरा थोड़ी देर के लिए अलग रख दीजिए। मैं आपसे केवल यही पूछता हूँ कि इस विषय में आपकी अपनी बुद्धि क्या कहती है और वह क्या निर्णय करती है ? क्या आपकी बुद्धि में यह सब कुछ तक संगत है ? सबसे बड़ा शास्त्र तो आपकी बुद्धि का है । पहले यह देखो और सोचो, कि इस विषय में तुम्हारी बुद्धि का क्या निर्णय है ? शास्त्र के नाम
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रत्नत्रय की साधना | ४३
पर जो कुछ चल रहा है, उसके अच्छे और बुरे परिणामों तो तौलने की तुलना हमारी बुद्धि ही है। मानव जीवन का सबसे बड़ा शास्त्र चिन्तन और अनुभव है । जिसे आज शास्त्र कहा जाता है, आखिर, वह भी तो किसी युग के व्यक्ति-विशेष का चिन्तन और अनुभव ही है । बुद्धि के बिना तो शास्त्र के मर्म को भी नहीं समझा जा सकता । इसलिए जीवन और जगत में शास्त्रों का भी शास्त्र बुद्धि को माना गया है । यदि बुद्धि न होती तो इन शास्त्रों का निर्माण भी कैसे होता ? और फिर जिन्हें हम शास्त्र कहते हैं, उनमें भी जहाँ-तहाँ परस्पर विरोधी बातों का उल्लेख मिल जाता है । वहाँ कैसे निर्णय करोगे ? यदि कहो कि बुद्धि और तर्क से, तब तो शास्त्र बड़ा नहीं, बुद्धि ही बड़ी रही और वस्तुतः बुद्धि ही सबसे बड़ी है । बुद्धि के बिना संसार का एक भी कार्य सफल नहीं हो सकता । जीवन और जगत के प्रत्येक व्यवहार में बुद्धि की बड़ी आवश्यकता है । यह माना कि शास्त्र बड़ा है, और उसकी शिक्षा देने वाला गुरु भी बड़ा है । किन्तु जरा कल्पना तो कीजिए - शास्त्र भी हो और गुरु भी हो, परन्तु शास्त्र के गम्भीर रहस्य को और गुरु के उपदेश के मर्म को समझने के लिए बुद्धि न हो तो क्या प्राप्त हो सकता है ? शास्त्र और गुरु केवल मार्ग-दर्शक हैं । सत्य एवं सत्य का निर्णय, अच्छे और बुरे का निश्चय, आखिर बुद्धि को ही करना है । एक ही शास्त्र के एक ही वचन का अर्थ करने में विचार-भेद हो जाने पर उसका निर्णय भी अन्ततोगत्वा बुद्धि ही करती है । शास्त्रों के अनेक वचन देश-काल और व्यक्ति-विशेष के सन्दर्भ में सामयिक भी होते हैं, त्रैकालिक नहीं । और इस उपयोगिता अनुपयोगिता का निर्णय, हजारों वर्षों बाद कौन करता है ? पाठक की विवेकशील बुद्धि ही उक्त निर्णय करने की क्षमता रखती है । भले ही आज हमारी बुद्धि पुराने महासागरों के सामने एक लघु बिन्दु के समान हो, परन्तु हमारा बिन्दु ही हमारे काम आएगा, जीवन की समस्याओं का फैसला उसे ही करना होगा ।"
ज्ञानी एवं अनुभवी सन्त की इस तथ्य पूर्ण बात को सुनकर वे सब श्रद्धाशील भक्त और पण्डे बड़े प्रसन्न हुए । सन्त के अनुभव से अनुप्राणित तर्क के समक्ष वे सब नतमस्तक थे । सन्त के कहने का ढंग इतना मधुर एवं प्रिय था, कि सन्त की बात उन सब लोगों के गले आसानी से उतर गई और उन लोगों ने यह समझ लिया कि जीवन शास्त्र और गुरु का महत्व होते हुए भी, अन्त में सत्य एवं तथ्य का निर्णय बुद्धि ही को करना पड़ता है ।
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४४ | अध्यात्म-प्रवचन
आप प्रस्तुत कथा सूत्र पर विचार करेंगे, तो पता लगेगा कि इस कथा में क्या रहस्य अन्तनिहित है? कार्य-कारण की एक-स्थानीयता का यह प्रमुख उदाहरण है। सन्त ने कहा है कि जल यहाँ है और सूर्य दूर है, भला यहाँ का जल सुदूर सूर्य लोक में कैसे तृप्ति का साधन हो सकता है ? जल यहाँ है, और खेत सुदूर प्रदेश में हैं। यहाँ का गंगा जल उन खेतों की इतनी दूर कैसे सिचाई कर सकता है ? जहाँ कारण है, वहीं उसका कार्य भी हो सकता है । ऐसा नहीं कि कारण कहीं है,
और कार्य कहीं अन्यत्र हो जाए। कारण और कार्य में न देश का व्यवधान होना चाहिए और न काल का ही। कारण के अव्यवहित उत्तर क्षण में और उसी कारण के प्रदेश में कार्य हो जाना चाहिए। निश्चय दष्टि से विचार करते हैं, तो दार्शनिक क्षेत्र का यह निर्णय पूर्ण रूप से अकाट्य निर्णय है। मिट्टी से घड़ा बनता है। व्यवहार-प्रधान साधारण दृष्टि से भले ही खान मैं पड़ी हुई, या कुम्हार के घर पर पिण्डरूपेण तैयार की हुई मिट्टी को घड़े का कारण कह दें। परन्तु निश्चय दृष्टि से विचार करें, तो वह मिट्टी घट का कारण नहीं है । जिससे कालान्तर में कार्य हो, वह कैसे कारण हो सकता है। अस्तु, कार्य-कारण के सिद्धान्तानुसार निश्चय में वही मिट्टी, जो चाक पर चढ़कर स्थास, कोश, कुशूल आदि विभिन्न पर्यायों को, अवस्थाओं को पार करती हुई जब घट पर्याय के उत्पत्ति क्षण से पूर्व क्षण में पहुँचती है, जिसके अनन्तर बिना किसी अन्य पर्याय एवं दशा के घट कार्य होता है, वही पूर्व पर्याय-विशिष्ट मिट्टी हो उत्तर पर्याय रूप घट का कारण होती है। ___ कार्य कारण के सम्बन्ध में विचार-चर्चा काफी सूक्ष्म होती जा रही है। आप सब इतनी गहराई में, सम्भव है, नहीं जाना चाहेंगे। अस्तु, संक्षेप में आप इतना ही हृदयंगम कीजिए कि कारण कार्य में देश काल का व्यवधान नहीं होता है । जब कि स्थूल भौतिक कार्य कारण में भी यह सिद्धान्त निश्चित है, तब आत्मा के आध्यात्मिक क्षेत्र में तो यह विपरीत हो ही कैसे सकता है ? आत्मा का मोक्ष कार्य है और सम्यग्दर्शनादि धर्म मोक्ष का कारण है। मोक्ष और मोक्ष का साधन धर्म दोनों ही आत्मस्वरूप हैं। क्योंकि जब सम्यग् दर्शन आदि आत्म स्वरूप हैं, तो उनका कार्य मोक्ष भी आत्म स्वरूप ही होना चाहिए । अतएव मोक्ष का लोक आत्मा है, आकाश-विशेष नहीं । ऐसा नहीं हो सकता कि कारण चैतन्य में हो, और उसका कार्य जड़ में हो
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रत्नत्रय की साधना | ४५ जाए। चित् का कार्य चित् में ही हो सकता है और वह चिद्रूप ही हो सकता है।
मैं आपसे मोक्ष और उसके मार्ग की बात कह रहा था। मैंने आपको यह बतलाने का प्रयत्न किया था कि मोक्ष और मोक्ष का साधन धर्म आत्मा में ही रहते हैं, कहीं बाहर नहीं। जहाँ कहीं आगमों में लोकाग्र भाग में मोक्ष का स्थानत्वेन उल्लेख है, वह व्यवहार दृष्टि में औपचारिक कथन है, नैश्चयिक नहीं। तर्क द्वारा प्राप्त निर्णय ही मोक्ष सम्बन्धी स्थान और स्थिति की गुत्थी को सुलझा सकता है । जब आत्मस्वरूप भूत मोक्ष का निवास आत्मा के अन्दर ही है, तब उसका साधन अर्थात् कारण भी आत्मा के अन्दर ही होगा। कभी यह नहीं हो सकता, कि आत्मा कहीं रहे, उसका मोक्ष कहीं रहे, और उसका मार्ग एवं उपाय कहीं अन्यत्र रहे।
चेतन की क्रियाओं का आधार चेतन ही हो सकता है, जिस प्रकार जड़ की क्रियाओं का आधार जड़ तत्व होता है। शरीर की क्रियाओं एवं चेष्टाओं को जैन-दर्शन आस्रव की कोटि में डाल देता है, क्योंकि वे जड़ की क्रियाएं हैं, आत्मा के निज स्वरूप की क्रियाएँ नहीं है । जो आत्मा के निज स्वरूप की क्रियाएँ होती हैं, वे ही मोक्ष मार्ग बनती हैं । इसलिए आत्मा से भिन्न शरीर आदि की जड़ क्रियाएँ मोक्ष प्रदान नहीं कर सकतीं, जब तक कि साधना के मूल में शुद्धोपयोग एवं शुद्ध ज्ञान चेतना की क्रियाशीलता न हो । अध्यात्मवादी दर्शन कहता है, कि जब मोक्ष में शरीर ही साथ नहीं जाता और वह यहीं रह जाता है, तब उसका वेश आदि, जो एक बाह्य, तत्त्व है, एक जड़ तत्त्व है, मोक्ष का कारण कैसे हो सकता है ? ये वेश आदि बाह्य उपकरण शरीराश्रित होते हैं, इसलिए निश्चय दृष्टि से वे मोक्ष के अंग नहीं बन सकते । और तो क्या, बाह्य तप भी शरीराश्रित होने से साक्षात् मोक्ष रूप में स्वीकृत नहीं है। हाँ, व्यवहार नय से यदि उन्हें मोक्ष का अंग माना जाए, तो किसी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हो सकती। निश्चय दृष्टि में तो सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये ही मोक्ष के कारण हैं और ये ही मोक्ष के अंग हैं। अशुभ उपयोग से हटकर शुभ उपयोग में और अन्ततः शुभ उपयोग से भी हटकर आत्मा जब शुद्ध उपयोग में स्थिर हो जाएगा, तभी वस्तुतः उसका मोक्ष हो सकेगा । यह निश्चित है, कि अशुभ और शुभ दोनों ही द्वारों को बन्द करना पड़ेगा । यदि पाप से मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती, तो यह
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४६ अध्यात्म-प्रवचन
भी सुनिश्चित हैं, कि पुण्य से भी मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती । कुछ काल के लिए शुभ साधक की साधना का विश्राम स्थल भले ही बन जाए, किन्तु वह उसका ध्येय नहीं बन सकता। शुभ अशुभ की निवृत्ति के लिए होता है, शुद्धत्व की प्राप्ति के लिए नहीं । अध्यात्म शास्त्र में साधक की साधना का एक मात्र ध्येय है - वीतराग भाव एवं स्वरूप रमणता । अपने स्वरूप में स्व के रमण को ही जैन दर्शन सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्म्यक् चारित्र कहता है । सम्यक् दर्शन क्या वस्तु है और उसका क्या स्वरूप है ? इसकी चर्चा में विस्तार के साथ आगे करूँगा, किन्तु यहाँ पर आप सम्यक् दर्शन का इतना ही अर्थ समझ लें कि अपने आत्म-स्वरूप की प्रतीति, आत्म-स्वरूप का विश्वास और आत्म स्वरूप पर आस्था होना ही सम्यक् दर्शन है । अध्यात्मवादी दर्शन यह कहता है, कि आपको ईश्वर की सत्ता पर आस्था हो या न हो, परन्तु स्वयं अपनी आत्मा की सत्ता पर आस्था होना सबसे बड़ी बात है । मैं समझता हूँ कि जिसको अपनी आत्म-सत्ता पर विश्वास है, उसे ही परमात्म-सत्ता पर भी विश्वास हो सकता है । क्योंकि जो आत्मवादी होता है, वही कर्मवादी भी हो सकता है, और जो कर्मवादी होता है, वही लोकवादी भी हो सकता है । परन्तु जिसको अपनी आत्मा की सत्ता पर ही आस्था नहीं है, उसे कभी भी कर्म पर विश्वास नहीं हो सकता, और जिसका कर्म पर विश्वास नहीं है उसका लोक परलोक पर भी विश्वास नहीं हो सकता । मोक्ष पर विश्वास तो होगा ही कहाँ से ? अस्तु, सच्चा आत्मवादी ही मोक्ष की साधना कर सकता है । अपने मूल स्वरूप की प्रतीति ही सबसे मुख्य बात है । जिसने अपनी मूल सत्ता पर आस्था और श्रद्धा नहीं की, वह अन्य किसी पर भी सम्यक् विश्वास नहीं कर सकता । "मैं हूँ" इस पर पूर्ण प्रतीति के साथ विश्वास करो, क्योंकि “मैं” की सत्ता की शुद्ध आस्था ही यथार्थ में सम्यक् दर्शन है ।
सम्यग्-दर्शन आत्म-सत्ता की आस्था है । सम्यक् दर्शन-आत्मा का स्वरूप-विषयक एक दृढ़ निश्चय है । मैं कौन हूँ? मैं क्या हूँ ? मैं कैसा हूँ ? इसका अन्तिम निर्णय एवं निश्चय ही सम्यक् दर्शन है । संसार में अनन्त पदार्थ हैं, अनन्त चेतन और अनन्त जड़ हैं। जड़ और चेतन में भेद - विज्ञान करना, यही सम्यक् दर्शन का वास्तविक उद्देश्य है । स्व और पर का, आत्मा और अनात्मा का, चैतन्य और जड़ का जब तक भेद-विज्ञान नहीं होगा, तब तक यह नहीं समझा जा सकता कि
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रत्नत्रय की साधना | ४७ साधक को स्व-स्वरूप की उपलब्धि हो गई है। स्व-स्वरूप की उपलब्धि होते ही, यह आत्मा अहता और ममता के बन्धनों में बद्ध नहीं रह सकता । जिसे आत्म-बोध एवं चेतना-बोध हो जाता है, वही आत्मा यह निश्चय कर सकता है, कि मैं शरीर नहीं हैं, मैं मन नहीं हूँ, क्योंकि यह सब कुछ भौतिक है एवं पुद्गलमय है। इसके विपरीत मैं चेतन हूँ, आत्मा हूँ तथा मैं अभौतिक हूँ, पुद्गल से सर्वथा भिन्न हूँ । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ और पुद्गल कभी ज्ञान स्वरूप नहीं हो सकता । जबकि आत्मा और पुद्गल में इस प्रकार मूलतः एवं स्वरूपतः विभेद है, तब दोनों को एक मानना अध्यात्म-क्षेत्र में सबसे बड़ा अज्ञान है और यही सबसे बड़ा मिथ्यात्व है। यह अज्ञान और मिथ्यात्व सम्यकदर्शन-मूलक सम्यक् ज्ञान से ही दूर हो सकता है,। सम्यगदर्शन और सम्यकज्ञान से हो आत्मा यह निश्चय करता है, कि अनन्त अतीत में भी जब पुद्गल का एक कण मेरा अपना नहीं हो सका, तब अनन्त अनागत में वह मेरा कैसे हो सकेगा, और वर्तमान के क्षण में तो उसके अपना होने की आशा ही कैसे की जा सकती है ? मैं, मैं हूँ और पुद्गल पुद्गल है । आत्मा कभी पुद्गल नहीं हो सकता, और पुद्गल कभी आत्मा नहीं हो सकता। इस प्रकार का बोध-व्यापार ही वस्तुतः सम्यक ज्ञान कहा जाता है। साधक कहीं भी जाए और कहीं पर भी क्यों न रहे, उसके चारों और नाना प्रकार के पदार्थों का जमघट लगा रहता है । पुद्गल की सत्ता को कभी मिटाया नहीं जा सकता। यह कल्पना करना भी दुस्सह है, कि कभी पुद्गल नष्ट हो जाएगा, और जब पुद्गल नष्ट हो जाएगा, तब मेरी मुक्ति हो जाएगी। इस विश्व के कण-कण में अनन्त-अनन्तकाल से पुद्गल की सत्ता रही है और अनन्त भविष्य में भी वह रहेगी। तब भव-बन्धन से भक्ति कैसे मिले ? यह प्रश्न साधक के सामने आकर खड़ा हो जाता है । अध्यात्म-शास्त्र इसका एक ही समाधान देता है, कि पुद्गल के अभाव की चिन्ता मत करो। साधक को केवल इतना ही सोचना और समझना है, कि आत्मा में अनन्तकाल से पूदगल के प्रति जो ममता है, उस ममता को दूर किया जाए और जब पुद्गल की ममता ही दूर हो गई, तब एक पुद्गल तो क्या, अनन्त-अनन्त पुद्गल भी आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं सकते। सम्यक् ज्ञान का अर्थ हैआत्मा का ज्ञान, आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का ज्ञान । आत्म-विज्ञान की उपलब्धि होने के बाद अन्य भौतिक ज्ञान की उपलब्धि न होने
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४८ | अध्यात्म-प्रवचन
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पर भी आत्मा का कुछ बनता बिगड़ता नहीं है। ज्ञान की अल्पता भयंकर नहीं है, उसकी अज्ञान रूप विपरीतता ही भयंकर है । आत्मज्ञान यदि कण भर है, तो वह मन भर भौतिक ज्ञान से भी अधिक श्रेष्ठतर एवं श्रेष्ठतम है । आत्म-साधना में ज्ञान की विपुलता अपेक्षित नहीं है, किन्तु ज्ञान की विशुद्धता ही अपेक्षित है ।
एक आचार्य के अनेक शिष्य थे । उनमें सभी प्रकार के शिष्य थे, कुछ ज्ञानी और कुछ तपस्वी । उनमें एक मन्द-बुद्धि शिष्य भी था । उसकी अवस्था परिपक्व थी। गुरु उसे सिखाने का बहुत कुछ प्रयत्न करते थे, किन्तु उसे कुछ भी समझ नहीं पड़ती थी। अपनी बुद्धि की मन्दता पर उसे बड़ा दुःख था और इसलिए वह बड़ा खिन्न रहा करता था ।
एक दिन उसे खिन्न एवं उदासीन देखकर गुरु ने पूछा - "तू इतना खिन्न और उदासीन क्यों रहता है ? तू गृहस्थ की ममता छोड़ कर साधना के क्षेत्र में आया है । यहाँ आकर तुझे सर्वथा स्वस्थ एवं प्रसन्न रहना चाहिए । साधक के जीवन के साथ खिन्नता और उदासीता का मेल नहीं बैठता है, वत्स !"
शिष्य ने कहा - "गुरुदेव ! आपका कथन यथार्थ है । मुझे खिन्न और उदासीन नहीं रहना चाहिए। आपके चरणों में मुझे किसी भी प्रकार का अभाव नहीं है । आपका असीम अनुग्रह ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी थाती है । परन्तु क्या करू, अपनी मन्द बुद्धिता पर मुझे बड़ा दुःख होता है । मैं अधिक शास्त्राध्ययन नहीं कर सकता । मुझे तो थोड़े से में बहुत कुछ आ जाये, आपकी ऐसी कृपा चाहिए ।"
गुरु ने कहा - " चिन्ता मत कर । मैं तुझे ऐसा ही एक छोटा सा सूत्र बतला देता हूँ, उसका तू चिन्तन-मनन कर अवश्य ही तेरी आत्मा का कल्याण होगा । समग्र धर्म और दर्शन की चर्चा का सार इस एक सूत्र में आ जाता है ।"
गुरु ने अपने उस मन्दबुद्धि शिष्य को यह सूत्र बतलाया - "म रुष मा तुष ।" इसका अर्थ है-न किसी के प्रति द्वेष कर और न किसी के प्रति राग कर । अर्थात् साधना का सार निर्बिकल्प समभाव है ।
गुरु ने अनुग्रह करके बहुत ही छोटा, किन्तु अर्थं गम्भीर सूत्र बतला तो दिया, किन्तु वह शिष्य इतना अधिक मन्द-बुद्धि था, कि
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रत्नत्रय की साधना | ४६ उसे वह लघु सूत्र भी याद नहीं रहा। उसके बदले वह "मासतुष रटने लगा । जिसका अर्थ होता है-उड़द का छिलका। इसी को गुरु के द्वारा दिया हुआ सूत्र समझकर वह निरन्तर रटता रहा और जपता रहा । रटते-रटते उसकी भावना विशुद्ध और विशुद्धतर होती गई । अभ्यास में बड़ी शक्ति होती है। निरन्तर का अभ्यास और निरन्तर की साधना से, सब कुछ साधा जा सकता है। भले ही गुरु के द्वारा दिये गए सूत्र के शब्द उसे अक्षरशः याद न रहे, किन्तु गुरु द्वारा दी गई भावना को उसने पकड़े रखा। शक्ति शब्द में नहीं रहती, उसकी भावना और अर्थ में रहती है। शब्द जड़ है, क्योंकि वह भाषा-रूप होता है, किन्तु जब उस शब्द में भावना का रस उँडेल दिया जाता है, श्रद्धा एवं आस्था का रस डाल दिया जाता है, तब उसमें अनन्त शक्ति प्रकट हो जाती है।
गुरु ने अपने मन्द बुद्धि शिष्य को जो सूत्र दिया था, उसकी भावना यह थी कि-किसी पर द्वष मत करो और किसी पर राग मत करो। राग और द्वेष यही सबसे बड़े बन्धन हैं । राग और द्वष के विकल्प जब तक दूर नहीं होंगे, तब तक अध्यात्म साधना सफल नहीं हो सकती। राग और द्वष के विकार को दूर करने के लिए ही साधना की जाती है। शिष्य को अपने गुरु के वचनों पर अटल आस्था थी, इसलिए उस सूत्र को शब्दशः न समझने पर भी रटता रहा, जपता रहा । कथाकार कहते हैं कि मन्द-बुद्धि शिष्य ने मासतुष के अर्थ पर ही चिन्तन प्रारम्भ कर दिया कि जैसे उड़द और उसका छिलका भिन्न है, उसी प्रकार मैं और मेरा शरीर भिन्न हैं। जैसे काला छिलका दूर होने पर उड़द अन्दर से श्वेत निकलता है, वैसे ही काले विकारों के दूर होने पर अन्दर से आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है । इस प्रकार शब्द से गलत, किन्तु अर्थ से सत्य उस सूत्र का भावात्मक ध्यान करते हुए एक दिन उस मन्द बुद्धि शिष्य को केवल ज्ञान की वह अमर ज्योति प्राप्त हो गई, जो एक बार प्रज्वलित होकर फिर कभी बुझती नहीं है, जो एक बार प्रकट होकर फिर कभी नष्ट नहीं होती है । आचार्य के दूसरे शिष्य, जो बड़े-बड़े ज्ञानी और पण्डित थे, इस मन्द बुद्धि शिष्य के समक्ष हतप्रतिभ हो गए। केवल ज्ञान की महाप्रभा के समक्ष उनके ज्ञान की प्रभा उसी प्रकार फीकी पड़ गई, जैसे कि सूर्योदय होने पर तारामण्डल की पभा फीकी पड़ जाती है । गुरु को तथा अन्य अनेक शिष्यों
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५० | अध्यात्म-प्रवचन को जब उक्त तथ्य का पता चला, तब वे सब आश्चर्यचकित हो गये। गुरु के हृदय में इस बात की परम प्रसन्नता थी, कि मेरे शिष्य का अज्ञान सर्वथा दूर हो गया और केवल-ज्ञान की वह अमर ज्योति उसे प्राप्त हो गई, जो अभी तक मुझे और अन्य शिष्यों को भी प्राप्त नहीं हो सकी है। इससे बढ़कर गुरु को और क्या प्रसन्नता हो सकती थी?
मैं आपसे कह रहा था कि जब तक अन्दर के विकल्प और विकार दूर नहीं होंगे, तब तक आत्म-साधना का फल प्राप्त नहीं हो सकता। यदि ज्ञान आत्मा के राग द्वेषात्मक विकल्पों को दूर नहीं कर सकता, तो वह वास्तव में सम्यक ज्ञान ही नहीं है। वह सूर्य ही क्या, जिसके उदय हो जाने पर भी रात्रि का अन्धकार शेष रह जाए? सम्यक ज्ञान की उपयोगिता इसी में है, कि उसके द्वारा साधक अपने विकल्प और विकारों को समझ सके । उन्हें दूर करने की दिशा में उचित विचार कर सके।
आत्म-सत्ता की सम्यक प्रतीति हो जाने पर और आत्म-स्वरूप की सम्यक् उपलब्धि अर्थात् ज्ञप्ति हो जाने पर भी जब तक उस प्रतीति और उपलब्धि के अनुसार आचरण नहीं किया जाएगा, तब तक साधक की साधना परिपूर्ण नहीं हो सकेगी। प्रतीति और उपलब्धि के साथ आचार आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । हमने यह विश्वास कर लिया कि आत्मा है, हमने यह भी जान लिया कि आत्मा पुद्गल से भिन्न हैं, परन्तु जब तक उसे पुद्गल से पृथक करने का प्रयत्न नहीं किया जाएगा तब तक साधक को अभीष्ट सिद्धि नहीं हो सकती। सम्यक् दर्शन होने का सबसे बड़ा फल यही है, कि आत्मा का अज्ञान सम्यक ज्ञान में परिणत हो गया। परन्तु सम्यक ज्ञान का फल यह है कि आत्मा अपने विभाव को छोड़कर स्वभाव में स्थिर हो जाए। आत्मा अपने विकल्प और विकारों को छोड़कर स्व-स्वरूप में लीन हो जाए । विभाव, विकल्प और विकारों से पराङ मुख होकर अन्तमुंख होना, इसी को स्वरूप-रमण कहा जाता है। और स्वरूप में रमण करना, अर्थात् स्व-स्वरूप में लीन हो जाना, यही आध्यात्मिक भाषा में सम्यक् चारित्र है । यही विशुद्ध संयम है और सर्वोत्कृष्ट शील है। चारित्र, आचार, संयम और शील आत्मा से भिन्न नहीं है। आत्मा की ही एक शुद्ध शक्ति-विशेष है। जैन-दर्शन कहता है किविश्वास को विचार में बदलो और विचार को आचार में बदलो, तभी साधना परिपूर्ण होगी । चारित्र, अथवा आचार का अर्थ केवल
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रत्नत्रय की साधना | ५१ वाह्य क्रिया काण्ड ही नहीं है । वाह्य क्रिया काण्ड तो अनन्त काल से और अनन्त प्रकार का किया गया है, किन्तु उससे लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो सकी । बाह्य क्रिया काण्ड अध्यात्म साधना में यथावसर उपयोगी एवं सहायक तो हो सकता है, किन्तु वही सब कुछ नहीं है । सम्यक् चारित्र आत्म-स्थिति रूप है, अतः वह आत्मरूप है, अन्य रूप नहीं ।
अध्यात्मवादी दर्शन के समक्ष जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य स्वरूप की उपलब्धि, स्व स्वरूप में लीनता और स्व-स्वरूप में रमणता है । शास्त्र की परिभाषा में इसी को भाव चारित्र कहा जाता है । जीवन विकास के लिए द्रव्य और भाव दोनों की आवश्यकता है । परन्तु अनिवार्यता और अपरिहार्यता भाव की ही रहेगी । यदि भाव है तो द्रव्य का भी मूल्य आंका जा सकता है। किन्तु, भावशून्य द्रव्य का कुछ भी मूल्य नहीं है । यदि केवल एक का अंक ही है, शून्य नहीं है, तब भी उस एक अंक का मूल्य है, किन्तु अंक-शून्य शून्य विन्दुओं का क्या मूल्य हो सकता है ? भले ही उन शून्य बिन्दुओं को कितनी ही संख्या क्यों न हो । यदि शून्य बिन्दुओं के प्रारम्भ में कोई भी अंक होगा, तो जितने शून्य विन्दु बढ़ते जाएँगे उसकी संख्या का महत्व भी उतना ही अधिक बढ़ता जाएगा । अध्यात्मवादी दर्शन गणित के इसी सिद्धांत को अध्यात्म क्षेत्र में लागू करना चाहता है । वह कहता है कि यदि निश्चय चारित्र नहीं है, निश्चय शून्य केवल व्यवहार चारित्र है, तो उससे कभी भी स्व-स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । व्यवहार का मूल्य अवश्य है, उससे इन्कार नहीं किया जा सकता, किन्तु उसका मूल्य और महत्व निश्चय के साथ ही है, निश्चय से अलग नहीं । निश्चय से शून्य व्यवहार भी व्यवहार नहीं है, वह मात्र व्यवहाराभास है, जो आत्मा को और अधिक बन्धन में ता है,
मैं आपसे मोक्ष मार्ग की, मुक्ति के उपाय एवं साधनों की चर्चा कर रहा था । मैंने संक्षेप में यह बतलाने का प्रयत्न किया, कि अध्यात्म क्षेत्र में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का कितना महत्व है, कितना मूल्य है और कितना उपयोग है? ये तीनों ही मुक्ति के उपाय हैं, पृथक् रूप से नहीं, समुचित रूप से । सम्यक् दर्शन मिथ्या ज्ञान को भी सम्यक् ज्ञान बना देता है । आकाश में स्थित सूर्य जब मेघों से आच्छन्न हो जाता है, तब यह नहीं सोचना
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५२ | अध्यात्म-प्रवचन चाहिए कि अब अनन्त गगन में सूर्य की सत्ता नहीं रही। सूर्य की सत्ता तो है, किन्तु बादलों के कारण उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती । परन्तु जैसे ही सूर्य पर छाने वाले बादल हटने लगते हैं, तो सूर्य का प्रकाश और आतप एक साथ गगन मण्डल और भूमण्डल पर फैल जाता है। ऐसा मत समझिए कि पहले प्रकाश आता है फिर आतप आता है अथवा पहले आतप आता है फिर प्रकाश आता है। दोनों एक साथ ही प्रकट होते हैं । इसी प्रकार ज्यों ही सम्यक् दर्शन होता है, त्यों ही-तत्काल ही सम्यक् ज्ञान हो जाता है। उन दोनों के प्रकट होने में क्षण मात्र का भी अन्तर नहीं रह पाता। सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान चतुर्थ गुणस्थान में प्रकट हो जाते हैं। किन्तु सम्यक् चारित्र की उपलब्धि पाँचवें गुण स्थान से प्रारम्भ होती है। वैसे तो अनन्तानुबन्धी कषाय के क्षयोपशमादि की दृष्टि से मोह-मोक्ष होनता एवं स्वरूप-रमणता रूप चारित्र अंशतः सम्यग् दर्शन एवं सम्यक् ज्ञान के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन की परिपूर्णता अधिकतम सातवें गुणस्थान तक हो जाती है और ज्ञान की परिपूर्णता तेरहवें गुण स्थान में होती है तथा चारित्र की परिपूर्णता तेरहवें गुण स्थान के अन्त में एवं शैलेशी अवस्था रूप चौदहवें गुण स्थान में होती है । जैन-दर्शन के अनुसार उक्त तीनों साधनों की परिपूर्णता का नाम ही मोक्ष एवं मुक्ति है । यही अध्यात्म-जीवन का चरम विकास है।
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विवेक-दृष्टि
मोक्ष क्या है ? और उसका साधन क्या है ? यही विचारणा आपके समक्ष चल रही है। विषय अत्यन्त गम्भीर है, परन्तु इस गम्भीर विषय को समझे बिना मानव अपने जीवन के ध्येय को प्राप्त नहीं कर सकता, मानव अपने लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर सकता। मनुष्य को विवेक-बुद्धि मिली है। विवेक-बुद्धि के बल से वह कठिन को भी सरल बना सकता है।
मोक्ष और उसके स्वरूप की चर्चा कठिन क्यों लगती है ? क्या वह वस्तुतः ही कठिन है ? समझने जैसा नहीं है ? जो अपना स्वरूप है वह समझ में न आए, यह कैसे हो सकता है ? बात केवल इतनी ही है, कि उसे समझने का सच्चे हृदय से कभी प्रयत्न नहीं किया गया । ऐसा कौन सा विषय है, जो प्रयत्न करने पर भी समझ में न आए । इस मोह-मुग्ध संसारी आत्मा ने अनन्त-अनन्त काल से पुद्गल से प्रीति की है, पुद्गल से ममता-भाव किया है, अतः पुद्गल की बात जल्दी समझ में आती है। मोक्ष और आत्मा की बात अपनी निज की होते हुए भी इसलिए समझ में नहीं आती कि उसमें हमारी प्रीति
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५४ | अध्यात्म प्रवचन
और अभिरुचि जमती नहीं है, स्वस्वरूप में अन्तर्मन स्थिर नहीं होता है। ___मैं आपसे कह रहा था, कि मोक्ष क्या है और उसकी प्राप्ति का साधन क्या है ? इस विषय पर विचार करना हो सच्ची आध्यात्मिकता है। क्या आपने कभी यह समझने का प्रयत्न किया है, कि आपकी आत्मा में अनन्त ज्ञान होते हए भी आप अल्पज्ञ क्यों हैं ? आपकी आत्मा में अनन्त शक्ति होते हुए भी आप दुर्वल क्यों हैं ? आप मुल में निर्मल एवं निर्विकार होते हए भी मलिन एवं विकारी क्यों हैं ? इन समस्त प्रश्नों का एक ही समाधान है, कि आत्मा अनंत काल से अज्ञान के बन्धन से बद्ध है। उसमें राग और द्वेष आदि कषाय के विकल्पों का तूफान उठता रहता है। आत्मा अपने ही विकार एवं विकल्पों की उलझनों में अनन्त काल से उलझा रहा है। कर्म का यह जाल, जिसमें आत्मा बद्ध है, कहीं बाहर से नहीं आया, आत्मा ने स्वयं इसको उत्पन्न किया है और आत्मा स्वयं ही इसको तोड़ भी सकता है । आत्मा अपने विकारों के जाल में उसी प्रकार फंसा हुआ है, जिस प्रकार मकड़ी स्वयं अपने बुने जाल में फँस जाती है। मछियारा अपना जाल किसी सरोवर में या नदी में डालकर जैसे मछलियों को फंसा लेता है, वैसे कोई भी बाह्य शक्ति हमारी आत्मा को बन्धन में नहीं डाल सकती, जाल में नहीं फंसा सकती । मैं कहता हैं कि आपकी बिना इच्छा के दुनिया की कोई भी ताकत आपको बन्धन में बाँध नहीं सकती । जैन-दर्शन एक बहुत बड़ी बात कहता है, कि आत्मा को बन्धन में डालने वाला आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा ईश्वर, परमात्मा तथा देवी और देवता नहीं हो सकता। आत्मा के स्वयं के राग, द्वष और मोह आदि विकल्प ही बन्धन में डालते हैं, जो स्वयं उसके अन्दर से ही विभाव शक्ति के द्वारा उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक अध्यात्म-साधक को यह चिन्तन और मनन करना चाहिए, कि जिस जाल में तुम फसे हो, वह तुम्हारे स्वयं के ही संकल्प, विकल्प और अध्यवसाय से बना है।
आत्मा अज्ञान से आवृत्त है। यह अज्ञान बाहर से नहीं लाया गया, आत्मा के अपने वैभाविक परिणामों का ही यह प्रतिफल है। कुछ तत्व-चिन्तक यह विचार करते हैं, कि संसार के बाह्य पदार्थ हमें बन्धन में डालते हैं। परन्तु यथार्थ में यह बात सत्य नहीं है। जब तक मनुष्य के मन में राग और द्वेष की वृत्ति उत्पन्न न हो, तब
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विवेक-दृष्टि | ५५ तक कोई भी बाह्य पदार्थ बाँध नहीं सकता । यदि राग और द्वेष की वृत्ति के विना भी आत्मा बन्धन-बद्ध होने लगे, तब तो बड़ी विचित्र स्थिति होगी । केवल ज्ञानी वीतराग आत्मा, जिसकी केवल ज्ञानधारा सतत प्रवाहित रहती है, जिसके ज्ञान-रूप उपयोग में संसार के अनन्त-अनन्त पदार्थ प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होते रहते हैं. उसे भी बन्ध होने लगेगा । किन्तु ऐसा कभी होता नहीं है, हो सकता भी नहीं है। मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है, कि किसी पदार्थ को ज्ञान-उपयोग के द्वारा जानने मात्र से ही बन्धन नहीं होता है । पदार्थों का परिज्ञान करना, यह तो आत्मा का अपना सहज स्वभाव है। यदि आत्मा अपनी ज्ञान-शक्ति से अपने से भिन्न संसार के अन्य पदार्थों को भी जानता है और देखता है, तो इसमें बुराई की कोई बात नहीं है. किसी पदार्थ को जानना मात्र बन्धन नहीं है। बन्धन तभी होता है, जब कि जानने के साथ मन में राग और द्वेष की वृत्ति उत्पन्न होती है।
कल्पना कीजिए-एक व्यक्ति आपके समक्ष खडा होकर आपके प्रति प्रिय अथवा अप्रिय शब्दों का प्रयोग करता है। इस स्थिति में प्रिय शब्द को सुनकर यदि आपके मन में राग उत्पन्न हो गया, तो वह बन्धन है । यदि अप्रिय शब्द को सुनकर आपके मन में द्वष उत्पन्न हो गया, तो यह भो बन्धन है । परन्तु निन्दा और प्रशंसा सुनकर भी यदि आपका मन सम रहता है, मध्यस्थ रहता है, तो उस समय आपको न राग का बन्धन है और न द्वष का बन्धन है। व्यवहार दृष्टि से शब्द प्रिय और अप्रिय हो सकते हैं। भाषा साधारण और असाधारण हो सकती हैं । निश्चय दृष्टि से तो शब्द और भाषा जड़ हैं, उनका अपना शुभत्व एवं अशुभत्व कुछ नहीं है । भाषा के पुद्गलों की दृष्टि से संसार के एक सामान्य व्यक्ति की भाषा और वीतराग प्रभु की वाणी दोनों ही एक रूप हैं, परन्तु वीतराग वाणी सुनकर यदि हमारे उपादान की तैयारी है तो कषाय का शमन हो जाता है, हमारे जीवन में एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक परिवर्तन आ जाता है । और यदि उपादान की तैयारी नहीं है, शुद्ध उपयोग का परिणमन नहीं है, तो वीतराग वाणी सुनकर कर्मबन्ध भी हो सकता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन के माध्यम से ही होते हैं । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, न मति ज्ञान हो सकता है और न श्रुतज्ञान हो सकता है। मन और इन्द्रियाँ हमारे ज्ञान में
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५६ / अध्यात्म प्रवचन माध्यम हैं । इन्द्रिय और मन के होते हुए भी जब तक उपयोग नहीं होता है, तब तक संसारी आत्मा को मति या श्रुत किसी प्रकार का ज्ञान नहीं हो सकता । श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ अपने शब्द आदि विषयों को ग्रहण करती हैं और मन उन पर चिन्तन एवं मनन करता है, परन्तु यह सब उपयोग के द्वारा ही होता है। यदि उपयोग नहीं है, तो किसी प्रकार का ज्ञान नहीं हो सकता।
कल्पना कीजिए आपके सामने मिष्टान्न से भरा थाल रक्खा है। आपने उसमें से अपने मन-पसन्द की एक मिठाई उठाई और मुख में रख ली, और खाने भी लगे । किन्तु आपकी उपयोग-धारा, विचारधारा उस समय कहीं अन्यत्र है। इस स्थिति में आपको जिह्वा के साथ पदार्थ का स्पर्श होने पर भी उसमें उपयोग न लगने के कारण रस का परिज्ञान आपको नहीं हो पाता । ज्ञान तभी होता है, जबकि विभिन्न इन्द्रियाँ अपने विभिन्न विषयों को ग्रहण करें और साथ में उपयोग भी उनमें रहे। इस वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है, कि शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये पाँच विषय हैं । इनका ग्रहण इन्द्रियों के द्वारा होते हुए भी इनका परिबोध तब तक नहीं हो पाता, जब तक ज्ञानोपयोग का विषयोन्मुख परिणमन न हो। ___ मैं आपसे कह रहा था कि शब्दादि विषयों के ज्ञान से बधन नहीं होता है। बंधन होता है, उपयोग के कर्म-चेतना रूप अशुद्ध परिणमन से होने वाले राग और द्वेष आदि विकल्पों के कारण । ज्ञान का कार्य प्रकाश करना है, न कि बंधन । ज्ञान एक ऐसी शक्ति है, ज्ञान आत्मा का एक ऐसा गुण है, जिसका स्वभाव है प्रकाश । ज्ञान अन्दर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करता है। ज्ञान वह है जो स्वयं अपना बोध भी करता है और अपने से भिन्न पर पदार्थ का बोध भी करता है। जैन-दर्शन के अनुसार ज्ञानोपयोग स्व-पर प्रकाशक है। ज्ञानोपयोग आत्मा का एक बोधरूप व्यापार है। आत्मा का बोध-रूप व्यापार होने से वह आत्मस्वरूप ही है, वह आत्मा से भिन्न नहीं है । ज्ञान जब पर पदार्थ को जान सकता है, तब अपने को वह क्यों नहीं जान सकता ? जिस प्रकार घर की देहली पर रखा हुआ दीपक अपना प्रकाश अन्दर और बाहर दोनों ओर फेंकता है, जिससे घर के अन्दर रखी हुई वस्तुओं का बोध भी हो जाता है और घर से बाहर जो वस्तु हैं, उनका परिज्ञान भी हो जाता है। उसी प्रकार आत्म-स्थित
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विवेक-दृष्टि | ५७ ज्ञानोपयोग आत्मा के अन्दर की परिणति को भी जानता है और बाहर में स्थित घट-पट आदि पदार्थों को भी जानता है । स्व-पर का प्रकाश करना, यह ज्ञान का अपना निज स्वभाव है। ज्ञान का अर्थ केवल इतना ही है, जो कि पदार्थ जैसा है, वैसा उसका परिज्ञान आपको करा दे । वस्तु की जानकारी हो जाना, बंधन नही है। और तो क्या, कोई पदार्थ अच्छा है या बुरा, यह जानना भी बंधन नहीं है । बंधन है, ज्ञात वस्तु के प्रति राग द्वषात्मक विकल्पों का होना । ___ अध्यात्म-शास्त्र में विश्व के अनन्त-अनन्त पदार्थों को तीन विभागों में विभक्त कर दिया गया है-हेय, ज्ञेय और उपादेय । जानने योग्य पदार्थ को ज्ञेय कहते हैं, छोड़ने योग्य पदार्थ को हेय कहते हैं,
और ग्रहण करने योग्य पदार्थ को उपादेय फहते हैं। हिंसा आदि और हिंसा आदि के साधन जिस हेय पदार्थ का त्याग करना है, उसके सम्बन्ध में यह विचार करना चाहिए कि यह त्याज्य क्यों हैं ? अहिंसा आदि और अहिंसा आदि के साधन उपादेय पदार्थ के विषय में भी यह विचार करना चाहिए, कि वह उपादेय क्यों है? मेरे जीवन में उसकी क्या उपयोगिता होगी ? यदि आपने किसी पदार्थ विशेष को छोड़ने से पूर्व उसकी हेयता का सम्यक परिबोध कर लिया है, तो वह त्याग आपका एक सच्चा त्याग होगा। यदि आपने किसी पदार्थ को छोड़ने से पूर्व उसकी हेयता का सम्यक् परिज्ञान नहीं किया है, केवल उसके प्रति घृणात्मक और द्वषात्मक दृष्टिकोण के कारण ही आप उसका परित्याग करते हैं, तो आपका यह त्याग सच्चा त्याग नहीं है। इस प्रकार के त्याग से बन्धन-विमुक्ति नहीं हो सकती, अपितु कर्मबन्धन में और अधिक अभिवृद्धि होती है। जीवन में जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब उपादेय नहीं है, यह भी साधक को समझ लेना चाहिए। पुण्य के प्रकर्ष से जो कुछ भोग और उपभोग की सामग्री प्राप्त हुई है, क्या उसे उपादेय माना जाए ? जैन दर्शन कहता हैनहीं, कदापि नहीं। जीवन-व्यवहार के लिए भोजन, वसन एवं भवन आदि आवश्यक हो सकते हैं, किन्तु उपादेय नहीं। मुख्यत्वेन उपादेय तत्त्व वही है, जिसके ग्रहण करने से आत्मा का विकास हो, जिसके आचरण से आत्मा का कल्याण हो। अहिंसा, सत्य आदि सम्यक् आचार हो वस्तुतः उपादेय हैं । जिस पदार्थ के ग्रहण करने से आत्मसाधना में बाधा उपस्थित होती हो, उसे उपादेय नहीं माना जा
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५८ | अध्यात्म-प्रवचन सकता । ज्ञेय का अर्थ है -जानने योग्य पदार्थ । इस अनन्त विश्व में चैतन्य और जड़ यह दो तत्त्व ही हैं जिन्हें ज्ञेय कहा जा सकता है। हेय और उपादेय भी प्रथमतः ज्ञेय होते हैं। अपने को समझो और अपने से भिन्न पर को भी समझो। पर को समझो और पर से भिन्न स्व को भी समझो। इस प्रकार स्व और पर के परिबोध से उत्पन्न होने वाला विवेक ही सच्चा ज्ञान है । जब साधक यह समझ लेता है, कि मैं आत्मा हूँ और पुद्गल मेरे से भिन्न है। पुद्गल से उत्पन्न होने वाली विभिन्न परिणतियाँ भी मेरी अपनी नहीं हैं। आत्म-सत्ता की इस दिव्य आस्था में से और आत्म-सत्ता के इस दिव्य परिबोध में से ही साधक के साधना-पथ को आलोकित करने वाला हेय और उपादेय का विवेक उत्पन्न होता है। क्या हेय है और क्या उपादेय है ? यह साधक की शक्ति और स्थिति पर निर्भर है, कि वह किस समय क्या छोड़े और क्या ग्रहण करे ? परन्तु यह सुनिश्चित है कि ज्ञेय को जानने की, हेय को छोड़ने की और उपादेय को ग्रहण करने को विशुद्ध भावना ही हमारी अध्यात्म-साधना का मूल आधार है। __भगवान महावीर पावापुरी में विराजित थे। इन्द्रभूति गौतम, जो उस युग का प्रकाण्ड पण्डित और प्रखर विचारक माना जाता था, अपने ज्ञान की गरिमा से भगवान को अभिभूत करने के लिए आया। उसके पास प्रचण्ड पाण्डित्य था, इसमें जरा भी सन्देह नहीं किया जा सकता, पर साथ ही उस ज्ञानामृत में अहंकार का विष भी मिला हआ था। जब ज्ञान में, जो कि अपने आपमें एक विशुद्ध तत्त्व है, किसी प्रकार का विकार मिल जाता है, उस स्थिति में वह ज्ञान-चेतना विशुद्ध नहीं रह पाती, दृष्टि विशुद्ध नही रह पाती, वह मिथ्या हो जाती है। जिस समय इन्द्रभूति भगवान के समक्ष आकर खड़ा हुआ और भगवान की दिव्य वाणी से उसका अहंकार दूर हुआ, उस समय इन्द्रभूति को जीवन का वह तत्त्व मिल गया, जिसकी उपलब्धि उसे अभी तक नहीं हो पाई थी। भगवान ने इन्द्रभूति को त्रिपदी का ज्ञान दिया। यह त्रिपदी क्या है ? हेय, ज्ञेय और उपादेय। इस त्रिपदी के ज्ञान से इन्द्रभूति का मिथ्यात्व दूर हो गया, उसकी आत्मा में सम्यक्त्व का दिव्य प्रकाश जगमगाने लगा। वह ज्ञानी बन गया। इसका अर्थ यह नहीं है, कि पहले उसे ज्ञान नहीं था । अलंकार की भाषा में कहा जाए तो उसका जीवन सिर को चोटी से लेकर पैर के अंगूठे तक
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विवेक दृष्टि | ५६.
ज्ञानमय था, परन्तु उस ज्ञान का उपयोग आत्म-विकास के लिए न होकर अहंकार के पोषण के लिए था । अतएव वह ज्ञान, अज्ञान बन रहा था । इन्द्रभूति ने अपनी प्रतिभा का चमत्कार अभी तक केवल दूसरों को पराजित करने के लिए ही किया था, किन्तु अपने और दूसरों के आध्यात्मिक उत्थान के लिए नहीं । परन्तु त्रिपदी का परिज्ञान हो जाने पर इन्द्रभूति के ज्ञानोपयोग की धारा ही बदल गई, वह अधोमुखी न रहकर ऊर्ध्वमुखी बन गई, अज्ञान से ज्ञान में परिवर्तित हो गई ।
उपादेय
एक प्रश्न और उठता है, वह यह, कि पहले हेय और अन्त में उपादेय रखकर बीच में ज्ञेय क्यों रखा ? इसका उत्तर यह है, कि मध्य का ज्ञेय देहली - दीपक न्याय से दोनों ओर प्रकाश डालता है । इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञान का केन्द्र - बिन्दु सर्वप्रथम स्व और पर का ज्ञान है । अनन्तर हेय क्या है और उपादेय क्या है, इसका भी सम्यक् बोध होना चाहिए। को भी अन्धा बनकर ग्रहण मत करो, उसमें भी कब और कितना ग्रहण करने का विवेक आवश्यक है । इसी प्रकार हैय भी ज्ञानपूर्वक ही होना चाहिए। क्या कुछ छोड़ना है, यह भी जानो और क्या कुछ ग्रहण करना है, इसे भी समझो । त्याग या ग्रहण कुछ भी करो, आँख खोलकर करो । आँख बन्द कर चलते रहने से लक्ष्य पर नहीं पहुँचा जा सकता । साधना के पथ पर अन्धे होकर चलने से किसी प्रकार का लाभ न होगा । साधक को उस अन्धे हाथी के समान नहीं होना चाहिए, जो मदमस्त होकर तीव्र गति से दौड़ता है, किन्तु कहाँ जा रहा है, इसका परिज्ञान उसे नहीं होता । साधक को अध्यात्म-साधना की जो विवेक ज्योति प्राप्त है, उसका सही उपयोग एवं प्रयोग करना चाहिए । जब आँख मिली है, तब उसका उपयोग क्यों न किया जाए ? यदि आँख मिलने पर भी व्यक्ति उसका यथोचित उपयोग नहीं करता, तो आँख प्राप्ति का उसे कोई लाभ नहीं हो सकता ।
कल्पना कीजिए - एक व्यक्ति अन्धा है, आँखों का आकार तो उसे प्राप्त है, किन्तु देखने की शक्ति उसे प्राप्त नहीं है । इस प्रकार के नेत्रहीन एवं दृष्टि रहित मनुष्य के सामने यदि सुन्दर से सुन्दर दर्पण भी रख दिया जाए, तो उससे उसको क्या लाभ होगा ? क्या अपने प्रतिबिम्ब को वह उसमें देख सकता है ? यद्यपि दर्पण स्वच्छ एवं
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६० | अध्यात्म-प्रवचन सुन्दर है, उसमें उसके मुख का प्रतिबिम्ब भी पड़ रहा है, फिर भी उसे देखने की शक्ति न होने के कारण उसके जीवन में दर्पण का उपयोग एवं प्रयोग निरर्थक है। दर्पण का उपयोग और प्रयोग वही कर सकता है, जिसके पास देखने की शक्ति है। शास्त्र भी दर्पण के तुल्य है। तुल्य क्या, वास्तव में दर्पण ही है। परन्तु इस शास्त्र रूप दर्पण का प्रयोग एवं उपयोग किसके लिए है, जिसके पास विवेक का निर्मल नेत्र हो, जिसके पास बुद्धि एवं ज्ञान की ज्योतिर्मय आँख हो । शास्त्र रूपी दर्पण में स्वच्छता और पवित्रता सब कुछ होने पर भी, साधक में विवेक शक्ति न होने के कारण, उसका उपयोग उसके लिए कुछ भी नहीं हो सकता। जीवन में विवेक हो, तभी शास्त्र उपयोगी हो सकता है, अन्यथा नहीं। अनन्त गगन में चन्द्रमा का उदय हो चुका हो, उसको स्वच्छ एवं उज्ज्वल ज्योत्सना से सारा भू-मण्डल आप्लावित हो रहा हो । परन्तु उस चन्द्रमा का और उसकी ज्योत्स्ना का प्रत्यक्ष उसी को हो सकता है, जिसमें देखने की शक्ति हो । जो व्यक्ति अन्धा है अथवा जो अन्धा तो नहीं, किन्तु जिसकी दृष्टि धंधली है, वह व्यक्ति चन्द्रमा के उज्ज्वल स्वरूप का आनन्द नहीं ले सकता। यदि कोई दिव्य दृष्टि वाला व्यक्ति धुंधली दृष्टि वाले व्यक्ति को अपने हाथ की उँगली के संकेत से आकाश-स्थित उज्ज्वल चन्द्र का ज्ञान कराए, तब भी उसे चन्द्र-ज्ञान से क्या लाभ होगा? जो व्यक्ति अपनी स्वयं की आँखों से चन्द्र को देख रहा है, वस्तुतः उसी का ज्ञान असली ज्ञान कहलाता है। महापुरुष, आचार्य और गुरु हमें कितना भी शास्त्र ज्ञान दें, किन्तु जब तक स्वयं हमारे अन्दर विवेक-शक्ति का उदय नहीं होगा, तब तक हमें उस ज्ञान का सच्चा आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता । साधक के जीवन-विकास का आधार विवेक-दृष्टि ही है। जिसके पास विवेक-दृष्टि है उसके लिए शास्त्र में भी सब कुछ है
और शास्त्र से बाहर भी सब कुछ है। इसके विपरीत जिसको विवेकदृष्टि की उपलब्धि नहीं हुई है, उसके लिए शास्त्र में भी कुछ नहीं और शास्त्र से बाहर भी कुछ नहीं। गोशालक भगवान की सेवा में लगभग छह वर्ष तक रहा, परन्तु उसने भगवान से क्या कुछ प्राप्त किया ? ज्ञान के महासिन्धु के तट पर रहकर भी वह अपने जीवन में ज्ञान का एक बिन्दु भी प्राप्त न कर सका, जबकि इन्द्रभूति गौतम ने मिलन के प्रथम क्षण में ही त्रिपदी का परिबोध प्राप्त कर उसके आधार पर चतुर्दश पूर्वो की रचना कर डाली। एक सिन्धु में से बिन्दु लेकर श्रुत-सिन्धु की सृष्टि कर दी। यह सब कुछ क्या है
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विवेक दृष्टि | ६१
और क्यों है ? क्या आपने कभी जीवन के इस सत्य को समझने का प्रयत्न किया है ? यह सब कुछ विवेक दृष्टि का खेल है, यह सब कुछ विशुद्ध बुद्धि की महिमा है और यह सब कुछ सम्यक् ज्ञान की गरिमा है ।
कल्पना कीजिए, एक यात्री किसी भयंकर सघन वन में से यात्रा कर रहा है । आगे चलकर वह मार्ग भूल जाता है और इधर-उधर भटकने लगता है । संयोगवश उसे एक मार्गज्ञ व्यक्ति मिल गया, उसने बहुत अच्छी तरह समझाकर गन्तव्य पथ की सही दिशा बतला दी । फिर भी यदि वह भटकने वाला विचारमूढ़ यात्री उस मार्ग को पकड़ न सके और उस पर आगे न बढ़ सके, तथा आगे बढ़कर भी अपने लक्ष्य पर न पहुँच सके, तो मार्ग बताने वाले का इसमें क्या दोष है ? वीतराग एवं सद्गुरु की अमृतवाणी ने हमें जीवन की सच्ची राह बताई, परन्तु अपने अज्ञान और अविवेक के कारण यदि हम उस पर न चल सकें तो इसमें न मार्ग का दोष है और न सही मार्ग बताने वाले का हो कोई दोष है । दोष है केवल व्यक्ति के अपने अज्ञान का और अपने अविवेक का । जैन दर्शन कहता है कि सच्चा साधक विवेकशील होता है और उसके लिए दिशा-दर्शन का संकेत ही पर्याप्त होता है । साधक उस पशु के तुल्य नहीं है, जिसे मार्ग पर लाने के लिए अथवा सही मार्ग पर चलाने के लिए बार-बार ताड़ना करनी पड़े । साधक की आत्मा उज्ज्वल और पवित्र होती है, अतः उसके • लिए शास्त्र और गुरु का संकेत मात्र ही पर्याप्त है । मार्ग पर कब, कैसे और किधर से चलना, इसका निर्णय साधक की बुद्धि, साधक का विवेक और साधक का ज्ञान यथा प्रसंग स्वयं कर लेता है ।
जैन-दर्शन के अनुसार साधक दो प्रकार के होते हैं - परीक्षा प्रधान और आज्ञा - प्रधान । इसका अर्थ यह हुआ कि जीवन विकास के लिए तर्क और श्रद्धा दोनों की आवश्यकता है। तर्क जीवन को प्रखर बनाता है और श्रद्धा जीवन को सरस बनाती है। तर्क में श्रद्धा का समन्वय और श्रद्धा में तर्क का समन्वय जैन दर्शन को अभीष्ट रहा है। तर्क करना, इसलिए आवश्यक है, कि साधना के नाम पर किसी प्रकार का अन्धविश्वास हमारे जीवन में प्रवेश न कर जाए । श्रद्धा, इसलिए आवश्यक है कि जीवन का कोई सुदृढ़ आधार एवं केन्द्र अवश्य होना चाहिए । तर्कशील व्यक्ति तर्क-वितर्क की ऊँची उड़ान में इतना ऊँचा न उड़ जाए, कि जिस धरती पर वह आवास करता है,
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६२ | अध्यात्म-प्रवचन
उसका उससे सम्बन्ध-विच्छेद ही हो जाए, इसलिए श्रद्धा की आवश्यकता है। श्रद्धाशील व्यक्ति श्रद्धा एवं भक्ति के प्रवाह में हर किसी व्यक्ति की बात को, अपनी तर्क-बुद्धि का प्रयोग किए बिना स्वीकार कर इधर-उधर लुढ़क न जाए, इसलिए तर्क की आवश्यकता है । जैन दर्शन का कथन है, कि जो कुछ सिद्धांत प्रस्तुत किए जाएँ उनकी पहले परीक्षा करो । परीक्षा करने पर यदि वे आपके जीवन के लिए उपयोगी प्रतीत होते हों, तो उन्हें स्वीकार करो। किसी भी ग्रंथ, किसी भी महापुरुष और किसी भी गुरु के कथन को इस आधार पर कभी भी स्वीकार मत करो कि वे हमारी परम्परा के हैं, हमारे पूर्वज उन्हें मानते रहे हैं, पूजते रहे हैं और उनके आदेशों का आँख बन्द कर पालन करते रहे हैं । पूर्वजों ने जो कुछ किया है वह सब कुछ हमें भी करना ही चाहिए, भले ही आज के जीवन और जगत में उसकी कोई उपयोगिता न रही हो । यह एक प्रकार का रूढ़िवाद है, यह एक प्रकार की अन्ध परम्परा है और यह एक प्रकार की बुजुर्वा मनोवृत्ति है । यह माना कि पुरातनवाद में का सब कुछ त्याज्य नहीं होता, उसमें बहुत कुछ ग्राह्य भी होता है । परीक्षा - प्रधान साधक इस सत्य एवं तथ्य पर गम्भीरता के साथ विचार करता है । जहाँ पर जितना ग्राह्य होता है, वहाँ पर वह उतना ग्रहण करने के लिए सदा तैयार रहता है । परीक्षा - प्रधान साधक उस उपदेश और उस आदेश को कभी मानने के लिए तैयार नहीं होता, जिसका उपयोग आज के जीवन और जगत में निरर्थक हो चुका है । विचार करने के लिए जब मनुष्य के पास बुद्धि है, तर्क शक्ति है तथा सोचने और समझने का तरीका उसे आता है, तब वह क्यों अन्ध श्रद्धा और रूढ़िवाद के चंगुल में फँसेगा । इसके विपरीत आज्ञा-प्रधान साधक वह है, जो अपनी बुद्धि का उपयोग एवं प्रयोग न करके जो कुछ और जैसा कुछ उसकी परम्परा के शास्त्र, गुरु और महापुरुष ने कहा है, उसे ज्यों का त्यों ग्रहण कर लेता है । यह एक प्रकार की विचार- जड़ता है, भले ही इस विचार - जड़ता से उसकी कितनी ही बड़ी हानि क्यों न होती हो, आज्ञा-प्रधान साधक उस सबको चुपके-चुपके सहन कर लेता है । अपनी बुद्धि के प्रकाश एवं आलोक का उसके जीवन में कोई उपयोग नहीं होता । आज्ञा - प्रधान साधक अपनी परम्परा के धर्म-ग्रंथ और गुरु के कथन को आँख मूँद कर स्वीकार करता चलता है। शास्त्र क्या कहता है और क्यों कहता है ? इस प्रश्न पर विचार करने के
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विवेक दृष्टि | ६३
लिए उसके पास अवकाश ही नहीं रहता । वह तो एक ही बात सोचता है, जो कुछ कहा गया है उसे स्वीकार करो और उसका पालन करो । परन्तु परीक्षा - प्रधान साधक शास्त्र वचन को, महापुरुष की वाणी को और गुरु के कथन को अपनी बुद्धि की तुला पर तोलता है तथा अपने तर्क की कसोटी पर कसता है, फिर उसमें से जितना अंश अपने लिए वर्तमान में उपयोगी है, उतना ग्रहण कर लेता है और शेष को एक ओर रख छोड़ता है । आज्ञा में धर्म है, इस कथन का अर्थ यह नहीं है, कि जो कुछ कहा गया है वह ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया जाए। जैन दर्शन के अध्यात्म शास्त्र में यह कहा गया है, कि आज्ञा में धर्म अवश्य है, किन्तु यह तो विचार करो कि वह आज्ञा किसकी है, किसके प्रति है और उसके पालन से धर्म कैसे हो सकता है ? प्रत्येक सिद्धांत को पहले अपनी प्रज्ञा की कसौटी पर कसो, फिर उसे अपने जीवन की उर्वर धरती पर उतारने का प्रयत्न करो, यही विवेक का मार्ग है, यही तर्क का पंथ है और यही ज्ञान का सच्चा एवं सीधा रास्ता है ।
मनुष्य एक बुद्धिमान प्राणी है। उसके पास विचार की एक अपूर्व शक्ति है । फिर वह क्यों उसके उपयोग से वंचित रहे ? यदि अन्तर् मानस में से ज्योति प्रकट नहीं होती है, तो फिर कितना भी शास्त्रस्वाध्याय कर लो, गुरु का उपदेश सुन लो, उससे किसी प्रकार का लाभ होने वाला नहीं है । इसके विपरीत जिस व्यक्ति को विशुद्ध atr और अमल विवेक प्राप्त हो गया है, उसका विचार स्वयं शास्त्र है, उसका विवेक स्वयं महापुरुष की वाणी है और उसका चिन्तन स्वयं गुरु का कथन है ।
आपने यह सुना होगा कि जब मरुदेवी माता ने यह जाना कि उसका पुत्र ऋषभ विनीता नगरी के बाहर उपवन में ठहरा हुआ है, तब पुत्र मिलन की तीव्र उत्कंठा एवं लालसा मरुदेवी माता के मन में जग उठी । बहुत काल से जिस पुत्र को उसने नहीं देखा था, आज अपने समीप आया जानकर वह उससे मिलने न जाए, यह कैसे सम्भव हो सकता था ? पुत्र की ममता का परित्याग, माता, अपने जीवन में यों सहज ही कैसे कर सकती है ? माता के हृवय में पुत्र के प्रति सहज प्रेम होता है। माता के हृदय के कण-कण में पुत्र के प्रति वात्सल्य भाव का अमृत रस रमा रहता है । मरुदेवी माता अपने पौत्र भरत
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६४ | अध्यात्म-प्रवचन
चक्रवती के साथ गज पर बैठकर पुत्र से मिलने के लिए गई । मार्ग में चलते हुए मन आन्दोलित था और उसमें अनेक प्रकार के संकल्प और विकल्प के बुलबुले उठ रहे थे । माता मरुदेवी ने सोचा, क्या इतने वर्षों से ऋषभ के मन में यह भावना नहीं जगी, कि मैं स्वयं चलकर माता से मिलूं । कभी वह यह सोचती कि आज मेरे जीवन का कितना मंगलमय दिवस है, कि में वर्षों बाद अपने पुत्र ऋषभ से मिलूंंगी । आगे बढ़ने पर उसने देखा कि गगन - मण्डल से देवताओं के विमान नीचे धरती पर उतर रहे हैं तथा देव और देवी प्रमोद भाव में मग्न होकर देव दुन्दुभि बजा रहे हैं । विनीता नगरी के हजारों नर-नारी, बाल, वृद्ध और तरुण सभी प्रसन्न चित्त से उसी दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं, जिधर मेरा ऋषभ ठहरा हुआ है। पूछने पर भरत ने इस प्रसंग पर कहा - "माताजी, आपका पुत्र साधारण व्यक्ति नहीं है, वह त्रिलोकपूजित है । अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन का दिव्य आलोक उन्हें प्राप्त हो चुका है । अपने जीवन की अध्यात्म साधना के चरमफलस्वरूप वीतराग भाव को उन्होंने अधिगत कर लिया है । आपके पुत्र के केवल महोत्सव को मनाने के लिए ही आज यहाँ पर स्वर्ग के देव तथा धरती के मनुष्य परस्पर मिलकर भगवान ऋषभ की महिमा एवं गरिमा के प्रशस्ति गीतों के गान की मधुर स्वर-लहरी में संलग्न हैं ।" मरुदेवी माता ने इस पर सोचा कि "जब देव और मनुष्य उसकी पूजा करते हैं, तब भला वह मुझे क्यों याद करने लगा ? इधर मैं हूँ कि ममता की लहरों में डूबी जा रही हूँ ।" वीतराग, केवल ज्ञान, केवल दर्शन, मोक्ष और धर्म - यह सब मरुदेवी माता नहीं जानती थी । उसे यह भी पता नहीं था, कि देव क्या है, गुरु क्या है, धर्म क्या है, और शास्त्र क्या है ? जब उक्त बातों का उसे पता ही नहीं था, तब वह किसकी आज्ञा को स्वीकार करती और किसकी आज्ञा को मानती ? आज्ञा में धर्म है, इस सिद्धान्त का उसके लिए कोई उपयोग न था । तीर्थ स्थापित होने के बाद ही आज्ञा में धर्म है, इस सिद्धान्त का जन्म होता है । अभी तक तीर्थ की स्थापना नहीं हो पाई थी, फिर भी मरुदेवी माता को गज पर बैठे-बैठे हो केवल ज्ञान और केवल दर्शन का दिव्य प्रकाश मिल गया । क्यों मिला और कैसे मिला, इसके उत्तर में यही कहा गया है, कि जब उसकी आत्मपरिणति ममता से समता में बदल गई, जब उसका उपयोग मोह से विवेक में बदल गया और जब
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विवेक-दृष्टि | ६५ उसका अनिश्चय निश्चय में बदल गया, तभी उसे वह आध्यात्मिक गौरव एवं आध्यात्मिक वैभव प्राप्त हो गया, जो शाश्वत और अजर अमर रहता है। माता मरुदेवी का विकास आज्ञा के मूल में नहीं, चिन्तन के मूल में है।
मैं आपसे कह रहा था कि जब तक साधक के घट में विवेकज्योति का प्रकाश नहीं जगमगाएगा, तब तक कोई भी शास्त्र, कोई भी गुरु और कोई भी महापुरुष उसके जीवन का विकास और कल्याण नहीं कर सकेगा। जीवन का सबसे बड़ा सिद्धान्त यह विवेक और विचार ही है, जिसके उदय होने पर अज्ञान का अन्धकार और मिथ्यात्व का अन्धतमस् दूर भाग जाता है। आत्म-ज्योति के प्रकट होने पर, फिर अन्य किसी प्रकाश की आवश्यकता नहीं रहती। इस प्रकाश के सामने अन्य सब प्रकाश फीके पड़ जाते हैं।
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अध्यात्म साधना
जैन-दर्शन का प्राण, जैन-धर्म का हृदय और जैन - संस्कृति के मर्म का जब तक ठीक से परिज्ञान नहीं हो जाता है, और जब तक उसको अच्छी तरह परख नहीं लिया जाता है, तब तक आप जैन दर्शन के शरीर को भले ही समझ लें, उसकी अन्तर् आत्मा को आप परख नहीं सकते । मानव का यह भौतिक शरीर कितना ही बलवान, कितना ही मजबूत और कितना ही लम्बा और चौड़ा क्यों न हो, परन्तु इस शरीर की सत्ता तभी तक है, जब तक इसमें प्राण-शक्ति का संचार होता रहता है, इसमें श्वासों की वीणा की झंकार गूंजती रहती है और हृदय चक्र अपनी धुरी पर नियमित गति करता रहता है । जागृत एवं स्वप्न दोनों ही अवस्थाओं में मनुष्य का हृदय गतिशील रहता है । यदि हृदय की यह सतत गतिशीलता एक क्षण के लिए भी बन्द हो जाए, तो जीवन का सारा खेल ही समाप्त हो जाए। शरीर का सारा खेल प्राण वायु और हृदय की गति पर ही चलता है । और प्राणवायु एवं हृदय की गति का खेल भी तभी तक है, जब तक शरीर में चैतन्य शिव विराजमान हैं । यदि शरीर में से शिवत्व निकल जाता है, तो केवल शव मात्र रह जाता है । शरीर में से शिव चला गया, अर्थात् आत्मा चला गया, तो शरीर शव रूप में यहीं पड़ा रह जाता है ।
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अध्यात्म साधना ६७
जीवन में प्राण-शक्ति का बड़ा महत्व है । भौतिक प्राणशक्ति के समान आध्यात्मिक प्राणशक्ति भी होती है । इसी सन्दर्भ में मैं आपसे कह रहा था, कि जैन-धर्म और जैन-दर्शन की भी प्राण-शक्ति है। जब तक यह प्राण-शक्ति है, तब तक वह जीवित रहेगा। प्राण-शक्ति के अभाव में धर्म और दर्शन का शरीर तो रह सकता है, किन्तु आत्मा नहीं। धर्म और दर्शन के शरीर को पंथ और सम्प्रदाय कहा जाता है। धर्म
और दर्शन की आत्मा को विचार और विवेक कहा जाता है । ... देव और दानवों के सागर-मंथन की पौराणिक कहानी आपने सुनी होगी । बड़ी ही सरस, रुचिकर और अर्थगम्भीर है वह कहानी । कहा जाता है कि देव और दानवों ने मिलकर अमृत को उपलब्धि के लिए सागर का मंथन किया था। सागर-मंथन में से अमृत भी निकला था और विष भी। अमृत पीने के लिए तो देव और दानव सभी लालायित थे, किन्तु विष को पीने के लिए कोई तैयार नहीं हो सका। आखिर, महादेव शिव ने ही विष पीकर सबके लिए अमृतपान का अवरुद्ध द्वार खोला । विष को पचाने की शक्ति न स्वर्ग के देवों में है, न धरती के इंसानों में । विष को पचाने की शक्ति तो एक मात्र महादेव में, शिव में ही होती है। ___मानव-जीवन भो एक सागर है, इसका भी मंथन किया जाता है। इसके मंथन को हम साधना कहते हैं। जब साधक साधना के पथ पर स्थित होकर अपने अन्तर्जीवन का मंथन करता है, तब उसमें से विकल्प का विष, और विचार का ज्ञानामृत प्रकट होता है। इसी प्रकार शास्त्र रूपी सागर का मंथन भी किया जाता है । द्वादशांगी वाणी में भगवान महावीर के उपदेशों का संग्रह एक प्रकार का महासागर ही है। उस सागर का मंथन बुद्धि एवं चिन्तन के मन्दराचल से जब किया जाता है, तब उसमें से सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का अमृत प्रकट होता है । किन्तु याद रखिए शास्त्रसागर का मंथन जितना उदार, तटस्थ, अनाग्रह एवं गम्भीर होगा, उसमें से उतना ही अधिक जोवनोपयोगी अमृत प्राप्त होगा। यदि मंथन अल्प होता है, तो अमृत भी थोड़ा ही प्राप्त होता है। और यदि आग्रह बुद्धि के कारण विपरीत प्रक्रिया से मंथन होता है, तो अमृत नहीं, विष ही प्राप्त होगा । यहाँ विष की नहीं, अमृत की चर्चा है । दूध का मक्खन दूध के कण-कण में परिव्याप्त रहता है, उसका कोई भी भाग नवनीत से खाली नहीं रहता है। परन्तु यदि दूध में
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६८ | अध्यात्म-प्रवचन हाथ डालकर मक्खन निकालना चाहें, तो वह कैसे निकल सकेगा ? दूध में हाथ डालकर मक्खन निकालने की चेष्टा एक निरर्थक चेष्टा है ? उसमें से मक्खन तो तभी निकल सकता है, जबकि उसका मंथन किया जाए। कुछ लोग धर्म और दर्शन की गहराई में पहुंचे बिना ही, उसका सार निकालने की व्यर्थ चेष्टा करते हैं। कोई भी नास्तिक विचार का व्यक्ति धर्म और दर्शन की अध्यात्म-साधना की गहराई में में पहुँचे बिना ही, जब उसमें से सार निकालने की चेष्टा करता है, उस स्थिति में यदि उसमें से सार नहीं निकलता, तो धर्म, दर्शन और साधना को दोष देता है । वह इस तथ्य को नहीं समझ पाता, कि मक्खन निकालने के लिए दूध को दही बना कर उसे बिलोने की आवश्यकता है। भला विचार तो कीजिए जब तक दूध का दही नहीं बनेगा और जब तक उस दही का मन्थन नहीं किया जाएगा, तब तक उसमें से नवनीत कैसे निकल सकेगा? इसी प्रकार शास्त्रों के एकएक शब्द में जीवन का अमृत परिव्याप्त है, परन्तु जब तक उसका गम्भीर अध्ययन, उदार चिन्तन और विराट मंथन नहीं होगा, तब तक उसके रहस्य को आप प्राप्त नहीं कर सकते, उसके ज्ञान-अमृत को आप अधिगत नहीं कर सकते । और जब तक ज्ञानामृत प्राप्त नहीं होता, तब तक आप धर्म, दर्शन और संस्कृति के अनन्त आनन्द की उपलब्धि नहीं कर सकते।
आप जानते हैं-दियासलाई के मुख पर जो एक मसाला लगा रहता है, उसके कण-कण में बीज रूप से अग्नि-तत्व परिव्याप्त है। उसे आप देख नहीं पाते, इस आधार पर आप यह नहीं कह सकते कि उसमें अग्नि तत्व नहीं है। निश्चय ही उसमें अग्नितत्व है, शक्ति के रूप में उसके कण-कण में अग्नि-तत्व स्थित है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो पा रही है । दियासलाई के हजारों बन्डल भी एकत्रित करके यदि उसमें आप अग्नितत्त्व को देखना चाहें तो आप देख नहीं सकेंगे। प्रश्न होता है कि दियासलाई की एक सींक में अग्नि की सत्ता होने पर भी उसका दर्शन क्यों नहीं होता? इसका एक ही समाधान है, कि उस अव्यक्त शक्ति को व्यक्त करने के लिए घिसने की एवं रगड़ने की आवश्यकता है। जब तक दियासलाई की एक शलाका लेकर उसे किसी पत्थर या अन्य पदार्थ पर नहीं रगड़ेंगे, तब तक उसमें से ज्योति और प्रकाश निकल नहीं सकेगा । शक्ति तो है, किन्तु उस शक्ति को अभिव्यक्ति देने की आवश्यकता है । हजारों दियासलाइयाँ भी एक साथ क्यों न रखी हों, उनसे ज्योति और प्रकाश नहीं
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अध्यात्म साधना | ६६ मिल सकेगा। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं समझना चाहिए, कि उनमें अग्नि की शक्ति नहीं है। क्योंकि उसे रगड़ने पर प्रकाश जगमगा उठता है। उसके बाद उस जागृत शक्ति से आप जो कुछ काम लेना चाहें, ले सकते हैं । याद रखिए, इस तथ्य को कभी मत भूलिए, कि उसकी शक्ति को अभिव्यक्त करने के लिए और उसमें से प्रकाश प्राप्त करने के लिए, उसे रगड़ना अवश्य ही पड़ेगा । यदि आप उसे रगड़ते नहीं हैं, तो उस दियासलाई का अपने आप में कोई उपयोग और लाभ नहीं है।
जिस भौतिक सिद्धान्त की चर्चा मैंने ऊपर की है, वही सिद्धान्त अध्यात्म-क्षेत्र में भी लागू होता है। सिद्धान्त एक ही है, किन्तु उसे लागू करने की विधि भिन्न-भिन्न है।
एक साधक जब अंध्यात्म साधना पर अग्रसर होता है, तब पहले वह अपने जीवन को गुरु के चरणों में समर्पित कर देता है और कहता है कि-"भगवन् ! मैं अन्धकार में डूबा हूँ, मुझे प्रकाश चाहिए । मैं इधर-उधर भटक रहा हूँ, मुझे मार्ग चाहिए। मैं आपका शिष्य हूँ, आप मुझे शिक्षा देकर सन्मार्ग पर लगाइए।" गुरु, शिष्य के इस विनय को सुनकर उसे जीवन का सही मार्ग बताता है और जीवनविकास का एक सूत्र उसे सिखा देता है।
गुरु शिष्य से कहता है-"लो यह विचार सूत्र है, इसका चिन्तन करो।" यदि शिष्य यह कहता है कि "इस अल्पाक्षर क्षीणकाय सूत्र में क्या रखा है, जो मैं इसका रटन करूं। मुझे इसमें कुछ भी तो नजर नहीं आता । जिस तत्त्व की मुझे खोज है, वह तत्त्व इसमें कहाँ है ? जिस प्रकाश की मुझे अभिलाषा है, वह प्रकाश इसमें कहाँ है ?"
गुरु उत्तर में कहते हैं-"चुप रहो, जैसा मैं कहता हूँ, चिन्तन करते चलो। एक दिन अवश्य ही इसमें से तत्त्व ज्ञान का स्फुलिंग प्रकट होगा । जीवन का कण-कण जगमगा उठेगा, अन्धकार का कहीं चिन्ह भी शेष नही रहेगा।" ।
शिष्य पुनः प्रश्न करता है-"गुरुदेव ! मैं चिन्तत तो अवश्य करूगा, आपके आदेश का शिरसा और मनसा पालन करूंगा, परन्त कृपा करके यह तो बताइए, कि कब तक ऐसा करता रहूँ ? इसमें से सिद्धि का नवनीत मुझे कब मिलेगा? उसकी कोई सीमा अवश्य होनी चाहिए।"
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७० | अध्यात्म-प्रवचन
गुरु कहता है-"वत्स ! साधना के क्षेत्र में, जल्दी ही सीमा का अंकन करना भयंकर भूल है । साधना के पथ पर बढ़ते चलो, और तब तक बढते चलो, जब तक कि लक्ष्य-सिद्धि का दिव्य प्रकाश तुम्हें उपलब्ध न हो जाए । देखो, मेरी एक ही बात को याद रक्खो, सूत्र को रटते रहो, उसका गम्भीरता से चिन्तन-मनन करते रहो और तदनुसार निरन्तर साधना करते रहो । हृदय के कण-कण में यह आस्था बैठ जानी चाहिए कि सिद्धि अवश्य मिलेगी, साधना कभी निरर्थक नहीं होती । यदि इस जीवन में सिद्धि नहीं मिली, तो अगले जीवन में मिलेगी, यदि अगले जीवन में भी नहीं मिली, तो उससे अगले जीवन में मिलेगी। कभी न कभी मिलेगी, अवश्य मिलेगी। कारण है, तो कार्य क्यों नहीं । साधक का एक ही कर्तव्य है कि साधना के मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ता रहे । साधना के क्षेत्र में काल का कोई अर्थ नहीं, सीमा का कोई प्रश्न नहीं। केवल एक ही बात का अर्थ है, और वह यह है कि अपनी साधना में कभी सन्देह मत करो, अपनी साधना के फल में कभी संशय मत करो। साधना की रगड़ से अवश्य ही उस दिव्य सिद्धि की उपलब्धि होगी, जिसे पाकर तुम शाश्वत एवं अजरअमर बन जाओगे । शक्ति शास्त्र के जड़ शब्दों एवं अक्षरों में नहीं होती, मनुष्य के अन्तर्मन्थन में होती है, मनुष्य के विचार में होती है और मनुष्य के हृदय की ज्ञान मूलक आस्था में होती है । आस्था और तर्क, श्रद्धा और चिन्तन एक दिन अवश्य शास्त्र की प्रसुप्त शक्ति की अभिव्यक्ति कर देते हैं। जब मन की चिन्तन-क्रिया अन्तर्जगत में निरन्तर चलती है, तब दूरस्थ सिद्धि भी निकटस्थ हो जाती है। विशुद्ध भावना की रगड़ लगने पर यदि एक बार भी ज्योति जल उठती है, तो अनन्त-अनन्त काल के लिए वह जलती ही रहती है। यह बात अलग है कि कुछ दुर्बल साधकों को बार-बार रगड़ लगानी पड़ती है और कुछ समर्थ साधकों को तो एक बार में ही यथावश्यक तीव्र रगड़ लग जाती है। रात्रि के घोर अन्धकार में जब काले बादलों में बिजली चमकती है, तब उसके क्षणिक प्रकाश से सहसा गगन-मण्डल भर जाता है। क्षण भर के लिए अन्धकारमयी सृष्टि प्रकाशमयी हो जाती है । परन्तु वह प्रकाश स्थायी नहीं रहता। इसी प्रकार साधक के जीवन में भी अनेक बार सिद्धि के क्षणिक प्रकाश प्रकट होते हैं, किन्तु वे स्थायी नहीं रहने पाते। हमारी अध्यात्म-साधना का यही
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अध्यात्म साधना | ७१ एकमात्र उद्देश्य है, कि हम उस क्षणिक प्रकाश को स्थायी बना सकें। और यह तभी होगा, जब कि साधक एक ही सूत्र को, एक ही मंत्र को एक ही लक्ष्य को और एक ही आदर्श को अपने अन्तर्मन में बार-बार जपता रहेगा, बार-बार अनुशीलन एवं परिशीलन करता रहेगा। इसी को जीवन का मंथन कहते हैं, इसी को जीवन की रगड़ कहते हैं और इसी को जीवन का जप कहते हैं । इस मन्थन और जप में से ही सिद्धि का अनन्त प्रकाश प्रस्फुरित होगा।" ___ जो वस्तु ठोस होती है, उसके निर्माण में पर्याप्त समय लगता है । जिस तत्त्व-शास्त्र एवं अध्यात्म शास्त्र की चर्चा आपके सामने चल रही है, उसकी रचना यों ही एक-दो वर्ष में नहीं हो सकी है, उसके पीछे दीर्घकाल का चिन्तन एवं अनुभव है। किसी भी शास्त्र, मन्त्र एवं स्रोत को लें, उसके निर्माता का चिन्तन और अनुभव जितना गहरा होगा, वह उतना ही अधिक स्थायी रह सकेगा। जिसके निर्माण में श्रम एवं अभ्यास नहीं, चिन्तन और अनुभव नहीं, वह शास्त्र एवं मंत्र पानी के उस बुदबुदे के समान होता है, जो पानी की सतह पर कुछ देर थिरकता है और नष्ट हो जाता है । पानी का बुद्-बुद क्षण-क्षण में बनता और बिगड़ता रहता है, क्योंकि उसके पीछे कोई ठोस आधार नहीं होता। इसके विपरीत वर्षों के अनवरत श्रम और अभ्यास तथा चिन्तन एवं अनुभव के बाद जो कुछ निर्मित होता है, उसका अपना एक आधार एवं महत्व होता है। जिस कृति के पीछे कर्ता का जितना ही अधिक गहन एवं गम्भीर चिन्तन और मनन होता है, वह कृति उतनी ही अधिक सुन्दर और चिरस्थायी होती है। यही कारण है कि जन-परम्परा में भक्तामर स्तोत्र, कल्याण-मन्दिर स्तोत्र, और उपसर्ग हर स्तोत्र हजारों वर्षों की यात्रा के बाद आज भी ज्यों-के-त्यों चल रहे हैं। आज भी भक्तजन उन्हें उतनी ही श्रद्धा और लगन के साथ पढ़ते हैं, जिस लगन और श्रद्धा के साथ हजारों वर्ष पूर्व पढ़ते थे । इसका कारण उक्त स्तोत्रों की सुन्दर, रुचिकर एवं मधुर भाषा नहीं है, बल्कि प्रणेताओं का गहन गम्भीर चिन्तन और अनुभव ही है। इनका कोई प्रचार नहीं किया गया, फिर भी जन-मन की स्मृति में ये आज तक ताजा रहे हैं। चिरन्तन होकर भी ये नवीन हैं और नवीन होकर भी ये चिरन्तन हैं। इसका कारण यह है कि तत्त्व-चिन्तक कवियों के हृदय से जो अन्तर् की भक्ति-धारा प्रवाहित हुई, वह इतने
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वेग से प्रवाहित हुई कि उसके पीछे उनकी चिरानुष्ठित अध्यात्म-साधनाओं का प्रवाह आज भी बह रहा है । हजारों वर्षों के बाद, ये स्तोत्र आज भी लोगों के मन एवं मस्तिष्क में प्रेम और श्रद्धा के मधुर भाव जागृत कर देते हैं। क्योंकि उनके पीछे उनके जीवन का गहन चिन्तन और अनुभव रहा है । इसी आधार पर उनमें आज भी वह ओजस् और शक्ति विद्यमान है, कि पाठक पढ़ते समय आत्मविभोर हो जाता हैं ।
आपने देखा होगा कि पर्वत के अन्दर से झरने फूट पड़ते हैं । दुर्गम एवं कठोर चट्टानों को भेद कर वह तरल जल धारा बाहर कैसे आ जाती है, यह एक महान् आश्चर्य है । पर्वत की कठोर चट्टानों से बह निकलने वाले झरने भी सब समान नहीं होते । उनमें से कुछ ऊपरी सतह के होते हैं, और कुछ गहन तल से निकलकर बाहर में आते हैं । जो झरने ऊपर-ऊपर बहते हैं, वे जल्दी सूख जाते हैं। सूखने के बाद उनका अस्तित्व भी विलुप्त हो जाता है । परन्तु जो झरना पृथ्वी के गर्भ के अन्दर से फूटकर बाहर निकलता है, जिसे अन्दर में से निकालने के लिए बाहर से कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, और न खोदखोदकर जिसका मार्ग ही बनाना पड़ता है, प्रत्युत जो स्वयं ही अपनी प्रचंड शक्ति से फूटकर बाहर निकलता है और अपना मार्ग बनाता है, वह झरना स्थायी रहता है और उसका प्रवाह सतत प्रवाहमान रहता है । इस प्रकार के झरने में अखूट और अटूट जल राशि भरी रहती है । उसमें से कोई कितना भी जल ग्रहण करे, किन्तु उसके यहाँ जल की क्या कमी आती है, क्योंकि वह अन्दर में बहुत अथाह और अगाध होता है । भूमि को खोदकर एवं तोड़कर कूप को तैयार किया जाता है । परन्तु झरने को इस प्रकार तैयार नहीं करना पड़ता । गंगा जैसे विराट जल प्रवाहों को बताइए, किसने खोदकर हिमवान् से बाहर निकाला है और किसने उनके लिए मार्ग बनाया है ? ये स्वयं शक्ति के केन्द्र हैं | उन्हें बाहर से प्रेरित नहीं करना पड़ता ।
मैं आपसे अनुभवी तत्त्व चिन्तकों की बात कर रहा था । उनके अगाध अनुभव द्वारा उपदिष्ट मानव-जीवन के उस सत्य एवं तथ्य की बात कह रहा था, जिसे प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है । वह तथ्य क्या है ? यह प्रश्न अतीत से किया जाता रहा है और सम्भवतः भविष्य में भी किया जाता रहेगा । इस प्रश्न का समाधान एक ही
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अध्यात्म साधना | ७३ है-हम जीवन का तथ्य उसे कहते हैं, जिसके आधार से जीवन टिका हुआ है। जीवन का यह तथ्य जब मन एवं मस्तिष्क की गहराई से बाहर निकलकर जीवन की समतल धरती पर नित्य निरन्तर प्रवाहित होने लगता है, तब जीवन हरा-भरा हो जाता है, फिर वह विपन्न नहीं रहता, पूर्ण सम्पन्न बन जाता है।
जीवन के गुप्त रहस्यों को खोजने के लिए कभी-कभी बाहरी साधनों की भी आवश्यकता हो जाती है। मैं देखता हैं कि कुछ चीजों को विकसित होने के लिए बाहरी सहायता की आवश्यकता रहती है। परन्तु यह सर्वाधिक नियम नहीं है। कुछ को बाहरी सहायता की आवश्यकता नहीं भी रहती। __ कल्पना कीजिए, आपके सामने एक ढोल रखा है। वह चुपचाप पड़ा है। इस प्रकार चुपचाप पड़े हुए दस-बीस वर्ष भी व्यतीत हो जाएं, तब भी वह अपने आप बोल नहीं सकता, उसे बुलाने के लिए उस पर डंडे की चोट लगानी ही पड़ेगी। डंडे की चोट पड़ते ही वह बजने लगता है। मानव-जीवन के सम्बन्ध में भी कभी यही सत्य लागू होता है। कुछ जीवन स्वतः ही क्रियाशील रहते हैं, उन्हें किसी की प्रेरणा की आवश्यकता नहीं रहती, अपनी अन्दर की शक्ति से ही वे अपना विकास करते हैं। परन्तु कुछ जीवन हैं, जो दूसरे की प्रेरणा और सहायता पर ही अपना विकास कर पाते हैं। किसी दूसरे के डंडे की चोट खाए बिना वे अपने जीवन-पथ पर आगे नहीं बढ़ पाते । जो व्यक्ति दूसरे की प्रेरणा और उपदेश के बिना अपने जीवन की यात्रा में अग्रसर नहीं हो पाते हैं, उन्हीं लोगों के लिए गुरु के आदेश और उपदेश की आवश्यकता पड़ती है । ये वे लोग हैं, जो कूप के समान हैं, जिन्हें खोदना पड़ता है, जिनके लिए मार्ग बनाना पड़ता है । परन्तु दूसरे वे लोग हैं, जो झरने के समान होते हैं। उन्हें प्रेरणा की आवश्यकता नहीं रहती, उन्हें बाहर निकालने और उनके लिए मार्ग बनाने की भी आवश्यकता नहीं रहती। वे स्वयं ही बाहर निकलते हैं और स्वयं ही अपना मार्ग बना लेते हैं। जब अन्दर से त्याग, वैराग्य और प्रेम का उद्दाम झरना बहने लगता है, तब उसका कुछ और ही रूप होता है। जैन-साधना झरने के समान एक अन्तरंग का प्रवाह है। साधक के अन्तर् हृदय से जब कभी प्रेम का स्रोत बाहर फूट निकलता है, तब वह समाज और राष्ट्र के जीवन को आप्लावित कर देता है। इस प्रकार के साधकों के लिए कदम-कदम पर न शास्त्र की प्रेरणा
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की आवश्यकता है और न गुरु के डंडे की ही आवश्यकता है। प्रेरणा पाकर बलात् साधना के मार्ग पर बढ़ने वाले साधक कभी-कभी गड़बड़ा जाते हैं, परन्तु अपनी स्वतः प्रेरणा से साधना के मार्ग पर आगे बढ़ने वाले साधक, अपने जीवन-पथ पर कभी लड़खड़ाते नहीं हैं । यदि कभी लड़खड़ाते भी हैं, तो जल्दी ही सँभलकर पुनः पथारूढ़ हो जाते हैं ।
किसी भी जीवन को हीन एवं पतित मत समझो । न जाने कब और किस समय उसके अन्दर से महत्ता और पवित्रता का स्रोत फूट पड़े । कभी-कभी जीवन में यह देखा जाता है, कि जो लड़के या लड़कियाँ कायर और बुजदिल जैसे लगते हैं, वे समय पर बड़े ही वीर और योद्धा बन जाते हैं । जो कंजूस व्यक्ति अपने लोभ और लालच के कारण समाज की आलोचना का सदा पात्र बना रहता है, उसके प्रसुप्त मानस में से कभी उदारता का उदात्त भाव फूट पड़ता है। वह लोभी न रहकर दान-वीर बन जाता है । यह भी देखा जाता है, कि जो व्यक्ति भोजनासक्त रहता है, एवं भोजन भट्ट होता है, जिसने कभी अपने जीवन में एक उपवास भी नहीं किया, उसके अन्दर से कभी वह प्रचण्ड शक्ति उत्पन्न होती है, जिसके बल पर वह एक उपवास तो क्या, अठाई जैसा बड़ा तप भी बड़ी आसानी के साथ कर लेता है । यहाँ पर आप देखेंगे, उसके मन पर न तो शास्त्र का हथौड़ा ही मारा गया और न गुरु के वचन रूप डंडों को चोट ही पड़ी। बिना किसी बाहरी प्रेरणा के उसने स्वयं अपनी इच्छा से वह कार्य कर दिखाया, जिसे लोग उसके जीवन में असम्भव समझते थे है, कि बाहर की प्रेरणा से कोई कब तक चलेगा ? बाहर के कागजी प्रस्ताव किसी भी नियम और सिद्धान्त को जन-जीवन पर लागू नहीं कर सकते, जब तक जन-मानस उसे अन्दर से स्वीकार न कर ले । व्यक्ति जब कभी अपने अन्तर्मानस में किसी सिद्धान्त को स्वीकार कर लेता है, तब उसे बाहर के किसी कागजी प्रस्ताव की आवश्यकता भी नहीं रहती । जो प्रस्ताव इन्सान के दिल पर लिखा जाता है, इन्सान के जीवन का निर्माण उसी से होता है । कागज के प्रस्तावों से कभी जीवन का निर्माण नहीं हो सकता । जब कभी साधक के शान्त एवं प्रसन्न मानस में जागृति की लहर उठती है, तब उसकी अन्तरात्मा में दिव्य प्रकाश जगमगाने लगता है । राजा प्रदेशी की क्रूरता का वर्णन आप सुन चुके हैं। कितना भयंकर, कितना निर्दय और कितना निर्मम
बात असल में यह
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अध्यात्म साधना | ७५
था वह, दूसरों के जीवन के प्रति । हजारों-हजार हत्याएँ करने के बाद भी उसके दिल और दिमाग में कभी पश्चात्ताप की एक बूँद भी उद्भूत नहीं हो सकी । परन्तु जब अन्दर से लहर उठी, अन्दर के वेग ने उसे झकझोर दिया और जब आत्मा की अपने अन्दर की प्रचण्ड शक्ति ने उसे प्रबुद्ध कर दिया, तब वह कठोर न रहकर मृदु हो गया, क्रूर न रहकर दयालु बन गया । उसका जीवन इतना अधिक शान्त एवं दान्त बन गया, कि अपनी ही प्रेयसी द्वारा विष देने पर भी उसमें विकार और विकल्प की एक धूमिल रेखा भी अंकित नहीं हो सकी । साधना के क्षेत्र में बाहर की प्रेरणा भले ही कुछ दूर तक हमारा साथ दे सके, हमारा मार्ग निर्देशन कर सके, किन्तु अन्त में साधक को अपनी शक्ति पर ही चलना होगा, साधक को अपनी ताकत पर ही आगे बढ़ना होगा । राजा प्रदेशी को केशी कुमार श्रमण का उपदेश अवश्य मिला था, परन्तु ऐसे उपदेश तो अनेकों को मिले हैं, उनका क्यों नहीं उद्धार हुआ ? निमित्त की एक सीमा है, आगे चलकर साधक को स्वयं अपने पैरों खड़ा होना होता है। शिशु को उसके माता-पिता एवं अन्य अभिभावक तभी तक अपनी अँगुली का सहारा देते हैं, जब तक कि उसके पैर चलने में लड़खड़ाते रहते हैं, परन्तु जब उसके पैरों में जरा स्थिरता आ जाती है, तब उसे सहारा नहीं दिया जाता । धीरे-धीरे वह चलना सीख जाता है और उसे अपनी शक्ति पर विश्वास हो जाता है ।
आपने देखा होगा कि कुछ लोग अपने घर के तोते को राम-राम रटा देते हैं । तोता यथावसर राम शब्द का उच्चारण करता भी रहता है । परन्तु क्या वह उसके भाव और रहस्य को समझ सकता है ? उसे जो कुछ रटा दिया गया है, उससे अलग वह कुछ नहीं कह सकता । उसमें सोचने और समझने की शक्ति नहीं है । उसके स्वामी ने जो कुछ भी उसे पढ़ा दिया है, उसके अतिरिक्त वह अन्य कुछ न बोल सकता है और न सोच ही सकता है। कुछ साधक भी उस तोते के समान ही होते हैं । उपदेष्टा और गुरु ने जो कुछ रटा दिया, जो कुछ पढ़ा दिया और जो कुछ सिखा दिया, उसके अतिरिक्त नया चिन्तन एवं अनुभव वे प्राप्त नहीं कर सकते । वे लोग अपनी स्वयं की बुद्धि से न कुछ सोच पाते हैं, न अपनी स्वयं की वाणी से कुछ बोल पाते हैं और न अपने स्वयं के शरीर से कोई निर्धारित कार्य ही कर पाते हैं । इस
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७६ | अध्यात्म-प्रवचन प्रकार के साधक कहीं पर भी हों, किसी भी परम्परा में क्यों न हों, जिनके पास स्वयं का प्रकाश नहीं है, वे दूसरों को प्रकाश कैसे दे सकते हैं ? शास्त्र का हथौड़ा और गुरु का डंडा कब तक उन्हें साधना के मार्ग पर अग्रसर करता रहेगा? कब तक उन्हें लक्ष्य की ओर आगे बढ़ाता रहेगा? ___ मैं आपके समक्ष मोक्ष और उसके साधनों की चर्चा कर रहा था। जैन-दर्शन में मोक्ष के साधन तीन हैं - सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । चिन्तन और मनन करने के बाद आपको यह ज्ञात होगा, कि कुछ विचारक और तत्त्वचिन्तक ज्ञान और चारित्र को ही मोक्ष का मार्ग बतलाते हैं। आगम-ग्रन्थों में दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन के अतिरिक्त, तप को भी मोक्ष का अंग, साधन एवं उपाय बतलाया गया हैं। मेरे विचार में दो, तीन एवं चार में किसी प्रकार का अन्तर नहीं पड़ता। दो कहने वाले भी तीन को मानते हैं। उन लोगों का कहना है कि जहाँ सम्यक ज्ञान होता है, वहाँ सम्यक् दर्शन स्वतः होता ही है, अतः दर्शन को उन्होंने ज्ञान के अन्दर मान लिया । जो लोग तप को चौथा अंग मानते हैं, उनके लिए तीन वालों का कहना है, कि चारित्र में तप स्वतः आ ही जाता है। तप चारित्र से भिन्न नहीं है । और जो तप को मोक्ष का चतुर्थ कारण मानते हैं, वे भी तप को चारित्र से भिन्न नहीं मानते, अपितु तप को विशिष्ट महत्ता देने की दृष्टि से भिन्नत्वेन कथन करते हैं। संक्षेप और विस्तार को छोड़ कर मध्यम दृष्टि से मोक्ष के साधन तीन हैं-दर्शन, ज्ञान और चारित्र। आपने यह सोचा होगा, कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र के साथ सम्यक् शब्द क्यों जोड़ा गया है ? इसकी आवश्यकता भी क्या है ? यह प्रश्न आज ही नहीं, हजारों वर्ष पूर्व भी उठा था और जब तक मानव-जीवन है, तब तक अनन्त भविष्य में भी यह प्रश्न उठ सकता है। आज आपके समक्ष भी यह प्रश्न है, कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र से पूर्व सम्यक् शब्द क्यों जोड़ा गया है ? ___ मैं समझता हूँ आपका प्रश्न युक्तियुक्त है। हर समझदार व्यक्ति को प्रश्न करने का अधिकार है। इस सम्यक् शब्द के रहस्य को समझने के लिए, आपको कुछ गहराई में उतरना होगा, जीवन-समुद्र के ऊपर-ऊपर तैरते रहने से सत्य का मोती हाथ लगने वाला नहीं है। भारत के अध्यात्म-शास्त्र में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है, कि ज्ञान आत्मा का निज गुण है । जो निज गुण होता है, वह कभी अपने गुणी
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अध्यात्म साधना | ७७ से अलग नहीं हो सकता । अनन्त अतीत में एक समय भी ऐसा नहीं रहा, जबकि ज्ञान आत्मा को छोड़कर, अलग चला गया हो और अनन्त अनागत में एक क्षण का भी समय ऐसा नहीं आएगा, जब कि ज्ञान आत्मा को छोड़कर अलग हो जाएगा । जीवन के वर्तमान क्षण में भी आत्मा में ज्ञान है ही । इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है, ज्ञान की आत्मा में कालिक सत्ता है । इसी प्रकार दर्शन भी आत्मा का निज गुण है। ज्ञान के समान दर्शन भी आत्मा में सदा रहा है और सदा रहेगा तथा वर्तमान में भी उसकी सत्ता है । चारित्र भी आत्मा का गुण है, जहाँ आत्मा है वहाँ चारित्र अवश्य रहेगा। आत्मा की सत्ता अनन्त काल से है और अनन्त काल तक रहेगी । चारित्र भी अनन्त काल से है और अनन्त काल तक रहेगा । इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों आत्मा के निज गुण हैं । जो गुण हैं, वे अपने गुणी से कभी अलग नहीं हो सकते। क्योंकि गुण और गुणी में अविना भाव सम्बन्ध होता है, जिसका अर्थ है - गुण गुणी के बिना नहीं रह सकता, और गुणी भी बिना गुण के नहीं रह सकता । क्या कभी उष्णता अग्नि को छोड़ कर रह सकती हैं ? और क्या कभी अग्नि उष्णता हीन हो सकती है ? इसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र कभी आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं रह सकते और आत्मा भी उक्त तीनों गुणों को छोड़कर कभी नहीं रह सकता । इसी को अविना भाव सम्बन्ध कहा जाता है । गुण और गुणी न सर्वथा भिन्न हैं, और न सर्वथा अभिन्न हैं । जैन दर्शन गुण और गुणी में व्यवहार नय से कथंचित् भेद और निश्चय नय से कथंचित् अभेद स्वीकार करता है । जैन दर्शन की यही अनेकान्त - दृष्टि है । भेद-कथन व्यावहारिक है और अभेद-कथन नैश्चियक है ।
मैं आपसे कह रहा था कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्मा के निज गुण हैं, वे कभी आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं रह सकते । दर्शन का अर्थ प्रतीति, रुचि एवं विश्वास होता है । वह दर्शन रहा तो अवश्य, परन्तु आत्माभिमुख न रहकर शरीराभिमुख रहा । आत्मा का यह दर्शन गुण निगोद की स्थिति में भी रहा । निगोद, चैतन्यजीवन की सबसे निकृष्ट स्थिति मानी जाती है । निगोद की स्थिति में चेतना शक्ति इतनी हीन एवं क्षीण स्थिति में पहुँच जाती है, कि वहाँ प्रत्येक चैतन्य के पास अपने पृथक्-पृथक् शरीर भी नहीं रहते, बल्कि, एक ही शरीर में अनन्त अनन्त चेतनों को अधिवास करना
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७८ | अध्यात्म-प्रवचन
पड़ता है । अनन्त आत्माओं के साझेदारी का यह शरीर भी इतना सूक्ष्म होता है, कि चर्म चक्षु से उसे देखा नहीं जा सकता । उसे विशिष्ट ज्ञानी ही देख सकते हैं । परन्तु चेतना की इस हीन एवं क्षीण अवस्था में भी उसके पास उसका दर्शन-गुण रहा है, उस समय भी उसके पास प्रतीति, रुचि और विश्वास रहा है । परन्तु वह विश्वास स्वाभिमुख न रहकर पराभिमुख रहा । आत्मा में न रहकर शरीर
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रहा | जब तक यह विश्वास, यह आस्था और यह श्रद्धा शरीर में रहती है अथवा शरीर से सम्बन्ध भौतिक भोग-साधनों में रहती है, तब तक अध्यात्म-शास्त्र उसे सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् आस्था एवं सम्यक् दर्शन न कह कर मिथ्या दर्शन कहता है ।
ज्ञान भी आत्मा का निज गुण है और वह आज से नहीं, अनन्तअनन्त काल से इस आत्मा में रहा है और इस आत्मा में ही रहेगा । संसार का एक भी प्राणी, ऐसा नहीं है, जिसमें ज्ञान न हो । उपयोग आत्मा में अवश्य रहता है, क्योंकि ज्ञान-रूप उपयोग आत्मा का एक बोधरूप व्यापार है । किन्तु उस ज्ञान रूप उपयोग की धारा आत्मा में न रहकर जब तक शरीर में प्रवाहित होती है, शरीर से सम्बद्ध भौतिक भोग-साधनों में प्रवाहित होती है, तब तक वह ज्ञान सम्यक् ज्ञान नहीं कहलाता । ज्ञान की धारा तो रही, किन्तु वह सम्यक् न होकर मिथ्या रही । यह नहीं कहा जा सकता, कि आत्मा का ज्ञान कभी नष्ट हो गया । यदि ज्ञान नष्ट हो गया होता, तो न नवीन कर्म का बन्ध होता और न पुराने कर्मों का भोग ही होता । ज्ञान की उपस्थिति में ही नवीन कर्मों का बन्ध एवं पुराने कर्मों का भोग एवं क्षय होता है । कर्म और कर्मफल, चेतना के ही परिणाम हैं। इसका अर्थ यही है, कि आत्मा कभी ज्ञान-हीन नहीं हुआ और न कभी ज्ञान-हीन हो ही सकेगा । क्योंकि ज्ञान आत्मा का निज गुण है, ज्ञान आत्मा का निज स्वरूप है, भले ही चेतना की हीन अवस्था में वह ज्ञान सुरूप न होकर कुरूप रहा हो, सम्यक् न होकर मिथ्या रहा हो । परन्तु चैतन्य में ज्ञान की सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता । जहाँ चैतन्य है वहाँ ज्ञान अवश्य रहेगा ।
चारित्र का अर्थ है - आचार एवं क्रिया । आचार एवं क्रिया का अस्तित्व जीव में किसी-न-किसी प्रकार रहता ही है । कभी ऐसा नहीं हो सकता कि चारित्र आत्मा को छोड़कर अन्यत्र रहता हो । अहिंसा
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अध्यात्म साधना | ७६ और हिंसा, सत्य और असत्य दोनों ही चारित्र हैं । एक सम्यक् है और दूसरा असम्यक् । क्रिया का सीधा होना, सम्यक् चारित्र है और क्रिया का उल्टा होना मिथ्या चारित्र है । शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार शुभ में प्रवृत्ति और अशुभ में निवृत्ति को चारित्र कहते हैं । चारित्र, आचार एवं क्रिया भले ही वह सम्यक् हो या मिथ्या, जब कभी होगी जीव में ही होगी, अजीव में नहीं । इसी आधार पर चारित्र को आत्मा का गुण माना गया है । मिथ्या चारित्र का अर्थ है - पर में रमण और सम्यक् चारित्र का अर्थ है - स्व में रमण । जिस आत्मा में सम्यक् चारित्र होता है, उस आत्मा की गति = प्रवृत्ति मोक्षाभिमुखी होती है और जिस आत्मा में मिथ्या चारित्र होता है, उस आत्मा की गति = प्रवृत्ति संसाराभिमुखी रहती है । चारित्र की साधना का एकमात्र लक्ष्य है, आत्मा के स्वस्वरूप की उपलब्धि । इस स्वस्वरूप की उपलब्धि वीतराग भाव से ही हो सकता है। वीतराग भाव का अर्थ है - वह संयम, जिसमें साधक इतनी ऊँचाई पर पहुँच जाता है, कि उसके जीवन में किसी के प्रति भी राग एवं द्वेष नहीं रहता । इसके विपरीत सराग संयम का अर्थ है - वह संयम जिसमें राग और द्वेष अल्प मात्रा में बना रहता है । परन्तु जितने अंश में राग है, वह चारित्र नहीं है । सराग संयम में जितना वीतराग भाव है, उतना ही चारित्र है । सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान के साथ सम्यक् चारित्र की परिपूर्णता को ही जैन दर्शन में मोक्ष एवं मुक्ति कहा गया है। दर्शन की पूर्णता चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सप्तम गुण स्थान तक अवश्य हो जाती है। ज्ञान की पूर्णता त्रयोदश गुण स्थान में हो जाती है । किन्तु चारित्र की परिपूर्णता तेरहवें गुण स्थान के अन्त में चौदहवें गुणस्थान में होती है । इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र की परिपूर्णता को ही मोक्ष कहा गया है । आत्म-गुणों के पूर्ण विकास का नाम ही जब मोक्ष है, तब वह मोक्ष कहीं बाहर में न रहकर साधक के अन्दर में ही रहता है ।
I
मैं
मैं आपके समक्ष दर्शन, ज्ञान और चारित्र की चर्चा कर रहा था । यह लाने का प्रयत्न कर रहा था, कि उक्त तीनों के पूर्व सम्यक् पद लगाने का क्या महत्व है ? दर्शन, ज्ञान और चारित्र से पूर्व जब सम्यक् शब्द जोड़ दिया जाता है, तव उनमें क्या विशेषता आ जाती है ? यदि केवल दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र को ही मोक्ष का अंग मान लिया जाए, और उनसे पूर्व सम्यक् शब्द न जोड़ा जाए, तो मिथ्या
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८० | अध्यात्म-प्रवचन
दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र भी मोक्ष का अंग माना जाएगा। क्योंकि दर्शन का दर्शनत्व, ज्ञान का ज्ञानत्व और चारित्र का चारित्रत्व वहाँ पर भी रहता ही है। परन्तु अध्यात्म-दर्शन में मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र को मोक्ष का अंग न मानकर, संसार का ही अंग माना गया है। इसके विपरीत सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को ही मोक्ष के अंगत्वेन मान्यता दी है । दर्शन- ज्ञान और चारित्र आत्मा के निज गुण होने पर भी मिथ्यात्व दशा में वे आत्मलक्षी न होकर परलक्षी बने रहते हैं । उक्त गुणों का आत्मलक्षी होना ही सम्यक्त्व है और परलक्षी होना ही मिथ्यात्व है। मोक्ष की साधना में दर्शन का होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसका आत्मलक्षी होना परमावश्यक है। मोक्ष की साधना में ज्ञान का होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसका आत्मलक्षी होना भी आवश्यक है । मोक्ष की साधना में चारित्र का रहना ही आवश्यक नहीं है, बल्कि उसका आत्मलक्षी होना भी आवश्यक है। आत्मा में दर्शन तो रहा, परन्तु वह स्व की ओर न रहकर पर की ओर रहा और आत्मलक्षी के बदले परलक्षी रहा । परन्तु यही दृष्टि जब स्वलक्षी हो जाती है, तब उसे सम्यक् दर्शन कहते हैं। आत्मा में ज्ञान तो अनन्त काल से रहा, परन्तु उसने स्व को नहीं जामा, इसीलिए वह मिथ्या रहा । और जब ज्ञान स्व को समझ लेता है तब वह सम्यक् बन जाता है । आत्मा में चारित्र तो रहा, किन्तु वह स्व में रमण नहीं कर सका, पर में रमण करता रहा, इसीलिए सम्यक् नहीं हो सका और जब तक सम्यक नहीं हो सका, तब तक वह मोक्ष का अंग भी नहीं बन सका । अध्यात्म-शास्त्र कहता है, कि आत्म-लक्षी परिणति के अभाव में दर्शन, ज्ञान और चारित्र मिथ्या बने रहे, वे सम्यक नहीं बन सके। __दर्शन, ज्ञान और चारित्र से पूर्व सम्यक् शब्द लगाने से सारी स्थिति ही बदल जाती है। इसका अभिप्राय यही है, कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष के अंग नहीं, बल्कि सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही मोक्ष के अंग हैं। सम्यक् शब्द का अर्थ व्याकरण-शास्त्र के अनुसार प्रशस्त, संगत और विशुद्ध होता है । सम्यक् शब्द इस अभिप्राय को प्रतिपादित करता है, कि जब तक उक्त गुण प्रशस्त एवं विशुद्ध नहीं होंगे, तब तक वे मोक्ष के अंग नहीं बन सकते।
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अध्यात्म साधना |८१ एक प्रश्न अध्यात्म-शास्त्र में बड़े ही महत्व का उठाया गया है, कि मोक्ष की साधना में पहले सम्यग् दर्शन को माना जाए अथवा सम्यग् ज्ञान को माना जाए? हमारी अध्यात्म साधना का क्रम सम्यग् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रहे अथवा सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक चारित्र रहे। चारित्र के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का विचार-भेद उपलब्ध नहीं होता। जितना भी विचारभेद है, वह सब ज्ञान और दर्शन के पूर्वा-पर के सम्बन्ध में है। यदि तात्त्विक दृष्टि से विचार किया जाए, तो किसी भी प्रकार के विचारभेद को अवकाश नहीं है। आगम ग्रन्थों में, मोक्ष के अंगों में कहीं तो दर्शन से पूर्व ज्ञान को रखा गया है और कहीं ज्ञान से पूर्व दर्शन को रखा गया है। परन्तु दार्शनिक ग्रन्थों में सर्वत्र एक ही शैली उपलब्ध होती है । वहाँ सर्वत्र दर्शन से पूर्व ज्ञान को रखा गया है । इस पक्ष का तर्क यह है, कि ज्ञान तो आत्मा में अनन्तकाल से था ही, किन्तु उसे सम्यक् बनाने वाली शक्ति सम्यग् दर्शन ही है। अतः ज्ञान से पूर्व उस सम्यग् दर्शन को रखा जाना चाहिए, जिसकी महिमा से अज्ञान भी सम्यकज्ञान बन जाता है। इस दृष्टि से ज्ञान से पूर्व दर्शन शब्द को रखने में किसी भी प्रकार की विप्रतिपत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती। परन्तु ज्ञान को दर्शन से पूर्व मानने वाले पक्ष का तर्क यह है, कि दर्शन का अर्थ है सत्य की प्रतिपत्ति, सत्य की दृष्टि । परन्तु कौन दृष्टि सत्य है, कौन दृष्टि असत्य है, इसका निर्णय ज्ञान से ही हो सकता है, अतः दर्शन से पूर्व ज्ञान होना चाहिए। जैन-दर्शन कहता है, कि सत्य तो सत्य है, परन्तु उस पर विचार करो कि वह सत्य किस प्रकार का है ? आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में आत्मा का सत्य ही सर्वोपरि सत्य है। इस दृष्टि से दर्शन से पूर्व ज्ञान का कथन करने वालों का अभिप्राय यही है, कि किसी भी वस्तु के निर्णय करने में ज्ञान की प्राथमिकता रहती है । अतः आस्था, श्रद्धा और विश्वास से पूर्व ज्ञान होना चाहिए। परन्तु यदि गम्भीर विचार के साथ वस्तुस्थिति का अवलोकन किया जाए तो सार तत्त्व यही निकलता है, कि दर्शन और ज्ञान में क्रम-भाव एवं पूर्वापर-भाव है ही नहीं। __ कल्पना कीजिए आकार में सूर्य स्थित है, उसे चारों ओर बादलों ने घेर लिया है । किन्तु जब बादल हटते हैं, तब सूर्य का प्रकाश और आतप एक साथ भूमण्डल पर फैल जाते हैं। यदि कोई यह कहे कि पहले प्रकाश आता है, फिर आतप आता है, अथवा पहले आतप आता
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८२ | अध्यात्म-प्रवचन है, और फिर प्रकाश आता है तो ये दोनों ही बातें गलत हैं। जहाँ प्रकाश है, वहाँ आतप रहता ही है और जहाँ आतप रहता है, वहाँ प्रकाश भी अवश्य रहता ही है। दोनों का अस्तित्व एक समय में एवं युगपत् रहता है । इस दृष्टि से सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान में किसी प्रकार का एकान्त क्रम-भाव या पूर्वापर भाव मानना उचित नहीं है । जिस क्षण दर्शन, सम्यग्-दर्शन में परिणत होता है उसी क्षण, एक क्षण का भी अन्तर नहीं, ज्ञान सम्यग् ज्ञान में परिणत हो जाता है। प्रत्येक अध्यात्म शास्त्र में सम्यग दर्शन का महत्व इस आधार पर माना गया हैं, कि उसके होने पर ही ज्ञान, सम्यग ज्ञान बनता है और उसके होने पर ही चारित्र, सम्यक् चारित्र बनता है। मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि जैन-दर्शन दृष्टि को महत्व देता है, जिसकी जैसी दृष्टि होती है उसके लिए सृष्टि भी वैसी ही बन जाती है । जैन-दर्शन यह कहता है, कि सत्य को सत्य के रूप में परख लो, यही सबसे बड़ा साध्य है और साधक जीवन का यही सबसे बड़ा कर्तव्य है, विशुद्ध दृष्टि के अभाव में जप, तप और स्वाध्याय सब व्यर्थ रहता है। दृष्टि-विहीन आत्मा कितना भी कठोर एवं घोर तप क्यों न करे, किन्तु उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसके विपरीत दृष्टि-सम्पन्न आत्मा का अल्प तप एवं अल्प जप भी महान फल प्रदान करता है । साधक-जीवन में दृष्टि की, विशुद्ध दृष्टि की अपार महिमा है और अपार गरिमा है ।
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साधना का लक्ष्य
साधना के जीवन में किसी भी एक लक्ष्य और ध्येय का बड़ा महत्त्व होता है । ध्येय-हीन एवं लक्ष्य-हीन जीवन इधर-उधर भटकता रहता है, वह अपनी जिन्दगी की किसी एक निश्चित मंजिल पर नहीं पहुंच सकता । सब कुछ करने पर भी उसे कुछ प्राप्त नहीं हो पाता । इसका मुख्य कारण यही है, कि उसे क्या होना है और कैसा होना है तथा कब होना है ? इस विषय में वह अच्छी तरह न कोई विचार कर पाता है, और न कोई निर्णय ही ले पाता है। इस प्रकार का लक्ष्य-हीन एवं ध्येय-हीन साधक अनन्त-अनन्तकाल से भटक रहा है और अनन्त-अनन्तकाल तक भटकता रहेगा। उसकी जीवन-नौका कभी किनारे नहीं लग सकती । अतएव साधक के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यही रहता है, कि उसका ध्येय एवं लक्ष्य क्या है ? संसार के भोग चक्र में उलझे रहना ही उसके जीवन का लक्ष्य है ? अथवा संसार के भव-बन्धनों को काट कर अजर, अमर, शाश्वत सुख प्राप्त करना उसका लक्ष्य है ? मैं समझता हूँ कि अध्यात्म-साधना का जितना महत्व है, उससे भी अधिक महत्व इस बात का है, कि साधक यह समझे कि उसे क्या करना है, कैसे करना है और कब करना है ?
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८४ | अध्यात्म-प्रवचन
पहले लक्ष्य स्थिर करो और फिर आगे बढ़ो | अध्यात्म-जीवन का यही एक मात्र प्रशस्त राजमार्ग है ।
आत्मा में काम एवं क्रोध आदि के विकल्प एवं विकार आज से नहीं, अनन्त काल से रहे हैं । इन विकारों को जीतने का अनेक बार प्रयत्न किया गया, किन्तु सफलता नहीं मिली । अनन्तकाल से यह मोह-मुग्ध आत्मा संसार सागर की उत्ताल तरंगों पर उठता और गिरता रहा है । अनन्तवार वह संसार सागर में बहुत गहरा डूबा है और अनेक बार उससे निकलने का यथासम्भव प्रयत्न भी वह कर चुका है। क्या कारण है कि वह फिर भी अभी तक निकल नहीं पाया । प्रयत्न करने पर भी उसे अनुकूल फल क्यों नहीं मिला ? यह एक विकट प्रश्न है | अध्यात्म शास्त्र इस विषय में बतलाता है कि प्रयत्न तो किया गया, किन्तु उस प्रयत्न से पूर्व उचित विवेक नहीं रखा गया । साधना के क्षेत्र में विवेक का मूल अर्थ है अपने वास्तविक लक्ष्य को जानना एवं अपने विशुद्ध ध्येय को पहचानना । जीव ने सुखी होने की अनन्तवार अभिलाषा की, फिर भी वह सुखी क्यों नहीं हो सका ? क्या आपने कभी इस प्रश्न पर अपने जीवन की इस समस्या पर गम्भीरता के साथ विचार किया है ? क्या आपने यह जानने का प्रयत्न किया है कि मैं कौन हूँ और क्या हूँ ? आज के इस भौतिक युग का मानव प्रकृति पर विजय प्राप्त करना चाहता है, उसके एक-से-एक गूढ़ रहस्य को खोज निकालना चाहता है, परन्तु क्या कभी उसने अपने पर विजय प्राप्त करने का विचार किया ? अपने अन्तरतम के रहस्य को जानने का प्रयत्न किया ? इस भौतिकतावादी युग में कदाचित् हो कोई आत्मा अपने को समझने का प्रयत्न करता है और अपने को परखने का प्रयत्न करता है । आज के इस भौतिकबादी विज्ञान ने अनन्त आकाश में उड़ने के लिए वायुयान बनाया, समुद्र की अपार जल - राशि में तैरने के लिए जलयान और एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र से सामीप्यता स्थापित करने के लिये अनेक भौतिक साधनों का आविष्कार किया । परन्तु क्या कभी उसने यह भी सोचा एवं समझा कि मैं क्रोध क्यों करता हूँ, मैं लोभ क्यों करता हूँ, मैं राग क्यों करता हूँ और में द्वेष क्यों करता हूँ ? विकार और विकल्प मेरे अपने हैं अथवा मेरे से भिन्न हैं । क्या कभी यह समझने का प्रयत्न किया गया, कि जीवन में उत्थान कैसे आता है और जीवन का पतन क्यों होता है ?
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साधना का लक्ष्य | ८५
यह सत्य है कि हम संसार में हैं और संसार के बन्धनों से बद्ध हैं । भव के विविध भाव हमारे अन्दर उत्पन्न होते हैं और विलीन भी होते हैं । परन्तु यह सब क्यों हैं ? इस तथ्य को समझने के लिए हम अपने व्यस्त जीवन में से क्या कभी कुछ क्षण निकाल सके हैं । यह सत्य है कि ऐसा नहीं किया गया। हम दुःखी हैं, जीवन-यात्रा में कदम-कदम पर एवं क्षण-क्षण में दुःख की अनुभूति हमें होती है । परन्तु यह दुःख कहाँ से आया ? क्यों आया ? यह सत्य है कि इस सम्बन्ध में कभी विचार नहीं किया गया । क्रोध आने पर हम शान्त नहीं रह सके, अभिमान आने पर हम विनम्र नही रह सके, कुटिलता एवं वक्रता के आने पर हम सरल नहीं बन सके, लोभ के आने पर हम सन्तोष को धारण नहीं कर सके । यह सत्य है कि अनुकूल पदार्थ पर हमने राग किया और प्रतिकूल पदार्थ पर हमने द्वष किया। राग और द्वष के तूफाही झंझावातों से हम अपने अध्यात्म-भाव की रक्षा नहीं कर सके, यह सत्य है । ___ मैं आपसे अध्यात्म-जीवन की बात कह रहा था और यह बता रहा था कि अभिलाषा करने पर भी हमारे जीवन में भौतिकता के विरोध में अध्यात्म भाव क्यों नहीं पनपता? इसका कारण एक ही है-साधक के अपने जीवन की लक्ष्य-हीनता एवं ध्येय-हीनता । भारत के कुछ विचारक और तत्त्वचिन्तक, भारत के ही नहीं, बल्कि समग्र विश्व के तत्त्वचिन्तक इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन चाहे कितना ही अपवित्र क्यों न बन गया हो, किन्तु उसे पवित्र बनाया जा सकता है। जीवन अन्धकार से कितना भी क्यों न घिर गया हो, उसे प्रकाशमान बनाया जा सकता है । साधक अपने लक्ष्य से कितना ही क्यों न भटक गया हो, किन्तु उसे फिर अपने लक्ष्य पर लाया जा सकता है । इसी आशा और विश्वास के आधार पर अध्यात्मशास्त्र टिका हुआ है । संसार-सागर की तूफानी लहरों में फंस कर भी साधक अपने अध्यात्म-भाव के बल पर उस संकट से बच सकता है । परन्तु उसके अन्दर अपने प्रति और अपनी अध्यात्म-शक्ति के प्रति विश्वास जागृत होना चाहिए। जैन-दर्शन इस तथ्य का जय-घोष करता हैं कि तुम क्षुद्र होकर भी विराट बन सकते हो, तुम पतित होकर भी पवित्र बन सकते हो, तुम हीन होकर भी महान बन सकते हो। अपने में विश्वास करना सीखो । यदि अपने में विश्वास नहीं है, तो दुनिया
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८६ | अध्यात्म-प्रवचन
की कोई ताकत तुम्हारा उत्थान नहीं कर सकती, तुम्हें विकास के मार्ग पर नहीं ले जा सकती ।
मैं आपसे स्पष्ट कहता हूँ कि यदि विश्व का कोई भी विचारक आपसे यह कहता है, तुम दीन हो और अनन्त भविष्य में भी दीन ही रहोगे, तुम हीन हो और अनन्त भविष्य में भी हीन ही रहोगे, तुम पतित हो और अनन्त भविष्य में भी तुम पतित ही रहोगे, तो आप उसकी इन बातों को मानने से स्पष्ट इन्कार कर दें । जो दर्शन आपके उत्थान ओर विकास के लिए, आपको यथोचित आशा और विश्वास नहीं दिला सकता, आपके उत्थान के लिए आपको उत्तेजित एवं प्रेरित नहीं कर सकता, आपको भव बन्धन से मुक्त होने के लिए कोई मुखर सन्देश नहीं दे सकता, तो निश्चय ही उसकी कमजोर बात को स्वीकार करने से आपको कोई लाभ नहीं हो सकेगा, उसके प्राणहीन विचारों को ग्रहण करने से आपका अभीष्ट उत्थान नहीं हो सकेगा ।
मैं आपसे आत्मा के लक्ष्य एवं ध्येय की बात कह रहा था । मानव जीवन के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यह है, कि इस अनन्त संसार में आत्मा का ध्येय और लक्ष्य क्या है ? क्या आत्मा सदा संसार को सुख दुःख की अँधेरी गलियों में भटकने वाला ही रहेगा ? क्या यह आत्मा काम, क्रोध, मोह आदि विकारों से कभी मुक्त नहीं हो सकेगा ? क्या आत्मा इस अनन्त संसार-सागर में डूबता उतराता ही रहेगा, कभी सदा के लिए पार नहीं हो सकेगा ? जिधर हम देखते हैं उधर संसार में दुःख एवं क्लेश ही दृष्टि गोचर होते हैं । क्या संसार में कहीं सुख, शान्ति एवं आनन्द भी है ? इस प्रकार अनेक प्रश्न अध्यात्म - साधकों के मानस में उठा करते हैं । कुछ विचारक ऐसे रहे हैं जिनका यह विश्वास था कि आत्मा अपने अशुभ कर्म से नरक में जाता है और अपने शुभ कर्म से स्वर्ग में जाता है, कभी स्वर्ग लोक में और कभी नरक लोक में, कभी मर्त्य लोक में और कभी पशु-पक्षी की योनि में और कभी कीट पतंगों की योनि में यह आत्मा अपने पुण्य और पाप की हानि वृद्धि के कारण जन्म-मरण करता रहता है । इस प्रकार संसार में आत्मा के परिभ्रमण के स्थान कुछ तत्व चिन्तकों ने माने अवश्य हैं, परन्तु उन्होंने कभी भी अपवर्ग, मोक्ष एवं मुक्ति की परिभावना नहीं की । पाप और पुण्य से परे सर्वथा शुद्ध आत्म स्वरूप के आदर्श का विचार नहीं कर सके। जैन दर्शन का आदर्श उक्त विचारकों
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साधना का लक्ष्य ८७
से भिन्न है। वह कहता है, कि यह आत्मा अनन्त बार नरक के भयंकर दुःखों की आग में जल चुका है और अनन्त बार स्वर्ग-सुखों के झूलों पर भी झल चुका है । अनन्त अनन्त बार मानव पशु-पक्षी, कीट पतंग भी बन चुका है। यह सत्य है, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता, कि जो आत्मा अनन्त काल से संसार में रहता आया है, वह अनन्त भविष्य में भी संसार में ही रहेगा। जैन-दर्शन इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता, कि आत्मा का जन्म-चक्र और मृत्यु-चक्र कभी नहीं टूटेगा। वह यह मानता है कि अध्यात्म-साधना के द्वारा यह आत्मा सर्व प्रकार के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो सकता है।
चिन्तन और अनुभव करना, आत्मा का सहज स्वभाव है। जब बुरे चिन्तन का बुरा अनुभव हो सकता है, तब अच्छे चिन्तन का अच्छा अनुभव क्यों नहीं होगा। आत्मा अनुभव करता है, उसमें अनुभव करने की सहज शक्ति है । अपने अन्तर की आवाज को यदि कोई सुने, तो वह अवश्य ही यह अनुभव करेगा, कि अन्दर भी कोई चित् शक्ति है, और वह अनन्त है । जब वह शक्ति काम, क्रोध, वासना और घृणा में फंस सकती है, तब उसमें से एक दिन वह निकल भी सकती है। यदि अध्यात्म-साधक गम्भीरता के साथ अपने विकार और विकल्पों पर विचार करे, तो वह इसी निर्णय पर पहुँचेगा कि यह विकार और विकल्प आत्मा के अपने नहीं हैं । निश्चय ही संसार की प्रत्येक आत्मा बन्धन-मुक्त होने के लिए छटपटाती रहती है । एक साधारण चींटी को भी यदि आप देखेंगे, तो आपको पता चलेगा कि चलते-चलते जब उसके मार्ग में कोई रुकावट आ जाती है, अथवा कोई व्यक्ति उसे रोकने का प्रयत्न करता है, तो वह उससे बच निकलने के लिए कोशिश करती है। संसार का चींटी-जैसा एक साधारण जन्तु भी बन्धन में नहीं रहना चाहता। आप पक्षी को पिंजरे में बन्द रखना चाहते हैं, उसके भोजन एवं जल की व्यवस्था भी आप पिंजरे में ही कर देते हैं। उसके लिए सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का आप पूरा ध्यान रखते हैं । और कुछ दिनों के बाद आप यह समझ लेते हैं कि अब यह पालतू हो गया है, जैसे हमारे घर के अन्य सदस्य हैं, वैसे ही यह भी एक सदस्य है। आप यह विश्वास कर लेते हैं कि यह अब कहीं जा नहीं सकता। मगर जरा मौका मिला नहीं कि वह पक्षी अनन्त गगन में उड़ जाता है। जिस पक्षी को आपने इतने प्रेम और स्नेह से पाला
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८८ | अध्यात्म-प्रवचन
पोषा, वह बन्धन खुलते ही आपसे दूर हो गया। इसका अर्थ यही है कि पक्षी को भी बन्धन पसन्द नहीं है। बन्धन की स्थिति में भौतिक सुख साधन कितने भी क्यों न मिलें, परन्तु मन में एक भावना बनी रहती है, कि मैं बन्धनबद्ध हूँ। यह बन्धन-बद्धता ही संसार का सबसे बड़ा क्लेश एवं दुःख है। जब आप किसी पक्षी को पकड़ कर पहली बार पिंजरे में डालते हैं, तब आपने देखा होगा कि पिंजरे के अन्दर मेवा और मिष्टान्न होते हुए भी वह पक्षी उस पिंजरे के अन्दर छटपटाता रहता है, पख फड़फड़ाता रहता है और इधर-उधर चोंच मारता रहता है। आप इसका क्या अर्थ समझते हैं ? इसका अर्थ इतना ही है कि भौतिक भोग की उपलब्धि होने पर भी वह अपने को पराधीन मानता है । अपने आपको बन्धन-बद्ध मानता है । बन्धनमुक्त स्थिति में स्वतन्त्र रहकर भूख-प्यास सहन करना वह अच्छा समझता है, पर बन्धन की दशा में स्वर्ण-पिंजरे में रहकर भी वह अपने आपको विपन्न और दुःखी समझता है । जब पशु-पक्षी की अल्प चैतन्य आत्मा भी बन्धन को स्वीकार नहीं कर सकती, तब अधिक विकसित चेतनाशील मन-मस्तिष्क वाले मानव आत्मा को बन्धन कैसे रुचिकर हो सकता है ? काम, क्रोध और राग-द्वष आदि विकार और विकल्प, ज्ञानी और अज्ञानी दोनों के मन में रह सकते हैं, भले ही विचार करने का दृष्टिकोण विभिन्न हो, पर दोनों ही यह विचार करते हैं, कि बन्धन कैसा ही क्यों न हो, वह कभी हितकर एवं सूखकर नहीं हो सकता । किसी आत्मा का कितना भी पतन क्यों न हो गया हो, वह कितना भी पापाचार में क्यों न फंस गया हो, किन्तु बन्धन से मुक्त होने की एक सहज अभिलाषा वहाँ पर भी व्यक्त होती है। संसार में जितना भी दुःख एवं क्लेश है, वह सब बन्धन का ही है। अध्यात्मशास्त्र यह कहता है, कि केवल नरक में जाना ही बन्धन नहीं है, स्वर्ग में जाना भी एक प्रकार का बन्धन ही है। किसी अपराधी के पैरों में लोहे की बेड़ी डाल दी जाए, अथवा किसी के पैरों में सोने की बेड़ी डाल दी जाए-दोनों में विवेकदृष्टि से अन्तर भी क्या है ? बन्धन दोनों जगह है दोनों अवस्थाओं में ही आत्मा की स्वतन्त्रता नहीं रह पाती । सोने की बेड़ी वाला यदि यह अहंकार करता है, कि मैं लोहे की बेड़ी वाले से अधिक सुखी हैं, क्योंकि मेरे पैरों में सोने की बेड़ी पड़ी हुई है, तो यह सोचना और समझना उसकी कोरी मूढ़ता हो है। इसी प्रकार नरक में जाना यह भी बन्धन है और स्वर्ग में
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साधना का लक्ष्य | ८६ जाना यह भी बन्धन है। स्वर्ग और नरक दोनों प्रकार के बन्धनों को तोड़ना, यही आत्मा का सहज स्वभाव है। भारत का अध्यात्मवादी दर्शन यह कहता है, कि संसार के सुख और भोग विलास भी उसी प्रकार त्याज्य हैं, जिस प्रकार दुःख और क्लेश त्याज्य हैं। कल्पना कीजिए-किसी व्यक्ति के पैर में काँटा लग जाता है, और वह व्यक्ति वेदना से छटपटाता है । दूसरा व्यक्ति शूल (लोहे की पैनी सुई या पिन) को लेकर उसके पैर के कांटे को निकाल देता है। काँटा निकलने पर वह व्यक्ति यदि कहे कि इस शुल ने पैर में चुभकर कांटे को निकाला है, इसलिए यह अच्छा है, अस्तु, इसे मैं अपने पैर में ही चुभाए रखूगा, अलग नहीं करूंगा। यदि इस प्रकार किया जाता है, तो यह एक प्रकार की मूढ़ता ही होगी । ज्ञानी और विवेकशील आत्मा की दृष्टि में काँटा निकालने वाला शूल भी उसी प्रकार त्याज्य है, जिस प्रकार कि पैर में लगने वाला काँटा । संसार के पुण्य और पाप तथा तज्जन्य सुख और दुःख की भी यही कहानी है। अध्यात्म दृष्टि में पाप और पुण्य दोनों ही काँटे हैं। किन्तु पाप के बदले पूण्य के काँटे को अपने अन्तर की गहराई में लगाए रखना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। संसार के सुख और दुःख तब तक समाप्त नहीं होंगे, जब तक कि यह आत्मा भव बन्धनों से सर्वथा मुक्त न हो जाएगा। अध्यात्मवादी साधक की दृष्टि में संसार के दुःख ही त्याज्य नहीं हैं, किन्तु संसार के क्षणिक सुख भी अन्ततः ज्याज्य हैं, छोड़ने के योग्य हैं । यदि कोई व्यक्ति एक ओर से संसार के दुःखों को तो छोड़ता रहे, किन्तु दूसरी ओर संसार के सुखों को समेटता रहे, तो वह व्यक्ति उसी पागल अपराधी के समान है, जो अपने पैर में सोने की बेड़ी होने के कारण अपने आपको उन अपराधियों से श्रेष्ठ समझता है जिनके पैरों में लोहे की बेड़ियाँ हैं । अध्यात्म-दष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है, कि संसार के सुख भी, सुख रूप न होकर दुःख रूप ही होते हैं। जिन स्वर्ग-सुखों की मोह-मुग्ध आत्मा अपने दिमाग में रंगीन कल्पनाएँ करता है. आखिर, उन स्वर्ग के देवों के सुखों का भी एक दिन अन्त अवश्य ही होता है। अनन्त अतीत में सेठ, साहूकार, राजा और महाराजाओं का सुख क्या कभी स्थायी रहा है, और क्या अनन्त भविष्य में भी वह स्थायी हो सकेगा ? संसार के यह विषय और भोग ज्ञानी की दृष्टि में विष ही हैं, वे कभी अमृत नहीं हो सकते । और जो विष है, वह सदा त्याज्य होता है।
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६० | अध्यात्म-प्रवचन
बन्धन और मुक्ति दोनों सापेक्ष शब्द हैं । बन्धन है, इसीलिए मुक्ति की उपयोगिता है । परन्तु साधक के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यह रहता है कि बन्धन से मुक्ति कैसे मिले ? इन स्वर्ग और नरक आदि के बन्धनों को कैसे तोड़ा जाए ? बन्धन है, यह सत्य है । इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता । परन्तु जी बन्धन आया है उसे दूर करने की समस्या ही मुख्य समस्या है । यह निश्चय है कि जो आया है, वह दूर भी किया जा सकता है । जो कर्म बँधा हैं, उसे क्षय भी किया जा सकता है । किन्तु बद्ध कर्म को क्षय करने की समस्या उन्हीं तत्त्व चिन्तकों के समक्ष प्रस्तुत होती है, जो स्वर्ग और नरक से आगे बढ़कर अपवर्ग, मोक्ष, मुक्ति एवं आत्मा के निर्वाण में विश्वास रखते हैं । जिन लोगों ने अपवर्ग मोक्ष की सत्ता को स्वीकार नहीं किया, उन विचारकों के समक्ष बन्धन मुक्त होने का सवाल ही कभी पैदा नहीं होता । उन्होंने आत्मा के जन्म एवं मरण का एक ऐसा चक्र स्वीकार कर लिया है, जिसे कभी तोड़ा नहीं जा सकता, जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता । मैं आपके समक्ष उस अध्यात्मवादी दर्शन की चर्चा कर रहा हैं, जो आत्मा की परम्परागत बद्ध दशा को भी स्वीकार करता है और उतनी ही तीव्रता के साथ आत्मा की मुक्त दशा को भी स्वीकार करता है । केवल स्वीकार ही नहीं करता, आत्मा के बन्धन को काटने के लिए प्रयत्न करने में भी विश्वास रखता है ।
आत्मा के बन्धन कैसे दूर हों ? उक्त समस्या के समाधान के लिए अध्यात्मवादी दशन ने दो मार्ग बतलाए हैं- भोग और निर्जरा । भोग और निर्जरा के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय बन्धन से मुक्त होने का नहीं है । इस विषय की लम्बी व्याख्या करने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है, कि भोग क्या है और निर्जरा क्या है ? अध्यात्मवादी साधक कर्म से विमुक्त होने के लिए भोग और निर्जरा के दो उपायों में से किस उपाय को ग्रहण करे और अपनी साधना में किस प्रकार उसे लागू करे ?
अध्यात्मवादी दर्शन में भोग का अर्थ, वह स्थिति- विशेष है, जिसमें बद्ध आत्मा अपने पूर्व संचित कर्मों का सुख एवं दुःख आदि के रूप में फल भोग करता है । यह निश्चित है किसी भी पूर्व संचित का फलभोग शुभ एवं अशुभ रूप में ही हो सकता है । अपने पुण्य-पाप रूप कृत कर्मों के फल का वेदन करना ही भोग है ।
निर्जरा का अर्थ है, पूर्वबद्ध कर्मों की वह स्थिति विशेष, जिसमें
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साधना का लक्ष्य | ६१
बद्ध कर्म के फल का वेदन नहीं किया जाता । अतितु फल-भोग से पूर्व ही कर्मों का क्षय किया जाता है । कर्म अपना शुभाशुभ फल दे, उससे पूर्व ही आत्म-संश्लिप्ट उस कर्म को, आत्मा से अलग कर देने की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया निर्जरा है।
भोग और निर्जरा के अर्थ को समझने के बाद अब मुख्य प्रश्न यह उठता है, कि बद्ध कर्म को आत्मा से अलग किस उपाय से किया जाए ? भोग से अथवा निर्जरा से ? दर्शन शास्त्र में इस विषय पर गहन से गहनतम चर्चाएँ की गई हैं। अनेक विकल्पों का समाधान किया गया है। मैं आपको उस गम्भीर चर्चा की अधिक गहराई तक ले जाना नहीं चाहता। किन्तु कुछ गहराई में तो आपको निश्चय ही उतरना पड़ेगा । किसी महासागर के तट पर बैठकर अथवा उसके जल की सतह पर तैर कर, आप उसके बहुमूल्य मणि-मुक्ताओ को प्राप्त नहीं कर सकते। उनकी उपलब्धि के लिए, आपको गहरी डुबकी लगानी पड़ेगी। जीवन की अध्यात्म-साधना में भी यही सिद्धांत लागू होता है।
भोग और निर्जरा ये दो मार्ग ही ऐसे हैं, जिनके द्वारा आत्मा कर्म के बन्धन से विमुक्त हो सकता है। भोग और निर्जरा में से किस मार्ग को अंगीकार किया जाए, जिससे कि आत्मा शीघ्र ही बन्धन-मुक्त हो सके । कुछ विचारक इस तथ्य पर जोर डालते हैं, कि जब तक पूर्वबद्ध कर्मों का पूर्ण रूप से फल नहीं भोग लिया जाएगा, तब तक आत्मा का अपवर्ग और मोक्ष नहीं हो सकता । परन्तु मेरे विचार में यदि फल भोग कर ही कर्म बन्धनों को तोड़ेंगे, तो कर्मों का कभी अन्त नहीं हो सकेगा । मूल कर्म आठ अवश्य हैं, परन्तु उनके उत्तरोत्तर असंख्य प्रकार हैं । असंख्यात योजनात्मक समग्र लोक को बार-बार खाली करके बार-बार भरा जाए, और इस प्रकार असंख्य बार भरा जाए, इतना विस्तार एवं प्रसार है एक-एक कर्म का । और प्रत्येक कर्म की स्थिति भी इतनी लम्बी है कि जिसको कल्पना के माध्यम से भी समझना आसान नहीं है । आठ कर्मों में सबसे विकट और भयंकर कर्म मोहनीय कर्म है। अकेले उस मोहनीय कर्म की दीर्घ स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़, सागरोपम की है । इसके अतिरिक्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म की स्थिति भी बड़ी लम्बी है। इन सबको एक जीवन में कैसे भोगा जा सकता है ? इन सबके भोगने में एक जन्म तो क्या, अनन्त-अनन्त जन्म भी पर्याप्त
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२ | अध्यात्म-प्रवचन
नहीं हो सकते। एक दूसरी बात भी विचारणीय है और वह यह कि कर्मों का बन्ध प्रतिक्षण होता ही रहता है । एक तरफ भोग और दूसरी तरफ बन्ध । साधारण भोगासक्त आत्मा जितना एक जीवन में कर्मफल को भोगता है, उससे कहीं बहुत अधिक वह नवीन कर्मों का बन्ध कर लेता है । एक ओर भोग चलता रहे और दूसरी ओर तीव्र गति से नवीन कर्मों का आगमन एव बन्धन चलता रहे, तब उन कर्मों का अन्त कैसे आयेगा और कब आएगा, कुछ नहीं कहा जा सकता । कर्मों के भोग का मार्ग, कर्मों के अन्त का मार्ग नहीं बन सकता । कल्पना कीजिए, आप किसी ऐसी सभा में बैठे हुए हैं, जहाँ पर पहले से ही इतने अधिक मनुष्य बैठे हुए हैं, जिनकी संख्या का सही-सही अंकन आप नहीं कर सकते । इस सभा में यदि एक मिनट में एक व्यक्ति बाहर जाए और बदले में दस व्यक्ति बाहर से अन्दर में आएँ तो क्या कभी इस सभा की समाप्ति हो सकेगी, क्या कभी वह स्थान खाली हो सकेगा ? यह एक स्थूल उदाहरण है । कर्म के सम्बन्ध में यह अनुमान भी नही लगाया जा सकता कि प्रतिक्षण आत्मा में कितने नवीन कर्मों का आगमन एवं बन्धन हो रहा है । अस्तु जहाँ निर्गमन कम और आगमन अधिक हो, वहाँ अन्त की कल्पना कैसे की जा सककी है ?
भोग कर कर्मों को समाप्त करना मेरे विचार में किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । सम्पूर्ण जीवन को बात छोड़िए । प्रातः काल से सांय काल तक एक दिन के जीवन में भी, एक आत्मा कितने अधिक नवीन कर्मों का उपार्जन कर लेता है, इसकी परिकल्पना करना भी हमारे लिए शक्य नहीं है । एक क्षण में भी इतने अधिक कर्मदलिकों का संचय एवं उपार्जन हो जाता है, कि सम्पूर्ण जीवन में भी उसे भोगा नहीं जा सकता । फिर सम्पूर्ण जीवन के कर्मों को भोगकर समाप्त करने की आशा करना, क्या दुराशामात्र नहीं है । अतः भोग भोग कर कर्मों को तोड़ना और उनके अन्त की आशा करना उचित नहीं कहा जा सकता । कर्मों का अन्त जब कभी भी, जहाँ कहीं भी और जिस किसी भी आत्मा ने किया है, तब भोग से नहीं, तिर्जरा से ही किया है । अतः कर्मों का अन्त करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय भोग नहीं, निर्जरा ही है । निर्जरा से ही कर्मों का अन्त किया जा सकता है ।
निर्जरा दो प्रकार की है - सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । सविपाक निर्जरा का अर्थ है - जिसमें कर्मों को भोगकर
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साधना का लक्ष्य [९३
समाप्त किया जाता है । विपाक का अर्थ है-फल, रस एवं कर्म का उदयकाल । विपाक सहित को सविपाक कहा गया है । कर्मों के उदयकाल में कर्म के शुभ एवं अशुभ वेदन को ही विपाक कहा गया है । उस विपाक के द्वारा जो कर्मक्षय होता है, उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। सविपाक निर्जरा की क्रिया सदा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु वनस्पति, निगोद तथा स्वर्ग, नरक, मनुष्य और तिर्यञ्च आदि सभी गतियों में सर्वत्र एवं सर्वदा चलती ही रहती है। कर्मों को भोगकर समाप्त करने की क्रिया सदा काल से चलती आ रही है, यह सविपाक निर्जरा है । इसी के सम्बन्ध में कर्मफल के भोग को लेकर पहले विवेचना कर आए हैं । जीवन में यह सविपाक निर्जरा प्रतिक्षण होती ही रहती है। एक ओर कर्म का नवीन आगमन भी चालू रहता है, दूसरी ओर सविपाक निर्जरा भी प्रतिक्षण चालू रहती है। सविपाक निर्जरा के द्वारा जीव जिन कर्मों का फल भोगता है, उससे कहीं अधिक आस्रव से नवीन कर्म का बन्ध हो जाता है । अतः सविपाक निर्जरा के द्वारा कभी कर्मों का अन्त नहीं हो सकता।
दूसरी निर्जरा है-अविपाक निर्जरा । इसके द्वारा कर्म को बिना भोगे ही समाप्त कर दिया जाता है। जैन-दर्शन की साधना में दो तत्त्व मुख्य हैं-संवर और निर्जरा। मोक्ष के लिए इन दोनों को ही मुख्य साधन माना गया है। संवर एक वह साधना है, जिसके द्वारा नवीन कर्म के आगमन को रोक दिया जाता है। जैसे किसी तालाब में नाली के द्वारा जल आता रहता है और वह नवीन जल पुरातन जल में मिलकर एकमेक हो जाता है। यदि नाली के मुख को बन्द कर दिया जाए, तब तालाब में किसी भी प्रकार से नवीन जल नहीं आ सकेगा। पुरातन जल धीरे-धीरे सूर्य के आतप से एवं पवन के स्पर्श से सूखता चला जाएगा और एक दिन ऐसा होगा, कि वह तालाब सर्वथा जल से रिक्त हो जाएगा। यही सिद्धान्त कर्म और आत्मा के सम्बन्ध में लागू पड़ता है । आत्मा एक तालाब है, जिसमें शुभ एवं अशुभ आस्रव के द्वारा नवीन कर्म आकर पुरातन कर्म के साथ मिलता चला जाता है। यदि नवीन कर्म के आगमन को रोकना हो, तो उसके लिए सर्वप्रथम संवर की साधना आवश्यक है। संवर का अर्थ है-आत्मा में नवीन कर्मों के आगमन को रोकना । साधक जब संवर की साधना के द्वारा नवीन कर्म के आगमन को रोक देता है, तब उसके सामने
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६४ | अध्यात्म-प्रवचन पुरातन संचित कर्म के क्षय की समस्या ही रह जाती है। पुरातन संचित कर्म का क्षय करना, यह निर्जरा का कार्य है। जब साधक पूर्व बद्ध कर्म फल को भोगे बिना ही एवं उसके उदय-काल से पूर्व ही उसका क्षय कर देता है, तब शास्त्र में उसे अविपाक निर्जरा कहा जाता है । तप, ध्यान एवं स्वाध्याय आदि की साधना से कर्म को उसके विपाक-काल से पहले ही समाप्त कर दिया जाता है । मोक्षा का मार्ग सविपाक निर्जरा नहीं, अविपाक निर्जरा है। जब साधक के हृदय में वैराग्य की दिव्य ज्योति जगमगा उठतो है, जब आत्मा अपने विभाव भावों से विरक्त होकर स्वस्वभाव में लीन हो जाता है, जब साधक के हृदय में संसार की आशा और तृष्णा का अन्त हो जाता है, जब साधक का चित्त सविकल्प समाधि से निकल कर निर्विकल्प समाधि में पहँच जाता है, तब वह अपने पूर्व-संचित कर्मों को निर्जरा की साधना से सर्वथा क्षय कर डालता है। इसके विपरीत यदि चित्त में निर्विकल्प समाधिभाव नहीं आया अथवा स्व-स्वभाव में रमण नहीं हुआ, तो कभी भी संसार की तृष्णा और आशा का अन्त नहीं हो सकेगा, भले ही वह साधक कितना भी तप करे, कितना भी जप करे, कितना भी ध्यान करे, कितना भी स्वाध्याय करे और कितना भी उत्कृष्ट आचार का आचरण करे। क्या कारण है कि साधक अपने जीवन में पचाससाठ वर्ष के जैसे दीर्घ जीवन को साधना में लगाने पर भी उसका कुछ भी फल प्राप्त नहीं कर पाता। यह तो वही बात हुई, जैसे किसी व्यापारी ने पचास वर्ष तक किसी फर्म को चलाया और अन्त में पूछने पर कहे, कि मैं तो कुछ कमा नहीं सका? व्यापारी के जीवन की यह सबसे अधिक भयंकर विडम्बना है। रोनी सूरत बनाकर व्यापार करने वाला, जैसे अपने व्यापार-कार्य में सफल नहीं होता है, वैसे ही रोनी सूरत बनाकर साधना के मार्ग पर बढ़ने वाला साधक भी अपनी साधना में असफल रहता है। साधना के क्षेत्र में संशय और आशंका भयंकर दोष माने जाते हैं। साधक को जो कुछ करना है, वह सब प्रसन्न भाव से करना चाहिए। रोते-रोते साधना करने से किसी प्रकार का लाभ नहीं हो सकता । भला यह भी कोई साधना है, कि एक ओर सामायिक तथा प्रतिक्रमण आदि की लम्बी एवं उग्र साधना चलती रहे और दूसरी ओर चित्त में राग एवं द्वेष के भयंकर तूफान उठते रहें । इस प्रकार की साधना से कभी अविपाक निर्जरा नहीं हो सकती। अविपाक निर्जरा के लिए मन की स्वच्छता और पवित्रता की नितान्त आवश्यकता रहती है। साधना के प्रति वफादारी चाहिए, उस में रस
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साधना का लक्ष्य | ६५
लीजिए, तभी उसका अच्छा परिणाम दृष्टिगोचर होगा । जब मन का उल्लास जागृत होता है, भले ही वह कुछ क्षणों के लिए ही क्यों न हो, तभी आलोक की दिव्य ज्योति जगती है। यह मत समझिए कि जब अनन्तकाल से अन्धकार में रहे हैं, तब अब प्रकाश कसे मिल सकता है ? इस प्रकार का निराशापूर्ण विचार साधना के लिए एक प्रकार का विघ्न ही सिद्ध होता है। साधक को अपनी साधना में आस्था, निष्ठा और श्रद्धा रखनी चाहिए, तभी जीवन के अन्दर मौलिक परिवर्तन आ सकेगा। यह परिवर्तन एक वह परिवर्तन होगा, जिससे जीवन का समस्त अन्धकार दूर हो जाएगा और मानवीय जीवन दिव्य आलोक से जगमगा उठेगा। वह दिव्य आलोक क्या है ? उस दिव्य आलोक को जानने की उत्कठा और जिज्ञासा प्रत्येक साधक के हृदय में बनी रहती है। वह दिव्य आलोक और कुछ नहीं, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्दर्शन ही है। दर्शन और ज्ञान की सत्ता अनन्त-अनन्त काल से आत्मा में रही है, परन्तु कर्मों के आवरण के कारण वे असम्यक् हो गए हैं। उनके असम्यकपन को निर्जरा की साधना द्वारा दूर करना है। परन्तु जब तक इन्द्रिय के भोगों में आसक्ति बनी रहेगी, तब तक साधक अविपाक निर्जरा की साधना नहीं कर सकता। अविपाक निर्जरा के लिए अन्तश्चेतना की स्वच्छता, पावनता और निर्दोषता आवश्यक मानी जाती है।
मैं आपसे यह कह रहा था कि दर्शन की सत्ता आत्मा में अनन्तकाल से है । दर्शन गुण कहीं बाहर से आने वाला नहीं है। दर्शन की उपलब्धि का अर्थ केवल इतना ही है कि उसके मिथ्यात्व भाव को हटाकर उसे सम्यक् बनाना है। उस दिव्य आलोक के ऊपर जो एक आवरण आ गया है, उस आवरण को दूर करना है । यदि हम अपनी साधना के द्वारा उस अनन्तकालीन आवरण को दूर कर सके, तो आत्मा का दिव्य आलोक अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आ जाएगा । आवृत अवस्था को छोड़कर अनावृत अवस्था में पहुँच जाएगा। ___ सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग् दर्शन स्वयं अपने आपको देख नहीं सकता है । सम्यक्त्व की अनुभूति होनी चाहिए, किन्तु अनुभूति का काम सम्यक्त्व का नहीं, बल्कि ज्ञान का है । ज्ञान जितना ही निर्मल होगा, अनुभव उतना ही अधिक उज्ज्वल होगा। ज्ञान निर्मल कैसे हो? इसके लिए कहा गया है, कि स्वाध्याय और ध्यान करो। जब अन्त
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६६ | अध्यात्म-प्रवचन
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ज्ञान के नेत्र खुल जाएंगे, तब सब कुछ समझ में आ जाएगा । जब अन्तश्चेतना में तत्त्व के प्रति अभिरुचि जागृत हो जाए और स्वयं की शुद्ध सत्ता पर अटूट आस्था जम जाए, तब समझिए कि आपको सम्यक् - दर्शन की उपलब्धि हो चुकी है। जड़ और चेतन का भेद विज्ञान ही सम्यक् दर्शन का मूल स्वरूप है । सम्यग् ज्ञान के द्वारा ही इस परम स्वरूप की अनुभूति होती है। ज्ञान ही स्वयं का अनुभव करता है और पता लगाता है, कि मैं क्या हूँ और क्या नहीं हूँ | ज्ञान के दिव्य आलोक में साधक अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है । बहुत से साधक यह कहा करते हैं कि "पता नहीं हमें सम्यक्त्व हुआ है या नहीं ? और यह भी पता नहीं कि हम भव्य भी है या नहीं ?" मेरे विचार में इससे बढ़कर अज्ञानता और नहीं हो सकती । साधक साधना के मार्ग पर चले और साथ में यह भी कहे कि मुझे कुछ मिला भी है या नहीं, मालुम नहीं । इसका अर्थ है - वह साधना के मार्ग पर चला ही नहीं । यदि चला भी है, तो केवल तन से चला है, मन से नहीं चला । प्रकाश की ओर बढ़ने वाला व्यक्ति प्रकाश की अनुभूति न करे, यह कैसे हो सकता है ? सच्चा साधक अपने हृदय में कभी दीनता एवं हीनता का अनुभव नहीं कर सकता । वह आशावादी होता है और जीवन भर आशावादी रहना ही सच्ची साधना है । जैन दर्शन आस्था, निष्ठा, श्रद्धा और विश्वास को इतना अधिक महत्त्व देता है कि इसके बिना वह साधना का आरम्भ नहीं मानता । साधना का आरम्भ विश्वास है, साधना का मध्य विचार है और साधना का अन्त आचार है । आचार को विचार - मूलक होना चाहिए और विचार को विश्वास-मूलक होना चाहिए ।
एक विचारशील श्रावक ने एक बार मुझसे पूछा कि "महाराज ! मुझे कभी मोक्ष मिलेगा कि नहीं, मुझे कभी केवल ज्ञान होगा कि नहीं ?"
मैंने उसके प्रश्न के उत्तर में कहा कि "आपके विषय में तो मैं अभी कुछ नहीं कह सकता, किन्तु मुझे तो मोक्ष अवश्य मिलेगा, मैं तो केवल - ज्ञान अवश्य प्राप्त करूँगा ।"
मेरे आन्तरिक विश्वास की इस दृढ़ भाषा को सुनकर वह साधक मेरे मुख की ओर देखने लगा और बोला - " महाराज इतना बड़ा दावा ?"
मैंने कहा - " यदि इतना बड़ा दावा और इतना बड़ा विश्वास
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साधना का लक्ष्य | ९७ नहीं होता, तो मैं इस साधना के पथ पर आता ही क्यों ? अविश्वास के अन्धकार से घिरे मार्ग पर चलना मुझे पसन्द नहीं है।"
हमारे अन्दर सब कुछ होने पर भी, हम दरिद्रता का अनुभव क्यों करें? यदि हम अपनी साधना में दरिद्र एवं कंगाल बन कर आगे बढ़ रहे हैं, तो वास्तव में हम कुछ प्राप्त नहीं कर सकेंगे। यह भी क्या मजाक है, कि साधना की राह पर आगे भी बढ़ते रहें और उस पर विश्वास भी न करें। यह तो यात्रा नहीं, एक प्रकार से भटकना ही है । भटकना साधक का काम नहीं होता । साधक अपनी साधना के पथ पर दृढ़ता के साथ आगे बढ़ता है, फिर मोक्ष क्यों नहीं मिलेगा, फिर केवल ज्ञान क्यों नहीं मिलेगा, और फिर स्वस्वरूप की उपलब्धि क्यों नहीं होगी ? सिद्धान्त यह है कि जिस चीज का संकल्प मन में जागृत हो जाता है, वह चीज कभी न कभी अवश्य ही प्राप्त हो जाती है। मनुष्य के संकल्प में अपार शक्ति है, अपार पराक्रम है और अपार बल है । जिस किसी भी वस्तु को आप प्राप्त करना चाहते हैं, पहले उसका शुद्ध संकल्प कीजिए, फिर उसे प्राप्त करने का अध्यवसाय कीजिए और निरन्तर प्रबल प्रयत्न कीजिए, फिर देखिए कि अभीष्ट वस्तु कैसे प्राप्त नहीं होती है ? हमारी साधना की सबसे बड़ी दुर्बलता यही है, जिसके मधुर फल को हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए संकल्प नहीं करते, उसके लिए अध्यवसाय नहीं करते और उसके लिए प्रयत्न नहीं करते । फिर वस्तू मिले तो कैसे मिले ? साधक सामायिक करता है, पोषध करता है एवं प्रतिक्रमण करता है, परन्तु सब अधूरे मन से करता है। साधना में हृदय के रस को नहीं उँडेलता । किसी भी साधना में जब तक हृदय के रस को नहीं उँडेला जाएगा, तब तक कुछ भी होने जाना वाला नहीं है। जीवन में सफ लता प्राप्त करने के लिए ही मंत्र को आवश्यकता है-उठो, जागो और बढ़ो । जो उठ खड़ा हुआ है, जाग उठा है और जो आगे बढ़ रहा है, सिद्धि उसी का वरण करती है। ___मैं आपसे अविपाक निर्जरा की बात कह रहा था। अविपाक निर्जरा ही मोक्ष एवं मुक्ति का अचूक साधन है। जब तक अविपाक निर्जरा करने की क्षमता और योग्यता प्राप्त नहीं होती है, तब तक मोक्ष दूर ही है । मोक्ष को साधना के लिए आप अन्य कुछ करें या न करें, किन्तु अविपाक निर्जरा की साधना, उसके लिए परमावश्यक है। अविपाक निर्जरा क्या हैं, यह मैं आपको बतला चुका है। सविपाक
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२८ | अध्यात्म-प्रवचन
और अविपाक को समझने से पहले आपको यह समझ लेना चाहिए, कि निर्जरा और मोक्ष में परस्पर क्या सम्बन्ध है ? निर्जरा और मोक्ष में कार्य-कारण भाव सम्बन्ध माना गया है। निर्जरा कारण है और मोक्ष उसका कार्य है । कारण के अभाव में कार्य नहीं हो सकता। निर्जरा के बिना मोक्ष भी नहीं हो सकता है । आत्म-सम्बद्ध कर्मों का एक देश से दूर होते जाना निर्जरा है और कर्मों का सर्वतोभावेन आत्मा से दूर हो जाना मोक्ष है । धीरे-धीरे निर्जरा ही मोक्ष रूप में परिवर्तित हो जाती है। एक-एक आत्म-प्रदेश के अंश-अंश रूप में क्रमिक कर्म-क्षय को निर्जरा कहते हैं और जब सभी प्रदेशों के सभी कर्मों का क्षय हो जाता है, तब वही मुक्ति है । निर्जरा और मोक्ष दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। निर्जरा का अन्तिम परिपाक ही मोक्ष है और मोक्ष का प्रारम्भ ही निर्जरा है । साधक के लिए जितना महत्त्व मोक्ष का है, निर्जरा का भी उतना ही महत्त्व है। निर्जरा के अभाव में मोक्ष नहीं और मोक्ष के अभाव में निर्जरा नहीं। जहाँ एक का अस्तित्व है, वहाँ दूसरे का अस्तित्व स्वतः सिद्ध है । परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि कौन सी निर्जरा मोक्ष का अंग है ? मैंने इस सम्बन्ध में आपसे कहा था कि सविपाक निर्जरा मोक्ष का अंग नहीं है, अविपाक निर्जरा ही मोक्ष का अंग है। साधना के द्वारा सम्यक्त्व का भाव जगने की स्थिति में जो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म टूटता है, वही मोक्ष का अंग है। और जो चारित्रमोह का क्षयोपशम आदि होने पर चारित्र मोह टूटता है एवं चारित्र की उपलब्धि होती है, वही मोक्ष का अंग है। सविपाक निर्जरा के द्वारा कर्मों को भोग-भोगकर पूरा किया जाना, मोक्ष का अंग नहीं हो सकता, क्योंकि भोग-भोगकर निर्जरा तो अनन्त अनन्तकाल से होती आ रही है। यदि सविपाक निर्जरा से मोक्ष होता, तो वह कभी का हो गया होता, परन्तु भोगकर कर्म कभी मूलतः समाप्त नहीं होते । अन्य कर्मों की बात छोड़िए। पहले मोहनीय कर्म को ही लीजिए । आप इसको कब तक भोगेंगे और कहाँ तक भोगेंगे ! जिस आत्मा ने मोहनीय कर्म की दीर्घ स्थिति का बन्ध किया है, वह कब तक इसे भोगता रहेगा? अकेले मोहनीय कर्म की दीर्घ स्थिति सत्तर कोड़ा-क्रोड़ सागरोपम की मानी जाती है। इसे कोई कब तक भोगेगा, कितने जन्मों तक भोगेगा ? कल्पना कीजिए यदि लाखों करोड़ों जन्मों में भोग मी ले, किन्तु इन जन्मों में वह नवीन कर्म का भी तो बन्ध करता रहेगा। जितना भोगा, उससे कहीं
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साधना का लक्ष्य | 88
अधिक फिर बाँध लिया, इस प्रकार बन्ध और भोग की कभी समाप्ति नहीं हो सकती । इसी आधार पर शास्त्रकारों ने सविपाक निर्जरा को मोक्ष का अंग नहीं माना है। इसके विपरीत अविपाक निर्जरा मोक्ष का अंग इस आधार पर बन जाता है, कि उसमें कर्मों को भोगकर समाप्त नहीं किया जाता, बल्कि कर्म के उदयकाल से पूर्व ही आध्यात्मिक तप एवं ध्यान आदि की विशुद्ध क्रियाओं से उसे क्षय कर दिया जाता है। हजारों-लाखों-करोड़ों जन्मों के कर्म दलिकों को अविपाक निर्जरा के द्वारा एक क्षण में ही समाप्त कर दिया जाता है। जिस प्रकार किसी गिरि कन्दरा में रहने वाले अन्धकार को, जो असंख्य वर्षों से उसमें रहता चला आया है, प्रकाश की एक ज्योति क्षण भर में ही नष्ट कर देती है। उसी प्रकार सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र की निर्मल ज्योति से असंख्य जन्मों के पूर्व संचित कर्म भी अविपाक निर्जरा की साधना के द्वारा एक हो क्षण में क्षय किए जा सकते हैं । अध्यात्मशास्त्र में अविपाक निर्जरा की अपार महिमा है और अपार गरिमा है। अविपाक निर्जरा एक वह दिव्य प्रकाश है, जिसके प्रज्वलित हो जाने पर अनादिकाल से आने वाले कर्मों का अन्धकार क्षण भर में ही नष्होट सकता है। ___ अध्यात्म-साधना उस महत्त्वपूर्ण लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए है, जो आत्मा का अपना निज स्वरूप है। और जब मुक्ति आत्मा का निज स्वरूप है, तब उसका प्राप्त क्या करना ? यहाँ प्राप्त करने का अयं इतना ही है-आत्मा का अपना निजस्वरूप, जो कर्मों से आवृत है, उसे अनावृत कर देना ही मोक्ष एवं मुक्ति है।
कुछ विचारक यह कहते हैं, कि आत्मा नित्य बद्ध ही रहता है, उसकी मुक्ति नहीं होगी। इसके विपरीत जैन-दर्शन का कथन है कि मुक्ति क्यों नहीं होगी, वह तो आत्मा का स्वभाव ही है। एक भी क्षण ऐसा नहीं है जिसमें आत्मा अपने पुरातन कर्मों का क्षय न कर रहा हो। आत्मा में जहाँ नवीन कर्म को बाँधने की शक्ति है, वहाँ उसमें कर्म को क्षय करने की शक्ति भी है। प्रतिक्षण कर्म को क्षय करते रहने की शक्ति प्रत्येक आत्मा में विद्यमान है। भले ही वह कर्म क्षय सविपाक निर्जरा से हो रहा हो, भोग-भोग कर ही क्षय किया जा रहा हो अथवा अविपाक निर्जरा से बिना भोगे ही क्षय कर दिया गया हो। दोनों ही स्थिति में कर्मक्षय की प्रक्रिया चालू रहती है। और जब आंशिक रूप से कर्मक्षय की, अर्थात् कर्म मुक्ति
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१०० | अध्यात्म-प्रवचन
की प्रक्रिया चालू है तो एक दिन पूर्ण रूप से भी कर्म क्षय हो सकता है । यह ठीक है कि सविपाक भोग से पूर्ण क्षय नहीं होता है । बात यह है कि दुःख एवं सुख को जब भोग कर समाप्त किया जाता है, तब दुःख में विलाप करने से और सुख में अहंकार करने से पुनः कर्म का बन्ध हो जाता है । इसीलिए मैं आपसे यह कह रहा था, कि कर्म को भोगकर उसे कभी मूलतः क्षय नहीं किया जा सकता । उसे तो बिना भोगे ही समाप्त किया जा सकता है । कर्मों का क्षय करते समय कर्मों के नवीन बन्ध को रोकने के लिए संवर की साधना का विधान किया गया है । संवर उस निर्बन्ध साधना को कहा जाता है, जिसके होते हुए किसी प्रकार के कर्म-मल के लगने की आशंका नहीं रहती । पुरातन कर्मों को भोगकर समाप्त करना, यह भी अध्यात्म- जीवन की कला अवश्य है, किन्तु अध्यात्म जीवन की सर्वश्रेष्ठ कला यही है, कि कर्मों को बिना भोगे ही, नवीन कर्मों को बिना बाँधे हुए ही, उनको समाप्त कर दिया जाए। भोगकर समाप्त करने में वासना एवंआसक्ति की आशंका बनी रहती है । भोगते समय यदि आत्मा निर्लिप्त रह सके, तो उससे भी बहुत बड़ा लाभ मिलता है । भोगों में निर्लिप्त रहना ही अध्यात्म-साधना का प्रधान लक्ष्य है और यही चरम उद्देश्य है । अविपाक निर्जरा से बद्ध कर्मों को बिना भोगे ही क्षय कर दो, उदय प्राप्त कर्मों को निर्लिप्त भाव सेभोगकर क्षय कर दो, संवर की साधना से भविष्य में कर्म बन्ध न होने दो, बस फिर आत्मा से परमात्मा होने में कोई शंका नहीं है ।
जब यह कहा जाता है कि प्रत्येक आत्मा में, अपने पुरातन संचित कर्म को तोड़ने की शक्ति है, तब इसका अर्थ यह होता है कि विश्व की प्रत्येक आत्मा में तथा विश्व के प्रत्येक चेतन में ईश्वर एवं परमात्मा बनने की शक्ति है । प्रश्न किया जा सकता है और किया जाता है कि यदि प्रत्येक आत्मा में ईश्वर और परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है, तब वह क्यों नहीं बन जाता ? इसका समाधान यह किया गया है कि - शक्ति तो है, परन्तु अपने प्रबल आध्यात्मिक पुरुषार्थ के द्वारा उसे जागृत नहीं करने पाता । उस शक्ति का जागृत हो जाना हो वस्तुतः मोक्ष का मार्ग है । प्रत्येक चेतना में यह आध्यात्मिक जागरण होना चाहिए कि- मैं आत्मा हूँ और मेरा निज स्वरूप मुक्ति है, बन्धन नहीं । यद्यपि व्यवहार नय से आत्मा कर्मों के बद्ध है, कर्म की दलदल में पड़ा है, तथापि निश्चय नय से यह आत्मा शुद्ध, बुद्ध,
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साधना का लक्ष्य | १.१ निरंजन एवं निर्विकार है। किसी भी चेतन आत्मा के अन्तर में जब यह भाव जागृत होता है कि मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निरंजन हूँ, निर्विकार हूँ और ज्योति स्वरूप हूँ तथा मैं जड़ पुद्गल से भिन्न निर्मल एवं असंग चेतन हैं, तब ज्ञाता द्रष्टा आत्मा के इस दिव्य भाव को शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार सम्यक्त्व कहा जाता है । इस दिव्य दृष्टि के विना तथा सम्यक्त्व के इस दिव्य आलोक के विना, किसी भी आत्मा को न अनन्त अतीत में मुक्ति मिली है और न अनन्त अनागत में मुक्ति मिल सकेगी। सम्यक् दर्शन ही मुक्ति एवं मोक्ष का मूल आधार है । इसके विना मोक्ष कैसे हो सकता है ?
जब-जब आत्मा यह विचार करता है, कि मैं शरीर हैं, मैं इन्द्रिय हैं, मैं मन हूँ, मैं काला हूँ, मैं गोरा हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं बन्धन से बद्ध हूँ, और मैं कभी बन्धन से विमुक्त नहीं हो सकता, तब यह समझना चाहिए कि वह आत्मा मोक्ष की साधना से अभी बहुत दूर है । यदि तन एवं मन के तथा अहंता एवं ममता के बन्धन नहीं टूटे हैं तो वह एक मिथ्या दृष्टि है। जब तक हमें अपनी अनन्त चित् शक्ति पर विश्वास नहीं है, जब तक चेतना के शाश्वत सद्गुणों पर आस्था निष्ठा और श्रद्धा स्थिर नहीं होती है, तब तक मिथ्या दृष्टि कैसे दूर हो सकती है ? प्रत्येक चेतन में अनन्त शक्ति है, परन्तु वह प्रसुप्त पड़ी है, उसे जागृत करने की आवश्यकता है। जब तक बन्धन को तोड़ने का श्रद्धान और विश्वास प्रबल नहीं हो जाता, तब तक बन्धन कभी टूट नहीं सकेगा । बन्धन तभी टूट सकता है, जब कि उसे बन्धन समझा जाए और उस से विमुक्त होने के लिए चित्त में दृढ़ विश्वास एवं श्रद्धा जागृत हो। मनुष्य जो कुछ एवं जैसा बना है, वह उसके अतीत विश्वास का ही फल है। मनुष्य जो कुछ एवं जैसा बनना चाहता है, वह उसके वर्तमान के विश्वास का ही फल होगा। इसी को शास्त्रीय भाषा में सम्यक् दर्शन कहा जाता है। ईश्वरत्व पर विश्वास करना, बाहर के परमात्मा पर नहीं, बल्कि अन्दर के परमात्मा पर विश्वास करना ही, अध्यात्म शास्त्र का मुख्य सिद्धान्त है । जो आत्मा कर्म को बलवान समझता है और अपने आपको दीन-हीन समझता है, वह कभी भी बन्धन से विमुक्त नहीं हो सकता । जब साधक यह विश्वास करता है, कि निश्चय में मैं परमात्मा हूँ, तब एक दिन बाहर से आने वाले बन्धन से विमुक्त भी हो सकता है। अध्यात्म-शास्त्र साधक के मन में इसी आस्था एवं निष्ठा को उत्पन्न करता है और कहता है कि
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१०२ / अध्यात्म-प्रवचन
तुझे किसी और ने बाँधा नहीं है, तू स्वयं ही बैंधा है, तो एक दिन तू स्वयं ही मुक्त भी हो सकता है । यह विश्वास ही मुक्ति का सबसे बड़ा कारण है । यदि कोई आत्मा मोह-जन्य अहंकार करता है, तो यह एक पाप है । इससे नवीन कर्म का बन्ध होता है । किन्तु यदि कोई आत्मा आत्म-हीनता की भावना रखता है एवं आत्म दैन्य की परिकल्पना करता है, तो यह भी एक पाप है । इससे भी नवीन कर्म का बन्ध होता है। अपने आपको हीन एवं दीन समझना संसार का सबसे भयंकर पाप है । युगों के युग व्यतीत हो जाने पर भी आत्मा आत्म-हीनता के पाप से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सका है। अतः अध्यात्म साधना के पथ पर अपना कदम बढ़ा कर कभी भी अपने आपको हीन एवं दीन मत समझो। अपने को अनन्त चित् ज्योतिर्मय आत्मा समझो । अपने को आत्मा ही नहीं, अपितु शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार परमात्मा समझो। श्रद्धा के अनुसार ही जीवन का निर्माण होता है । 'यादृशी भावना यस्य सिद्धि भवत्ति तादृशी।' __ इस सम्बन्ध में मुझे एक रूपक स्मृत हो आया है। एक राजा की राज सभा में एक विद्वान आया। राज-सभा में पहले भी विद्वानों एवं पण्डितों की कमी नहीं थी। एक से एक बढ़ कर विद्वान उस सभा के अन्दर थे । किन्तु नवागन्तुक पण्डित ने राज-सभा में आकर यह प्रश्न पूछा कि "आत्मा कभी मुक्त हो सकता है कि नहीं ? यदि नहीं हो सकता, तो क्यों और यदि हो सकता है, तो कैसे ?
राजा की सभा के सभी पण्डित चकरा गए। कुछ देर मौन रहने के बाद राज' सभा के प्रधान पण्डित ने कहा-कि "आत्मा कभी मुक्त नहीं हो सकता।"
इस बात को सुनकर नवागन्तुक विद्वान न कहा कि-"यह आत्म हीनता की भावना हो आपको मुक्त नहीं होने देती है । आपने यह कैसे समझ लिया और विश्वास कर लिया कि मैं मुक्त नहीं हो सकता । यदि आपके मन में गुलामी का यह विश्वास है, कि मैं कभी मुक्त नहीं हो सकता तो फिर जीवन में जप, तप आदि पवित्र क्रियाओं के करने का अर्थ ही क्या रहेगा ?" ___ आत्मा और उसकी मुक्ति के सम्बन्ध में यह तर्क और वितर्क बहुत दिनों तक चलता रहा, परन्तु किसो की समझ में नहीं आया कि कर्मबद्ध आत्मा कर्म मुक्त कैसे हो सकता है ?"
एक दिन अध्यात्मवादी उस नवागन्तुक पण्डित ने अपनी एक
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साधना का लक्ष्य || १०३ अनोखी सूझ से काम लिया । उसने कहा - " राजा साहब ! सिर के बाल बढ़ गए हैं और वे बड़े अटपटे लगते हैं । नाई को बुलाया जाए, मुझे सिर का मुण्डन कराना है । उसकी इस बात को सुनकर समस्त सभासद, समग्र पण्डित और स्वयं राजा भी बड़ा आश्चर्य चकित हुआ । वे सब एक दूसरे का मुख देखकर कहने लगे - "यह पण्डित है या मूर्ख ? यह यहाँ शास्त्रार्थ करने के लिए आया है, अथवा अपने सिर के बाल कटवाने के लिए आया है ?" सब उसकी नुक्ता चीनी करने लगे, उसकी आलोचना और टीका करने लगे। फिर भी वह विचलित नहीं हुआ । वह मुस्कराता रहा, अपनी कटु आलोचना और परिहास सुनकर भी उसके मुख पर विषाद की एवं रोष की रेखा नहीं झलकी । उस सभा में एक वृद्ध एवं अनुभवी पण्डित भी बैठा हुआ था । उसने वस्तु-स्थिति को सोचा और समझा । उसने अपने मन में विचार किया, निश्चय ही यह पण्डित असाधारण है और जीवन के असाधारण रहस्य को खोलना चाहता है । उसने राजा से प्रार्थना की -- "राजन् ! नाई को अवश्य बुलाया जाना चाहिए ।" राजा के आदेश से नाई आ गया और आकर बोला- "क्या आदेश है ?"
अध्यात्मवादी नवागन्तुक पण्डित ने नाई के आते ही उठकर उसका स्वागत किया, प्रणाम किया और प्रशंसात्मक शब्दों में बोला" आइए, पधारिए | आप ईश्वर हैं, परमात्मा हैं और भगवान हैं । "
नाई ने यह सुना तो भौंचक्का रह गया । पण्डित जी के चरणों का स्पर्श करते हुए गिड़गिड़ाकर बोला- “आप यह क्या कह रहे हैं ? इस प्रकार कह कर आप मुझे लज्जित क्यों करते हैं ? मैं तो आप सुब का दास है, गुलाम हूँ । ईश्वर या परमात्मा जो भी कुछ हैं, आप हैं, राजा साहब हैं, मैं नहीं ।"
अध्यात्मवादी नवागन्तुक पण्डित ने सभा के समस्त सभासदों को एवं स्वयं राजा को सम्बोधित करते हुए कहा - " राजन् ! आपकी राज सभा के इन राज पण्डितों में और आपके इस नाई में कोई भेद नहीं है । नाई कहता है - "मैं दास हूँ, मैं भगवान कैसे हो सकता हूँ ? मैं गुलाम हूँ ।" आपके राज पण्डित भी यही कहते हैं कि "हम दास हैं, हम गुलाम हैं । हम संसारी बद्धजीव भगवान नहीं हो सकते । " भला जिन के मन में दासता और गुलामी की यह भावना गहरी बैठ गई है, वे मुक्त कैसे हो सकते हैं ? वे अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न कैसे कर सकते हैं ? मन में दासता और गुलामी की भावना भी बनी रहे और मुक्ति के लिए प्रयत्न भी होता रहे, यह सम्भव नहीं है ।
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१०४ | अध्यात्म-प्रवचन जिन मनुष्यों के मन में यह आस्था एवं निष्ठा है कि "हम अनन्त काल से बद्ध हैं और अनन्तकाल तक बद्ध ही रहेंगे। ईश्वर, ईश्वर ही रहेगा और भक्त, भक्त ही रहेगा।" दासता की यह भावना ही उन्हें मुक्ति-मार्ग पर आगे नहीं बढ़ने देती है । राजन् ! मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है कि, आपकी राज-सभा के ये राज-पण्डित, पोथी
और शास्त्रों की विशाल ज्ञान-राशि को अपनी बुद्धि में उँडेलने के बाद भी जीवन के उसी निम्न धरातल पर खड़े हैं, जहाँ पर आपका यह दास, गुलाम और अपढ़ नाई खड़ा है।"
मैं आपसे यह कह रहा था कि-जब साधक के हृदय में यह आस्था बैठ जाती है, कि मैं अनन्तकाल से बद्ध हूँ और कभी मुक्त नहीं हो सकता, तो कभी भी वह अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं कर सकता । मुक्ति के लिए प्रयत्न वही कर सकता है, जिसके मन और मस्तिष्क में मुक्त होने के लिए प्रबल संकल्प जागृत हो चुका है।
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साध्य और साधन
साध्य को सिद्धि के लिए साधन को आवश्यकता रहती है। साधन के अभाव में साधक शक्तिशाली होकर भी अपने साध्य की उपलब्धि नहीं कर सकता । साध्य का परिज्ञान हो जाने पर एवं लक्ष्य का निश्चय हो जाने पर ही साधक के समक्ष साधन का विचार प्रस्तुत होता है । किस साध्य का क्या साधन हो? इसका विवेचन करना साध्य की सिद्धि के लिए आवश्यक हो जाता है ? साध्य जितना ऊंचा होता है और जितना गम्भीर होता है, साधन भी उतना ही ऊँचा एवं गम्भीर होना चाहिए । साध्य-सिद्धि की ओर लक्ष्य देना आवश्यक अवश्य है, किन्तु साधन की ओर लक्ष्य देना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। साध्य, साधक का ध्येय होता है, किन्तु उस ध्येय पर पहुँचने के लिए शक्ति और भक्ति की आवश्यकता रहती है । शक्ति का अर्थ हैप्रयत्न, और भक्ति का अर्थ है - एकनिष्ठता। ध्याता, ध्यान द्वारा अपने ध्येय की उपलब्धि करता है। योगी योग के द्वारा अपने परम मंगल को प्राप्त करता है । ज्ञाता ज्ञान के द्वारा ज्ञेय को जान सकता है । साधक साधन के द्वारा साध्य की उपलब्धि करता है। साधक साधना के द्वारा जिस सिद्धि को प्राप्त करना चाहता है, उस सिद्धि
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१०६ / अध्यात्म प्रवचन की स्पष्ट विचारणा पहिले हो जानी चाहिए । ऐसा न हो कि साधना प्रारम्भ कर दी गई और साध्य का पता ही न हो । जहाँ जाना है अथवा जहाँ पहुँचना है, वहाँ का स्पष्ट चित्र साधना-पथ पर कदम बढ़ाने से पहले हो जाना चाहिए-साधक के मानस-पटल पर अंकित, खचित और लिखित ।।
दर्शन-शास्त्र में साध्य और साधन का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है । यदि मनुष्य के समक्ष कोई साध्य या लक्ष्य नहीं है, तो उसकी साधना का कुछ भी प्रतिफल न होगा। मेरे जीवन की दौड़ धूप किस मार्ग पर हो रही है, मैं उस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए कितना और कैसा प्रयत्न कर रहा हूँ, तथा उस पथ पर आगे बढ़कर मुझे क्या कुछ मिल सकता है, इतना स्पष्ट विचार यदि साधक के मन में नहीं है, तो उसकी साधना का फल उसे कुछ मिलेगा नहीं। जीवन में गति एवं प्रगति का महत्त्व अवश्य है, किन्तु उससे पूर्व यह जान लेना भी परमावश्यक है, कि हमारी गति किस दिशा की ओर हो रही है तथा हमारी गति का आधार क्या है ? अध्यात्म-साधक के लिए गति के आधार का अर्थ है-पथ का निश्चय करना और अध्यात्म-साधना की यात्रा में जिन उपकरणों की आवश्यकता है, उनका अवलम्बन लेना । प्रारम्भिक स्थिति में जब तक कि साधक की साधना सिद्धत्व रूप में परिपक्व नहीं होती है, उसे अवलम्बन एवं साधन की आवश्यकता रहती ही है। कुछ साधक इस प्रकार के हैं, जो साधन को तो पकड़ लेते हैं, किन्तु साध्य को नहीं पकड़ पाते। दूसरे प्रकार के साधक वे हैं, जो साध्य को तो पकड़ लेते हैं, किन्तु साधन के सम्बन्ध में वे कुछ भी ध्यान नहीं देते। उक्त दोनों प्रकार के साधकों के लिए सिद्धि का भव्य द्वार बहुत दूर रहता है। जैन दर्शन का कथन है कि साध्य और साधन में साधक को सन्तुलन रखना चाहिए। परन्तु यह स्पष्ट है कि साधक के जीवन में साध्य के निश्चय का बहुत अधिक महत्त्व रहता है। साध्य-निश्चय की प्रधानता रहनी भी चाहिये, क्योंकि हमारी साधना का मुख्य आधार साध्य एवं लक्ष्य ही है ।
कल्पना कीजिए, यदि कोई व्यक्ति अपने किसी मित्र के लिए आठदस पेज का एक लम्बा पत्र लिखता है। पत्र बड़े सुन्दर कागज पर लिखा गया, सुन्दर अक्षरों में लिखा गया और चमकदार स्याही से लिखा गया, फिर उसे एक बहुत ही सुन्दर लिफाफे के अन्दर बन्द कर दिया गया, इतना सब कुछ करने पर भी यदि उस लिफाफे पर, जिस
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साध्य और साधन | १०७
मित्र का वह पत्र भेजा जा रहा है, उसका पता नहीं लिखा गया, अथवा पता शुद्ध नहीं लिखा गया और उसे पत्र पेटी से यों ही डाल दिया गया, तब क्या होगा ? क्या वह पत्र अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच सकेगा ? क्या वह पत्र उसके मित्र को मिल सकेगा ? कभी नहीं । वह पत्र पोस्ट ऑफिस में पहुँच कर भी रद्दी में डाल दिया जाएगा,, जहाँ उसकी कोई उपयोगिता न रहेगी । सुन्दर कागज, सुवाच्य अक्षर, चमकदार स्याही और लिखने वाले का श्रम केवल इस आधार पर निष्फल हो गया, कि लिफाफे के ऊपर प्राप्त करने वाले का पता नहीं था । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में कठोर साधना करता हो, बहुत बड़ा तप करता हो, निरन्तर जप करता हो, ऊँचे से ऊँचे अध्यात्म-ग्रन्थों का स्वाध्याय करता हो तथा ध्यान और समाधि की दोघं साधना भी वह करता हो; यह सब कुछ करते हुए भी यदि उसे इस बात का परिज्ञान नहीं हो, कि यह सब कुछ मैं किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कर रहा हूँ, तो उसकी वह साधना निष्फल एवं निष्प्राण हो जाती है । बिना लक्ष्य के, बिना साध्य के और बिना ध्येय के किया गया बड़े से बड़ा क्रिया काण्ड और अनुष्ठान भी निष्फल हो जाता है । उसकी यह समस्त साधना उस कोरे लिफाफे के समान है, जिस पर पहुँचने का पता नहीं है । अध्यात्म-शास्त्र में यह कहा गया है, कि किसी भी प्रकार की साधना करने के पहले अपने साध्य को स्थिर कर लो । यदि आप अपने जीवन की यात्रा में जप, तप, संयम और सेवा आदि का परिपालन बिना लक्ष्य को स्थिर किये हुए कर रहे हैं, तो उसका कोई उचित लाभ नहीं होगा ।
आप यात्रा कर रहे हैं । आपकी यात्रा में आपको कोई दूसरा ऐसा यात्री मिल जाए, जो बहुत दूर से चला आ रहा हो, जो पसीने से तरबतर हो और चलता चलता हैरान एवं परेशान हो चुका हो । यात्री की इस दशा को देखकर आपके मानस में प्रश्न उठा, कि यह कौन है ? और कहाँ जा रहा है ? अपने मन की सतह पर उठने वाले इस प्रश्न को आप रोक नहीं सके और आगे बढ़कर उस यात्री से आपने पूछ ही लिया कि आप कहाँ जा रहे हैं ? इसके उत्तर में यदि वह आपको यह कहे कि मुझे नहीं मालूम कि मैं कहाँ जा रहा हूँ, तो उस यात्री को आप क्या कहेंगे ? आप उसे एक यात्री कहना पसन्द करेंगे अथवा उसे एक पागल कहना पसन्द करेंगे ? एक पागल व्यक्ति भी चलता है और एक समझदार व्यक्ति भी चलता है, किन्तु दोनों के चलने में
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१०८ ! अध्यात्म प्रवचन बड़ा अन्तर है । पागल चलता तो रहता है, निरन्तर चलता रहता है, किन्तु उसे यह पता नहीं रहता, मैं कहाँ चल रहा है ? और कहाँ जा रहा हूँ ? इसके विपरीत किसी भी समझदार यात्री के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उसे अपनी यात्रा के उद्देश्य का और पथ का पूर्ण ज्ञान रहता है । समझदार व्यक्ति से यदि पूछा जाए, कि आप कहाँ जा रहे हैं, तो वह आपको स्पष्ट उतर देगा, कि मैं अमुक स्थान पर जा रहा है। और यदि आप उससे आगे प्रश्न करें तो वह आपको यह भी बतलाएगा, कि मेरे वहाँ जाने का उद्देश्य क्या है ? इस विराट विश्व का प्रत्येक चेतन प्राणी यात्रा कर रहा है, आज से नहीं, अनन्त अनन्त काल से । क्या मनुष्य, क्या पशु, क्या पक्षी और क्या कीट पतंग सभी अपने जीवन की यात्रा में दिन और रात चलते ही रहते हैं। परन्तु चलना अलग है, और चलने का ज्ञान रहना अलग है। चलना तभी सार्थक एवं सफल हो सकता है, जब कि मार्ग का ज्ञान हो और जहां पहुंचना है उस स्थान का भी परिज्ञान हो । मैं पूछ रहा हैं, आपसे कि आपकी जीवन यात्रा में यदि आपको कहीं पर लक्ष्यहीन पागल यात्री मिल जाता है, तो उसकी बात सुनकर आपके मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? आप यही कहेंगे न, कि यह एक पागल है, जिसे यह भी पता नहीं कि मैं कौन है ? और कहाँ जा रहा है। इस प्रकार के पागल यात्री के जीवन की सारी दौड़-धूप व्यर्थ होती है। उसका श्रम और उसका कष्ट-सहन उसे कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं दे सकता। यही बात अध्यात्म-जीवन की साधना के सम्बन्ध में भी है। अध्यात्म दर्शन कहता है, कि साधक की साधना का लक्ष्य काम, क्रोध, मद, लोभ एवं मोह आदि विकार और विकल्पों के बन्धन को तोड़ कर आत्म स्वरूप और मुक्ति की उपलब्धि करना है। बाहर के आवरण को हटा कर अन्दर के प्रसुप्त ईश्वरत्व को जगाना है । साधक के जीवन का एक मात्र साध्य एवं लक्ष्य यही है, कि वह अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़े, मृत्यु से अमरता की ओर बढ़े और असत्य से सत्य की ओर बढ़े। विभिन्न युगों के युग पुरुषों ने अपने-अपने युग की युगचेतना को यही सन्देश दिया है और यही उपदेश दिया है कि पहले अपने लक्ष्य को स्थिर करो और फिर दृढ़ता के फौलादी कदमों से साधना-पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते रहो। इस प्रकार विनय और विवेक के साथ अपने साधना पथ पर निरन्तर आगे बढ़ने वाला साधक आत्मा से परमात्मा बन जाता है, भक्त से भगवान् बन जाता है और
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साध्य और साधन | १०६ क्षुद्र जीव से परब्रह्म बन जाता है । ईश्वरत्व कहीं बाहर से नहीं आता, वह तो सदा काल से हमारे अन्दर है ही, किन्तु वह प्रसुप्त पड़ा है, उसे प्रबुद्ध-भर करना है। आत्म-स्वरूप की उपलब्धि का अर्थ यह नहीं होता, कि वह स्वरूप पहले अन्दर में नहीं था और साधना के द्वारा कहीं बाहर से वह अन्दर आ गया। बाहर की चीज कभी स्थायी नहीं हो सकती। हमें जो कुछ पाना है, अपने अन्दर से ही पाना है। पाने का अर्थ इतना ही है-जो स्वरूप कर्म मल से ढंका हुआ था, उसे प्रकट कर देना है।
अब तक के विवेचन पर से यह सिद्ध हो जाता है कि साध्य का महत्त्व बहुत बड़ा है । परन्तु आप इस बात को भी न भूलें, कि अध्यात्म-शास्त्र में साध्य के साथ-साथ साधन को भी बताया है। यदि केवल साध्य बता दिया जाए और साधन का ज्ञान न कराया जाए, तो साध्य की सिद्धि कैसे हो सकेगी? केवल साध्य को बता देने मात्र से तो वह प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए साध्य के साथ साधन का परिज्ञान भी परमावश्यक है, ___ मैं आपसे जिस अध्यात्मवाद की चर्चा कर रहा था, उसमें साध्य के साथ-साथ साधन का भी प्रतिपादन किया गया है। हमारे साध्य का साधन क्या है ? मोक्ष के साधन क्या हैं ? सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र । सीधी सादी भाषा में इसको विश्वास, विचार और आचार कहा जा सकता है। प्रश्न होता है, कि विश्वास किसका, विचार किसका, और आचार किसका ? संसार में अनन्तअनन्त पदार्थ हैं, उनमें से किस पर विश्वास करें, किस पर विचार करें और किसका आचरण करें ? इस प्रश्न के समाधान में अध्यात्म-शास्त्र का एक ही उत्तर है अथवा एक ही समाधान है, और वह यह किअपने आप पर विश्वास करो, अपने आपको समझो और अपने आपको निर्मल बनाने का प्रयत्न करो। अनन्त-अनन्त काल से हम चेतन से भिन्न जड़ तत्व पुद्गल पर विश्वास करते आए हैं, उसी पर विचार करते आए हैं और उसी का अधिकाधिक संग्रह करते आए हैं, इस आशा से कि इसी से हमें सुख, सन्तोष और शान्ति मिलेगी। परन्तु पुद्गल से प्रेम करने पर भी, जीवन में उसका अधिकाधिक संचय करने पर भी जीवन में सुख, सन्तोष और शान्ति की उपलब्धि नहीं हो सकी । इससे कुछ आगे बढ़े, तो हमने सम्प्रदाय पर विश्वास किया, पंथ पर विश्वास किया, पंथ की वेश-भूषा पर विश्वास किया, और
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११० । अध्यात्म-प्रवचन उसके अर्थहीन जड़ क्रियाकाण्डों पर विश्वास किया। हमने सोचा और समझा कि सम्प्रदाय और पंथ के अर्थ-हीन क्रिया-काण्डों से ही हमें मुक्ति की उपलब्धि हो सकेगी। किन्तु यह हो नहीं सका और भविष्य में भी हो नहीं सकेगा। इससे कुछ और आगे बढ़े तो हमने अपने तन पर विश्वास किया । अपनी इन्द्रियों पर विश्वास किया और अपने मन पर विश्वास किया; इन्हीं को समझने का हमने प्रयत्न किया और इनकी वृत्तियों के अनुसार ही हमने अपना आचरण भी बनाया। हम अपने तन के कारागार में फंसकर उसमें इतने उलझे, कि तन की सत्ता से ऊपर किसी भी दिव्य सत्ता में हमारी आस्था जम नहीं सकी। अहंता और ममता के भयंकर बन्धनों में हम इतने जकड़ गए, कि अपने विशुद्ध अजर, अमर, अविनाशी और अजन्मा आत्म-तत्व पर न हमारी आस्था रही, न हमारी विचारणा रही और न हमारी कृति ही स्वस्वरूपानुकूल बन सकी। जो आस्था, जो निष्ठा और जो श्रद्धा अपने ऊपर होनी चाहिए थी, वह अपने से भिन्न पर के ऊपर बनी रही। यही हमारे पतन का सबसे बड़ा कारण है। जब तक साधक तन, मन और इन्द्रिय के भोगों से ऊपर उठकर अपने विशुद्ध स्वरूप को समझने का प्रयत्न नहीं करेगा, तब तक मोक्ष और मुक्ति की अध्यात्म-साधना सफल नहीं हो सकेगी। सिर के दर्द को दूर करने के लिए, पेट के दर्द को दूर करने की दवा लेने से कोई लाभ नहीं हो सकता । आत्मा के विकार और विकल्पों को दूर करने के लिए बाह्य पुद्गलों का संग्रह उपयोगी नहीं है । उसके लिए आवश्यक है-आत्मविश्वास, आत्म-विचार और आत्म-स्वरूपानुकूल आचरण । विश्वास, विचार और आचार-ये तीनों मिल कर ही मोक्ष के साधन बन सकते हैं। कल्पना कीजिए, कोई व्यक्ति अपने पर तो विश्वास नहीं करता किन्तु दूसरे पर विश्वास करता है, वह अपने को तो नहीं समझता, किन्तु दूसरे को समझने की मगज पच्ची करता रहता है, वह अपने को तो नहीं सुधारता, किन्तु दूसरों को सुधारने के लिए रात और दिन उपदेश देता फिरता है। इस प्रकार के प्रयत्न से क्या होने जाने वाला है ? इसीलिए मैं कहता हूँ, कि अपने पर विश्वास करो, अपने को समझो और अपने आपका सुधार करो । यही है, मुक्ति का साधन और यही है मोक्ष का अंग । आत्म-श्रद्धा, आत्म-ज्ञान और स्वस्वरूप में रमणता, यही मोक्ष का मार्ग है।
भारत के कुछ तत्त्व-चिन्तक मोक्ष और उसके साधनों के सम्बन्ध
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साध्य और साधन | १११ में समय-समय पर अपने विभिन्न विचारों को प्रदर्शन करते रहे हैं । एक ने कहा- 'भक्ति से ही मुक्ति मिल सकती है ।' दूसरे ने कहा'ज्ञान से ही मुक्ति मिल सकती है' और तीसरे ने कहा- 'कर्म से ही मुक्ति मिल सकती है ।' भक्ति, ज्ञान और कर्म तीनों को मुक्ति का साधन तो माना गया, किन्तु अलग-अलग करके, खण्ड-खण्ड करके । भक्ति योग की साधना करने वाला भक्त समझता है- 'भक्ति ही सब कुछ है, भक्ति ही परम तत्त्व है ।' ज्ञान-योग की साधना करने वाला साधक कहता है - 'ज्ञान ही सब कुछ है, ज्ञान ही परमतत्त्व है ।' कर्मयोग की साधना करने वाला कहता है - 'कर्म ही सब कुछ है, कर्म ही परमतत्त्व है ।' भक्ति में विश्वास का बल है, ज्ञान में देखने की शक्ति है और कर्म में चलने की शक्ति है । यदि तीनों तीन मार्ग पर भटक जाएँगे, तो कैसे काम चलेगा ? जीवन की समस्या का समाधान इस प्रकार नहीं किया जा सकता ।
कल्पना कीजिए - एक विकट बन है । उस निर्जन वन में संयोगवश पैरों से लाचार एक पंगु व्यक्ति और दूसरा अन्धा एक स्थान पर रह रहे थे । संयोग की बात कि एक दिन वन में भयंकर आग लग गई। पंगु मनुष्य ने देखा, कि आग फैल रही है और अपनी ओर आ रही है । अन्धा इधर-उधर घूम-फिर रहा था कि वह आग की कोर ही बढ़ने लगा । पंगु ने जोर से हल्ला मचाया कि आग है, तो अन्धा घबरा गया, रोने लगा । दोनों के सामने अपने-अपने प्राण बचाने की समस्या थी । परन्तु प्राण कैसे बचें ? जीवन की रक्षा कैसे हो ? अन्धे आदमी में देखने की शक्ति नहीं है । वह चल तो सकता है, किन्तु किधर चलना, और कैसे चलना, यह वह नहीं जानता । पंगु आदमी देख सकता है और वह देख भी रहा है, कि वन में भयंकर आग लगी है और सर्वग्रासी अग्नि कुछ ही क्षणों में हम दोनों को जलाकर भस्म कर देगी । परन्तु वह पैरों से लाचार है, चल नहीं सकता है । अस्तु, दोनों एक दूसरे से यह कहते हैं, परस्पर के सहयोग से ही इस विकट स्थिति में हमारे प्राणों की रक्षा हो सकती है । अन्धे ने पंगु से कहा 'मैं चल सकता हूँ, पर देख नहीं सकता ।' पंगु ने अन्धे से कहा 'मैं देख सकता हूँ किन्तु चल नहीं सकता, क्यों न हम अपने प्राणों की रक्षा के लिए एक दूसरे से सहयोग और सहकार करें ।' आखिर अन्धे ने पंगु को अपने कन्धों पर बैठा लिया और पंगु उसे मार्ग-दर्शन देता
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११२ / अध्यात्म-प्रवचन
रहा, इस प्रकार दोनों ने समन्वय करके अपने जीवन की रक्षा कर ली । अध्यात्म-शास्त्र में इसको 'अंध-पंगु न्याय कहते हैं।
अध्यात्म-साधना के सम्बन्ध में भी इसी समन्वय और संतुलन की आवश्यकता है। कर्म अन्धा है, वह देख नहीं सकता और ज्ञान, जिसमें भक्ति भी सम्मिलित है, पंगु है, वह चल नहीं सकता और एक विद्वान के शब्दों में, भक्ति अन्धी भी है और बहरी भी है। न वह कुछ देख पाती है और न वह कुछ सुन ही पाती है । यदि भक्ति, ज्ञान
और कर्म एक दूसरे को निरर्थक और अर्थहीन कहते रहेंगे, तो उनमें समन्वय नहीं हो सकेगा। यदि उनमें सन्तुलन नहीं होता है, तो साधक अपने अभीष्ट की सिद्धि भी नहीं कर सकता। यदि किसी साधक के जीवन में विश्वास तो हो, किन्तु उस विश्वास के अच्छेपन
और बुरेपन को परखने के लिए विचार न हो, और यदि किसी के पास विचार का प्रकाश तो हो, अपने गन्तव्य पथ को देखने की शक्ति तो हो, परन्तु उसके पास उस पर चलने की शक्ति नहीं है, तब वह सुदूर में स्थित अपने लक्ष्य पर कैसे पहुँचेगा? अतः मैं यह कहता हूँ कि भक्ति अपने आप में बुरी नहीं है, ज्ञान अपने आप में बुरा नहीं है,
और कर्म भी अपने आप में बुरा नहीं है, किन्तु उन सबके मध्य में जो एकान्तवाद है, वही बुरा है। यदि यह एकान्तवाद अनेकान्तवाद में परिणत हो जाए, तो साध्य की सिद्धि में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होगी । भक्ति-योग का अर्थ है-'सम्यक् दर्शन एवं श्रद्धा ।' ज्ञान-योग का अर्थ है-'सम्यक् ज्ञान एवं विवेक ।' कर्म-योग का अर्थ है-'सम्यक चारित्र एवं आचार ।' शब्दों में कुछ भेद होने पर भी गम्भीर विचार करने पर उनमें एकात्मता का परिबोध होता है । इन तीनों के सुन्दर समन्वय से ही जीवन सुन्दर, मधुर और रुचिकर बन सकता है । जीवन-विकास के लिए तीनों ही परमावश्यक हैं । विश्वास को विचार बनने दीजिए और विचार को आचार बनने दीजिए । इसी प्रकार आचार, विचार में प्रतिबिम्बित हो और विचार विश्वास में प्रतिबिम्बित हो । मधु के माधुर्य का परिबोध केवल यह कहने भर से नहीं हो सकता, कि मधु मधुर होता है। उसके माधुर्य का परिबोध तभी होगा जबकि एक बिन्दु मधु रसना पर डाला जाएगा । उस समय किसी को यह विश्वास दिलाने की आवश्यकता न रहेगी, कि मधु मीठा होता है । अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में विश्वास की मधुरता की और ज्ञान की उज्ज्वलता की अनुभूति तभी हो सकती है, जबकि
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साध्य और साधन | ११३ दोनों को आचार में परिणत किया जा सके । जिस प्रकार अन्धा मार्ग को नहीं देख सकता, उसी प्रकार विचार और विवेकहीन व्यक्ति भी मुक्ति-मार्ग को नहीं देख सकता । कल्पना कीजिए, नदी में नाव पडी हो किन्तु चलाने वाला मल्लाह न हो, तो नाव इस किनारे से उस किनारे पर कैसे पहुँच सकती है ? स्वस्वरूप साध्य की सिद्धि के लिए सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का समन्वय आवश्यक है । अतएव अपने पर विश्वास करो, अपने को समझो और अपने को सुधारो, यही अध्यात्म-शास्त्र का दिव्य सन्देश है।
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अध्यात्मवाद का आधार
अध्यात्मवादी दर्शन की अध्यात्म-साधना का मूल आधार सम्यग् दर्शन है | सम्यग् दर्शन का अर्थ है - सम्यक्त्व । सम्यक्त्व का अर्थ है - सत्य दृष्टि । सामान्य भाषा में आस्था, निष्ठा, श्रद्धा और विश्वास भी इसी को कहा जाता है । अध्यात्म साधना का मूल आधार सम्यग् दर्शन क्यों है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि मनुष्य के जीवन में दो प्रधान तत्त्व हैं-दृष्टि और सृष्टि । दृष्टि का अर्थ हैबोध, विवेक, विश्वास और विचार । सृष्टि का अर्थ है - क्रिया, कृति, संयम और आचार | किस मनुष्य का आचार कैसा होता है, इसको परखने की कसौटी उसका विचार और विश्वास होता है। मनुष्य क्या है ? वह अपने विश्वास, विचार और आचार का प्रतिफल होता है । दृष्टि की विमलता से ही जीवन अमल और धवल बन सकता है । यो कारण है, कि जैन दर्शन में विचार और आचार से पहले दृष्टि की विशुद्धि पर विशेष लक्ष्य और विशेष बल दिया जाता है । तुम क्या होना चाहते हो, उससे पहले यह देखो, कि तुम्हारा विश्वास और विचार कैसा है ? जब तक व्यक्ति अपने को समझने का प्रयत्न नहीं करता है, तब तक वह अपने आपको अच्छा नहीं बना सकता ।
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अध्यात्मवाद का आधार | ११५ अपने विशुद्ध स्वरूप को समझने के लिए निश्चय दृष्टि की आवश्यकता है। मैं इस सत्य को स्वीकार करता हूँ, कि व्यवहार को छोड़ना एक बड़ी भूल हो सकती है, परन्तु मेरा विश्वास है, कि निश्चय को छोड़ना उससे भी कहीं अधिक भयंकर भूल है। अनन्त जन्मों में अनन्त बार हमने व्यवहार को तो पकड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु निश्चय दृष्टि को पकड़ने का और समझने का प्रयत्न अनन्त बार में से एक भी नहीं किया । यही कारण है, कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि हमें नहीं हो सकी । और यह तब तक प्राप्त नहीं हो सकेगी, जब तक कि हम आत्मा के विभाव के द्वार को पार करके उसके स्वभाव के भव्य द्वार में प्रवेश नहीं कर लेंगे।
पाप आत्मा को अच्छा नहीं लगता, क्योंकि उसका परिणाम दुःख एवं क्लेश है । पुण्य आत्मा को अच्छा लगता है, क्योंकि उसका परिणाम सुख एवं समृद्धि है । इस दृष्टि से संसारी आत्मा पाप को छोड़ता है और पुण्य को पकड़ता है। किन्तु विवेकशील ज्ञानी आत्मा विचार करता है, कि जिस प्रकार पाप बन्धन है, उसी प्रकार पुण्य भी एक प्रकार का बन्धन ही है । यह सत्य है कि पूण्य हमारे जीवन-विकास में उपयोगी है, सहायक है। यह सब कुछ होते हुए भी यह निश्चित है। कि वह उपादेय नहीं है, बल्कि अन्ततः हेय ही है । उसे अवश्य छोड़ना है, आज नहीं तो कल । और जिस वस्तु को छोड़ना है, वह अपनी कैसे हो सकती है ? पुण्य और पाप दोनों आस्रव हैं । अन्तर इतना ही है कि एक अशुभ है, दूसरा शुभ है। आस्रव आखिर आस्रव ही है, वह आत्मा का विकार है, वह आत्मा का विभाव है, आत्मा का वह स्वभाव नहीं है। और जो स्वभाव नहीं है, अवश्य ही वह विभाव है।
और जो विभाव है वह एक दिन आया था, एक दिन चला भी जाएगा। इसके विपरीत जो स्वभाव है, वह न कभी आया था और न कभी जाएगा। जो अपना है वह जा नहीं सकता, और जो पराया है वह कभी ठहर नहीं सकता। यही भेद-विज्ञान है, यही विवेक-दृष्टि है और यही निश्चय दृष्टि है।
निश्चय-दष्टि सम्पन्न आत्मा विचार करता है, कि यह शरीर मेरा नहीं है, यह इन्द्रियाँ मेरी नहीं हैं और शरीर एवं इन्द्रियों के भोग भी मेरे नहीं हैं। यह सब जड़ हैं और मैं इनसे भिन्न चेतन हैं । मैं पर से भिन्न हूँ, मेरे स्वस्वरूप में काल और कर्म बाधक नहीं हो सकते। क्योंकि कर्म जड़ है, अतः वह 'स्व' से भिन्न 'पर' है। आत्मा सदा
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११६ / अध्यात्म प्रवचन अपने स्व= चिद् रूप में है, पर जड़ रूप में नहीं है । और जो स्व में नहीं है, वह स्व को तीन काल और तीन लोक में बाधा नहीं पहुँचा सकता । क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अपनी अपेक्षा से है, पर की अपेक्षा से नहीं है । अतः निश्चय दृष्टि से कोई एक पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ के हानि एवं लाभ का कारण नहीं है। फिर भी विपरीत कल्पना के आधार पर और विपरीत मान्यता के आधार पर अथवा व्यवहार के आधार पर यह कहा जाता है, कि मेरे लिए कर्म बाधक हैं, जड कर्मों ने मुझे मार डाला । परन्तु अज्ञानी आत्मा यह नहीं सोचता, कि अपनी भूल के कारण और अपने ही राग एवं द्वष के कारण इस विकार रूप संसार का अस्तित्व है। आत्मा अपनी महानता को भूलकर अपने से भिन्न पर की महानता में विश्वास करता है । अपनी प्रभुसत्ता को भूल कर जब यह आत्मा जड़ पदार्थों के अधीन बन जाता है, तब उसकी यही स्थिति होती है, और यही दशा होती है । जो अपनी आत्मा को परमार्थतः सिद्ध समझकर उसका निरन्तर ध्यान करता रहता है, वह एक दिन अवश्य ही सिद्ध हो जाता है। ज्ञानी कहता है कि हे आत्मन् ! तू प्रभु है, तू परमात्मा है और तू परब्रह्म है। विश्व की समस्त आत्माएँ अपने शुद्ध स्वरूप से परमात्म स्वरूप हैं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। तूने अपने अज्ञान के कारण ही अपने से भिन्न जड़ तत्व में आनन्द मान रखा है। परन्तु वास्तव में जड़ में से कभी आनन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती। आश्चर्य है कि जड़ से सर्वथा भिन्न अपने विशुद्ध चिदानन्द रूप एवं ज्ञातृत्व भाव रूप स्व स्वरूप को छोड़कर आत्मा पर स्व रूप में भटक गया है। जब तक पर से हटकर वह स्व में स्थिर नहीं हो जाता है, तब तक उसे सच्चा सुख और आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता । अपने मोह, अज्ञान और राग-द्वेष के कारण ही, यह आत्मा जन्म एवं मरण के चक्कर में फंसा हुआ है। कर्म-जन्य इन विभिन्न गतियों एवं योनियों को यह आत्मा अपना स्थान समझता रहा है, किन्तु वास्तव में आत्मा का अपना स्थान नहीं है। ____ कल्पना कीजिए, एक मनुष्य धन उपार्जन के लिए स्वदेश को छोड़ कर परदेश गया । परदेश में वह इधर-उधर काफी भटका, एक नगर से दूसरे नगर में और दूसरे से तीसरे में गया, संयोगवश वहाँ उसे अच्छी सफलता मिली । पर्याप्त धन उपार्जन करने के बाद उसके मन में विचार उठा, कि अब मुझे अपने घर चलना चाहिए। विदेश में रहना मेरे जीवन का उद्देश्य नहीं है । जिस लक्ष्य को लेकर मैं स्वदेश
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अध्यात्मवाद का आधार | ११७
को छोड़कर विदेश आया था, वह पूर्ण हो गया । वह अपने घर आया, जहाँ उसने विश्रान्ति और शान्ति का अनुभव किया । एक दिन वह विचार करने लगा कि मैंने बहुत सा धन कमाया है, अब उसका उपभोग भी करना चाहिए । उसका उपभोग कैसे किया जाए ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए उसके मन और मस्तिष्क में विविध प्रकार के विकल्प उठने लगे | उसने विचार किया, मुझे एक भव्य प्रासाद बन - वाना चाहिए। क्योंकि मुझे अब जीवन पर्यन्त यहीं पर रहना है । सुन्दर वस्त्र और रम्य आभरण भी मेरे पास होने चाहिए। मेरा - खान-पान और रहन-सहन भी सुन्दर रुचिकर और मधुर होना चाहिए । धन और भोग विलास के व्यामोह में वह अपने आपको अजर अमर समझने लगा. मृत्यु को भूल गया । उसे यह पता नहीं रहा कि उसका आयुष्य कब पूर्ण हो जाएगा, और वह यहाँ से न जाने कब कहाँ चला जायगा ? यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि जो संसार में आया है, वह एक दिन संसार से विदा भी अवश्य होगा । खेद है कि फिर भी वह मोह विमुग्ध आत्मा अपने परभव और परलोक का ज्ञान नही कर पाता । अध्यात्म-शास्त्र कहता है, यदि तुमने अपने इस वर्तमान जीवन में, इस वर्तमान भव के अभाव का निर्णय नहीं किया, तो यह जीवन किस काम का ? विपुल द्रव्य भी प्राप्त कर लिया और कदाचित् स्वर्गोपम सुख भी प्राप्त कर लिया, तो भी किस काम का ? जब तक अवतार का, जन्म का और भव का अन्त नहीं किया जाता है, तब तक भौतिक दृष्टि से सब कुछ प्राप्त करके भी इस आत्मा ने कुछ भी प्राप्त नहीं किया । यह मत समझो कि इस संसार में हम अजर-अमर होकर आये हैं, बल्कि यह समझो कि हम एक दिन आए हैं और एक दिन अवश्य ही यहाँ से विदा होंगे ।
अपने को सम्पन्न और सुखी बनाने का आत्मा ने अनन्त बार पुरुषार्थ और प्रयत्न किया होगा, परन्तु यह निश्चय रूप से कहा जा सकता है, कि यदि आत्मा एक बार भी यथार्थ पुरुषार्थ कर लेता, तो फिर उसे अन्य पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता । और वह 'यथार्थ पुरुषार्थ है - भव के अन्त का जन्म एवं मरण की परम्परा के अन्त का । विचार कीजीए - दूध या दही को बिलोकर उसमें से मक्खन निकाला, उसे तपाया और जब एक बार घी बना लिया, तब फिर उस घी का मक्खन नहीं बन सकता । इसी भाँति एक बार आत्मा के समग्र विकार और आवरण का विनाश किया, कि फिर संसार में आना नहीं होता ।
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११८ | अध्यात्म-प्रवचन वह आत्मा फिर अनन्त-अनन्त काल के लिए स्वस्वरूप में लीन हो जाता है । संसार से विमुक्त होना ही आत्मा का सबसे महान उद्देश्य है। परन्तु वह संसार क्या है ? 'पुत्र एवं कलत्र' यह संसार नहीं है, 'धनी एवं वैभव' यह संसार नहीं है, 'नगर एवं ग्राम' यह संसार नहीं है, 'स्वदेश और परदेश' यह संसार नहीं है, 'स्वर्ग और नरक' यह भी मूल संसार नहीं है । उक्त औपाधिक कर्मोदयजन्य संसार का भी मूल कारण वास्तविक संसार है-आत्मा का अपना अज्ञान, आत्मा का अपना मोह तथा आत्मा का अपना राग एवं द्वष। जिस क्षण और जिस समय आत्मा में पर्याय दृष्टि से संसार-दशा है, उसी क्षण और उसी समय आत्मा में द्रव्य दृष्टि से सिद्ध-दशा भी है। एक विकारी दशा है और दूसरी विशुद्ध दशा है । जब विकार एवं विकार के कारण पर्याय में न रहेंगे तब आत्मा पर्याय रूप से भी बद्ध दशा में न रहेगा। जिस प्रकार जल में उष्ण होने की योग्यता के कारण अग्नि के निमित्त से वर्तमान में उष्णता प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार संसारी जीव में अपनी विभावस्थिति के कारण अशुद्धता रहती है, परन्तु जैसे उष्ण जल को शीत बनाने के लिए यह आवश्यक है, कि अग्नि का संयोग उससे हटा दिया जाए, वैसे ही एक अशुद्ध आत्मा को शुद्ध करने के लिए यह आवश्यक है, कि उसमें से अज्ञान, मोह तथा राग एवं द्वष को दूर कर दिया जाए। जैन-दर्शन में मोक्ष एवं मुक्ति को अपवर्ग भी कहा जाता है, यह आत्मा की एक विशुद्ध स्थिति है। अपवर्ग शब्द में दो शब्द है-अप और वर्ग । वर्ग का अर्थ है-धर्म, अर्थ और काम । उनसे रहित जो है, उसे अपवर्ग कहा जाता है । अपवर्ग आत्मा की वह विशुद्ध स्थिति है-जहाँ न इन्द्रियों का भोग अर्थात् काम रहता है और न उसका साधन-अर्थ रहता है तथा जहाँ न काम और अर्थ को उत्पन्न करने वाला पुण्य रूप व्यवहार धर्म ही रहता है।
जैन-दर्शन की दृष्टि से आत्मा का कर्म के साथ परम्परागत अनादि सम्बन्ध है । परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि आत्मा कभी कर्मविमुक्त नहीं होगा। यदि आत्मा कर्म विमुक्त न हो, तो फिर किसी भी प्रकार की साधना करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। उस स्थिति में जीव का पुरुषार्थ, पराक्रम और प्रयत्न सब व्यर्थ सिद्ध होता है । आत्मा अपने प्रयत्न से बन्धन-विमुक्त हो सकता है। वह मोक्ष एवं अपवर्ग को प्राप्त कर सकता है, इसमें किसी भी प्रकार का
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अध्यात्मवाद का आधार | ११६
सन्देह नहीं है । आवश्यकता है आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को समझने की । मोक्ष और अपवर्ग प्राप्त करने के लिए सबसे पहले आत्म-बोध एवं आत्म-निश्चय की आवश्यकता है । उसके बाद ही अन्य ज्ञान की आवश्यकता है । क्योंकि भेद-विज्ञान के विषय मुख्य रूप से दो ही हैं- आत्मा और अनात्मा, स्व और पर तथा जीव और पुद्गल । प्रश्न होता है, हम अपने आपको कैसे जानें ? अध्यात्म-शास्त्र उक्त प्रश्न का समाधान करता है, कि अपने आपको अपने आपसे ही जानो । क्या कभी दीपक को देखने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता रहती है ? अपने आपको देखने के लिए भी अन्य किसी प्रकाश की आवश्यकता नहीं है । आत्मा अपनी जिस चेतना-शक्ति से जगत के पर पदार्थों को जानता है, उसी से वह अपने आपको भी जान सकता है । आत्मा का मुख्य परिणमन ज्ञान है। ज्ञान ही आत्मा को अन्य पदार्थों से पृथक् करता है। जब कि ज्ञान को हम आत्मा का निज गुण स्वीकार कर लेते हैं, तब इसका अर्थ यही है, कि आत्मा अपने आपको अपने आपसे ही जानता है । यही आत्मा का निज स्वरूप है । परन्तु अनन्त काल से आत्मा की परिणति आत्मा से भिन्न पुद्गल में निजत्व का अध्यास कर रही है । वस्तुतः यही आत्मा की मलिनता है । जब आत्मा स्व को पर में आरोपित करता है, और पर को स्व में आरोपित करता है, तब आत्मा का यह मिथ्यात्व-भाव ही उसका सबसे बड़ा बन्धन हो जाता है । यह मिथ्यात्व-भाव जब तक आत्मा में विद्यमान है, तब तक आत्मा के संसार - पर्याय का कभी अन्त नहीं हो सकता । संसार पर्याय का अन्त ही वस्तुतः मोक्ष है ।
आत्मा में अनन्त शक्ति है, परन्तु वह कर्म के आवरण से आच्छादित रहती है । यह कमें का आवरण इतना विचित्र एवं इतना विकट होता है, कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट नहीं होने देता । जिस प्रकार सूर्य का दिव्य प्रकाश मेघाच्छन्न होने के कारण अप्रकट रहता है, उसी प्रकार कर्मों के आवरण के कारण आत्मा की अनन्त शक्ति प्रकट नहीं हो पाती । आवरण हटते ही आत्मा की शक्ति प्रकट होने लगती है और वह अपने स्वरूप को पहचान लेता है। आत्मा पर सबसे बड़े भयंकर बन्धन अहं - बुद्धि और मम-बुद्धि के हैं । अहंता और ममता के कारण आत्मा अपने निज स्वरूप को पहचान नहीं पाता । आत्मबोध न होने के कारण आत्मा अनन्त काल से संसार में परिभ्रमण करता रहा है । जिस प्रकार बालक मिट्टी के घरोंदे बनाते
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१२० । अध्यात्म-प्रवचन और बिगाड़ते रहते हैं, उसी प्रकार आत्मा ने ही यह संसार बनाया है और आत्मा ही इस संसार का अन्त भी कर सकता है। आत्मा नाना प्रकार के मनोरथ करता है, परन्तु इन मनोरथों का कभी अन्त नहीं होता। संकल्प और विकल्प के खेल, रात और दिन हमारे मन के मैदान में होते रहते हैं। इन खेलों को बनाने वाले भी हम हैं और इन खेलों को बिगाड़ने वाले भी हम स्वयं ही हैं। मोह-बुद्धि समस्त पापों की जड़ है। मोह-बुद्धि को तोड़ने के लिए ही साधना की जाती है । यह निश्चय है कि ममत्व-बुद्धि एवं मोह-बुद्धि के कारण ही, हमें पर पदार्थों में सुख एवं दुःख की प्रतीति होती है । पर पदार्थ में दुःख और सुख की प्रतीति भ्रान्तिरूप है । सुख दुःख के प्रश्न का एक ही समाधान है कि-दुःख एवं सुख किसी पदार्थ विशेष में नहीं होते, वे होते हैं ममत्व-भाव में । अतः ममत्व-भाव ही समस्त सांसारिक सुखदुःखों का मूल केन्द्र है । सांसारिक सुख भी मूलरूपतः दुःख ही है।
पर पदार्थ में ममत्व होने से दुःख कैसे होता है ? इस सम्बन्ध में मुझे एक कथानक का स्मरण हो आया है। एक बार एक व्यक्ति किसी कार्यवश विदेश में गया था, वहाँ वह कुछ दिनों तक रहा। यद्यपि वह अपने देश शीघ्र ही लोटना चाहता था, परन्तु प्रयोजनवश वह शीघ्र नहीं लौट सका । विदेश में रहते हुए भी उसका मन सदा अपने घर में ही लगा रहता था। घर से दूर रहने पर भी वह घर को भूल नहीं सका । यह सब उसकी मोह-बुद्धि का खेल था। एक बार उसे घर से समाचार मिला कि उसकी पत्नी का देहान्त हो गया है। पत्नी के वियोग को वह सहन नहीं कर सका। विलाप करने लगा, उसने खाना पीना सब कुछ छोड़ दिया। वह शोक-विह्वल हो गया। न किसी से बात करता, न किसी से बोलता और न किसी कार्य के करने में ही उसका मन लगता था। उसकी इस विचित्र स्थिति को देखकर, उसके मित्र ने कहा
"स्त्री के वियोग से इतने अधीर क्यों बनते हो? मरना और जीना, क्या किसी के हाथ की बात है ? जो जन्मा है वह एक दिन मरेगा भी अवश्य ही। जन्म के बाद मरण और मरण के बाद जन्म, यह तो एक संसार-चक्र है, चलता रहा है और चलता रहेगा । जन्ममरण के चक्र को कौन कैसे मिटा सकता है ? यदि स्त्री का वियोग असह्य है और स्त्री के बिना तुम नहीं रह सकते हो, तो दूसरा
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अध्यात्मवाद का आधार | १२१ विवाह कर लो । परन्तु व्यर्थ में परेशान एवं हैरान होने की जरूरत क्या है ।" ___ स्त्री-वियोगी व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा-"बात तुम्हारी ठीक है। यह सब कुछ मैं समझता है । मेरे दुःख का कारण मेरी स्त्री नहीं है । मेरे दुःख का कारण है, उसमें मेरी ममत्व-बुद्धि । जिसमें जिस व्यक्ति का ममत्व होता है, उसके वियोग में उसे दुःख होता है । किसी भी व्यक्ति को न किसी के जन्म पर हर्ष होता है और न किसी की मृत्यु पर विषाद होता है। जिस वस्तु में मन की प्रीति होती है, जिस वस्तु में मन की रति होती है और जिस वस्तु में मन की अनुरक्ति होती है, वस्तुतः उसी वस्तु के संयोग में सुख और वियोग में दुःख एवं विषाद हआ करता है। जब तक संसार के किसी भी पदार्थ के प्रति मन में अनुरक्ति बनी हुई है, तब तक विरक्ति नहीं हो सकती। और जब तक विरक्ति नहीं होगी, तब तक आत्मा की कर्मों से विभक्ति भी नहीं हो सकती ।'
वियोगी व्यक्ति का कथन सही है । परन्तु यदि वह बौद्धिक न होकर अन्तर्मन की गहराई में उतरा होता तो उसे कुछ भी परेशानी न होती । अस्तु निश्चित है कि दुःख का कारण और कुछ नहीं, मनुष्य के मन का ममत्व भाव ही है। यह ममत्व-भाव चाहे किसी जड़ पदार्थ में हो, अथवा किसी चेतन में, दुःख का मूल कारण यह ममत्वभाव ही है। जब ममत्व-भाव हट गया, तो वस्तु के रहने अथवा न रहने से हमें सुख और दुःख भी नहीं होते। चक्रवर्ती के पास कितना विशाल वैभव होता है, किन्तु जब उसके हृदय में निर्मल वैराग्य का उदय होता है, तब क्षण भर में ही वह उसे छोड़ देता है। विशाल साम्राज्य को छोड़ने पर उसे जरा भी दुःख एवं क्लेश महों होता, क्योंकि दुःख एवं क्लेश का मूल कारण ममत्व-भाव है, और ममत्वभाव का उसने परित्याग कर दिया है।
मैं आपसे कह रहा था कि आत्मा का बन्धन और आत्मा का मोक्ष कहीं बाहर में नहीं, हमारे अन्दर की भावना में ही रहता है। बड़ी विचित्र बात है, कि मनुष्य अन्य सब कुछ समझ लेता है, किन्तु अपने आपको नहीं समझ पाता । जिसने अपने को पहचान लिया, उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया । आत्मा में परमात्मा होने की शक्ति है, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता, परन्तु आवश्यकता है
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१२२ | अध्यात्म-प्रवचन
पर के आवरण को हटाकर अपने निज स्वरूप को जानने की कल्पना कीजिए, किसी सरोवर में जल भरा हेआ है । अन्दर में जल स्वच्छ एवं निर्मल है, परन्तु उसके ऊपर काई आ चुकी है । ऊपर काई जम जाने के कारण जल मलिन दीखता है, परन्तु जब काई दूर हो जाती है, तब जल स्वच्छ का स्वच्छ हो जाता है । उसकी स्वच्छता कहीं बाहर नहीं थी, वह अन्दर में ही थी, पर काई आ जाने से उसकी स्वच्छता का दर्शन नहीं हो पाता था । वायु के वेग से जब काई छँट कर एक तरफ हो गई, तब सरोवर के स्वच्छ जल को प्रतीति होने लगी । इसी प्रकार आत्मा स्वच्छ एवं पावन है, परन्तु राग एवं द्व ेष की काई से मलिन बन गया है । राग और द्वेष नष्ट होते ही उसकी स्वच्छता प्रकट हो जाती है । वस्त्र जब मलिन हो जाता है, तब सोडा और साबुन लगा कर उसे स्वच्छ बना लिया जाता है । वस्त्र की स्वच्छता कहीं बाहर से नहीं आई, वह उसके अन्दर ही थी, पर मल के कारण प्रकट नहीं हो पा रही थी । मल के दूर होते ही वह प्रकट हो गई। इसी प्रकार जब तक आत्मा पर राग एवं द्वेष का मल लगा हुआ है, तभी तक वह अस्वच्छ एवं अपावन प्रतीत होती है, परन्तु मल के हटते ही उसकी स्वाभाविक स्वच्छता प्रकट हो जाती है । राग क्या है ? प्रीति रूप परिणाम का होना राग है । द्वेष क्या है ? अप्रीति रूप परिणाम का होना द्वेष है । संसार का मूल कारण यह राग और द्वेष ही है । यह राग और द्वेष क्षय होते ही आत्मा को मोक्ष एवं अपवर्ग की शाश्वत स्थिति प्राप्त हो जाती है !
मैं अभी आपसे आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में चर्चा कर रहा था । आत्मा का शुद्ध स्वरूप क्या है ? यह समझना उतना आसान नहीं है, जितना आसान इसे समझ लिया गया है। आत्मा की चर्चा करना आसान है, परन्तु आत्मा को समझना बड़ा कठिन है । जब तक आत्मा में रागरहित प्रीति न हो, जब तक आत्मा में अनुरागरहित अनुरक्ति न हो और जब तक पर पदार्थों से द्वेष-रहित स्वस्वभावरूप विरक्ति एवं विभक्ति न हो, तब तक आत्मा को कैसे समझा जा सकता है । अध्यात्मवाद की चन्द पोथियों के पन्ने उलटने मात्र से कोई अध्यात्मवादी नहीं हो सकता । सार्वजनिक सभा में किसी ऊँचे मंच पर चढ़कर जोरदार भाषा में आकर्षक शैली में आत्मा पर भाषण देने मात्र से ही, कोई अध्यात्मवादी नहीं बन सकता । शास्त्रार्थ के अखाड़े में उतर कर अपने तर्क-जाल से किसी
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अध्यात्मवाद का आधार | १२३ को परास्त कर देना भी अध्यात्मवादी होने का लक्षण नहीं माना जा सकता । अज्ञान, अविद्या, माया और वासना की चर्चा बहुत की जाती है, परन्तु उसे जीवन से दूर हटाने का कितना प्रयत्न किया गया है, मुख्य प्रश्न यही है । माया को छोड़ने की वचन से बात करना आसान है, शिन्तु मन से माया शो छोड़ना आसान नहीं है। जीवन में दुःख और क्लेश का वातावरण उपस्थित होने पर क्षण भर के लिए वैराग्यशील बनकर संसार की असारता का कथन करना, आजकल एक फैशन बन गया है । जब कभी किसी पड़ोसी के यहाँ पर उसके किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाती है, तब उसे धैर्य बँधाने के लिए और उसके उद्विग्न मन को शान्त करने के लिए, उसके प्रति संवेदना प्रकट करने आने वाले लोग, उसे हजारों हजार उपदेश देते हैं, संसार की क्षणभंगुरता का । परन्तु जब अपने ही घर में, अपने ही किसी प्रियजन का वियोग होता है, तब हमारा वह ज्ञान और विवेक कहाँ भाग जाता है । अपने प्रियजन की मृत्यु पर हम अधीर और विह्वल क्यों हो जाते हैं ? क्या यह सब कुछ सोचने और समझने का कभी प्रयत्न किया है ? जिस विवेक और वैराग्य की चर्चा हम अपनी प्रतिदिन वाणी में करते हैं, वह विवेक और वैराग्य हमारे जीवन की धरती पर क्यों नहीं उतर पाता ? इसका कारण एक ही है, कि अभी तक आपके हृदय में आत्मश्रद्धा, आत्म-निष्ठा और आत्म-आस्था उत्पन्न नहीं हुई है । हमने स्वभिन्न पर को समझा है और स्वभिन्न पर के ऊपर विश्वास करना भी सीखा है । परन्तु इसके विपरीत हमने आज तक अपने 'स्व' पर विश्वास करने का प्रयत्न नहीं किया । मैं समझता हूँ जब तक सम्यग् दर्शन नहीं होगा, आत्मप्रीति नहीं होगी, तब तक आत्म-ज्ञान भी नहीं हो सकता, आत्म-बोध भी नहीं हो सकता और जब तक आत्म- बोध नहीं होता है, तब तक आचार और चारित्र भी नहीं होता है । फिर मुक्ति मिले तो कैसे मिले ?
पर
अध्यात्म शास्त्र में सम्यग् दर्शन और श्रद्धा को जीवन का प्राणभूत सिद्धान्त माना गया है । सामान्य रूप से श्रद्धा एवं श्रद्धान का अर्थ होता है - 'विश्वास करना ।' प्रश्न होता है - 'श्रद्धा एवं विश्वास किस किया जाए ?' उत्तर में कहा जाता है कि - 'तत्वभूत पदार्थों पर ।' तत्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा करना ही सम्यग् दर्शन होता है । सम्यग् दर्शन की उक्त परिभाषा में सबसे बड़ी बाधा यह है, कि पदार्थों पर श्रद्धा को सम्यग् दर्शन कहा गया है। संसार में पदार्थ अनन्त हैं, किस पर श्रद्धा की जाए, किस पर विश्वास किया जाए ? यदि कहो कि
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१२४ | अध्यात्म प्रवचन
तत्वभूत पदार्थ पर विश्वास करो, तो उसमें से प्रश्न उठता है कि तत्वभूत किसे कहा जाए ? यदि तत्वभूत का यह अर्थ लिया जाए कि जिसकी जिस पर रुचि है, उसके लिए वही तत्वभूत है, तब तो बड़ी गड़बड़ी होगी । बच्चे को मिठाई पर श्रद्धा रहती है, धन-लोलुप को धन पर श्रद्धा रहती है, कामुक को कामिनी पर श्रद्धा रहती है, चोर को पद-धन पर श्रद्धा रहती है और भोगी को इन्द्रियों के विविध भोगों पर श्रद्धा रहती है । तो क्या इस सबको सम्यग् - दर्शन और श्रद्धा कहा जा सकता है ? निश्चय ही नहीं । तब किस पर विश्वास किया जाए, किस पर श्रद्धा की जाए ? इसके उत्तर में अध्यात्म-शास्त्र कहता हैसब कुछ को छोड़कर केवल एक पर ही विश्वास करो । और वह एक क्या है ? वह एक है आत्मा, चेतन और जीव । अनन्त काल से हमने 'पर' पर ही विश्वास किया है, 'स्व' पर हमारा विश्वास नहीं जम सका। अनन्त काल से हमने देह और देह के भोगों पर ही विश्वास किया हैं । कुछ आगे बढ़े तो अपने परिजन और परिवार पर विश्वास किया है । कुछ और आगे बढ़े तो समाज, राष्ट्र और विश्व पर विश्वास कर लिया । इस प्रकार का विश्वास एक बार नहीं, अनन्त - अनन्त बार किया गया है । विश्व, राष्ट्र, समाज, व्यक्ति और व्यक्ति के शरीर, इन्द्रिय एवं मन पर तो विश्वास किया, परन्तु इन सबके मूल केन्द्र आत्मा पर अभी तक श्रद्धा और विश्वास नहीं किया गया । याद रखिए- - आत्मा की सत्ता से ही इन सबको सत्ता है, आत्मा के अस्तित्व पर ही इन सबका अस्तित्व है । शिवरहित शरीर शव कहलाता है । शव की इन्द्रियाँ होते हुए भी वे अपना काम नहीं कर पातीं। शव को घर में नहीं रखा जाता, श्मशान में ले जाकर जला डाला जाता है । जब शरीर में शिव नहीं रहा, तो उस शव के लिए परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व का भी क्या उपयोग रहा ? इसीलिए मैं कहता हूँ, कि आत्मा के होने पर ही सब कुछ है । आत्मा के नहीं होने पर सब कुछ भी 'नहीं कुछ' है । अतः सबसे बड़ी श्रद्धा आत्मा की श्रद्धा है, सबसे बड़ा विश्वास आत्मा का विश्वास है । आत्मा की सत्ता का बोध होने पर ही और आत्मा की प्रीति होने पर ही, आस्रव को छोड़ा जाता है तथा संवर एवं निर्जरा की साधना की जाती हैं । यदि आत्मा पर विश्वास नहीं जमा, तो बाहर में संवर और निर्जरा के साधनों से से भी हमारी आत्मा में क्या सुधार होगा ? मेरे विचार में यथार्थ श्रद्धा एवं यथार्थ विश्वास वही है, जिसमें आत्मा की स्वच्छता, पवि
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अध्यात्मवाद का आधार | १२५ त्रता और अमरता का परिज्ञान होता है। साधक के लिए सर्वश्रेष्ठ तत्वभूत पदार्थ आत्मा ही है । आत्मा के अस्तित्व से ही पुद्गल का भी मूल्य है। इस विश्व में तत्वभूत पदार्थ दो ही हैं-जीव और पुदगल, किन्तु उन दोनों में भी जीव ही मुख्य है । क्योंकि जीव भोक्ता है और पुद्गल भोग्य है । यदि भोक्ता नहीं है, तो भोग्य का अपने आप में कोई अर्थ नहीं होता । जीव और पुद्गल की संयोग-अवस्था को ही आस्रव कहा जाता है तथा जीव और पुद्गल के क्रमिक एवं सम्पूर्ण वियोग को ही संवर, निर्जरा एवं मोक्ष कहा जाता है। मेरे कथन का अभिप्राय इतना ही है, कि तत्वभूत पदार्थों में प्रधानता जीव एवं आत्मा की हो है । आत्मा पर श्रद्धा करना और आत्मा पर विश्वास करना ही, निश्चय दृष्टि से सम्यग् दर्शन है । व्यवहार दृष्टि से देव, गुरु और धर्म पर विश्वास को भी सम्यग् दर्शन कहा जा सकता है।
आज का साधक भले ही वह श्रमण हो या श्रावक, निश्चय विश्वास को छोड़कर व्यवहार-विश्वास पर आ टिका है । वह यह नहीं समझ पाता, कि व्यवहार का आधार भी तो निश्चय ही है। उसने मूल आधार को भुला दिया और व्यवहार को पकड़ कर बैठ गया। आज वह हर वस्तु की नाप-तोल निश्चय से नहीं, व्यवहार से करता है । वह वृक्ष के मूल को नहीं देखता, उसके बाह्य सौन्दर्य को ही देखकर मुग्ध हो जाता है। वह देखता है कि वृक्ष पर हरे भरे पत्ते हैं, सुरभित कुसुम हैं और मधुर फल हैं । किन्तु यदि उस वृक्ष का मूल न हो, तो यह सब कुछ कैसा रहेगा ? जिस वृक्ष की जड़ सूख गई, उसमें हरे पत्ते कब तक रहेंगे? उसमें सुरभित पुष्प कब तक महकेंगे और उसमें मधुर फल कब तक लगे रहेंगे । यही बात आज के साधकों के सम्बन्ध में है । वे अपने पथ पर विश्वास करते हैं, वे अपने सम्प्रदाय पर विश्वास करते हैं, वे अपने सम्प्रदाय के आचार्यों पर भी विश्वास करते हैं और वे अपने सम्प्रदाय के गले-सड़े पोथी-पन्नों पर विश्वास करते हैं। किन्तु वे इस नर में जो नारायण है, उस पर विश्वास नहीं कर पाते । इस शव में जो शिव है, उसको वे भूल जाते हैं। कुछ लोग तर्क करते हैं, कि हम तो सत्य-ग्राही हैं, इसलिए सत्य को ही पकड़ते हैं। किन्तु मैं पूछता हैं कि आपका सत्य क्या है ? तो मुझे उत्तर मिलता है हमारे गुरु ने जो कुछ कहा वही सत्य है, हमारे पंथ के पोथी-पन्ने जो कुछ कहते हैं वही सत्य है और हमारे पंथ के पुरातन पुरुषों ने जो कुछ कहा है वही सत्य है। उसके बाहर
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१२६ | अध्यात्म-प्रवचन
जो भी कुछ है, जितना भी है और जैसा भी है, वह सब असत्य है, उस पर हमें विश्वास नहीं है। कितनी विचित्र बात है कि सम्यग् दर्शन और श्रद्धा के नाम पर लोग काल के श्रावण, एवं भाद्रपद आदि विभिन्न खण्डों पर विश्वास करते हैं, देश के तीर्थ आदि खण्डों पर विश्वास करते हैं, किन्तु अखण्ड आत्मा पर विश्वास करने के लिए कोई तैयार नहीं होता । आग्रहशील बुद्धि के लोग इतना तक कहने का दावा करते हैं, कि जो कुछ हमारे गुरु ने कहा है और जो कुछ हमारे पोथी-पन्नों में उल्लिखित है, उससे बाहर सत्य है ही नहीं ? विचित्र बात है कि वे लोग अपनी धर्मान्धता के कारण, असीम एवं अनन्त सत्य को भी सान्त एवं सीमित बना रहे हैं। वे लोग यह भी कहते हैं कि भले ही युग बदल जाए, परिस्थिति बदल जाए, समाज एवं राष्ट्र बदल जाए और सब कुछ बदल जाए, किन्तु हमारी पोथी का सत्य कभी नहीं बदल सकता। हमारा सत्य, हमारा पंथ और हमारे गुरु का कथन ही त्रैकालिक सत्य है। इस प्रकार के मतान्ध लोगों की बात को सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। मैं तो क्या, स्वयं भगवान भी उन्हें समझा नहीं सकते । जिसका सत्य सीमित है, कदाग्रह से परिवेष्टित है, उसे समझाने की क्षमता किसी में भी नहीं है। ___ यह एक प्रकार की कूपमण्डूकता है । जो कुछ हमारा है, वही पूर्ण एवं कालिक सत्य है- इससे बढ़कर मिथ्यात्व और क्या हो सकता है । एक समुद्र का मेंढक भाग्य-योग से किसी पार्श्वस्थ कूप के मेंढक के पास पहुंच गया। कूप के मेंढक ने नवागन्तुक मेंढक से पूछा"आप कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ?"
समुद्र के मेंढक ने शान्त और गम्भीर स्वर में कहा-“मैं तुम्हारी जाति का ही एक प्राणी हूँ। अलबत्ता मेरे रहने का स्थान आपसे भिन्न अवश्य है, परन्तु यह निश्चित है, तुम और हम एक ही जाति के बन्धु हैं।"
कूप के मेंढक ने कहा- “यह तो मैं मानता हूँ कि तुम और हम एक ही जाति के जीव हैं, किन्तु जरा यह तो बतलाइए कि आपके रहने का स्थान कहाँ है ?" ___ समुद्र के मेंढक ने कहा-"मेरे रहने का स्थान है-विशाल सागर ।"
कूप के मेंढक ने पूछा-"सागर क्या होता है ?"
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अध्यात्मवाद का आधार | १२७
उसने कहा - " जल की विशाल राशि को सागर कहा जाता है ।" कूप के मेंढक ने कहा - " तब क्या आपका सागर मेरे इस कूप से भी विशाल है ?"
समुद्र के मेंढक ने हँस कर कहा - " विशाल, निश्चय ही विशाल और बहुत विशाल ! मेरे प्यारे मित्र ! जिस प्रकार एक चींटी को हाथी से नहीं नापा जा सकता, जैसे एक रज-कण को महागिरि से नहीं तोला जा सकता, उसी प्रकार मेरे विशाल सागर के जल की और तुम्हारे इस क्षुद्र कुप के जल की तुलना नहीं की जा सकती । "
कूप के मेंढक को उसकी यह बात सुनकर क्रोध आ गया और वह क्रोधान्ध होकर बोला - "तुम झूठे हो, तुम्हारी सभी बात झूठ है । इस मेरे कूप से बढ़कर संसार में अन्य कोई विशाल जल - राशि नहीं हो सकती । मैं तेरी झूठी बात पर विश्वास नहीं कर सकता ।"
आप मेंढकों की इन बातों को सुनकर हँसते हैं और हँसी की बात भी है । परन्तु इस रूपक के मर्म को समझने का प्रयत्न कीजिए । आज का पंथवादी व्यक्ति उस कूप मंडूक से कम नासमझ नहीं है । अपने पंथ के क्षुद्र कूप में बन्द होकर उसने जो कुछ देखा सुना है, उसके बाहर के सत्य को मानने के लिए वह कभी तैयार नहीं हो सकता । पंथवादी एवं रूढ़िवादी व्यक्ति अखण्ड सत्य को अपनी दुर्बुद्धि से खण्डित कर डालता है । और जो खण्ड एवं टुकड़ा भाग्य योग से उनके हाथ पड़ गया, उसके अतिरिक्त अन्य खण्डों को वह कभी भी सत्य मानने के लिए तैयार नहीं हो सकता । पंथ के कूप में बन्द लोगों के समक्ष कदाचित साक्षात् भगवान भी आ जाए और दुर्भाग्यवश उस भगवान की वेशभूषा उसकी परिकल्पना से विपरीत हो, तो वह भगवान को मानने से भी इन्कार कर देगा । अपने परिकल्पित पोथी पन्नों के कूप में बन्द रहने वाले ये मेंढक अनन्त सत्य को नहीं समझ सकते, अनन्त सत्य को नहीं जन सकते । उन लोगों की स्थिति वही होती है, कि चले थे, अचल हिमाचल की चोटी पर चढ़ने के लिए, किन्तु अपनी बुद्धि के विपर्यास से पहुँच गये सागर के किनारे । इस संसार में हरि का भजन करने के लिए आने वाले भक्त, दुर्भाग्य से संसार की माया की कपास को ओटने लगे हैं। आए थे बन्धन से मुक्त होने के लिए, किन्तु और भी अधिक प्रगाढ़ बन्धन में बद्ध हो गए । आये थे आत्मा को स्वच्छ और पवित्र बनाने के लिए, किन्तु अपने अन्ध विश्वास के कारण आत्मा को पहले से भी अधिक अस्वच्छ और मलिन बना डाला । आये
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१२८ | अध्यात्म-प्रवचन
थे सत्य की साधना करने के लिए, किन्तु दुर्भाग्य से असत्य की साधना करने लगे। मैं पूछता हूँ आप लोगों से, कि क्या इस प्रकार पंथ के कृप में बन्द रहने वाले लोगों की भव बन्धनों से कभी मुक्ति हो सकेगी ? नहीं; कदापि नहीं । मैं तो यही कहूँगा कि पंथ को मत समझो, पंथ की आत्मा को समझो। गुरु को मत समझो, गुरु की आत्मा को समझो । शव को समझने का प्रयत्न मत करो, इस शव में रहने वाले शिव को समझने का प्रयत्न करो। याद रखि; जिसने आत्मा पर विश्वास किया है, जिसने आत्मा पर श्रद्धा की है, उसी ने तत्व-भूत पदार्थ पर श्रद्धा की है और तत्व-भूत पदार्थ पर विश्वास किया है । साधना के मार्गों की विविधता एवं विभिन्नता भयंकर नहीं होती, यदि लक्ष्य एक है तो । अनन्त गगन में असंख्य तारक जगमग करते रहते हैं, किन्तु उनका आधार भूत आकाश तो एक ही है। इसी प्रकार व्यवहार कितने भी क्यों न हों ? देश, काल और परिस्थिति कैसी भी क्यों न हो ? यदि आत्मा पर श्रद्धा और विश्वास कर लिया है, तो फिर भव- बन्धन से विमुक्त होने में किसी भी प्रकार का सन्देह एवं संशय नहीं रह सकता है ।
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सम्यग्दर्शन : सत्य-दृष्टि
भौतिकता के इस युग में अध्यात्मवाद के पुनरुदय की नितान्त आवश्यकता है । मानवीय जीवन का संलक्ष्य है, चेतना के उच्चतम शिखर पर पहुँचना | मानव जीवन जब विश्व - जीवन बन जाएगा, तब वह अपने जीवन के ध्येय को प्राप्त कर सकेगा । मनुष्य को जीना है, और ठीक से जीना है । उसके जीवन का अर्थ और उद्देश्य है - अपने जीवन की स्वच्छता और पवित्रता को प्राप्त करना, किन्तु वर्तमान युग की बोध - शून्यता ने मानव चेतना को आज सन्निपात - ग्रस्त कर दिया है । भोग- वादी भौतिकवाद की चकाचौंध में वह अपने जीवन के उद्देश्य को और अपने गन्तव्य पथ को भूल बैठा है । मानव-मन का अध्यात्मवाद आज के भौतिकवाद से इतना अधिक प्रभावित हो गया है, कि वह आज जर्जर और मरणोन्मुख है । मेरे विचार में जब तक मानव जीवन का कण-कण आस्था, श्रद्धा, निष्ठा और विश्वास से ओतप्रोत नहीं होगा, तब तक चेतना-शक्ति का दिव्य आभास उसे अधिगत नहीं होगा । जीवन को सुन्दर, रुचिर एवं मधुर बनाने के लिए जिस सहज बोध की आवश्यकता है, वह आज के मानव के पास
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१३० | अध्यात्म-प्रवचन
नहीं है । इसीलिए उसके जीवन की कुंठा ने, निराशा ने और अनास्था ने उसके दिव्य जीवन को ग्रस लिया है। मेरे विचार में आज के युग का सबसे बड़ा समाज-शास्त्र है विश्वबन्धुत्व, आज के युग का सबसे बड़ा धर्म है - विश्व - मानवता, आज के युग का सबसे बड़ा दर्शन है, विश्व चेतना | भोगवादी जीवन की इन्द्रधनुषी शोभा चिरस्थायी नहीं है, चिरस्थायी है एक मात्र आत्मा का दिव्य भाव । आत्मा का यह दिव्यभाव जब तक भू-मन एवं भू-जीवन का स्पर्श नहीं करेगा, तब तक मानवीय मन की बोध - शून्यता के स्थान पर सहज बोध नहीं आ सकेगा । जब तक विश्व का प्राणी- प्राणी मानवता के परम भाव के प्रति प्रेम की भावना से प्रेरित नहीं होगा, तब तक विश्व - जीवन संकट मुक्त नहीं हो सकेगा । जन-मंगल और जन-कल्याण की भावना मनुष्य के मन के अन्तराल में उदीयमान होते हुए भी, उसकी सफलता तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि मनुष्य स्वयं अपने जीवन को पावन एवं पवित्र न बना ले ? जीवन की पावनता और पवित्रता का मूल आधार क्या है ? उसका आदि स्रोत कहां है ? इस जीवन में वह पावनता और पवित्रता अंकुरित होकर पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हो सकती है क्या ? ये प्रश्न आज के नहीं, चिरन्तन प्रश्न हैं । प्रत्येक युग क युग चेतना ने उक्त प्रश्नों का सुन्दर एवं सत्य समाधान पाने का प्रयास किया है । आज के युग की युग चेतना भी मानव-जीवन के उस पवित्र एवं पावन आदि स्रोत को प्राप्त करने के लिए आकुलव्याकुल बनी हुई है | मानव के मानस में जब तक सहज बोध के रवि का आलोकमय उदय नहीं होगा, तब तक उसके जीवन- गगन की रजनी का अन्त नहीं हो सकेगा । मानव अपने सहज स्वभाव से दिव्यता चाहता है, दिव्य बनने की उसकी अभिलाषा भी है, फिर भी तदनुकुल प्रयत्न न होने के कारण वह दिव्यता उसे आज तक प्राप्त नहीं हो सकी है, यदि अनन्त जीवन में कभी विद्युत प्रकाश के समान क्षणिक दिव्यता की प्राप्ति हुई भी है, तो वह स्थायी नहीं बन सकी । अध्यात्मवादी दर्शन के समक्ष सबसे विकट और सबसे विराट प्रश्न यही है कि जीवन की दिव्यता का आधार क्या है ? उक्त प्रश्न का एक ही उत्तर है, और एक ही समाधान है कि- सम्यक् दर्शन और श्रद्धान ही दिव्य भाव की दिव्यता का मूल आधार है । क्योंकि सम्यक दर्शन में अनन्त शक्ति है एवं अनन्त बल है । अनन्त काल की आदिहीन जन्म-मरण की परम्परा का उच्छेद सम्यक् दर्शन के अभाव
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सम्यग्दर्शनः सत्य-दृष्टि | १३१ में किसी भी प्रकार नहीं हो सकता । जीवन के अन्धकार को प्रकाश में बदलने की और जीवन की गति को प्रगति में परिवर्तित करने की अपार क्षमता सम्यक् दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी में नहीं है । एक क्षण मात्र का सम्यक् दर्शन भी अनन्त - अनन्त जन्म-मरण का नाश करने वाला है | चेतन ने अनन्त बार अनन्त प्रकार की साधना की है, किन्तु सम्यक् दर्शन के अभाव में वह फलवती नहीं हो सकी । जिस प्रकार रात्रि के घोर अन्धकार में विद्युत के चंचल प्रकाश की क्षण रेखा क्षण भर के लिए ही लोक को आलोकित करती है, किन्तु उससे यह तो सिद्ध हो गया कि अन्धकार से भी बढ़कर एक प्रकार की शक्ति है, जिसे पाकर मनुष्य के जीवन की रजनी के अन्धकार को मिटाया जा सकता है, दूर किया जा सकता है । अध्यात्म-भाषा में इसी दिव्य प्रकाश को सम्यक् दर्शन कहा जाता है । यदि एक क्षण मात्र भी जीव सम्यक् दर्शन को प्रकट करे, तो उसकी मुक्ति हुए बिना न रहे । सम्यक् दर्शन ही अध्यात्म-साधना का दिव्य आलोक है, जिससे जीव अपने सहज स्वरूप की उपलब्धि कर सकता है । अतः मानव जीवन की पवित्रता और पावनता का एक मात्र मूल आधार सम्यक् दर्शन ही है । मानव-जीवन ही क्या चेतना के समग्र विकास का एवं प्रगति का एक मात्र आधार सम्यक् दर्शन ही है । अतीत काल में जिस किसी भी चेतन ने मोक्ष प्राप्त किया है, वह सम्यक् दर्शन के आधार पर ही किया है और अनन्त अनागत में जो कोई भी चेतना मोक्ष को प्राप्त कर सकेगी, उसका मूल आधार भी एक मात्र सम्यक् दर्शन ही रहेगा । जैन दर्शन के अनुसार जीवन-मात्र के विकास का बीज सम्यक् दर्शन ही है ।
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मैं अभी आपसे सम्यक् दर्शन की चर्चा कर रहा था । सम्यक् दर्शन क्या है ? सम्यक् दर्शन से जीवन में कितना और कैसा परिवर्तन होता है ? यह एक गम्भीर विषय है को समझे बिना, हमारे जीवन में गति एवं सकती । अध्यात्म-साधक अन्य कुछ समझे या न समझे, किन्तु सम्यक् दर्शन के स्वरूप को उसे अवश्य ही समझना होगा । सम्यक् दर्शन को पाया, तो सब कुछ पाया । यदि इसे नहीं पाया, तो कुछ भी नहीं पाया । इस चेतन आत्मा ने अनन्त जन्मों में अनन्त बार स्वर्ग का सुख पाया, भूमण्डल पर राज राजेश्वर का वैभव पाया, परन्तु सम्यक् दर्शन के अभाव में अपनी आत्मा का दिव्य रूप नहीं पा सका । नरक
किन्तु इस गम्भीर विषय प्रगति भी तो नहीं हो
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१३२ | अध्यात्म प्रवचन
के दुःख और स्वर्ग के सुख पवित्रता प्रदान नहीं कर सकते, जिस प्रकार दुःख आत्मा का एक मलिन भाव है, उसी प्रकार सुख भी आत्मा का एक मलिन भाव ही है । भले ही सुख जीव को प्रिय रहा हो और दुःख जीव को अप्रिय रहा हो, किन्तु सुख और दुःख आखिर दोनों ही, चेतना के मलिन भाव हैं। चेतना की मलिनता को दूर करने का एक मात्र साधन, यदि कोई हो सकता है, तो वह सम्यक् दर्शन ही है। यदि आप अध्यात्म-साधना के मन्दिर में प्रवेश करके आत्म- देवता की पूजा एवं उपासना करना चाहते हैं, तो उस मन्दिर में प्रवेश करने के लिए आपको सम्यक् दर्शन के द्वार से ही प्रवेश करना होगा । यदि सम्यक् दर्शन का प्रकाश अन्तरहृदय और आत्मा में जगमगा उठा है, और अपने सहज स्वरूप एवं शक्ति की पहचान हो गई है, तो फिर जीवन में किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता । सम्यक् दर्शन को पाकर भयभीत आत्मा अभय हो जाता है । भय आत्मा का एक विकार है । जब तक साधक के जीवन में भय का सद्भाव है, तब तक निश्चय ही यह नहीं कहा जा सकता कि उसने सम्यक् दर्शन को प्राप्त कर लिया है । निश्चय ही जिसने सम्यक् दर्शन के दिव्य आलोक को प्राप्त कर लिया है, उसके जीवन में किसी प्रकार का भय नहीं रह सकता । अतः सम्यक् दर्शन की साधना अभय की साधना है । कदम-कदम पर भयभीत होने वाला साधक अपनी साधना में कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता, साधना के दिव्य पथ पर वह बहुत आगे नहीं बढ़ सकता । मोक्ष की साधना में सबसे पहली शर्त है, निर्भय होने को और निर्भयता का जन्म सम्यक् दर्शन से ही होता है ।
आत्मा अनादिकाल से चिद् रूप में सदा एक सा रहा है । वह कभी जीव से अजीव और चेतन से जड़ नहीं बना है । उसके स्वरूप में कभी कोई कमी नहीं हुई । उसका एक अंश भी कभी बना और बिगड़ा नहीं है । जीव सदा से जीव ही रहा है, आत्मा सदा से आत्मा ही रहा है । आत्मा कभी अनात्मा नहीं बन सकता और अनात्मा भी कभी आत्मा नहीं बन सकता । फिर न मालूम जीवन में कमी किस बात की है कि यह संसारी आत्मा क्यों रोता एवं बिलखता है ? आत्मा को अजन्मा और अविनाशी मान लेने पर जीवन में किसी प्रकार का अभाव नहीं रहना चाहिए, फिर भी न जाने क्यों यह मनुष्य भटकता ही रहता है । दो ही बातें हो सकती हैं, या तो उसे अपनी आत्मा की
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सम्यग्दर्शन : सत्य-दृष्टि | १३३ अमरता पर विश्वास नहीं है और यदि विश्वास है तो फिर वह अभी तक उसे सुदृढ़ नहीं कर सका है । आत्मा की अमरता पर विश्वास हो जाने पर जब तक उसकी दिव्य उपलब्धि नहीं होती है, तब तक जीवनसंघर्ष मिट नहीं सकेंगे। आत्मा की अमरता का ज्ञान एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। परन्तु आपको इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आत्मा की सत्ता का ज्ञान और उसको अनन्त शक्ति का भान, एक चीज नहीं, अलग-अलग चीजें हैं। आत्मा की अमर सत्ता की प्रतीति होने पर भी, जब तक उसकी अनन्त शक्ति का भान नहीं होता है एवं उसके प्रयोग की विधि का परिज्ञान नहीं है, तो शक्ति के रहते हुए भी वह कुछ कर नहीं सकता। तीर्थंकर, गुरु और शास्त्र और कुछ नहीं करते । वे इतना ही करते हैं कि विस्मृत आत्मा को वे उसकी अनन्त शक्ति का स्मरण करा देते हैं । जिस प्रकार ज्योतिहीन दीपक को एक बार ज्योति का स्पर्श कराने मात्र से वह स्वयं ज्योतित हो जाता है, उसी प्रकार देव, गुरु और शास्त्र इन्द्रियों के भोगों में आसक्त आत्मा का उसके आन्तरिक दिव्य भाव से स्पर्श मात्र कराने का प्रयत्न ही करते हैं । भक्ति की भाषा में इसी को प्रभु की कृपा, गुरु का अनुग्रह और शास्त्र का सहारा कहा जाता है ।
आपने भ्रान्त सिंह-शावक की वह कहानी सुनी होगी, जिसमें कहा गया है कि एक सिंह-शिशु किसी प्रकार भेड़ों में आकर मिल गया और उनके चिर सहवास से अपने आपको भी भेड़ समझने लगा। सौभाग्य से एक दिन जब उसे अपने ही सजातीय सिंह का दर्शन हुआ, और उसकी गर्जना सुनी, तो वह भी उसी प्रकार भयभीत होकर भागा, जिस प्रकार अन्य भेडें भयभीत होकर भागीं।
कहा जाता है, तब वन के राजा सिंह ने भेड़ बने सिंह-शिशू से कहा-“अरे नादान ! तू क्यों डरता है, तू क्यों भयभीत होता है ? तुझमें और मुझमें क्या भेद है ? मैं हूँ सो तू है और तू है सो मैं हूँ, फिर भला भय किस बात का ?"
सिंह-शिशु को सिंह की इस बात पर विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि उसे अपने स्वरूप का ज्ञान एवं अपनी शक्ति का भान ही नहीं था। बहुत विश्वास दिलाने पर भी जब सिंह-शिशु को विश्वास नहीं हुआ, तब कहानीकार का कहना है, कि सिंह ने उस सिंह-शिशु को ले जाकर एक नदी के तट पर खड़ा कर दिया और उसकी निर्मल जल-' धारा में उसे अपना प्रतिबिम्ब देखने के लिए कहा और बोला-"देख,
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१३४ | अध्यात्म-प्रवचन तेरा और मेरा एक ही रूप है । तू अपनी अज्ञानता के कारण ही एक साधारण पामर प्राणी बना हुआ है।"
सिंह-शावक ने नदी के जल में जब अपना और सिंह का रूप देखा तो चकित हो गया। उसे अपने मूल स्वरूप का ज्ञान हुआ, तो अपने को भेड़ नहीं, सिंह समझ गया। अब जो सिंह-शावक ने गर्जना की तो वन प्रान्तर गूंज उठा।
तीर्थकर, गणधर और गुरु इस संसार की आसक्ति में आसक्त एवं विश्व के विविध भोगों में मुग्ध आत्मा को भी यही उद्बोधन देते हैं, कि तू अपने स्वरूप को भूल गया है। इसीलिए तू मरणशील न होकर भी अपने आपको मरणशील मानता है। तू दीन-हीन न होकर भी अपने आपको दीन-हीन मान रहा है। देख, बाहर की ओर देखना बन्द कर और जरा अपने अन्दर की ओर देख, अन्दर का पट खुलते ही तुझे दिव्य ज्ञान और अपनी अनन्त शक्ति का भान हो जाएगा। तू किसी प्रकार की चिन्ता मत कर, केवल अपने विवेक के दीपक को प्रज्वलित करने का प्रयत्न कर । यह. विवेक का दीपक क्या है ? सम्यक् दशन एवं सम्यक् श्रद्धान । भेद विज्ञान रूप इस दिव्य भाव को प्राप्त कर तू अजर-अमर परब्रह्म परमात्मा हो सकता है।
भगवान् की वाणी का एक मात्र उद्देश्य यही है, कि आत्मा को अपनी शक्ति की जो विस्मृति हो गई है, उसे दूर कर दिया जाए । सम्यक् दर्शन का उद्देश्य यही है, कि जो असत्य है, जिसकी मूलस्थिति नहीं है, या जिसका कोई वास्तविक स्वरूप ही नहीं है, परन्तु जिसे आत्मा ने अपने अज्ञान के कारण से सब कुछ समझ लिया है, उस भ्रम को दूर करना । जैन-दर्शन कहता है कि सम्यक दर्शन प्राप्त करने का अर्थ यह नहीं है, कि पहले कभी दर्शन नहीं था और अब वह नया उत्पन्न हो गया है । दर्शन को मूलतः उत्पन्न मानने का अर्थ यह होगा, कि एक दिन उसका विनाश भी हो सकता है। सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति का अर्थ किसी नए पदार्थ का जन्म नहीं है, बल्कि सम्यक दर्शन की उत्पत्ति का अर्थ इतना ही है कि वह विकृत से अविकृत हो गया है; वह पराभिमुख से स्वाभिमुख हो गया है, और वह मिथ्या से सम्यक् हो गया है। आत्मा का जो श्रद्धान गुण है, आत्मा का जो दर्शन गुण है, सम्यक और मिथ्या दोनों उसकी पर्याय हैं। मिथ्या दर्शन और सम्यक् दर्शन दोनों में दर्शन शब्द पड़ा हुआ है, जिसका अर्थ है कि दर्शन गुण कभी मिथ्या होता है, तो कभी सम्यक् भी हो
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सम्यग्दर्शनः सत्य-दृष्टि | १३५ सकता है । मिथ्या दर्शन का फल है 'संसार' तथा सम्यक् दर्शन का फल है -'मोक्ष' । किन्तु इतना समझ लेना चाहिए कि दर्शन गुण की उक्त दोनों पर्याय एक साथ नहीं रह सकतीं। जब सम्यक् पर्याय है, तब मिथ्या पर्याय नहीं रहेगी और जब मिथ्या पर्याय है तब सम्यक पर्याय नहीं रह सकती। जहाँ रवि है वहाँ रजनी नहीं रह सकती
और जहाँ रजनी है वहाँ रवि नहीं रह सकता । जिस घट में काम है, वहाँ राम का अधिवास नहीं हो सकता और जिस घट में राम हैं, उस घट में काम का कोई काम नहीं रहता। इसी प्रकार जब दर्शन की सम्यक् पर्याय है, तब उसकी मिथ्या पर्याय नहीं रह सकती। और जब उसकी मिथ्या पर्याय रहती है, तब उसकी सम्यक् पर्याय नहीं रहती । मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है कि वस्तु में उत्पाद और व्यय पर्याय-दृष्टि से रहता है, द्रव्य दृष्टि एवं गुण दृष्टि से नहीं । द्रव्य दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु सत् है, असत् नहीं। क्यों कि जो सत् है, वह तीन काल में भी असत् नहीं हो सकता और जो असत् है वह तीन काल में भी सत् नहीं हो सकता। किन्तु पर्याय-दृष्टि से प्रत्येक वस्तू सत् एवं असत् दोनों हो सकती है। जब आप यह कहते हैं कि मैंने सम्यक् दर्शन प्राप्त कर लिया, तब इसका अर्थ यह नहीं होगा कि पहले आप में दर्शन नहीं था और आज वह नया उत्पन्न हो गया । इसका अर्थ केवल इतना ही है कि आत्मा का जो दर्शन-गुण आत्मा में अनन्त काल से था, उस दर्शन-गुण की मिथ्यात्व पर्याय को त्यागकर आपने उस की सम्यक् पर्याय को प्राप्त कर लिया है । शास्त्रीय परिभाषा में इसी को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि एवं प्राप्ति कहा जाता है। जैन दर्शन कहता है, कि मूलतः कोई नई चीज' प्राप्त करने जैसी बात नहीं है, बल्कि जो सदा से विद्यमान है, उसी को शुद्ध रूप में जानने, पहचानने और देखने की बात है। सम्यक् दर्शन की प्राप्ति का यही अर्थ यहाँ अभीष्ट है ।
__ मैं आपसे कह रहा था कि कोई भी महापुरुष, गुरु अथवा शास्त्र किसी भी साधक में नई बात पैदा नहीं कर सकते, बल्कि जो कुछ है उसी की प्रतीति कराते हैं, जो कुछ विस्मृत है उसी का स्मरण भर करा देते हैं। जो शक्ति अन्दर तो है, परन्तु स्मृति से ओझल हो चुकी है, उसका स्मरण करा देना ही तीर्थकर, गुरु और शास्त्र का काम है । कल्पना कीजिए, आप कहीं बाहर से घूम फिर कर अपने घर
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१३६ | अध्यात्म-प्रवचन
लौटे। घर में प्रवेश करते ही आपने देखा कि वहाँ घोर अन्धकार है, कुछ दीख नहीं पड़ता है, सब शून्य ही शून्य नजर आता है । यद्यपि घर में बहुत सी वस्तुएँ रखी हैं, किन्तु अन्धकार के कारण उनकी प्रतीति नहीं हो पा रही है । घर में सब कुछ रखा है, पर वह सभी अन्धकार में डूब गया है, परन्तु जैसे ही आप दीपक जलाते हैं, तो सारा घर प्रकाश से भर जाता है । अन्धकार उस घर को छोड़कर न जाने कहाँ भाग जाता है । प्रकाश के सद्भाव से आपके घर का अन्धकार ही दूर नहीं भागा, किन्तु उस घर में जो बहुत सो वस्तुएँ हैं, सत्ता होते हुए भी अन्धकार के कारण जिनकी प्रतीति नहीं हो पा रही थी, अब दीपक के प्रभाव और प्रकाश के सद्भाव से उनकी प्रतीति होने लगी है । दीपक के प्रकाश ने किसी नई वस्तु को उत्पन्न नहीं किया, बल्कि पहले से जो कुछ था उसी की प्रतीति करा दी । इसी प्रकार भगवान की वाणी, गुरु का उपदेश और शास्त्र का स्वाध्याय साधक के जीवन में कोई नया तत्व नहीं उड़ेलते, बल्कि जो कुछ ढका हुआ होता है उसी को प्रकट करने में सहायता करते हैं । वे कहते हैं कि साधक ! हम तुम्हारे जीवन में किसी नई वस्तु का प्रवेश नहीं करा सकते, बल्कि जो कुछ तुम्हारे पास है, कुछ ही क्यों, सब कुछ तुम्हारे पास है, किन्तु उसका ज्ञान और भान तुम्हें नहीं है । उस अनन्त सत्ता का ज्ञान एवं भान कराना ही हमारा मुख्य उद्देश्य है । कल्पना कीजिए उस दरिद्र भिखारी की, जिसके घर की भूमि के नीचे अनन्त रत्न - राशि दबी पड़ी है, परन्तु परिज्ञान न होने के कारण ही वह दरिद्र एवं भिखारी बना हुआ है। काश, उस अनन्त रत्न राशि का उसे परिज्ञान हो जाए तो क्या कभी वह दरिद्र, कंगाल और भिखारी रह सकता है ? फिर क्या कभी वह दूसरे लोगों के द्वार-द्वार पर जाकर झूठे टुकड़े माँगता फिरेगा ? मैं समझता हूँ, अपनी अनन्त रत्न - राशि का स्वामी बन कर वह कभी भीख नहीं मांग सकता, क्योंकि उसकी दरिद्रता, सम्पत्ति में बदल जाएगी । तब वह स्वयं भिखारी न बनकर दाता बन जाएगा। जो भिखारी की बात है, वही साधक की भी बात है । आत्मा में सद्गुणों की अनन्त रत्न - राशि भरी हुई है, किन्तु उसका परिज्ञान एवं परिबोध न होने के कारण ही वह संसार के दुःखों की अग्नि में झुलसता रहता है । आत्मा के अन्दर अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान और अनन्त चारित्र की अक्षयनिधि एवं अपार भण्डार भरा पड़ा है, किन्तु इस अल्पज्ञ जीव को उसका परिज्ञान
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सम्यग्दर्शनः सत्य-दृष्टि | १३७ नहीं है। इसीलिए अक्षय एवं अनन्त शक्ति का प्रभु होकर भी यह आत्मा, आज से ही नहीं, अनन्त अनन्तकाल से अपने को दीन-हीन एवं अनाथ समझता चला आया है। संसार में जितना भी दुःख है, वह सब स्वरूप के अज्ञान का है । स्वरूप का सम्यक बोध होने पर, स्वरूप की सम्यक् दृष्टि प्राप्त होने पर किसी प्रकार का दुःख और क्लेश नहीं रहता। ___मैं आपसे सम्यक दर्शन की बात कह रहा था और यह बता रहा था कि साधक-जीवन में सम्यक् दर्शन की कितनी महिमा है, कितनी गरिमा है और उसकी कितनी गुरुता है । सम्यक् दर्शन एक वह दिव्य कला है, जिससे आत्मा स्व और पर के भेद-विज्ञान को अधिगत कर लेता है । सम्यक् दर्शन एक वह कला है, जिसके उपयोग एवं प्रयोग से आत्मा संसार के समस्त बन्धनों से विमुक्त हो जाता है तथा संसार के दुःख एवं क्लेशों से रहित हो जाता है। सम्यक दर्शन की उपलब्धि होते ही यह पता चलने लगता है, कि आत्मा में अपार शक्ति है एवं अमित बल है । जब आत्मा अपने को जड़ न समझकर चेतन एवं परम चेतन समझने लगता है, तब समस्त प्रकार की सिद्धियों के द्वार उसके लिए वुल जाते हैं । जरा अपने अन्दर झाँककर देखो और अपने हृदय की अतल गहराई में उतर कर एक बार दृढ़ विश्वास के साथ यह कहो, कि मैं केवल आत्मा हूँ, अन्य कुछ नहीं । मैं केवल चेतन हूँ, जड़ नहीं । मैं सदा शाश्वत हैं, क्षण-भंगुर नहीं। न मेरा कभी जन्म होता है और न मेरा कभी मरण होता है । जन्म और मरण मेरे नहीं हैं, ये तो मेरे तन के खेल हैं। शरीर का जन्म होता है और शरीर का ही एक दिन मरण होता है । जन्मने वाला और मरने वाला मैं नहीं, मेरा यह शरीर है । जिसने अपनी अध्यात्म-साधना के द्वारा अपने सहज विश्वास और सहज बोध को प्राप्त कर लिया, वह यही कहता है कि मैं प्रभु है, मैं सर्वशक्तिमान हैं, मैं अनन्त हैं, मैं अजर, अमर एवं शाश्वत है। वस्तुतः मैं आत्मा है, यह विश्वास करना ही सम्यक दर्शन है। अपनी सत्ता की प्रतीति होना ही अध्यात्म-जीवन की सर्वोच्च एवं सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है। भला आत्म-दर्शन से श्रेष्ठ अन्य हो भी क्या सकता है ?
परन्तु स्पष्ट है कि परम्परावादी व्यक्ति सम्यक् दर्शन का अर्थ कुछ भिन्न ही प्रकार समझता है । वह अपने अन्दर न देखकर बाहर की ओर देखता है । वह कहता है कि मेरु पर्वत की सत्ता पर विश्वास
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१३८ | अध्यात्म-प्रवचन करना ही सम्यक् दर्शन है, वह कहता है कि सूर्य और चन्द्रमा की सत्ता पर विश्वास करना ही सम्यक् दर्शन है, वह कहता है कि सरिता और सरोवरों का जैसा वर्णन किया गया है, उन्हें वैसा मानना ही सम्यक् दर्शन है। माना कि यह सब कुछ प्रकृति के बाह्य रूप की प्रतीति सम्यक् दर्शन का एक व्यावहारिक अंग तो हो सकता है, किन्तु निश्चय दृष्टि में समग्र एवं अखण्ड सम्यक् दर्शन नहीं हो सकता । मेरा अभिप्राय यह है कि सम्यक् दर्शन को मात्र व्यवहार की तुला पर तोलने वाले, सम्यक दर्शन के मूल्य का वास्तविक अकन नहीं कर सकते । सम्यक् दर्शन व्यवहार की वस्तु नहीं, निश्चय की वस्तु है । वस्तु स्थिति यह है कि सम्यक् दर्शन को किसी नदी, समुद्र, देवी, देवता, पर्वत, चाँद, सूर्य आदि की धारणा-विशेष के साथ बाँध देना, जैन-दर्शन की मूल प्रक्रिया से अलग हट जाना है। जैन-दर्शन का कथन है कि सबसे पहले आत्म-स्वरूप का बोध होना चाहिए। सबसे पहले अपने आपको समझने का प्रयत्न होना चाहिए। आत्म-सत्ता का सम्यक विश्वास और आत्म-सत्ता का सम्यक बोध ही वास्तविक एवं मौलिक सम्यक दर्शन है । पर्वत, नदी आदि का परिज्ञान न होने पर भी आत्मशुद्धि होने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती, परन्तु अपने को न समझने से सब कुछ गड़बड़ा जाता है । अपने को न समझने से सब कुछ जानकर भी, सब कुछ शून्य ही शून्य है। आत्मा के जानने पर सब कुछ जाना जा सकता है, और आत्मा को न जानकर एवं न समझकर समग्र भौतिक विश्व का ज्ञान भी व्यर्थ है । सम्यक दर्शन की साधना एक वह साधना है, जिसके द्वारा साधक अपने आपको समझने का सफल प्रयत्न करता है। मेरु पर्वत कैसा है, उसकी कितनी ऊँचाई है और उसकी कितनी गहराई हैइसकी अपेक्षा यह समझने का प्रयत्न करो, कि आत्मा क्या है, उसकी ऊँचाई कितनी है और उसकी गहराई कितनी है ? समुद्र की गहराई का परिज्ञान उस व्यक्ति को नहीं हो सकता, जो छलांग लगाकर उसे पार करने का प्रयत्न करता है । उसको अतल गहराई का परिज्ञान उसी को हो सकता है, जो कदम-कदम आगे रखकर उसमें प्रवेश करता जाता है। किसी भी पर्वत पर, किसी भी नदी पर, किसी भी सागर पर और किसी भी ग्रह एवं नक्षत्र पर विश्वास करने का अर्थ होता है-स्व से भिन्न जड़ वस्तु पर विश्वास करना। जड़ वस्तु पर विश्वास अनन्त-अनन्त काल से रहा है, किन्तु फिर भी सम्यक् दर्शन की उपलब्धि क्यों नहीं हुई ? स्पष्ट ही इसका फलितार्थ यही निक
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सम्यग्दर्शन : सत्य-दृष्टि | १३६
लता है, कि जड़-सत्ता पर विश्वास करना सम्यक् दर्शन नहीं, बल्कि चैतन्य -सत्ता पर विश्वास करना ही सम्यक् दर्शन है । सत्य तो यह है कि जब तक कोई स्व को नहीं समझ पाता है, तब तक यथार्थ में पर को भी वह समझ नहीं पाता है । जिस घट में सम्यक् दर्शन की दिव्य ज्योति जगमगाती है, वही अपने जीवन के घनघोर अन्धकार को चीर कर प्रकाश - किरण के समान अपने आपको आलोकित कर सकता है तथा अपने साथ-साथ पर को भी आलोकित कर सकता है ।
मिथ्या-दृष्टि आत्मा दुःख आने पर घबरा जाता है और सुख आने पर फूल जाता है, किन्तु सम्यक् दृष्टि आत्मा सुख आने पर फूलता नहीं है और दुःख आने पर घबराता नहीं है । अनन्त ज्योति का अधिष्ठान यह दिव्य आत्मा अपनी दिव्यता को अधिगत करके धन्य हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है । जो कुछ पाना था, पा लिया । उसके लिए फिर कुछ अन्य पाना शेष नहीं रहता । कहा जाता है कि एक युवक ने बहुत बड़े तब की साधना करके किसी देवता को प्रसन्न कर लिया । देवता उस युवक की भक्ति पर प्रसन्न होकर बोला- “बोलो, क्या चाहते हो ? तुम्हारी क्या कामना है ? तुम्हारी क्या अभिलाषा है ? जो कुछ तुम माँगोगे वही मैं तुम्हें दे दूंगा ।" युवक ने सोचाबड़ा सद्भाग्य है मेरा, कि वर्षों की साधना के बाद देवता प्रसन्न हुआ है और वह स्वयं वरदान माँगने के लिए मुझसे कहता है इस क्षण से बढ़कर मेरे जीवन में अन्य कौन-सा क्षण आएगा । निश्चय ही मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ कि देवता मुझ पर प्रसन्न हुआ है । हाथ जोड़कर, नतमस्तक होकर विनम्र वाणी में वह बोला - " आपकी प्रसन्नता और फिर वरदान देने की इच्छा, इससे बढ़कर मेरे जीवन में अन्य क्या हो सकता है। यदि आप प्रसन्न होकर वरदान दे रहे हैं, तो मैं आपसे केवल एक हीं वरदान चाहता हूँ, कि इस असीम धरती पर जहाँ कहीं भी मैं पैर से ठोकर मारू, वहीं पर खजाना निकल आए ।" भला जिस व्यक्ति को देवता का ऐसा वरदान उपलब्ध हो जाता है, फिर उसे जेब में पैसा रखने की क्या आवश्यकता है ? फिर उसे बैंक का चैक रखने की क्या जरूरत है ? मेरे विचार में तो उस व्यक्ति को अपने शरीर पर सोने और चांदी के आभूषणों के भार लादने की भी आवश्यकता नहीं है । जिसके कदम-कदम पर खजाना है, उसे फिर दुनिया की किस चीज की आवश्यकता शेष रह जाती है ? यह एक रूपक है, एक कथानक है, जिसके मर्म को समझने का प्रयत्न कीजिए ।
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१४० | अध्यात्म-प्रवचन
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संसार के प्रत्येक साधक की भी वही स्थिति है जो उस युवक की थी, संसार का प्रत्येक साधक साधना करता है- सिद्धि प्राप्त करने के लिए | अध्यात्म भाव की साधना करते-करते जब स्वयं अपना आत्म देवता तुष्ट और प्रसन्न हो जाए और उसे सम्यक् दर्शन की अक्षय निधि मिल जाए तो भला उस अध्यात्म साधक को फिर और क्या चाहिए ? मेरे विचार में जिस साधक को सम्यक् दर्शन की अक्षय निधि मिल गयी, उसे सब कुछ मिल गया, उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया । अनन्त ज्योति का खजाना पाकर किस का जीवन ज्योतिर्मय नहीं हो जाएगा । उस अनन्त ज्योति के प्रकाश में जीवन के किसी भी कोने में अन्धकार नहीं रह सकता । सम्यक् दर्शन की अनन्त रत्न - राशि उपलब्ध होने पर जीवन में दरिद्रता कैसे रह सकती है ? एक भक्त afa प्रभु से प्रार्थना करता है - "प्रभो मैं आपकी स्तुति करता हूँ, मैं आपकी प्रार्थना करता हूँ, किन्तु वह इसलिए नहीं कि आप मुझे धन दें, जन दें और मृदु भाषिणी सुन्दरी दें । ये तो संसार के तुच्छ फल हैं, इनकी कामना और भावना मेरे हृदय में नहीं है । पहली बात तो यह है, कि आपकी स्तुति का और आपके गुणोत्कीर्तन का मैं कोई प्रतिदानचाहता ही नहीं; यदि फिर भी आप प्रति फल के रूप में 'कुछ देना ही चाहें, तो मैं केवल इतना ही चाहूँगा कि एक बार मुझे आप अपने रहने का धाम दिखला दें और अक्षय दर्शन प्रदान कर दें । अन्य कुछ भी मुझे नहीं चाहिए ।" मैं पूछता हूँ आप लोगों से कि कुछ न माँग कर भी क्या छोड़ा है ? सभी कुछ तो माँग लिया । उसने अपने जीवन के महा-प्रासाद का सबसे पहला सोपान या द्वार सम्यक् दर्शन माँग लिया और अन्तिम शिखर मोक्ष भी माँग लिया । फिर बतलाइए जीवन में अब क्या कुछ पाना शेष रह गया ? यह एक कवि की भाषा है एवं काव्य शैली है । वस्तुतः सम्यक् दर्शन किसी से देने लेने जैसी चीज नहीं है । कवि की इस अलंकृत भाषा का यही अभिप्राय है कि जिसने अपने आत्मभाव में सम्यक् दर्शन प्राप्त कर लिया, उसने सभी कुछ प्राप्त कर लिया ।
मैं आपसे सम्यक् दर्शन की अक्षय निधि की बात कह रहा था । जिस किसी भी भव्य आत्मा ने सम्यक् दर्शन के शान्त एवं सुन्दर सरोवर में एक बार भी डुबकी लगा ली है, तो फिर यह निश्चित है उसके जीवन के दुःख एवं क्लेशों का अन्त भी शीघ्र ही हो जाएगा ।
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सम्यक् दर्शनः सत्य दृष्टि | १४१ एक भक्त कवि ने आत्म-गुणों की स्तुति करते हुए कहा है, कि “सम्यग दर्शन अन्य समस्त गुणों से श्रेष्ठ इसलिए है कि यह जीवन के विकास का मूल आधार है। सम्यक् दर्शन के सद्भाव में ही ज्ञान, सम्यक् ज्ञान हो जाता है और चारित्र, सम्यक् चारित्र हो जाता है।" आप लोग इस बात का निश्चय कर लें, कि यदि जीवन में सम्यक् दर्शन है तो सब कुछ है और यदि सम्यक् दर्शन नहीं है, तो कुछ भी नहीं है । अध्यात्म-शास्त्र में सम्यक् दर्शन को चिन्तामणि रत्न कहा गया है। चिन्तामणि रत्न का अर्थ यही है कि जो कुछ संकल्प हो, वह पूर्ण हो जाए। चिन्तामणि रत्न एक भौतिक पदार्थ है, वह आज है, कल हाथ से निकल भी निकल सकता है। किन्तु सम्यक् दर्शन तो एक ऐसा आध्यात्मिक रत्न है, जो एक बार परिपूर्ण शुद्ध रूप से प्राप्त होने पर फिर कभी जाता ही नहीं। मेरा अभिप्राय क्षायिक सम्यक् दर्शन से है । यह एक ऐसी शक्ति है, जिसके प्राप्त होने पर संसार के अन्य किसी भौतिक पदार्थ की अभिलाषा रहती ही नहीं है। कल्पना कीजिए-एक जन्मान्ध व्यक्ति है। उसे कुछ भी दीखता नहीं है। परन्तु पुण्योदय से यदि उसे नेत्र ज्योति प्राप्त हो जाए, तो उसे कितना हर्ष होगा, उसे कितनी प्रसन्नता होगी
और उसे कितनी खुशी होगी ? उसकी प्रसन्नता और खुशी का कोई पार न होगा । अन्धे व्यक्ति को सहसा नेत्र-ज्योति उपलब्ध होने पर जितना हर्ष होता है, उससे कहीं अनन्त गुण अधिक हर्ष एवं आनन्द उस व्यक्ति को होता है, जिसने अपना अनन्त जीवन मिथ्यात्व के घोर अन्धकार में व्यतीत करने के बाद प्रथम बार सम्यक् दर्शन की निर्मल ज्योति को देखा है ।
साधक-जीवन में कभी सुख आता है, तो कभी दुःख भी आता है । कभी अनुकूलता आती है तो कभी प्रतिकूलता भी आती है। कभी हर्ष आता है तो कभी विषाद भी आता है। जीवन के गगन में सुखदुःख के मेघों का संचार निरन्तर होता ही रहता है । ऐसा नहीं हो सकता, कि जीवन में सदा सुख ही सुख रहे, कभी दुःख न आए। और यह भी सम्भव नहीं है, कि जीवन सदा दुःख की घनघोर घटाओं से ही घिरा एवं भरा रहे । सुख भी आता है और दुःख भी आता है । साधक का कार्य है सुख एवं दुःख में संतुलन रखने का । सच्चा साधक वही है जो कभी दुःखों से व्याकुल नहीं होता और जो कभी सुखों में मस्त नहीं होता । साधक जीवन की यह स्थिति तभी होगी, जब कि
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१४२ | अध्यात्म प्रवचन उसे सम्यक् दर्शन की अमल ज्योति प्राप्त हो जाएगी। सम्यक् दर्शन के उस दिव्य आलोक में बाह्य दुःखों के बीच भी आन्तरिक सुखों के अजस्र स्रोत फुटेंगे। जीवन में कदम-कदम पर आध्यात्मिक आनन्द एवं शान्ति की अनुभूति होगी। सम्यक-दृष्टि आत्मा नरक में भी सूख एवं शान्ति का अनुभव करता है । इसके विपरीत मिथ्या-दृष्टि आत्मा स्वर्ग में जाकर भी परिताप एवं विलाप करता है । सम्यक्-दृष्टि आत्मा प्रतिकुलता में भी अनुकूलता का अनुभव करता है और मिथ्यादृष्टि आत्मा अनुकूलता में भी प्रतिकूलता का अनुभव करता है। सम्यक् दृष्टि आत्मा जहाँ कहीं भी रहता है सदा सुखी, शान्त एवं प्रसन्न होकर ही रहता है ।
आपने भगवान महावीर के साधक जीवन की उस कहानी को सुना होगा, जिसमें बताया गया है, कि एक संगम नाम का देव उनके साधना-बल एवं धैर्यबल की परीक्षा लेने के लिए स्वर्ग से चलकर मानवों की धरती पर आया था। उस संगम देव ने परम साधक, अपनी साधना में अचल हिमाचल के समान स्थिर तथा विचार और विवेक में सागर से भी गम्भीर भगवान महावीर को कितना भयंकर कष्ट दिया, कितना भयंकर दुःख दिया। उन कष्ट और दुःखों की दुःखद कहानी जब कभी पढ़ने और सुनने को मिलती है, तो हृदय प्रकम्पित हो जाता है । जो घटना सुनने में भी इतनी भयंकर है, तो जिस व्यक्ति पर जब वह घटित हुई होगी, तब उसका दृश्य कितना भयंकर होगा एवं कितना भयावह होगा ? कष्ट और दुःखों की यह परम्परा दो-चार घन्टों में अथवा दो चार दिनों में ही परिसमाप्त नहीं हो सकी, बल्कि निरन्तर छह मास तक चलती रही। छह महीनों तक लगातार वह भगवान को कष्ट देता रहा, किन्तु भगवान के शरीर का एक रोम भी उन कष्टों और दुःखों से प्रभावित एवं प्रकम्पित नहीं हो सका। कथाकार कहता है कि-अन्ततः दुःख सहने वाले की अपेक्षा, दुःख देने वाला हो विचलित हो गया । जिस जीवनज्योति को संगम बुझाना चाहता था, वह बुझ न सकी, बल्कि और भी अधिक वह ज्योतिर्मय एवं आलोकमय सिद्ध हुई । स्वर्ण जैसे अग्नि में तपकर और अधिक चमकता एवं दमकता है, वैसे ही भगवान महावीर का साधक-जीवन उस भयंकर कष्ट एवं दुःख की अग्नि में तप कर और भी अधिक चमका और दमका । यह सब कुछ कैसे हुआ,
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सम्यक् दर्शन : सत्य-दृष्टि ! १४३ और क्यों हुआ ? संगम देव, देव होकर भी, अपरिमित भौतिक शक्ति का स्वामी होकर भी अध्यात्म साधक वर्धमान को साधना-पथ से विचलित क्यों नहीं कर सका? यह प्रश्न जब कभी मेरे मन और मस्तिष्क में उठ खड़े होते हैं, तब मैं समाधान पाने का प्रयत्न करता है, कि आखिर ऐसी कौन सी बात थी, जिससे कि एक देव, एक मानव से पराजित हो गया, पराजित ही नहीं हुआ, बल्कि, वह अपने कृत्यों से स्वयं लज्जित भी हुआ। मैं इसे अध्यात्म भाषा में अशुभ पर शुभ की विजय कहता हूँ। भौतिकता पर आध्यात्मिकता की विजय कहता है । परन्तु मूल प्रश्न यह है कि किसी भी देव-शक्ति पर मानवशक्ति की विजय का अर्थ यह है, कि निश्चय ही भगवान में कोई ऐसा विशिष्ट गुण था, जो अपने आप में साधारण न होकर असाधारण था। वह गुण अन्य कुछ नहीं, वह गुण है समता का एवं समत्व योग का। समता एवं समत्व योग जीवन की एक ऐसी कला है, जिसके प्राप्त हो जाने पर, जीवन-विकास के समस्त भव्य द्वार खुल जाते हैं। वर्धमान के जीवन में इस समता-गुण का चरम विकास एवं चरम परिपाक हो चुका था। जिसके जीवन के कण-कण में समता गुण परिव्याप्त हो जाए, उसे एक देव तो क्या, हजार-हजार देव भो आकर स्वीकृत पथ से विचलित नहीं कर सकते। समता के महासागर में निमज्जन करने वाले साधकों के जीवन में किसी भी प्रकार का ताप, सताप और परिताप नहीं आ सकता। समताधारी साधक अपने ताप से द्रवित नहीं होता, किन्तु दूसरे के ताप से वह द्रवित हो जाता है। संगम का ताप, संताप और परिताप वर्धमान को उनकी अध्यात्मसाधना से विचलित नहीं कर सका। वे अपने परिताप से द्रवित नहीं हुए, अपितु संगम के अपने ही कर्मोदय-जन्य भावी दु-खों को विचारणा से द्रवित हो गए। उस क्षमा के अमर देवता के रोम-रोम से संगम के लिए क्षमा के स्वर मुखरित हो गए। विषमता हार गई और समता जीत गई। सम्यक दर्शन की अमर ज्योति के समक्ष भौतिक बल का अन्धकार कब तक और कैसे ठहर सकता है? इस घटना पर यदि आप गम्भीरता के साथ विचार करेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि हर साधक वर्धमान है, यदि उसके हृदय में समता का अमृत भरा है तो।
और इस संसार का हर इन्सान संगम देव है, यदि उसके जीवन में विषमता और मिथ्यात्व का अंधकार है तो।।
जो आत्मा मिथ्या दृष्टि होता है, जिसे अपने आध्यात्मिक स्वरूप
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१४४ | अध्यात्म-प्रवचन
का भान नहीं है, अथवा जिसने आध्यात्मिक प्रकाश को प्राप्त नहीं किया है, वह व्यक्ति दुःख, कष्ट और विपत्ति की ज्वाला में घास, लकड़ी और कागज की तरह जलकर राख हो जाता है तथा उसके जीवन पर दोषों के काले धब्बे पड़ जाते हैं । उसको कष्टों से मुक्ति नहीं मिल पाती । जो अपने स्वरूप की उपलब्धि नहीं कर पाते, वासना में फँसे रहते हैं, वे सुख-दुःख की अग्नि में पड़कर और भी अधिक मलिन बन जाते हैं । मिथ्या-दृष्टि आत्मा को दुःख ही नहीं जलाता, सुख भी उसे गला डालता है । जिसके मन में समता नहीं है, उस विषमताधारो व्यक्ति को दुःख भी परेशान करता है और सुख भी उसे हैरान करता है । कष्ट बुरे नहीं होते, वे लोगों को जगाने का काम करते हैं । जिस इन्सान की जिन्दगी गफलत में है, आफत उसे आकर जगा देती है । दुःख संसार का एक बहुत बड़ा शिक्षक है, वह यह बोध - पाठ सिखाता है, कि जो कुछ तुमने किया वही तो तुम पा रहे हो। तुम्हारे अतीत का कर्म ही तो आज फलीभूत हो रहा है । जिस समय तुमने यह अशुभ कर्म किया था, उस समय तुमने यह विचार क्यों नहीं किया, कि आखिर इसका फल एक दिन मुझे भोगना ही होगा । संसार का यह एक शाश्वत और अटल नियम है, कि जो बोता है वही काटता है, जो देता है वही लेता है और जो करता है वही भोगता है । इस नियम के अनुसार सम्यक् - दृष्टि आत्मा दुःख और कष्ट आने पर सोचता है, कि मेरा किया हुआ ही तो मैं भोग रहा हूँ, मेरा दिया हुआ ही तो मैं ले रहा हूँ और मेरा बोया हुआ ही तो मैं काट रहा हूँ । ये दुःख एवं कष्ट के बीज जब मैंने अपने जीवन की धरती पर बोए हैं, तब उसके काँटेदार वृक्षों के कटुफल भी मुझे ही भोगने हैं । यदि मुझे मेरे जीवन में कहीं से भी, किधर से भी और किसी से भी दुःख एवं कष्ट मिल रहा है, तो इससे मैं दुःखी क्यों बनूं ? क्या हैरान एवं परेशान होने से मेरी जिन्दगी की राह में आने वाली आफत दूर हो सकती है ? नहीं, वह दूर नहीं होगी । कृतकर्म hi और उसके शुभ एवं अशुभ फल को समभाव के साथ भोग लेना ही सम्यक् दृष्टि का परम कर्तव्य है, जिससे कि भविष्य के लिए फिर उस कर्म का बन्ध न हो। यह अध्यात्म दृष्टि बिना सम्यक् दर्शन के प्राप्त नहीं हो सकती है । इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि क्या सोचता है ? वह सोचता है, कि इस व्यक्ति ने मुझे सुख दिया है, उस व्यक्ति ने मुझे दुःख दिया है । इस व्यक्ति ने मुझसे प्रेम किया है, उस व्यक्ति ने
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सम्यक् दर्शनः सत्य-दृष्टि | १४५
मुझ से घृणा एवं नफरत की है। इसने मुझे दिया है और उसने मुझसे छीना है । इस प्रकार के द्वैतात्मक विविध विकल्प मिथ्या दृष्टि के मानस के रेगिस्तान में तूफान बनकर उठते रहते हैं । सुख देने वाले पर वह राग करता है और दुःख देने वाले से वह द्व ेष करता है । प्यार करने वाले से वह प्यार करता है और नफरत करने वाले से वह नफरत करता है । इसलिए जिन्दगी का प्यार भी उसे बाँधता है और जिन्दगी की नफरत भी उसे बाँधती है । न उसे प्यार में सुख है और न उसे नफरत में सुख है । क्योंकि मिथ्या दृष्टि आत्मा मूल उपादान को नहीं पकड़ता, वह बाह्य निमित्त को पकड़ता है । इसके विपरीत सम्यक् दृष्टि आत्मा मूल उपादान को पकड़कर चलता है, बाह्य निमित्त को पकड़ने का वह प्रयत्न नहीं करता । इसीलिए उसे अपनी जिन्दगी की राह पर चलते हुए न किसी का प्यार पकड़ता है, और न किसी की नफरत ही रोक सकती है। संसार का सुख उसे बाँध नहीं सकता और संसार का दुःख उसे रोक नहीं सकता । अनुकूलता का वातावरण उसे भुलावा नहीं दे सकता और प्रतिकूलता का वातावरण उसे बहका नहीं सकता । प्यार और नफरत, सुख और दुःख तथा अनुकूलता और प्रतिकूलता - इन समस्त प्रकार के द्वन्द्वों से, विकल्पों से और अच्छे एवं बुरे विकारों से वह दूर, बहुत दूर चला जाता है, वह ऊँचा और बहुत ऊँचा उठ जाता है, वह गहरा और बहुत गहरा उतर जाता है। उसके जीवन की इस दूरी को, ऊँचाई को और गहराई को दुनिया की कोई भी ताकत चुनौती नहीं दे सकती । इसीलिए मैं कहता हूँ, सुख और दुःख दोनों हमारे जीवन को मोड़ देने का कार्य करते हैं । ज्ञानी के जीवन में यदि सुख आता है, तो वह भी उसे कुछ शिक्षा दे जाता है, यदि दुःख आता है तो वह भी उसे शिक्षा दे जाता है । सुख और दुःख दोनों साधक के जीवन के शिक्षक हैं, बल्कि में तो इससे भी आगे एक बात और कहता हूँ कि सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक योग्य शिक्षक है । सुख में फंसा हुआ भक्त कभी अपने प्रभु को विस्मृत भी कर देता है । किन्तु दुःखग्रस्त भक्त एक क्षण के लिए भी अपने प्रभु को विस्मृत नहीं करता है । बतलाइए, जो अपने आराध्य प्रभु को भुलाये वह अच्छा है अथवा जो प्रभु का स्मरण कराता है वह अधिक अच्छा है ? धर्मराज युधिष्ठिर की माता कुन्ती ने एक बार श्रीकृष्ण से यही वरदान माँगा था कि मुझे सुख मत दीजिये, मुझे दुःख ही दीजिये । सुख में मैं आपको भूल सकती हूँ किन्तु दुख के क्षणों में आपको कभी नहीं भूल सकूंगी ।
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१४६ / अध्यात्म प्रवचन
परन्तु सम्यक् दृष्टि का जीवन तो एक वह जीवन है, जो संसार के दुःख को भी पी जाता है और सुख को भी । सुख और दुःख दोनों का विषपान करके वह उस शुभंकर शिव के समान अचल, अडोल और अडिग रहता है, जो अपने मन एवं मस्तिष्क पर न सुख का प्रभाव पड़ने देता है और न दुःख का ही अंकन होने देता है। सम्यक दृष्टि जीवन की यह सबसे ऊँची कला है। जिस व्यक्ति ने सम्यक दर्शन के अमर प्रकाश को प्राप्त कर लिया, वह सुख और दुःख दोनों की स्थिति में चमकता रहता है।
आपने राजा श्रेणिक के जीवन की कहानी पढ़ी होगी, यदि नहीं पढ़ी है, तो किसी से सुनी होगी । वह भगवान महावीर का परम भक्त था। भगवान महावीर के प्रति उसके मन में अगाध और अथाह आस्था थी । वह भगवान को अपना परम आराध्य समझता था। उसे सम्यकदर्शन की वह अमर-ज्योति प्राप्त हो चुकी थी, जिसके समक्ष स्वर्ग के भी सुख तुच्छ थे और नरक के भयंकर दुःख भी उपेक्षणीय थे। सम्यक दर्शन की अमर ज्योति जिस में प्रज्वलित हो जाती है, उस साधक के मन को न स्वर्गों के रंगीन सुख लुभा सकते हैं और न नरक के दुःखों की भयंकर आग तपा सकती है। राजा श्रेणिक अपने कृत कर्मों के कारण नरक में गया, किन्तु नरक के दुःख एवं कष्ट उसे प्रभावित नहीं कर सके। सम्यक दर्शन की उपलब्धि के समक्ष संसार के सख और दःख उपेक्षणीय हो जाते हैं। यही स्थिति राजा श्रेणिक के जीवन की थी । राजा श्रेणिक के ही जीवन की क्या, प्रत्येक सम्यक दृष्टि के जीवन की यही रामकहानी है। यदि अध्यात्म-दृष्टि प्राप्त नहीं हुई है, तो उस आत्मा का दुःख में तो पतन होता ही है, किन्तु सुख में भी उसका पतन हो जाता है। मैं तो यह कहूँगा कि जिस आत्मा को सम्यक् दर्शन प्राप्त हो चुका है, उसके लिए नरक भी स्वर्ग है । किन्तु मिथ्या-दृष्टि के लिए स्वर्ग भी नरक से बढ़कर है। क्योंकि सम्यक दृष्टि आत्मा ऊर्ध्वमुखी होता है, जब कि मिथ्या-दृष्टि आत्मा अधोमुखी होता है।
बहुत से लोग दिन और रात अध्यात्म ग्रंथों का पारायण एवं पाठ करते रहते हैं, किन्तु फिर भी उनकी दृष्टि में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । याद रखिए, संसार के किसी भी ग्रंथ से, किसी भी पुस्तक से और संसार की किसी भी वाणी से अध्यात्म-दृष्टि प्राप्त नहीं हो सकती । दुनिया की किसी भी पोथी में यह ताकत नहीं है, कि वह
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सम्यक् दर्शनः सत्य- दृष्टि | १४७ हमारे मानस के अन्धकार को दूर कर सके । जब कभी भी दृष्टि प्राप्त होती है, जब कभी भी विवेक एवं बोध प्राप्त होता है, तब अपनी आत्मा के जागरण से ही प्राप्त होता है । आत्मा के जागरण का क्या अर्थ है ? मिथ्या-दृष्टि से सम्यक दृष्टि होना, मिथ्या दर्शन मिट कर सम्यक दर्शन प्राप्त होना । सम्यक दर्शन प्राप्त होते ही सहज दृष्टि एवं सहज बोध प्राप्त हो जाता है और जब मनुष्य की दृष्टि बदल जाती है, तब उसके लिए सारी सृष्टि ही बदल जाती है। इसीलिए कहा गया है कि सृष्टि को बदलने से पहले अपनी दृष्टि को बदलो । जिस व्यक्ति की दृष्टि बदल चुकी है उसके लिए संसार में कहीं पर भी, किसी भी स्थिति में प्रतिकूलता नहीं रहती, वह सर्वत्र अनुकूलता की ही अनुभूति करता है । सम्यक दृष्टि आत्मा मिथ्या शास्त्र को पढ़कर भी उसे सम्यक् रूप में परिणत कर लेता है। इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि आत्मा सम्यक् शास्त्र को पढ़कर भी मिथ्या रूप में परिणत करता है । यदि कोई व्यक्ति अपनी सृष्टि में परिवर्तन करना चाहता है, तो सबसे पहले उसे अपनी दृष्टि में परिवर्तन करना चाहिए। देखिए, सम्यक्दृष्टि और मिथ्या दृष्टि दोनों ही इस संसार को देखते हैं और इस संसार में रहते हैं । परन्तु दोनों के देखने और रहने में बड़ा अन्तर है । दोनों के जीवन में एक ही प्रकार का ऐश्वर्य और सम्पत्ति होने पर भी दृष्टि का भेद होने से उनके उपभोग एवं प्रयोग में बड़ा अन्तर पैदा हो जाता है । इसलिए साधक के जीवन में दृष्टि का बड़ा महत्व है । समाज और राष्ट्र में रहते हुए भी सम्यक् दृष्टि अपने अध्यात्मवादी उत्तरदायित्व को भली-भांति समझता है, जब कि मिथ्या दृष्टि आत्मा परिवार, समाज और राष्ट्र में रह कर उसकी मोह-माया एवं उसके सुख-दुःख के चक्रों में फँस जाता है । अपने परिवार का पालन सम्यक दृष्टि आत्मा भी करता है और मिथ्या दृष्टि आत्मा भी करता है, किन्तु दोनों के दृष्टिकोण में बड़ा अन्तर है । सम्यक् दृष्टि आत्मा समता के आधार पर अपने परिवार का पालन-पोषण करता है, किन्तु मिथ्या-दृष्टि आत्मा का आधार विषमता होता है । सम्यक् दृष्टि आत्मा संसार से सुख-दुःखात्मक भोग को भोगते हुए भी अपनी वैराग्य भावना के आधार पर भोगों के प्रति उदासीन बना रहता है, जब कि मिथ्या दृष्टि आत्मा अपनी आसक्ति के कारण उन सुखदुःखात्मक भोगों में रच-पच जाता है । सम्यक् दृष्टि और मिथ्या दृष्टि में एक बहुत बड़ा भेद और भी है। देखिए, सम्यक दृष्टि भी
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१४८ | अध्यात्म-प्रवचन अपने घर में रहता है, और मिथ्यादृष्टि भी अपने घर में रहता है, किन्तु दोनों की दृष्टि में बड़ा अन्तर है । सम्यक्दृष्टि समझता है, कि जिस घर में मैं रह रहा हूँ, यहाँ रहना ही मेरा उद्देश्य नहीं है, एक दिन इस घर को छोड़कर जाना होगा। इस घर के समस्त वैभव और विलास को छोड़ना होगा। परिवार, समाज और राष्ट्र के ये संयोग एक दिन अवश्य ही वियोग में बदल जाएँगे। जब संयोग को वियोग में बदलना है, तो फिर इस घर को मैं अपना घर क्यों समझं, और इस घर के वैभव और विलास पर अपनी ममता की मुद्रा क्यों लगाऊँ ? जब संयोग आया है, तो वियोग भी अवश्य आएगा। यह विवेक-दृष्टि ही वस्तुतः सम्यक् दर्शन है । इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि आत्मा क्या सोचता है ? वह सोचता है कि यह घर मेरा है, इस घर के वैभव और विलास सब मेरे हैं। परिवार और समाज मेरा अपना है। वह मिथ्या दृष्टि आत्मा संसार के संयोग को तो देखता है, किन्तु उसके अवश्यंभावी वियोग को वह देख नहीं पाता, अथवा देख कर भी उस पर विश्वास नहीं कर पाता। इसलिए संसार की प्रत्येक वस्तु पर, फिर भले ही वह वस्तु चेतन हो अथवा अचेतन, सजीव हो अथवा अजीव, सब पर वह अपनी ममता की मुद्रा लगाता चला जाता है । यही संसार का सबसे बड़ा बन्धन है और यही संसार का सबसे बड़ा मिथ्यात्व है। सम्यक दृष्टि आत्मा अपने जीवन रूप घर में स्वामी की तरह आता है, स्वामी की तरह रहता है, और स्वामी की तरह ही समय पर इस घर से विदा भी हो जाता है । स्वामी से मेरा तात्पर्य यह है, कि सम्यक दृष्टि आत्मा घर के उस स्वामी के समान स्वतन्त्र होता है, जो कभी भी अपने घर में प्रवेश कर सकता है और चाहे जब अपने घर से बाहर भी निकल सकता है। इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि आत्मा अपने जीवन रूप घर में कैदो के समान आता है, कैदी के समान रहता है और कैदी के समान ही अपने घर से विदा होता है । कोई भी व्यक्ति अपने अपराध के कारण जब कैद में जाता है, तो वहाँ अपनी इच्छा से नहीं जाता, अपनी इच्छा से नहीं रहता और अपनी इच्छा से कैद से निकल भी नहीं सकता । यही स्थिति मिथ्यादृष्टि को होती है। मिथ्यादृष्टि आत्मा अपने घर में रहकर भी बन्धनों से बद्ध है। सम्यक दृष्टि आत्मा में और मिथ्या दृष्टि आत्मा में यह अन्तर उनकी दृष्टि का अन्तर है। मिथ्या दृष्टि आत्मा अपनी जिन्दगी का गुलाम होता है और सम्यक्
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सम्यक् दर्शन : सत्य-दृष्टि | १४६ बादशाह होता है । समान शक्ति दृष्टि के कारण दोनों के जीवन में
दृष्टि आत्मा अपनी जिन्दगी का और समान साधन होने पर भी यह अन्तररेखा पड़ जाती है ।
मैं आपसे कह रहा था, कि अध्यात्मवादी व्यक्ति का जीवन ऊर्ध्वमुखी होता है और भोगवादी व्यक्ति का जीवन अधोमुखी होता है । भोगवादी व्यक्ति इस संसार को भोग की दृष्टि से देखता है और अध्यात्मवादी व्यक्ति इस संसार को वैराग्य की दृष्टि से देखता है । आप लोगों ने अपामार्ग का नाम सुना होगा । यह एक प्रकार की औषधि होती है । संस्कृत भाषा में उसे अपामार्ग कहते हैं और हिन्दी में उसे धाकटा कहते हैं । उस में काँटे भरे रहते हैं । यदि कोई व्यक्ति अपने हाथ में उसकी शाखा को पकड़ कर अपने हाथ को ऊपर से नीचे की ओर ले जाए तो उसका हाथ काँटों से छिलता चला जाएगा, उसका हाथ लहूलुहान हो जाएगा । और यदि वह उस टहनी को पकड़ कर अपने हाथ को नीचे से ऊपर की ओर ले जाए तो उसके हाथ में एक भी काँटा नहीं लगेगा । यद्यपि उसका हाथ नुकीले कांटों के ऊपर से गुजरेगा, तथापि उसके हाथ में काँटे छिदते नहीं हैं । ऊपर से नीचे की ओर आने में हाथ काँटों से छिल जाता है और नीचे से ऊपर की ओर ले जाने में हाथ काँटों से बिंधता नहीं है । यह कितनी विलक्षण बात है ? यह जीवन का एक मर्म भरा रहस्य है । सम्यक् दृष्टि और मिथ्या दृष्टि के जीवन में भी यही सब कुछ घटित होता है। मिथ्या दृष्टि ऊपर से नीचे की ओर अभिमुख होता है - इसलिए वह संसार के सुख-दुःखात्मक अपामार्ग के काँटों से बिध जाता है किन्तु सम्यक् दृष्टि नीचे से ऊपर की ओर चढ़ता है- अतः संसार के अपामार्ग के कांटों से उसे किसी प्रकार की हानि एवं क्षति नहीं होती । यह संसार अपामार्ग के काँटों की झाड़ी के समान है । इसमें सुख दुख के इतने काँटे हैं, कि समस्त झाड़ी काँटों से भरी पड़ी है एवं लंदी पड़ी है । परन्तु संसारी अपामार्ग के पुण्य एवं पाप के तथा सुख एवं दुःख के ये नुकीले काँटे, उन्हें ही बींधते हैं जो अधोमुखी होते हैं तथा जिनकी दृष्टि संसार के भोगों की ओर लगी हुई है। जिसकी दृष्टि ऊर्ध्वमुखी चेतना से हटकर अधोमुखी है वह व्यक्ति संसार और परिवार के सुख-दुःखात्मक हजारों-हजार काँटों में बिंधता रहता है एवं छिलता रहता है । परन्तु जब सम्यक् दृष्टि आत्मा इस संसार और परिवार में रहता है, तब वह ऊर्ध्वमुखी बनकर रहता है जिससे संसार
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१५० | अध्यात्म-प्रवचन
के सुख-दुःखात्मक अपामार्ग के काँटों का उसके अध्यात्म जीवन पर जरा सा भी प्रभाव नहीं पड़ पाता। अध्यात्म-जीवन की यह सबसे बड़ी कला है। अध्यात्म-शास्त्र में जीवन की इस कला को सम्यक् दर्शन कहा गया है। मिथ्या दष्टि आत्मा स्वर्ग में ऊँचे चढ़कर भी नीचे गिरता है और सम्यक दृष्टि आत्मा नोचे नरक में जाकर भी अपने ऊर्ध्वमुखी जीवन के कारण नीचे से ऊँचे की ओर अग्रसर होता रहता है। यह सब कुछ दृष्टि का भेद है, यह सब कुछ दृष्टि का खेल है।
मैं आपसे सम्यक दर्शन और मिथ्या दर्शन की चर्चा कर रहा था। सम्यक् दर्शन का एवं मिथ्या दर्शन का विषय बड़ा गम्भीर है । गम्भीर और गहन होने पर भी यह परम सत्य है, सम्यक् दर्शन को बिना समझे आप अध्यात्मवादी जैन दर्शन की आत्मा को नहीं समझ सकते । आप यह भली भांति जानते हैं कि व्यापार करने में आपको कष्ट उठाना पड़ता है और कितना दुःख झेलना पड़ता है ! व्यापार करने के लिए आपको अपने देश से सुदूर विदेश में जाना पड़ता है। विदेश की यात्रा में और वहाँ रहने में अगणित कष्ट एव दुःखों को अनुभूति आपको होती है, किन्तु धन की प्राप्ति होने पर आप उन समत्र दुःखों एवं कष्टों को भूल जाते हैं, क्योंकि जिस ध्येय के लिए आपने कष्ट उठाया, उस ध्येय की पूर्ति में आप सफल हुए हैं। ध्येय में सफलता प्राप्त होने पर आप अपने समग्र कष्टों एवं दुःखों को भूल जाते हैं । यही स्थिति अध्यात्म जीवन में भी होती है । अध्यात्मवादी व्यक्ति अपने अध्यात्ममय जीवन के जिस उच्चतर लक्ष्य की ओर जब प्रयाण करता है, तब मार्ग में अनेक प्रकार के विघ्न एवं बाधाएँ उपस्थित होती हैं तथा कष्ट एवं दुःख उपस्थित होते हैं, परन्तु लक्ष्य पर पहुँच कर, साध्य की सिद्धि हो जाने पर वह इन सभी प्रकार के कष्ट एवं दुःखों को भूल जाता है। सम्यक् दर्शन की दिव्य ज्योति प्राप्त हो जाने पर अपने समस्त कष्टों को भूल जाता है, बल्कि अधिक सत्य तो यह है, कि वह अपने पथ की बाधाओं को कष्ट समझता ही नहीं है। उसके सामने एक ही रट एवं एक ही धुन रहती है, कि किसी भी प्रकार मैं अन्धकार की सीमा को पार करके अध्यात्म जीवन के दिव्य आलोक में पहँच सकू। इसी आशा और विश्वास के आधार पर अध्यात्म-साधक निरन्तर आगे बढ़ता जाता है । भला विष
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सम्यक् दर्शन : सत्य- दृष्टि | १५१
को छोड़ कर अमृत को कौन ग्रहण नहीं करना चाहता, अन्धकार को छोड़कर प्रकाश को कौन प्राप्त नहीं करना चाहता ? यह विषोपजीबी संसारी आत्मा, जब तक अमृतोपजीवी नहीं बनेगा, तब तक सम्यक् दर्शन का दिव्य आलोक इसके जीवन के प्रांगण में प्रवेश नहीं करेगा । मिथ्या दर्शन विष है, इसीलिए वह आत्मा का अहित करता है । सम्यक् दर्शन अमृत है, इसीलिए वह आत्मा का हित करता है ।
एक बार अकबर ने अपने मंत्री बीरबल से कहा - " बीरबल ! आज रात्रि को मैंने एक बड़ा विचित्र स्वप्न देखा है । जीवन में स्वप्न बहुत देखे हैं, किन्तु इतना विचित्र स्वप्न आज तक नहीं देखा था ।" बादशाह अकबर की इस बात को सुनकर बीरबल ही नहीं, सभा के सभी सभासद विस्मित और चकित हुए । सबके मन में एक सहज जिज्ञासा थी, बादशाह के स्वप्न को सुनने की । बीरबल विनम्र वाणी में बोला - " जहाँपनाह ! फरमाइए आपने स्वप्न में क्या देखा ?" बादशाह बोला - " मैंने स्वप्न में देखा कि तुम और मैं दोनों कहीं घूमने जा रहे हैं, घूमते-घूमते और चलते-चलते हम एक विकट वन में पहुँच गए। एक ऐसे जगल में जा पहुँचे, जहाँ मार्ग में दो कुण्ड बने हुए थे । परन्तु उन कुण्डों की बात क्या सुनाऊँ ? वे कुण्ड बड़े विचित्र थे ।" "जहाँपनाह ! उन कुण्डों में आपने क्या विचित्रता देखी ? " - बीरबल ने पूछा । बादशाह अकबर बोला - " बीरबल ! उन दोनों कुण्डों में से एक में गन्दगी भरी हुई थी और दूसरे में अमृत भरा हुआ था । भाग्य की बात है - तू गन्दगी के कुण्ड में जा पड़ा और मैं अमृत के कुण्ड में गिर पड़ा। इस विचित्र स्वप्न को देखकर मेरी निद्रा सहसा खुल गई ।"
बादशाह के इस विचित्र स्वप्न की कल्पित कथा को सुनकर बीरबल ही क्या, सारी सभा ही खिलखिला उठी । कुछ मौलवी, जो बीरबल से खार खाते थे और भी अधिक खिलखिला कर हँस उठे । वे लोग अपने मन में सोचते थे, कि बादशाह ने बहुत अच्छी स्वप्न - चर्चा उपस्थित की । उन लोगों के मन में बादशाह के अमृत कुण्ड में गिरने की इतनी खुशी नहीं थी, जितनी खुशी उन्हें बीरबल के गन्दगी के कुण्ड में गिरने की की । हँसी के फुव्वारों के बीच बात को सँभालते हुए बीरबल ने अविचलित भाव से कहा - " जहाँपनाह! मैंने भी आज रात्रि को ऐसा ही एक बड़ा विचित्र स्वप्न देखा है । मेरे स्वप्न
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१५२ | अध्यात्म-प्रवचन में और आपके स्वप्न में और सब बात तो समान हैं, केवल अन्त में थोड़ा सा अन्तर है । आप और मैं घूमने निकले, एक निर्जन जंगल में पहुँचे, गन्दगी और अमृत के दो कुण्ड मिले और यह भी सत्य है कि मैं गन्दगी के कुण्ड में गिरा और आप अमृत के कुण्ड में गिरे। किन्तु मैंने इससे आगे भी कुछ स्वप्न देखा है । और वह यह है कि-कुण्ड में गिरने के बाद मैं आपको चाट रहा है और आप मुझे चाट रहे हैं।" इस बात को सुनकर सारी सभा खिलखिला उठी। अकबर बादशाह और उसके मौलवी-मुल्ला बीरबल की बुद्धि पर स्तब्ध रह गए। ___ इस रूपक को सुनकर हँसी आ जाना सहज है, परन्तु इसका उद्देश्य केवल मनोरंजन मात्र ही नहीं है। इसके पीछे जीवन का एक बहुत बड़ा ममें छिपा हुआ है। सम्यक दृष्टि जीव बीरबल के समान है, जो अन्धकार में नही, प्रकाश में चलता है। सम्यक दृष्टि जीव की बुद्धि की चमक कभी मन्द नहीं पड़तो । वह संसार के गन्दगी के कुण्ड में रहकर भी अमृत का पान करता है। संसार में रहकर उसके विष को छोड़कर मात्र अमृत अंश को ही ग्रहण करना, साधक-जीवन की बहुत बड़ी कला है । इस कला को जिस किसी भी व्यक्ति ने अधिगत कर लिया है, फिर भले ही वह चाहे परिवार के कुण्ड में रहे, समाज के कुण्ड में रहे, और चाहे किसी अन्य कुण्ड में रहे, उसके जीवन पर किसी भी प्रकार के विष का प्रभाव नहीं पड़ सकता। मिथ्यादृष्टि जीव उस बादशाह के समान है, जो अमृत कुण्ड में पड़कर भी गन्दगी को चाटता है । मिथ्या दृष्टि और सम्यक दृष्टि दोनों के स्वप्न समान हैं, बस थोड़ा सा ही अन्तर रह जाता है और वह अन्तर यही है, कि सम्यक दष्टि गन्दगी के कुण्ड में पड़कर भी अमृत के कुण्ड का आनन्द लेता है, जबकि मिथ्या दृष्टि अमृत कुण्ड में रहकर भी गन्दगो का अनुभब करता है । यह सब क्यों होता है ? मेरा एक ही उत्तर है कि यह सब अपनी-अपनी दृष्टि का खेल है । दृष्टि के आधार पर ही तो मनुष्य अपने जीवन की सृष्टि का निर्माण करता है। विचार ही से तो आचार बनता है । सम्यक दृष्टि और मिथ्या दृष्टि के जीवन में बाह्य दृष्टि से किसी प्रकार का अन्तर नहीं होता, वह अन्तर होता है केवल आन्तरिक दृष्टि का । सम्यक दृटि संसार के प्रत्येक पदार्थ को विवेक और वैराग्य को तूला पर तोलता है, उसके बाद उसे ग्रहण करता है । इसके -वपरीत मिथ्या दृष्टि संसार के भोग्य पदार्थों को
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सम्यक् दर्शनः सत्य-दृष्टि | १५३ भोगवाद की तुला पर ही तोलता रहता है । सम्यक् दृष्टि भी भोजन करता है केवल शरीर की पूर्ति के लिए, जबकि मिथ्या दृष्टि भोजन करता है केवल स्वाद के लिए । सम्यक् दृष्टि कहता है, कि जीवन में सुख आए तब भी ठीक और दुःख आए तब भी ठीक । उन दोनों में समत्व योग की साधना करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि संसार के क्षणिक सुखों में सुखी और दुःखों में दुःखी रहता है । कर्म के फल को दोनों ही भोगते है, एक समभाव से भोगता है और दूसरा विषम भाव से । इसलिए एक कर्मफल को भोगकर आगे के लिए कर्म के चक्र को तोड़ डालता है और दूसरा कर्म-फल को भोग कर भी भविष्य के लिए नए कर्मों का बन्ध कर लेता है । मिथ्या दृष्टि भोग के कुण्ड में जन्म भर पड़ा-पड़ा सड़ा करता है, किन्तु सम्यक दष्टि भोग के कुण्ड में जन्म लेकर भी त्याग और वैराग्य के अमृत कुण्ड की ओर अग्रसर होता रहता है । सम्यक् दृष्टि कहता है-कि मेरा स्वप्न मिथ्या दृष्टि के समान होते हुए भी कुछ विशेषता रखता है । सम्यक दृष्टि सांचता हैं, कि पुराना प्रारब्ध बिना भोगे कर्मों से छुटकारा नहीं मिल सकता। मैं भोग के कुण्ड में अवश्य पड़ गया, परन्तु इस गन्दगी में पड़कर तथा जन्म लेकर भी रसास्वादन मुझे अध्यात्मिक अमृत का ही करना है। इस प्रकार सम्यक् दृष्टि और मिथ्या दृष्टि में मूल भेद दृष्टि का ही है।
मैं आपसे मिथ्या दृष्टि और सम्यक् दृष्टि को चर्चा कर रहा था। मिथ्या दृष्टि और सम्यक दष्टि के जीवन के स्वरूप को बिना समझे, हम अपने अध्यात्म-जीवन में प्रवेश नहीं कर सकते । मोक्ष की साधना प्रारम्भ करने से पूर्व यह जाँच लेना आवश्यक है, कि हमारी दृष्टि मिथ्या है अथवा सम्यक है। संसार में रहकर भी संसार के भोगों में जो आसक्त नहीं होता, वही व्यक्ति मोक्ष की साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है । सम्यक् दृष्टि का जीवन एक वह जीवन है, जिसका जन्म तो भोग के कीचड़ में हुआ है, किन्तु जो इस भोग के कीचड़ से ऊपर उठकर कमल के समान मुस्कराता रहता है । गृहस्थ हो अथवा त्यागी हो, दोनों के जीवन की आधारशिला सम्यक् दर्शन ही है। यदि सम्यक् दर्शन प्राप्त नहीं किया है, तो श्रावक बनकर भी कुछ नहीं पाया और श्रमण बनकर भी कुछ नहीं पाया। यह कहना गलत है, कि गृहस्थ-जीवन माया, ममता और वासनामय जीवन है, उसमें त्याग एव वैराग्य की साधना नहीं की जा सकती। इस बात को भले
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१५४ | अध्यात्म-प्रवचन
ही कोई दूसरा स्वीकार कर ले, किन्तु मुझ जैसा व्यक्ति इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता । भारतीय संस्कृति में चक्रवर्ती भरत का जीवन और विदेह देश के राजा जनक का जीवन एक आदर्श जीवन माना जाता है । भरत और जनक का आदर्श जीवन केवल आकाश की ऊँची उड़ान ही नहीं थी, बल्कि वह इस धरती का ठोस यथार्थ था । जो कुछ भरत और जनक के जीवन के सम्बन्ध में कहा सुना जाता है, वह केवल कल्पनात्मक नहीं, बल्कि प्रयोगात्मक ही था । स्वर्ण सिंहासन पर बैठकर भी विनीता नगरी के भरत ने और मिथिला नगरी के जनक ने अनासक्ति, वैराग्य और त्याग का एक ऊंवा आदर्श प्रस्तुत किया था; जिससे आज भी भारतीय साहित्य के पृष्ठ आलोकित हो रहे हैं । गृहस्थ जीवन में यदि सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो चुकी है, तो गृहस्थ जीवन में भी मुक्ति के द्वार खुले हुए हैं। इसके विपरीत यदि कोई श्रमण बन जाता है, तो केवल वेश धारण करने मात्र से ही उसके लिए मुक्ति के द्वार नहीं खुल जाते । साधु-वेश ग्रहण करके भी यदि भोग- दृष्टि बनी हुई है तथा माया, ममता और वासना के विष को जीवन से नहीं निकाला गया है, तो वह साधु-जीवन भी किस काम का है ? मैं आपसे स्पष्ट कह रहा हूँ कि जीवन के बाने बदलने से समस्या का हल नहीं है, समस्या का हल होगा, जीवन की बान बदलने से | बान बदलने का अर्थ क्या है ? उसका अर्थ यही हैकि दृष्टि को बदलो, मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को प्राप्त करो । जीवन एक अमूल्य निधि है, फिर भले ही वह गृहस्थ का हो या साधु का । मुख्य बात यह है, कि जीवन में रहकर भी हजारों लोगों ने अपने जीवन का विनाश किया है और जीवन में रहकर भी हजारों लोगों ने अपने जीवन का विकास किया है। संसार में विष भोजी भी हैं और अमृत भोजी भी हैं । भोग के विष का पान करने वालों की संसार में कभी कमी नहीं रही और कभी कमी नहीं रहेगी । इसी प्रकार वैराग्य- अमृत का पान करने वाले लोगों की भी कभी संसार में कमी नहीं रही और कभी कमी नहीं रहेगी । विनाश को विकास में बदलने के लिए और विष को अमृत बनाने के लिए एक मात्र सम्यक् दर्शन की आवश्यकता है । अन्यथा दृष्टि के न बदलने पर जीवन में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं आ सकेगा; फिर भले ही जीवन चाहे किसी बनवासी का हो और चाहे किसी गृहवासी का हो । मान सरोवर पर हंस भी रहता है और बगुला भी रहता है । दोनों की देह
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सम्यक् दर्शनः सत्य-दृष्टि | १५५ धवल होती है । तन दोनों का श्वेत होने पर भी दोनों के मन में बड़ा अन्तर रहता है। हंस की दृष्टि मोती पर रहती है, जब कि बगले की दृष्टि मछली पर रहती है। मानसरोवर जैसे अमृत-कुण्ड के पास पहेचकर भी बगला वहाँ गन्दगी को ही ग्रहण करता है । सम्यक दृष्टि और मिथ्या दृष्टि में, राजहंस और वक जैसा ही भेद है । क्योंकि एक की दृष्टि में अमृत है और दूसरे की दृष्टि में विष है। जिसके मन में विष है, वह अपने मुख से और तन से संसार को अमृत कैसे दे सकता है ? और जिसके मन में अमृत है, उसके तन में भी अमृत रहता है और उसके मुख में भी अमृत रहता है। सम्यक् दृष्टि का जीवन अमृतमय जीवन है और मिथ्या-दुष्टि का जीवन एक विषमय जीवन है। क्योंकि सम्यक् दृष्टि के पास सम्यक् दर्शन का अमृत है और मिथ्या दष्टि के पास मिथ्या दर्शन का विष है। इसी के आधार पर दोनों के जीवन की दिशा भी भिन्न हो जाती है। __ मैं आपसे यह कह रहा था, कि जीवन का परिवर्तन केवल गृहस्थ बनने या केवल साधु बनने से नहीं आता है। वह परिवर्तन आता है, विमल विवेक और अमल वैराग्य में से । संसार के पदार्थों की ममता को छोड़ना, सबसे मुख्य प्रश्न है। यदि वह ममता गुहस्थ जीवन में रह कर छूट जाए तो भी ठीक और साधु जीवन अंगीकार करके छ्टे, तो भी ठीक । मुख्य प्रश्न संसारी पदार्थों के प्रति माया और ममता के छोड़ने का है। आप गृहस्थ हैं, आपकी बात तो बहुत दूर की है। किन्तु साधु-जीवन अंगीकार करने वाले व्यक्ति के जीवन में भी जब कभी मैं माया और ममता का ताण्डव नृत्य देखता हूँ, तब मुझे बड़ा आश्चर्य होता है । मैं सोचा करता है, कि जीवन के मान सरोवर के स्वच्छ तट पर यह राज हंस बनकर के आया है अथवा छली वक बनकर आया है। जब कभी मैं अपने जीवन के एकान्त शान्त क्षणों में इन त्यागी कहे जाने वाले सन्तों के विगत जोवन की परतों पर विचार करता हूँ तो मुझे बड़े ही अजीबोगरीब नजारे देखने को मिलते हैं । अजब गजब की बात है, कि उन्होंने अपना धन छोड़ा, सम्पत्ति छोडी और अपने परिवार का प्रेम छोड़ा, जिस घर में जन्म लिया था उस घर को भी छोड़ा, परन्तु यह सब कुछ छोड़कर भी, यदि माया छोड़ी नहीं, यदि ममता छोड़ी नहीं, यदि वासना छोड़ी नहीं तो मैं पूछता हूँ आपसे कि उन्होंने क्या छोड़ा? केवल घर छोड़कर बेघर होने से ही कोई साधु नहीं बन जाता एवं त्यागी नहीं बन जाता। साधु-जीवन इतना सरल नहीं है, जितना उसे समझ लिया गया है ।
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१५६ | अध्यात्म-प्रवचन
यहाँ पर मुझे प्रसंगवश एक साधु के जीवन की उस घटना का स्मरण हो आया है, जिस घटना ने आज से अनेक वर्षों पूर्व मेरे मन और मस्तिष्क पर एक गहरी विचार रेखा अंकित की थी। वह घटना इस प्रकार है।
एक बार हम कुछ साधु विहार-यात्रा कर रहे थे। विहार-यात्रा करते-करते एक ऐसी पहाड़ी के पास पहुंचे जहाँ उस पर चढ़कर ही आगे का रास्ता नापा जा सकता था। अन्य कोई मार्ग न होने के कारण साथ के वृद्ध सन्तों को भी पहाड़ पर चढ़ना पड़ा। मैं तो उस समय युवक था, पहाड़ पर चढ़ने की समस्या मेरे सामने कोई समस्या न थी, किन्तु प्रश्न वृद्ध जनों का था ।
- एक सन्त कुछ अधिक वृद्ध थे, अतः उन्होंने अपने उपकरण अपने तरुण शिष्य को दिए और कहा कि जरा संभल कर चलना और पात्र जरा संभाल कर रखना।
संयोग की बात है। उस पर्वत को पार करते हुए जिस समय संतों की टोली चली जा रही थी, तब उस वृद्ध गुरु का तरुण शिष्य पैर में चट्टान की ठोकर लगने से गिर पड़ा और उसके हाथ का जल-भरित काष्ठ पात्र भी टूटकर खण्ड-खण्ड हो गया । इस दृश्य को देखकर वृद्ध गुरु से रहा नहीं गया। वह अग्निमुख होकर बोला-“अन्धे! दीखता नहीं है तुझे ! मैंने कहा था कि सँभल कर चलना, किन्तु जवानी की मस्ती में अन्धा होकर चला और बिल्कुल नया पात्र तोड़ डाला । इस पात्र को मैंने कितने प्रेम और कितने परिश्रम से रंगकर तैयार किया था, किन्तु दुष्ट तूने इसे तोड़कर मेरे सारे परिश्रम को व्यर्थ कर दिया ।"
वृद्ध गुरु अपने तरुण शिष्य पर काफी देर तक चिल्लाते रहे। अपने जड़ पात्र के टूटने का तो उनके मन में बड़ा दर्द था, किन्तु दूसरी ओर चेतन-पात्र, जो उनका अपना ही शिष्य था, चट्टान की ठोकर लगने से जिसके पैर में बहुत बड़ी चोट लगी थी और जो वेदना से कराह रहा था, उससे संयम-वृद्ध गुरु ने यह भी नहीं पूछा कि "तेरे कहीं चोट तो नहीं लगी है। पात्र तो जड़ वस्तु है, यह फूट गया तो दूसरा मिल जाएगा, किन्तु वत्स ! तू यह बता, तेरे चोट कहाँ लगी है ?"
कहने को यह जीवन की एक छोटी सी घटना है और जब यह घटी थी, तब इसका मूर्तरूप प्रत्यक्ष था, किन्तु इतने वर्षों के बीत जाने
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सम्यक् दर्शनः सत्य-दृष्टि | १५७
के बाद आज इसका कुछ भी प्रत्यक्ष रूप नहीं रहा है । इतिहास की हर घटना वर्तमान से अतीत में लोटकर विस्मृति के गहन गह्वर में विलुप्त हो जाती है । परन्तु यह सत्य है कि इतिहास की प्रत्येक घटना मानव के सजग मन एवं मस्तिष्क पर एक बोध-पाठ अवश्य अंकित कर जाती है, जिसे मनुष्य अपने जीवन में कभी नहीं भूल सकता, कभी विस्मृत नहीं कर सकता ।
गुरु और शिष्य के जीवन की इस घटना में से क्या बोध मिलता है ? यह एक प्रश्न है । मैं सोचता हूँ, मेरे श्रोताओं में से बहुत से. श्रोताओं ने इस तथ्य को समझ भी लिया होगा । जब श्रोता शान्त एवं स्थिर मन से वक्ता की बात को सुनता है, तब उसका रहस्य उसकी समझ में आसानी से आ जाता है । मैं सोचता हूँ, उक्त घटना का वास्तविक अर्थ समझने में किसी बहुत बड़े बुद्धिबल की आवश्यकता नहीं है । यह तो जीवन की एक सामान्य घटना है और आपमें से हर किसी व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार की कोई-न-कोई घटना घटती ही रहती है । आपके घर के नौकर से काँच का एक गिलास टूट जाता है, तब आप आग बबूला हो जाते हैं। घर के अन्य किसी भी व्यक्ति से जब किसी प्रकार का नुकसान हो जाता है, तब आपको ta आ जाता है । तब आप अपने आवेश को नियंत्रण में नहीं रख सकते और उस व्यक्ति को, जिसके हाथ से नुकसान हुआ है, आप बहुत कुछ अंट-संट भला-बुरा कह डालते हैं । क्रोध के आवेग में कुछ ऐसी बातें भी आपके मुख से निकल जाती हैं, जो वस्तुतः नहीं निकलनी चाहिएँ । यह जीवन का एक परम सत्य है, कि जैसा मन में होता है, वैसा ही मुख में आता है । मन में यदि अमंगल है, तो मुख से भी अमंगल की ही वर्षा होती है और यदि मन में मंगल है, तो मुख से भी अमृत रस की धार ही बहती है ।
मैं सोचता है, ऐसा क्यों होता है ? आप भी सोचते होंगे कि ऐसा क्यों होता है ? किन्तु जरा जीवन के अन्तस्तल में उतर कर देखिए, आपको इस प्रश्न का समाधान स्वयं ही मिल जाएगा । मेरा अभिप्राय यही है - आप अपने मन से पूछिए, कि वह इस जगत के जड़ पदार्थों से कितनी ममता करता है ? एक तरफ जड़ पदार्थ है और दूसरी ओर चेतन व्यक्ति है, जब तक दृष्टि में चेतन की अपेक्षा जड़ पर अधिक ममता रहेगी, तब तक यही कुछ होगा, जो कुछ मैं अभी कह चुका हूँ। जड़ पदार्थ के प्रति ममता में से ही यह भावना पैदा होती है कि
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१५८ | अध्यात्म-प्रवचन मेरा पात्र टूट गया, मेरा गिलास टूट गया अथवा मेरा अन्य कोई पदार्थ नष्ट हो गया। उस व्यक्ति के द्वारा वह पदार्थ किस प्रकार टूटा, उस पर ध्यान नहीं दिया जाता । सोचा यही जाता है, कि इसने मेरा नुकसान कर दिया । मैं आपसे पूछता हूँ, कि जीवन में अधिक मुल्य किसका है ? अधिक उपयोगिता किसकी है ? जड़ की अथवा चेतन की? यदि जड़ के कारण चेतन पर क्रोध किया जाता है, तो इसे समझदारी नहीं कहा जा सकता । उस वृद्ध गुरु के शिष्य के शरीर पर चोट लगी, रक्त भी बह निकला, किन्तु उस चेतन के दर्द की ओर ध्यान न जाकर जड़ पदार्थ की ओर ध्यान का जाना, यह प्रमाणित करता है कि उस गरु के मन में अपने चेतन पात्र शिष्य की अपेक्षा, उस जड़ पात्र से प्रेम अधिक था। इसी प्रकार अपने घर के सचेतन नौकर की अपेक्षा उसके हाथ के टूटने वाले जड़ कांच के गिलास में आपकी ममता अधिक थी । अध्यात्म-शास्त्र स्पष्ट भाषा में यह कहता है, कि साधक को ममता माया का त्याग करना है, फिर भले ही वह ममता चाहे किसी जड़ पदार्थ के प्रति हो अथवा किसी चेतन व्यक्ति के प्रति हो । ममता तो ममता है, चाहे वह किसी जड़ में अटकी हई हो अथवा किसी चेतन व्यक्ति में अटकी हई हो। माया, ममता और वासना एक विष का कुण्ड है, इसमें से निकलना ही साधक के जीवन का मुख्य उद्देश्य है। किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है, कि एक ओर चेतन व्यक्ति है तथा दूसरी ओर एक जड़ पदार्थ है, इन दोनों में से पहले किसकी ममता का परित्याग किया जाना चाहिए ? अध्यात्मशास्त्र इसका स्पष्ट समाधान देता है, कि पहले जड की ममता का त्याग करो और फिर चेतन की ममता का त्याग करो। जड़ की अपेक्षा चेतन का अधिक मूल्य है, जड़ की अपेक्षा चेतन की अधिक उपयोगिता है । चेतन यदि एक दिन भूल कर सकता है, तो एक दिन वह अपनी भूल को सुधार भी सकता है। चेतन यदि आज पतन के पथ पर चल रहा है, तो एक दिन वह उत्थान के पथ का पथिक भी बन सकता है, किन्तु जड़ में यह शक्ति कहाँ है ? उसका न उत्थान है न पतन, उसका न विकास है न ह्रास। जड़, जड़ है और चेतन, चेतन है । इस तथ्य को, इस सत्य को और इस मर्म को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि से ही समझा जा सकता है। सम्यक् दर्शन के अमलविमल आलोक में चलकर ही यह संसारी आत्मा गन्दगी के कुण्ड से अमृत के कुण्ड की ओर, भोग के कुण्ड से वैराग्य के कुण्ड की ओर
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सम्यक् दर्शनः सत्य-दृष्टि | १५६ तथा विष के लवण-सागर से अमृत के क्षीर-सागर की ओर गतिशील एवं अग्रसर हो सकता है । सम्यक् दर्शन के दिव्य प्रकाश से ही यह आत्मा जड़ और चेतन के भेद को समझ कर, जड़ की अपेक्षा चेतन के मूल्य का अधिक अंकन कर सकता है। दुनिया भर के अध्यात्मशास्त्र, दुनिया भर के गुरु और दुनिया भर के पोथी-पन्ने आपको एक ही बात कहते हैं-कि सत्य का दर्शन करो, सत्य को ग्रहण करो। सत्य पाया तो सब कुछ पा लिया । यदि सत्य नहीं मिला तो कुछ भी नहीं मिला । यदि अपनी अध्यात्म-साधना में अग्रसर होते हुए अपने जीवन के पचास-साठ वसन्त भी पार कर दिए, किन्तु जीवन के धरातल पर सत्य का वसन्त नहीं उतरा, तो कुछ भी नहीं पाया । अध्यात्मसाधना का कुछ भी लाभ नहीं उठाया गया। सम्यक दर्शन आत्मा की एक वह शक्ति है, जो जीवन को भोग से योग की ओर तथा विष से अमृत की ओर ले जाती है । सम्यक् दर्शन जीवन के तथ्य को देखने एवं परखने को एक अद्भुत कसौटी है। सम्यक दर्शन एक वह ज्योति है, जिससे अन्दर और बाहर दोनों ओर प्रकाश पड़ता है। सम्यक दर्शन एक वह निर्मल धारा है, जिसमें निमज्जित होकर साधक अपने मन के मैल को धो डालता है। सम्यकदर्शन को पाकर फिर जो कुछ पाना शेष रह जाता है, उसे पाने के लिए आत्मा को मूलतः किसी और अधिक तैय्यारी की क्या आवश्यकता रहती है ? सम्यक दर्शन के देवता का प्रसाद मिलने पर फिर अन्य किसी देवता के प्रसाद की 'भिक्षा क्यों चाहिए ? सम्यक् दर्शन के क्षायिक विकास से ही अन्ततः भव के बन्धनों का अभाव होता है। परम पवित्र क्षायिक सम्यक दर्शन से ही आचार की पवित्रता के शिखर पर पहुँच कर पूर्ण सिद्धि एवं मुक्ति की उपलब्धि होती है। अतीत काल में जिस किसी भी साधक ने मोक्ष प्राप्त किया है, उसका मूल आधार सम्यक दर्शन हो रहा है और भविष्य में भी कोई साधक मुक्ति प्राप्त करेगा, उसका भी मूल आधारं सम्यक दर्शन ही रहेगा। हमारे जीवन के आदि में भी सम्यक दर्शन हो, मध्य में भी सम्यक दर्शन हो और अन्त में भी -सम्यक् दर्शन हो, तभी हमारा जीवन मंगलमय होगा।
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धर्म-साधना का आधार
आज मुझे जिस विषय पर बोलना है, वह है धर्म । धर्म वस्तुतः बोलने का विषय नहीं है, आचरण का विषय है, किन्तु जिसको जाना नहीं, उसका आचरण ही कैसे किया जा सकता है ? जिसका आचरण करना है, उसको जानना भी आवश्यक है। ज्ञान के बिना क्रिया कैसी और क्रिया के बिना ज्ञान कैसा? जो कुछ जाना जाता है, वही किया जाता है, और जो कुछ किया जा रहा है, यह निश्चित है, कि वह पहले जान लिया गया है । अतः धर्म विचार और आचार का विषय तो है, पर बोलने का विषय नहीं है, क्योंकि बोलने से वाद बनता है और वाद से विवाद खड़ा हो जाता है । धर्म वाद एवं विवाद की वस्तु नहीं है । जब धर्म वाद और विवाद की वस्तु बन जाता है, तो वह धर्म, धर्म न रहकर सम्प्रदाय और पंथ बन जाता है । तब उसमें होती है खींचतान और अनबन । सच्चा साधक मुख से कहता नहीं है, स्वयं उसका चरित्र ही बोलने लगता है।
सबसे बड़ा विकट प्रश्न यह है, कि धर्म क्या है ? किसी पंथ का कर्म काण्ड धर्म नहीं है, वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है। पानी
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धर्म-साधना का आधार | १६१
ठंडा रहता है और आग गरम । जल का धर्म शीतलता है और अग्नि का धर्म उष्णता । इसी प्रकार मनुष्य का धर्म मनुष्यता है । यह मनुष्यता क्या है ? यह भी एक विचित्र समस्या है | मनुष्य के मनुष्यत्व की सीमा क्या है ? उसका अंकन करना सरल नहीं है । फिर भी धर्म की कुछ सोमा, कुछ परिभाषा साधारण जन के लिए आवश्यक - क-सी है । स्वार्थ और परार्थ में से यदि किसी एक का चुनाव करना हो, तो परार्थ का चुनाव कीजिए, क्योंकि परार्थ ही स्वार्थ से निर्मल है । किन्तु जैन दर्शन इससे भी ऊँची एक बात कहता है और वह है परमार्थ की । अपने सुख तक सीमित रहना स्वार्थ है, अपने साथी के सुख का ध्यान रखना परार्थ है और जगत के प्रत्येक प्राणी के कल्याण का ध्यान रखना परमार्थ है । क्योंकि सबके कल्याण में मेरा भी कल्याण है और मेरे साथी का भी कल्याण है ।
इसलिए मैं कहता हूँ कि जब तक मनुष्य अपने स्वभाव में स्थिर नहीं होगा, तब तक उसका जीवन कल्याणमय एवं स्वस्थ नहीं वन सकता और जब तक जीवन स्वस्थ न हो, तब तक धर्म की आराधना नहीं की जा सकती । मानव आत्मा का स्वभावस्थ होना, स्वस्थ होना ही धर्म है। याद रखिए शरीर ही मनुष्य नहीं है, वह कुछ और भी है । आप जो कुछ देखते हैं उससे सूक्ष्म और भिन्न भी एक जीवन है, जिसे आत्मा कहा जाता है । आत्मा जड़ नहीं चेतन है । शरीर बनता है और बिगड़ता है, किन्तु आत्मा न कभी बनता है और न कभी बिगड़ता है । इस संसार में एक नहीं, अनेक पंथ हैं, अनेक सम्प्रदाय हैं, सबकी अलग-अलग बाड़ाबन्दी है । सब एक स्वर से एक ही बात कहते हैं, कि हमारे पंथ में आओ, हमारे पंथ की सीमाओं में आने पर ही तुम्हें मुक्ति मिल सकती है । दावा सब पंथों का यही है प्रश्न है कि कौन झूठा है और कौन सच्चा है ? मेरे विचार में वह पंथ असत्य है, जो केवल तन की बात कहता है और तन से आगे बढ़कर मन की बात कहता है, परन्तु जो उससे भी आगे बढ़कर आत्मा की बात कहता है, वही सच्चा है। याद रखिए, धर्म कहीं बाहर नहीं है, वह तो हृदय-गुहा में रहता है । भीतर झांको तो वहाँ से प्रकाश की एक उज्ज्वल किरण प्राप्त होगी और यह किरण चेतन चेतन के भीतर है । आत्मा की आवाज सबके भीतर है । उसे सुनते चलो, और आगे बढ़ते चलो । अन्दर की आवाज को सुनने से ही बाहरी उलझन का
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१६२ | अध्यात्म-प्रवचन सुलझाव.मिल सकेगा । जो कुछ बाहर दीख रहा है, उस पर आँख मूंदनी होगी और जो कुछ बाहर सुनाई दे रहा है, उसे अनसुना करना होगा, तभी आप अन्दर को देख सकेंगे और अन्दर को सुन सकेंगे। इन्सान ने इस धरती पर अपने अहंकार से जो कुछ खड़ा किया है, वह सब कुछ एक दिन खंडहर बन जाएगा। इस दुनिया में क्या रहा है ? सम्राटों के प्रासादों के अतुल वैभव कहाँ हैं ? उनके महलों की रंगीन दुनियाँ कहाँ है ? उनकी शक्ति का वह दर्प, जिससे अन्वे बनकर उन लोगों ने दुनियाँ को कुचलना चाहा था, बताइए आज कहाँ हैं ? सब कुछ धूल में मिल गया । काल ने सबको लथेड़ डाला है। यह सब कुछ होने पर भी हमारे जीवन का एक दूसरा भी दृष्टिकोण है, और वह है, मृत्यु के बीच अमर बनने की कला। भगवान पार्श्वनाथ के पास यही कला थी, भगवान महावीर के पास यही कला थी, केशीकुमार श्रमण के पास यही कला थी और यही कला थी गणधर गौतम के पास । मृत्यु से अमर बनने की कला जिसके हाथ लग जाती है, वस्तुतः उसी व्यक्ति को मैं धर्मशील साधक कहता हूँ।
हमारे सामने दो तत्त्व हैं. एक धर्म और दुसरा धन । जीवन का मंगल किसमें हैं, धर्म में अथवा धन में? इन्सान की जिन्दगी को शानदार बनाने वाली धर्म की कमाई है अथवा धन की कमाई ? धर्म की सत्ता होते हुए भी वह बाहर दिखलाई नहीं पड़ता, किन्तु धन भौतिक जीवन की ऊपरी सतह पर खड़ा रहता है, इसीलिए धर्म की अपेक्षा संसारी आत्मा को धन की प्रतीति अधिक होती है। जिस प्रकार धरती में डाला गया बीज दिखलाई नहीं पड़ता, किन्तु उसके वृक्ष बन जाने पर वह दृष्टिगत होने लगता है, इसी प्रकार धर्म भले ही दिखलाई न पड़ता हो, किन्तु धर्म का शुभ एवं शुद्ध परिणाम अवश्य ही अनुभव का विषय होता है। धर्म की महिमा अपार है, धर्म का बीज इतना छोटा है कि उसे देखने के लिए ऊपर की आँख नहीं, भीतर को आँख चाहिए। धर्म की बात करना आसान है, किन्तु 'धर्म पर आस्था होना बड़ा कठिन है। इस भौतिकवादी युग में भौतिकवादी मानव, धर्म को भूलकर भोग के प्रतीक धन की पूजा कर रहा है । आज के जन जीवन में जिधर भी मैं देखता हूँ, मुझे दीखता है, कि सर्वत्र कल-पूजा और कला-पूजा हो रही है। आज के जनजीवन की यह इन्द्रियपरायणता है । जहाँ इन्द्रियपरायणता है, वहाँ धर्म स्थिर कैसे रह सकता है ? धर्म को स्थिर करने के लिए खण्ड
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धर्म-साधना का आधार | १६३ स्वार्थ को छोड़ने की आवश्यकता है, आगे चलकर खण्ड परार्थ को छोड़कर भी अखण्ड परमार्थ को ग्रहण करने की आवश्यकता है। आज का मनुष्य अहंकार और ममकार में डूबा हुआ है। अहंकार और ममकार का सर्प जब तक मानव मन की बाँबी में बैठा हुआ है, तब तक जिन्दगी के हर मार्ग पर खतरा ही खतरा है। धर्म तत्त्व यह है, कि अहंकार को छोड़ो और विनम्रता को पकड़ो तथा ममता को छोड़ो और अनासक्ति को पकड़ो। आज के समाज में कितनी विषमता दीख रही है, एक के पास धन का ढेर लगा है, दूसरे के पास खाने कों अन्न का एक कण भी नहीं है। जब तक हमारे आस-पास भखी भीड़ की भूख मँडराती रहेगी, तब तक न महल में शान्ति हो पाएगी और न झोपड़ी में शान्ति हो पाएगी। धनिक को अपने धन का अहंकार रहता है और गरीब को अपनी गरीबी का दैन्य रहता है, दोनों ही दुनिया के भयंकर पाप हैं और इन सब विषमताओं और द्वन्द्वों का मूल क्षुद्र मानव-मन की आसक्ति-मूलक अहंता एवं ममता ही है। इन सब द्वन्द्वों से बचने का रास्ता धर्म ही दिखला सकता है। किन्तु प्रश्न है, कि धर्म किसका, तन का या मन का? तत्त्वदर्शी पुरुषों ने इसका एक ही समाधान किया है, कि तन की भूख सीमित होती है, उसे आसानी से मिटाया जा सकता है, किन्तु मन की भूख अथाह और अगाध है । तन की भूख की दवा धन हो सकता है, किन्तु मन की भूख की दवा तो धर्म ही है। इसलिए धन को अपेक्षा धर्म ही बड़ा है । तन को अपेक्षा मन की सीमा ही अधिक है । जब तक धन के आधार पर मानव के जीवन का मूल्यांकन होता रहेगा, तब तक धर्म की महिमा बढ़ नहीं सकती। जिसके पास परिग्रह का जितना अधिक बोझ है, उसकी आत्मा सत्य से उतनी ही दूर है। धर्म हमें यह कहता है, कि इन्द्रियों को वश में करो, आत्म-स्वरूप को पहचानो । अपने को समझने पर सब कुछ समझना आसान है। धन को समझने से जीवन-समस्या का हल नहीं है, धर्म को समझने से ही जीवन-समस्या का हल होगा। मानव-जीवन को यह कितनी भयंकर बिडम्बना है, कि कौड़ी को तो सँभालकर रखता है, किन्तु रत्न को लुटाता फिरता है। याद रखिए, धन कभी जीवन की रक्षा नहीं कर सकेगा । धर्म हो जीवन की रक्षा कर सकेगा। आत्मा को खोकर संसार का साम्राज्य भी पाया तो क्या पाया ? आत्मा को खोकर अन्य सब कुछ पाया तो क्या पाया? आत्मा के खोने पर धर्म की रक्षा नहीं हो सकेगी । धर्म की रक्षा के लिए आत्मा को समझो।
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१६४ | अध्यात्म-प्रवचन
मैं आपसे धर्म के विषय में कुछ कह रहा था। धर्म क्या है ? अहिंसा, संयम और तप यही तो धर्म है । मुख्य प्रश्न यहाँ पर यह है, कि धर्म का आधार क्या है ? जैन-दर्शन के अनुसार धर्म का आधार सम्यक दर्शन है । सम्यक् दर्शन है, तभी अहिंसा का पालन किया जा सकता है । सम्यक् दर्शन है, तभी संयम का पालन किया जा सकता है । सम्यक दर्शन है, तभी तप किया जा सकता है। सम्यक दर्शन के अभाव में अहिंसा, संयम और तप धर्म नहीं रह सकते । मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि धर्म का आधार सम्यक् दर्शन है। जितनी भी साधना है, उस सबके मूल में यदि सम्यक् दर्शन नहीं है, तो वह साधमा मोक्ष की साधना नहीं हो सकती। मोक्ष की साधना के लिए अन्य किसी सद्गुण की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी सम्यक दर्शन की । सम्यक् दर्शन को धर्म का मूल कहा गया है। ____ कल्पना कीजिए, एक वृक्ष है । वह हरा-भरा है, फूल और फलों से लदा है, देखने में बड़ा सुन्दर लगता है । क्या कभी आपने यह विचार किया, कि यह वृक्ष इतना समृद्ध क्यों है ? वृक्ष की समृद्धि का मूल कारण उसका ऊपरी भाग नहीं है, उसकी समृद्धि का मूल कारण है उसकी जड़ें, जो पृथ्वी के अन्दर गहरी समायी हुई हैं । जिस वृक्ष की जड़ें जितनी गहरी होंगी, वह उतना ही अधिक पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है । जिस वृक्ष की जड़ें नीचे भूगर्भ तक पहुंच चुकी हैं, उस वृक्ष पर आँधी और तूफान का भी कुछ असर नहीं होता । जिस वृक्ष की जड़ें जितनी गहरी रहती हैं, उसका विकास और उसमें फल एवं फूलों की उत्पत्ति भी उतनी ही अधिक होती है। दुर्भाग्य से जिस वृक्ष की जड़ें जमीन में गहरी नहीं उतरी हैं, वह आँधी और तूफान के झटके सहन नहीं कर सकता। यह मैं मानता हैं कि वृक्ष का अस्तित्व केवल उसके जड़ भाग में नहीं है, उसका ऊपरी भाग भी महत्वपूर्ण है, परन्तु यह तभी, जब कि उसकी जड़ शक्ति-सम्पन्न रहती है और उसमें पृथ्वी से अपना पोषण तत्त्व प्राप्त करने की शक्ति रहती है। पतझड़ आता है और हरे-भरे वृक्ष को ढूंठ बनाकर चला जाता है, परन्तु वसन्त आने पर वह वृक्ष फिर हरा-भरा हो जाता है, उसमें नई-नई कोंपलें फूट आती हैं ? नये पुष्प और नये फलों से वह फिर भर जाता है । यह इसलिए होता है कि उसकी जड़ों में अभी पृथ्वी से अपना पोषण-तत्त्व ग्रहण करने की शक्ति है। इसके विपरीत जिस
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धर्म-साधना का आधार | १६५ वृक्ष को जड़ों में शक्ति नहीं रहती, जिस वृक्ष की जड़ें खोखली हो जाती हैं, उसे महामेघ की कितनी भी स्वच्छ जल-धारा मिले, सूर्य का कितना भी प्राण-प्रद प्रकाश मिले और जीवन को ताजा कर देने वाला कितना भी स्वच्छ पवन मिले, वह वृक्ष अधिक दिनों तक हराभरा नहीं रह सकता।
साधना के वृक्ष के सम्बन्ध में भी यही सत्य है। साधना-वृक्ष तभी तक हरा-भरा रहता है, जब तक कि सम्यक् दर्शन स्थिर एवं प्राणवान है । सम्यक् दर्शन ही वस्तुतः अध्यात्म-साधना के वृक्ष का मूल है । जब तक सम्यक् दर्शन का मूल स्थिर है और अन्तर्निविष्ट है, तब तक अहिंसा, संयम और तप की साधना निरन्तर विस्तृत होती चली जाएगी और धीरे-धीरे मोक्ष तक भी इसका विकास हो सकेगा। परन्तु सम्यक् दर्शन के अभाव में साधना-वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता अथवा उसे स्थिर नहीं रखा जा सकता । जिस आत्मा का सम्यक् दर्शन विशुद्ध नहीं है, वह आत्मा अपने स्वरूप को भी कैसे जान सकेगा ? जिस आत्मा ने स्व-स्वरूप को नहीं समझा, वह आत्मा धर्म की आराधना नहीं कर सकता। उसकी अहिंसा, अहिंसा नहीं रह सकती, उसका संयम, सयम नहीं रह सकता और उसका तप, तप नहीं रह सकता । यदि अध्यात्मवृक्ष का सम्यक् दर्शन रूप मूल से विच्छेद हो जाए तो वह सूख जाएगा, उसका विकास रुक जायेगा और क्षीण होकर वह धराशायी हो जाएगा। इसी आधार पर मैं आपसे यह कह रहा था, कि किसी भी धर्म की साधना करने से पूर्व यह जानने का प्रयत्न करो, कि सम्यक दर्शन को ज्योति का तुम्हारी दिव्य आत्मा में आकाश जगमगाया है या नहीं।
युद्ध-क्षेत्र में वही सेना विजय प्राप्त कर पाती है, जो निरन्तर आगे तो बढ़ती रहे, किन्तु जिसका अपने मुल केन्द्र से सम्बन्ध विच्छेद न हो । जिस सेना का अपने मूल केन्द्र से सम्बन्ध बना रहता है, वह सेना कितना भी लम्बा आक्रमण करे और कितनी भी दूर क्यों न चली जाए, परन्तु उसे पराजित करने की शक्ति किसी में नहीं होती। कल्पना कीजिए, सेना निरन्तर आगे बढ़ रही है, किन्तु दुर्भाग्य से उसका सम्बन्ध उमके मूल केन्द्र से टूट गया, तो निश्चित समझिए, उस सेना का भविष्य खतरे में पड़ जाता है और उसकी विजय कभी नहीं हो पाती । अतः चतुर सेनापति इस बात का निरन्तर ध्यान रखता है, कि उसको सेना का सम्बन्ध मूल केन्द्र से सदा बना रहे ।
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१६६ | अध्यात्म-प्रवचन
यही बात साधना क्षेत्र में लागू पड़ती है । साधना का क्षेत्र कितना भी व्यापक और कितना भी विशाल क्यों न हो ? यदि उसका सम्वन्ध अपने मूल केन्द्र सम्यक् दर्शन से बना हुआ है, तो वह साधना अवश्य फलवती होती है । सम्यक् दर्शन के अभाव में विराट साधना तो क्या, अल्प साधना भी सफल नहीं होती । जीवन का एक मोर्चा नहीं है, हजारों-हजार मोर्चे हैं -कहीं काम का, कहीं क्रोध का, कहीं लोभ का और कहीं क्षोभ का । उक्त सभी मोर्चों पर होने वाले युद्ध में आप तभी सफल हो सकते हैं, जबकि आपका सम्बन्ध आपके मूल केन्द्र सम्यक् दर्शन से बना हुआ है । सम्यक् दर्शन हमारे जीवन के युद्ध का एक वह मोर्चा है, जहाँ पर सुरक्षित खड़े होकर हम अपने जीवन की दुर्बलताओं पर घातक प्रहार करते हैं । जीवन के एक-एक दोष को देखकर उसका संशोधन एवं परिमार्जन करना ही हमें विजय की ओर ले जाने वाला सबसे अधिक प्रशस्त मार्ग है । जीवन के विविध मोर्चों पर लड़ने वाला यह आत्मा यदि सम्यक् दर्शन के मूल केन्द्र पर खड़ा है, तो संसार की कोई भी ताकत उसे पराजय के मार्ग पर घसीट नहीं सकती । ज्ञानवान होना और चारित्रवान होना अच्छा है, किन्तु उससे पहले सम्यक् दर्शनधारी बनना आवश्यक है । यदि सम्यक दर्शन की निर्मल ज्योति नहीं है, तो सामान्य ज्ञान तो क्या, पूर्वों का सागरोपम ज्ञान भी दुर्गति से हमारी रक्षा नहीं कर सकता । सम्यक् दर्शन के अभाव में मोक्ष कभी सम्भव ही नहीं है । सम्यक् दर्शन के मूलकेन्द्र से सम्बन्ध टूट जाने पर, फिर धर्म की रक्षा का कोई आधार ही हमारे पास नहीं रहता । सम्यक् दर्शन के अभाव में पूर्व-धर ज्ञानी भी मर कर नरक में जा सकता है । इस कथन का रहस्य यही है, कि सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान, ज्ञान नहीं रहता और चारित्र, चारित्र नहीं रहता । प्रश्न किया जा सकता है, कि पूर्व श्रुत जितना विशाल ज्ञान प्राप्त करके भी यह आत्मा नरक-गामी क्यों होता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में इतना कहना ही पर्याप्त होगा, कि शास्त्र - स्वाध्याय और ज्ञान की साधना निरन्तर होने पर भी आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाता और अपने स्वरूप को न पहचानने के कारण ही उस आत्मा की दुर्गति होती है, वह पतन - पथ का पथिक वन जाता है । तप बहुत किया, जप बहुत किया, त्याग बहुत किया, किन्तु सम्यक् दर्शन के अभाव में वह सब एक प्रकार का नाटक का खेल रहा । क्योंकि जब तक धर्म केवल तन तक ही सीमित
रहता है,
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धर्म-साधना का आधार | १६७
उसका प्रवेश आत्मा की सीमा में नहीं होता, तब तक व्यवहार दृष्टि से तो वह त्याग कहलाता है, किन्तु निश्चय दृष्टि से वह त्याग नहीं है । व्यवहार भी नहीं, व्यवहारभास है, और इसके खेल एक बार नहीं, अनेक बार, और अनेक बार भी क्या, असंख्य बार खेल चुके हैं, किन्तु उससे हमारी आत्मा में क्या परिवर्तन आया ? यह एक विचारणीय प्रश्न है ।
आपने आचार्य 'अंगारमर्दन' का नाम सुना होगा । वह अपने युग के एक बहुत बड़े आचार्य थे, उनके पाण्डित्य का प्रभाव सर्वत्र फैला हुआ था । बड़े-बड़े राजा और महाराजा उनके भक्त थे, उनका शिष्यपरिवार भी बहुत बड़ा था । एक से एक सुन्दर राजकुमार उनकी तर्क - बुद्धि के चमत्कार से प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गए थे । प्रतिभा और बुद्धि के साथ-साथ आचार्य में प्रवचन की शक्ति भी अद्भुत थी । जिस किसी भी विषय को आचार्य जन-चेतना के समक्ष उपस्थित करते थे, तो वह विषय इतना सजीव एवं साकार हो जाता था, कि श्रोता उसे सुनकर गद्गद् हो जाते थे, मुग्ध हो जाते थे । जिस किसी भी देश में और देश की राजधानी में आचार्य का पदार्पण होता था, तो उनकी वाणी का अमृत पान करने के लिए जनता बन्धनमुक्त जल-प्रवाह की तरह उमड़ पड़ती थी । इतनी अद्भुत शक्ति थी आचार्य अंगारमर्दन में | अंगारमर्दन उनका मूल नाम नहीं था, वह तो बाद की एक घटना पर पड़ा, जिसका वर्णन मैं आपके समक्ष कर रहा हूँ ।
एक बार एक राजा ने स्वप्न में देखा, कि पाँच सौ सिंह एक गीदड़ की उपासना कर रहे हैं । राजा ने पहले कभी अपने जीवन में इस प्रकार का विचित्र स्वप्न नहीं देखा था । पाँच सौ सिंह और उनका अधिपति एक गीदड़, बड़े अजब - गजब की बात थी । राजा ने यह स्वप्न देखा, तो उसके आश्चर्य और विस्मय का पार न रहा । उसने अपने मंत्रियों से तथा अपनी सभा के अन्य बुद्धिमान सभासदों से इस विषय में चर्चा की और पूछा, कि इस स्वप्न का क्या अर्थ है ? इस कि गूढ़ रहस्य को कैसे जाना जाए ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था, मंत्री और सभासद राजा के उस विचित्र स्वप्न का क्या अर्थ लगाएँ । एक सिंह भी जिस वन में रहता है, उसकी गर्जना को सुनकर हजारोंहजार गोदड़ दूर भाग जाते हैं और इस स्वप्न में राजा ने पाँच सौ सिंहों का आधिपत्य करते हुए एक गीदड़ को देखा था । स्वप्न क्या था, एक विचित्र पहेली थी, स्वयं राजा के लिए भी और उसके मंत्री
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१६८ | अध्यात्म-प्रवचन
एवं सभासदों के लिए भी । मत्रियों को और सभासदों को मौन देखकर राजा ने फिर उनसे अपने प्रश्न का समाधान देने के लिए कहा, किन्तु किसी की कुछ भी समझ में न आया ।
सब विचारमग्न थे । इतने में ही वन- पालक ने आकर राजा को शुभ समाचार दिया, कि नगर से बाहर आपके उपवन में एक महान आचार्य अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ पधारे हुए हैं । राजा ने ज्यों ही यह समाचार सुना, त्यों ही उसे रात्रि में देखे हुए स्वप्न से गूढ़ रहस्य का अता-पता सा लगा । वह इस विचार पर पहुँचा, कि कहीं आचार्य ही तो मेरे स्वप्न का वह गीदड़ नहीं है, जो अपने पाँच सौ सिंह रूप शिष्यों पर आधिपत्य कर रहा है । आने वाली पूर्णिमा को चाँदनी रात में कहा जाता है कि राजा ने आचार्य जी के मकान के बाहर कोयलों के छोटे-छोटे कण बिखेर दिए । रात्रि में शिष्य बाहर जाने को आते और लौट जाते । उन कणों में उन्हें सूक्ष्म जीवों की प्रतीति होती, और दया का झरना मन में उमड़ पड़ता । परन्तु आचार्य बाहर आए तो उन्हें दलते - मलते चले गये । उन्होंने जीवों के सम्बन्ध में कोई भी जाँच नहीं की । शिष्यों को यह कहते हुए आगे बढ़ गये कि जीव हैं और मरते हैं तो हम क्या करें ? ये यहाँ आए ही क्यों ? और जब चलने पर कोयले मालूम हुए तो अपने शिष्यों पर खूब हँसे ।
आचार्य के पास बुद्धि, प्रतिभा एवं पांडित्य की कमी नहीं थी । वाणी का जादू भी उनके पास बहुत था, किन्तु यह सब कुछ होकर भी जीवन शोधन की वह अध्यात्म कला उनके पास नहीं थी, जिसे सम्यक् दर्शन कहा जाता है । गुरु-पद पर पहुँच कर भी आचार्य को चैतन्य की शुद्ध सत्ता पर आस्था न थी । आत्मा की विशुद्ध स्थिति एवं आत्मा के विशुद्ध स्वरूप मोक्ष एवं मुक्ति पर विश्वास न था । साधना तो की जा रही थी, किन्तु उसका लक्ष्य आत्मा की पवित्रता एवं स्वच्छता न होकर, लौकिक सुख भोग, कीर्ति, ख्याति और प्रसिद्धि मात्र था | दिखावा बहुत कुछ था, किन्तु अन्दर में सब कुछ शून्य ही शून्य था । आस्रव और संवर की व्याख्या करते थे । बन्ध और मोक्ष की चर्चा करते थे । मन में कुछ न था, किन्तु मुख में सब कुछ था । इसीलिए आचार्य अंगारमर्दन को अभव्य आत्मा कहा गया है । इस कथानक का फलितार्थ इतना ही है, कि आचार्य के पास बाह्य ज्ञान भी था और द्रव्य चारित्र भी था, किन्तु सम्यक् दर्शन के अभाव में वे
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धर्म-साधना का आधार | १६९ मोक्ष के अंग न हो सके । सम्यक दर्शन के बिना साधना शून्य बिन्दु से अधिक नहीं है। सम्यक् दर्शन ही वस्तुतः अध्यात्म-साधना का भूल है । मूल के बिना शाखा और प्रशाखा कैसे होगी? ___मैं आपको यह बतला रहा था कि सम्यक दर्शन की ज्योति के बिना जीवन विकसित नहीं बन सकता, उसमें धर्म के बीज अंकुरित नहीं हो सकते । जब आत्मा पर ही आस्था नहीं है, तो फिर धर्म पर भी विश्वास कैसे होगा? मैं यह समझता है, कि प्रत्येक साधक को अपने हृदय में यह विचार करना चाहिए, कि साधना किसके लिए की जाती है ? शरीर के लिए अथवा आत्मा के लिए? शरीर की साधना का कोई महत्व नहीं है । वह तो अनन्त काल से अनन्त बार होती ही रही है । साधना तो आत्मा की होनी चाहिए। पुण्य के खेल इतने चमकदार होते हैं, कि साधक इसके प्रकाश से आगे के एक दिव्य प्रकाश को देख नहीं पाता । संसारी आत्मा पाप करता हुआ भी पाप के फल को नहीं चाहता, किन्तु पुण्य के फल को चाहता है क्योंकि वह उसे मधुर और रुचिकर लगता है। भोगासक्त आत्मा चक्रवर्ती के वैभव को और स्वर्ग के सुख को ही चरम सिद्धि समझता है। सुख की अभिलाषा में यह संसारी आत्मा इतना आसक्त हो जाता है, कि सुख के अतिरिक्त इसे अन्य कोई वस्तू अच्छी नहीं लगती। सुख चाहिए, केवल सुख चाहिए । भले ही वह सुख बन्धन में ही डालने वाला क्यों न हो। यह आत्मा की मोह-मुग्ध दशा है। मोह-मुग्ध आत्मा संसार और संसार के सुखों में इतना आसक्त हो जाता है, कि उसे भवबन्धनों का परिज्ञान ही नहीं होने पाता । संसारी आत्मा दुःख को छोड़ना चाहता है, किन्तु सुख को पकड़ना चाहता है। तत्वदर्शी आत्मा वह है, जो दुःख के समान संसारी सुख को भी त्याज्य समझता है । वह संसारी सुख प्राप्त करके अहंकार नहीं करता, बल्कि सोचता है, कि यह भी एक प्रकार का बन्धन ही है। बन्धन को बन्धन समझना, यही सबसे बड़ा सम्यक दर्शन है। इस सम्यक दर्शन के अभाव में आत्मा अनन्त काल से भटकती रही है और अनन्त काल तक भटकती रहेगी।
मुझे एक लोक-कथानक की स्मृति आ रही है। एक बार की बात है, कि बादशाह अकबर रात्रि के समय अपने महल में सो रहा था। रात्रि को सहसा नींद खूल जाने पर उसने देखा, कि रात काफी व्यतीत हो चुकी है, किन्तु अभी सवेरा होने में कुछ देर है । उसी समय राज
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१७० ! अध्यात्म प्रवचन
मार्ग पर से किसी लड़की के रोने की आवाज सुनाई दी। रोने की आवाज सुनकर बादशाह विचार करता है, कि यह लड़की कौन है, और भला स्वर्णिम प्रभात के आगमन के समय पर क्यों रो रही है ? पूछताछ करने पर बादशाह को मालूम हुआ, कि लड़की के रोने का यह कारण है कि उसका पति उसे विदा कर अपने साथ ले जा रहा है।
संसार को प्रत्येक घटना कुछ न कुछ विचार अवश्य देती है। बादशाह इसी विषय पर विचार करने लगा और सोचने लगा कि किसी भी व्यक्ति के घर पर दामाद का आना अच्छा नहीं है। यह दामाद बड़े खराब हैं, जो गरीब लड़की को इस प्रकार रुलाते हैं । यदि संसार के सभी दामादों का सफाया करा दिया जाए, तो फिर कभी किसी लड़की को न उसके माता-पिता से वियोग होगा और न कभी इस प्रकार रोने का प्रसंग ही उपस्थित होगा।
प्रातःकाल जब बादशाह अपनी राजसभा में आया तो सबसे पहले उसने बीरबल को अपने पास बुलवाया और आदेश दिया कि “मेरे राज्य के सभी दामादों को शूली पर चढ़ा दिया जाए।" बादशाह के आदेश को सुनकर सभी आश्चर्यचकित थे और सभी एक दूसरे के मुख की ओर देखकर बादशाह द्वारा सहसा दिए जाने वाले इस विचित्र आदेश के गूढ़ रहस्य को जानने का प्रयत्न कर रहे थे।
बीरबल ने बादशाह के आदेश को सुना और उसका पालन करने के लिए राजधानी से बाहर एक विशाल मैदान में शूली लगवाना प्रारम्भ कर दिया। बीरबल ने जिन शूलियों को लगाया था, उन शूलियों में कुछ सोने की थी, कुछ चाँदी की थी और शेष सभी लोहे की थीं । जब बीरबल ने अपने कार्य को सम्पन्न कर लिया, तब दिखाने के लिए बादशाह को बुलाया गया। बादशाह अकबर को बड़ा आश्चर्य हुआ, कि उन शूलियों में कुछ शूलियाँ सोने और चांदी की भी हैं । बादशाह ने सोचा तो बहुत कुछ, किन्तु बीरबल की बुद्धि के रहस्य को समझना आसान न था। आखिर बादशाह ने बीरबल से पूछ ही लिया कि- “शूलियों में कुछ सोने और चांदी की क्यों लगाई गई हैं ?" ___ बीरबल ने विनम्र वाणी में कहा-“जहाँपनाह ! शूली लगाने का तो आपका आदेश है ही, किन्तु मैंने सोचा कि शूली लगवाते समय पद और प्रतिष्ठा का भी ध्यान रखना चाहिए। इसीलिए मैंने कुछ सोने की और कुछ चाँदी की शूलियाँ भी लगवा दी हैं।"
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धर्म-साधना का आधार | १७१ बादशाह अकबर ने जिज्ञासा के स्वर में पूछा-"क्या मतलब
तुम्हारा ?"
बीरबल ने मधुर स्वर में कहा-"जहाँपनाह ! आप भी तो किसी के दामाद हैं । मैं भी किसी का दामाद हैं और ये सभासद भी किसी न किसी के दामाद अवश्य हैं । आपके, मेरे और इन सभासदों के पद और प्रतिष्ठा का ध्यान रखकर ही, मैंने आपके लिए और अन्य सामंत राजाओं के लिए सोने की, अपने लिए और अन्य मंत्रियों के लिए चाँदी की शूलियां लगवाई हैं, तथा शेष जनता के लिए लोहे की शूलियाँ काम में लाई जा सकेंगी। पद और प्रतिष्ठा की दृष्टि से काफी सोच-विचार के बाद ही मैंने यह वर्गीकरण किया है।"
बीरबल की बात को सुनकर सभी सभासद हंस पड़े, बादशाह अकबर भी मन्द-मन्द मुस्कराने लगा। किन्तु संभलकर बोला--- "बीरबल, यह क्या तमाशा है ? मोत, और वह भी सोने और चाँदी के भेद से । मौत तो मौत है, चाहे सोने की शूली से हो, चाहे चाँदी की शूली से हो और चाहे लोहे की शूली से हो । सोने और चांदी की शूली पर चढ़ने वाला यदि यह अहंकार करे, कि मेरी मौत उन व्यक्तियों से अच्छी है, जिनको लोहे की शूली मिल रही है, तो यह एक प्रकार की मुर्खता ही होगी।"
बीरबल का चिंतन काम कर गया। दामादों को शूली देने का आदेश वापस ले लिया गया। किन्तु पद और प्रतिष्ठा के अहं पर वह चोट लगी कि काफी दिनों तक जनता की जबान पर यह चर्चा चलती रही।
कहानी समाप्त हो चुकी है। उसके मर्म को समझने का प्रयत्न कीजिए । मर्म यह है, कि संसारी व्यक्ति पाप को बुरा समझता है, किन्तु पुण्य को अच्छा समझता है । परन्तु जिस प्रकार पाप बन्धन है, उसी प्रकार पुण्य भी तो एक बन्धन है ? पाप लोहे की शूली है, तो पुण्य सोने की शूली है । शूली, शूली है । उन दोनों का कार्य एक ही है, किन्तु फिर भी मोह-मुग्ध आत्मा पुण्य के बन्धन को पाकर प्रसन्न होता है और सोचता है कि, मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ, कि मुझे लोहे की अपेक्षा सोने की शूली मिली है । तत्व-दर्शी आत्मा की दृष्टि में जिस प्रकार लोहे की शूली मृत्यु का कारण है, उसी प्रकार सोने की शूली भी मत्यू का कारण है। जिस प्रकार लोहे की बेड़ी बन्धन का काम करती है, उसी प्रकार सोने की बेड़ी भी बन्धन का काम करती है।
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१७२ | अध्यात्म प्रवचन बन्धन दोनों जगह है, लोहे में भी और सोने में भी । अध्यात्म-पक्ष में अध्यात्म-साधक यही सोचता और समझता है, कि जैसे पाप बन्धन है, वैसे पुण्य भी बन्धन है । पाप और पुण्य में अध्यात्म-दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है । यदि कुछ अन्तर भी है, तो केवल इतना ही कि एक प्रतिकूल वेदन है और दूसरा अनुकूल वेदन है। एक दुःखरूप है तो दूसरा क्षणिक सुखरूप है । पुण्य की यह अनुकूलता और सुखरूपता भी केवल व्यावहारिक है । वस्तुतः तो पुण्य भी निज स्वरूप से प्रतिकूल है, अतएव दुःखरूप ही है। यही कारण है कि-मोक्ष का शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार पाप को छोड़ा जाता है, उसी प्रकार 'पुण्य को भी छोड़ा जाना चाहिए । क्षणिक सुख पाकर उसका अहंकार करना कोरी मूढ़ता के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। ज्ञानी की दृष्टि में एवं विवेकशील आत्मा की दष्टि में बन्धन, बन्धन है, फिर भले ही वह दुःखरूप हो अथवा सुखरूप हो। यह नहीं हो सकता, कि पाप दुःख रूप होने से छोड़ दिया जाए और पुण्य सुख रूप होने से उसे सदैव अपने से चिपटा रखा जाए। ___मैं आपसे धर्म की बात कह रहा था। जीवन के विकास के लिए धर्म-साधना आवश्यक है, इसमें किसी प्रकार का विवाद हो ही नहीं सकता । धर्म की व्याख्या और धर्म की परिभाषा में विवाद हो सकता है, किन्तु धर्म की उपयोगिता में किसी प्रकार का विचार-भेद नहीं हो सकता । जिस प्रकार बीज के लिए भूमि ही आवश्यक नहीं है, जल, पवन और प्रकाश भी आवश्यक होता है, क्योंकि यदि बीज को धरती में डालने के बाद उसे समय पर उचित मात्रा में जल न मिले, शुद्ध पवन न मिले और सूर्य का प्राणप्रद प्रकाश न मिले, तो बीज को उर्वरा भूमि मिल जाने पर भी उसमें से अंकूर नहीं फट सकता। यही सिद्धान्त धर्म के विषय में भी समझिए । धर्म का मूलाधार है'आत्मा' । धर्म सदा आत्मा में ही रहता है । आत्मा के बिना धर्म का अन्य कोई आधार नहीं बन सकता, किन्तु आत्मगत धर्म को, जो कि प्रसुप्त पड़ा हुआ है, जागृत करने के लिए महापुरुष की वाणी, गुरु का उपदेश और शास्त्र का स्वाध्याय भी आवश्यक माना गया है। यद्यपि इन तीनों में धर्म को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है, धर्म कभी उत्पन्न होता भी नहीं है, वह तो एक शाश्वत तत्व है, सदा से रहा है और सदा ही रहेगा, फिर भी उसे पल्लवित और विकसित करने के लिए देव, गुरु और शास्त्र के अवलम्बन की आवश्यकता रहती है।
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धर्म-साधना का आधार | १७३
अध्यात्म-शास्त्र के अनुसार धर्म आत्मा की उस परम स्वरूपपरिणति को कहते हैं, जिसमें किसी बाह्य हेतु एवं कारण की अपेक्षा नहीं रहती । धर्म आत्मा का सहज शुद्ध स्वस्वभाव है । आत्मा के जितने गुण हैं वे सभी धर्म हैं । गुण को धर्म कहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा में जितने गुण हैं वे सब उसके धर्म हैं । आत्मा में अनन्त गुण है, इसलिए आत्मा में अनन्त धर्म हैं । उन अनन्त धर्मों में परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं होता। क्योंकि प्रत्येक धर्म ar अस्तित्व अपनी-अपनी अपेक्षा से है । निश्चय दृष्टि से अहिंसा कहाँ रहती है ? आत्मा में । सत्य कहाँ रहता है ? आत्मा में । अस्तेय कहाँ रहता है ? आत्मा में । ब्रह्मचर्य कहाँ रहता है ? आत्मा में । और अपरिग्रह कहाँ रहता है ? आत्मा में । इस प्रकार शील, सन्तोष, विवेक, त्याग आदि-आदि अनन्त धर्मों का आधार एक मात्र आत्मा ही है ।
धर्म-तत्त्व इतना व्यापक है कि नास्तिक से नास्तिक व्यक्ति भी इसकी सत्ता से इन्कार नहीं कर सकता । धर्म ही सबका प्राण है, धर्म के बिना व्यक्ति का कुछ भी मूल्य नहीं है । यह बात अलग है कि धर्म अनन्त स्वरूप है । किसी ने धर्म के किसी अंग विशेष को विकसित किया है और किसी ने किसी अंग विशेष को विकसित किया है । उदाहरण के लिए, प्रेम को ही लीजिए । यह एक आत्मा की परिणति - विशेष धर्म है, जो स्थिति विशेष से अशुभ, शुभ और शुद्ध रूप में प्रवाहित रहता है । प्रेम अपने आप में एक एवं अखण्ड होकर भी पात्र - भेद से विविध रूपों में अभिव्यक्त होता है । जैसे गंगा की निर्मल धारा का जल एक है, किन्तु किसी ने उसे अपने स्वर्ण पात्र में भरा, किसी ने उसे रजत - पात्र में भरा, और किसी ने उसे मिट्टी के पात्र में भरा । लोक व्यवहार में पात्र भेद से जल का भेद माना जाता है, वैसे ही प्रेम की धारा एक तथा अखण्ड होने पर भी पात्र -भेद के आधार पर उसके अगणित रूप हो जाते हैं। माता-पिता का अपनी सन्तान के प्रति जो प्रेम है, उसे वात्सल्य कहा जाता है । पति और पत्नी के मन में एक दूसरे के प्रति जो प्रेम है, उसे प्रणय कहा जाता है । शिष्य के मन में अपने गुरु के प्रति जो प्रेम है, उसे भक्ति कहा जाता है | भगवान के प्रति जो एक भक्त के मन में विशुद्ध प्रेम रहता है, उसे पराभक्ति कहा जाता है । भाई और बहिनों में तथा मित्रों में परस्पर एक दूसरे के प्रति जो अनुराग रहता है एवं प्रेम रहता है,
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म.
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१७४ | अध्यात्म प्रवचन उसे स्नेह कहा जाता है । यही प्रेम तत्व जब परिवार, समाज और राष्ट्र की सीमाओं को लांघ कर विश्व-व्यापी होता जाता है, विश्व के जन-जन के मन-मन में जब यह राग-द्वेषरहित निर्मल भाव से परिव्याप्त होता जाता है, तब इसे अहिंसा और अभय तथा अत्रासरूप मैत्री कहा जाता है। अहिंसा का अर्थ है-प्राण-प्राण के प्रति निर्मल प्रेम एवं निष्काम सद्भाव । मैत्री का अर्थ है-वह विचार जिसमें सबको आत्मवत समझने की भावात्मक क्षमता एवं शक्ति हो। जब धर्म का प्रकाश सूर्य-प्रकाश के समान धूमरहित विश्वव्यापी एवं लोकव्यापी बनता जाता है, तब उसको अहिंसा और मैत्री कहा जाता है, किन्तु जब धर्म का प्रकाश दीपक के प्रकाश के समान मन्द एवं मन्दतर होकर सीमित एवं सधम होता जाता है, तब उसे भक्ति, प्रेम, स्नेह, वात्सल्य और प्रणय आदि नामों से कहा जाता है।
__ मैं आपसे धर्म की व्याख्या और परिभाषा के सम्बन्ध में कुछ विचार कर रहा था । वास्तव में धर्म को किसी एक व्याख्या में बाँधना अथवा किसी एक परिभाषा की सीमा में सीमित करना, मैं पसन्द नहीं करता । धर्म एक व्यापक तत्त्व है, और मेरे विचार में उसे व्यापक ही रहना चाहिए। धर्म एक वह तत्त्व है, जो अपने अस्तित्व के लिए किसी बाह्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता । वह आरोपित नहीं होता, सहज होता है । जैसे अग्नि का धर्म उष्णता है, उसे किसी अन्य पदार्थ की आरोपित सहायता की आवश्यकता नहीं है, वैसे ही जिस वस्तु का जो धर्म है, वह सदा निरपेक्ष ही रहता है । आत्मा में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप धर्म है । दर्शन का विपरीत परिणाम मिथ्या दर्शन, ज्ञान का विपरीत परिणाम मिथ्याज्ञान और चारित्र का विपरीत परिणाम मिथ्याचारित्र-ये तीनों वस्तुतः धर्म नहीं है, किन्तु मोहवश इन्हें धर्म समझ लिया गया है। वास्तविक धर्म तो आत्मा का विशुद्ध परिणाम सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चारित्र ही है। इसी को अध्यात्मशास्त्र में रत्नत्रय, साधनत्रय और मोक्ष-मार्ग कहा जाता है । जो जीव दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित हो रहा है, उसे स्व-समय कहा जाता है । इसके विपरीत जो पुद्गल एवं कर्म प्रदेशों में स्थित है, उसे पर-समय कहा जाता है । ये आत्मा मोह के कारण एवं रागद्वष के कारण पर-पदार्थ में उत्कर्य और अपकर्ष को अपना उत्कर्ष और अपकर्ष मानता रहा है । पुद्गल के उत्कर्ष को अपना उत्कर्ष
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धर्म-साधना का आधार | १७५
मानना और पुद्गल के अपकर्ष को अपना अपकर्ष समझना, यह सबसे बड़ा मिथ्यात्व है, यह सबसे बड़ा अज्ञान है। इस आत्मा ने अज्ञान एवं मोह के वशीभूत होकर अपने शरीर के विकास को अपना विकास समझा और अपने शरीर के विनाश को अपना विनाश सभझा । यही सबसे बड़ा अधर्म है, यही सबसे बड़ा पाप है और यही सबसे बड़ा पातक है । कुछ व्यक्ति अपने पंथ के शास्त्र और अपने पंथ के वेश को ही धर्म मानते हैं, शेष सबको अधर्म। यह भी एक प्रकार का मिथ्यात्व एवं अज्ञान ही है । क्योंकि धर्म किसी देश-विशेष में नहीं रहता, धर्म किसी पंथ-विशेष में नहीं रहता, धर्म किसी स्थान-विशेष में नहीं रहता, किसी भी बाह्य जड़ वस्तु में धर्म मानना सबसे बड़ा अज्ञान है । क्योंकि धर्म तो आत्मा का गुण है, इसलिए आत्मा में ही रह सकता है । आप एक बात का ध्यान रखिए, कि धर्म किसी स्थूल पदार्थ का नाम नहीं, वह तो स्वस्वरूप का भावनात्मक एवं उपयोगात्मक रूप ही होता है। इसलिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये धर्म है, क्योंकि ये सब आत्मा के निज गुण हैं और निज गुणों का विकास ही सच्चा धर्म है । आप जीवों की अहिंसा एवं दया करते हैं, बड़ी अच्छी बात है । आप सत्य बोलते हैं, बहुत सुन्दर है। आप ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, यह जीवन का एक अच्छा नियम है । आप अपरिग्रह को धारण करते हैं, यह एक अच्छी साधना है। आप किसी भी प्रकार का तप करते हैं अथवा किसी भी प्रकार के संयम का पालन करते हैं, अति सुन्दर ! तप करना अच्छा है और संयम का पालन करना भी अच्छा है। परन्तु क्या कभी आपने यह भी सोचा है कि अहिंसा, संयम और तप की आराधना करना धर्म कब होता है ? यह धर्म तभी बनता है, जबकि अहिंसा पर विश्वास हो, संयम पर विश्वास हो और तप पर विश्वास हो। इन तीनों पर विश्वास का अर्थ होगा, आत्म-सत्ता की श्रद्धा एवं आत्म-सत्ता की आस्था । इसी को सम्यक् दर्शन एवं सम्यक्त्व कहते हैं । मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि यदि सम्यक् दर्शन है, तो अहिंसा भी सफल है, सत्य भी सफल है, अस्तेय भी सफल है, ब्रह्मचर्य भी सफल है और अपरिग्रह भी सफल है, अन्यथा ये सब कुछ निष्फल एवं निरर्थक हैं । अहिंसा पर विश्वास न हो और अहिंसा का पालन किया जाए, संयम पर विश्वास न हो और संयम का पालन किया जाए, तप में विश्वास
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१७६ / अध्यात्म-प्रवचन
न हो और तप का पालन किया जाए, यह साधक-जीवन की एक विचित्र विडम्बना है, यह एक अज्ञानता की दुःखद स्थिति है। जहाँ अज्ञान होता है, वहाँ श्रद्धान नहीं रहता और जहाँ श्रद्धान नहीं रहता, वहाँ धर्म भी नहीं रहना । कृति से पूर्व ज्ञप्ति चाहिए और ज्ञप्ति से पहले दृष्टि चाहिए, जहाँ दृष्टि शुद्ध होती है, वही ज्ञप्ति का प्रकाश फैलता है और ज्ञप्ति के प्रकाश में ही कृति सफल होती है। किसी भी धर्म-क्रिया को करने से पहले अपने मन में तोलो, और अपनी बद्धि में विचार करो कि मैं जो कुछ कर रहा है उससे मेरी आत्मा का विकास होगा कि नहीं। धर्म की सबसे सुन्दर परिभाषा एवं व्याख्या यही है, कि जिससे आत्मा का विकास हो, आत्मा का उत्थान हो और आत्मा के बन्धनों का अभाव हो, वही धर्म है ।
सबसे मुख्य और सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि सम्यक दर्शन क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जाता है कि-तत्व-रुचि को सम्यक् दर्शन कहते हैं । परन्तु रुचि क्या है ? यह भी एक प्रश्न है । रुचि को धर्म कहा जाए अथवा अधर्म कहा जाए ? रुचि धर्म है अथवा कर्मों का औदयिक परिणाम है ? यह प्रश्न आज का नहीं, बहत प्राचीन है। इस प्रश्न पर गम्भीरता के साथ विचार करने पर ज्ञात होता है, कि रुचि वास्तव में एक प्रकार का राग है, एक प्रकार की इच्छा है। राग और इच्छा कषाय-भाव है। फिर उस रुचि को धर्म कैसे कहा जा सकता है ? जितना भी कषाय है, वह चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो, वह कभी धर्म नहीं बन सकता। रुचि एवं इच्छा को यदि धर्म माना जाए अथवा श्रद्धान माना जाए, तब तो संसार में कोई भी जीव अभव्य नहीं रहेगा, क्योंकि रुचि अभव्य में भी रहती ही है। यदि रुचि को ही श्रद्धान कहा जाए, तब तो मिथ्रादष्टि जीव को भी सम्यकदृष्टि कहना पड़ेगा, क्योंकि रुचि उसमें भी हो सकती है। फिर इस संसार में किसी भी जीव को अभव्य और मिथ्यादष्टि कहने का हमें क्या अधिकार है ? यदि कहा जाए कि केवल रुचि को ही हम श्रद्धान नहीं कहते, बल्कि तत्त्व-रुचि को श्रद्धान कहते हैं, इतना कहने पर भी मेरे विचार में उक्त प्रश्न का समाधान नहीं हो पाता है। क्योंकि तत्त्व-रुचि नास्तिक, अन्धविश्वासी और एक मांसाहारी व्यक्ति में भी किसी न किसी रूप में हो सकती है। तत्त्व-रुचि नहीं, तत्त्व-रुचि का लक्ष्य ही निर्णायक है। जो तत्त्व-रुचि आत्मलक्षी है, वह चेतना का
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धर्म-साधना का आधार | १७७ शुद्ध परिणमन है, वह राग नहीं है । परन्तु जो तत्त्वरुचि संसार-लक्ष्यी है, वह राग है और वह सम्यक् दर्शन नहीं है।
बहुत दिनों की बात है । मैं तत्कालीन पटियाला राज्य के महेन्द्रगढ़ नगर में ठहरा हुआ था। उस समय दिल्ली के गुलाबचन्द्र जैन मेरे पान सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान ओलिवर लुकुम्ब को लाए। वह पाश्चात्य विद्वान बड़ा ही मधुर भाषी, विचारशील और दर्शन-शास्त्र का एवं धर्म-शास्त्र का एक विशिष्ट पण्डित था। भारत की प्राचीनतम भाषाएँ प्राकृत एवं संस्कृत पर उसका असाधारण अधिकार था। एक विदेशी होकर उसने प्राकृत एवं संस्कृत सीखी, यह कम आश्चर्य की बात नहीं है । उसने जैन-धर्म और जैन-दर्शन का विशिष्ट चिन्तन, परिशीलन एवं अध्ययन किया था। मैंने देखा कि वह अपनी बातचीत में यथा प्रसंग आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र एवं कल्पसूत्र आदि के मूल पाठों को उद्धत करता जाता था। यदि कोई भारतीय विद्वान इस प्रकार पाठों को बोलता तो कोई आश्चर्य की बात न होती । किन्तु एक विदेशी होकर इस प्रकार भारतीय विद्या पर और भारतीय भाषा पर अधिकार रखता हो, तो वस्तुतःआश्चर्य की बात होती है। मैंने अनुभव किया, कि प्रोफेसर का चिन्तन एवं अध्ययन गम्भीर है । उसे जो कुछ शंकाएँ थीं, उन्हें दूर करने के लिए और वर्तमान में जैन-धर्म एवं जैन-दर्शन को परम्परा किस रूप में और कैसी है, यह देखने के लिए ही वह भारत आया था । अहिंसा और अनेकान्त पर उसने अपने मन की शंकाएँ मेरे समक्ष रक्खीं। मैंने यथोचित समाधान की दिशा प्रशस्त की। इसके अतिरिक्त मूल, आगम, उनकी टीकाएँ और उनके भाष्यों में से भी उसने अनेक चर्चाएं की। बातचीत के प्रसंग में मैंने अनुभव किया, कि वह एक शान्त चत एवं प्रसन्न-चित व्यक्ति है। अपना तर्क कट जाने पर भी उसे आवेश नहीं आता था, और प्रसन्नता से कहता कि-"मुनिजी ! मेरे तर्क से आपका तर्क पैना है, आपका चिन्तन गम्भीर एवं तर्कसंगत है।"
मैंने देखा कि उसके मन में तत्त्वरुचि का भाव बहत गहरा एवं तीव्र है । तत्त्वचर्चा में वह इतना तल्लीन हो जाता था कि बाहर की स्थिति से अलिप्त हो जाता था। भयंकर गर्मी पड़ रही थी। वह पसीने से लथपथ हो जाता था, फिर भी घन्टों ही एक आसन से तत्त्व चर्चा में संलग्न रहता।
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१७८ | अध्यात्म-प्रवचन
बातचीत की समाप्ति पर जब वह जाने के लिए तैयार हुआ, तो मेरे मन में उससे एक प्रश्न पूछने की भावना उत्पन्न हुई । मैं सोचता था कि यह एक जिज्ञासु व्यक्ति है, जिज्ञासा लेकर यहाँ आया है, अतः अपनी ओर से इससे किसी प्रकार का प्रश्न नहीं पूछना चाहिए । परन्तु लम्बी बातचीत के कारण मैं उसके स्वभाव से परिचित हो गया था, मुझे विश्वास हो गया था, कि मेरे कुछ भी पूछने पर वह बुरा नहीं मानेगा । मैंने पूछा - "क्या मैं भी आपसे कोई प्रश्न कर सकता हूँ ?” वह प्रसन्न होकर बोला - "हाँ अवश्य पूछिए । प्रश्नोत्तर से ज्ञान बढ़ता ही है ।"
मैंने अपने प्रश्न की भूमिका बनाते हुए कहा - " आपने प्राचीन आगम ग्रन्थ पढ़े हैं, आपने उत्तरकालीन जैन दर्शन के ग्रन्थों का अध्यन भी किया है और आपने अहिंसा और अनेकान्त पर गम्भीर चिन्तन एवं मनन भी किया है । तब यह तो संभावित है कि आप मांसाहार नहीं करते होंगे ।" वह मन्द मुस्कान के साथ बोला - "नहीं, मैंने मांसाहार का परित्याग तो नहीं किया है । "
मेरे मन और मस्तिष्क में यह विचार तेजी के साथ चक्र काटने लगा, कि "अहिंसा का इतना गहरा ज्ञान प्राप्त करने के बाद और तत्त्व-चर्चा में इतनी गहरी दिलचस्पी होने पर भी यह मांसाहार का त्याग नहीं कर सका ।" मैंने शान्त स्वर में अपने उक्त प्रश्न को फिर दूसरे रूप में प्रस्तुत किया कि - " आपने जैन आगमों का किस उद्देश्य से अध्ययन किया है ?"
मेरे प्रश्न का विद्वान प्रोफेसर ने उत्तर दिया कि "मैंने जैन धर्म के आगमों का और जैन दर्शन के ग्रन्थों का अध्ययन तथा अहिंसा एवं अनेकान्त का अनुशीलन आचार-साधना की दृष्टि से नहीं किया है। जैन आगमों का अध्ययन एवं जैन परम्परा के नियम - उपनियमों का अनुशीलन मैंने इसीलिए किया है, कि जैन-धर्म एवं जैन दर्शन का मैं अधिकारी विद्वान बन सकूँ और अपने देश के विश्वविद्यालयों में प्राच्यविद्या के अध्ययन एवं शोधकार्य की आवश्यकता पूर्ण कर सकं ।"
मैं आपसे कह रहा था, कि तत्त्व-रुचि उस विद्वान में बहुत थी और वह जैन दर्शन के सूक्ष्म से सूक्ष्म तर्क को पकड़ता था तथा विचारचर्चा के प्रसंग पर गहरे से गहरे उतरने की उसमें अद्भुत क्षमता भी थी । परन्तु क्या इस प्रकार के तत्व-ज्ञान और तत्व-रुचि से आत्मा का कल्याण हो सकता है ? मैं समझता हूँ- 'नहीं' । और आप भी यही
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धर्म-साधना का आधार | १७६ कहेंगे कि 'नहीं' । ज्ञान होना अलग वस्तु है, किन्तु उसे जीवन में तब तक नहीं उतारा जा सकता, जब तक कि उस पर अध्यात्म भावनात्मक श्रद्धा एवं प्रतीति न हो । केवल सम्मान प्राप्त करने के लिए, अपने पांडित्य की धाक जमाने के लिए और केवल पैसा कमाने के लिए जो तत्त्व-चर्चा एवं तत्व-रुचि होती है, उससे आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता । इस प्रकार की तत्व-रुचि एक प्रकार का राग और एक प्रकार की इच्छा ही है। और इच्छा एवं राग कषाय-भाव है, फिर उससे आत्मा का विकास कैसे हो सकता है ? अध्यात्म-दर्शन कहता है, कि पहले अपने को समझो, पहले अपने को जानो और पहले अपनी सत्ता पर आस्था करो। यदि अपने को समझ लिया, तो सबको समझ लिया। अपने को समझना ही सच्चा सम्यक् दर्शन है । अपने से भिन्न पर-पदार्थ को तत्व-रुचि से कभी आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता, उत्थान नहीं हो सकता । पर-पदार्थ की रुचि और पर-पदार्थ की श्रद्धा मोक्ष को ओर नहीं, संसार की ओर ले जाती है, प्रकाश की ओर नहीं, अन्धकार की ओर ले जाती है तथा अमरता की ओर नहीं, मृत्यु की ओर ले जाती है । पर-पदार्थ की रुचि का अर्थ है-"स्व से भिन्न पर की ओर अभिमुख होना, आत्मा से भिन्न अनात्मा की प्रतीति करना।' पर-श्रद्धा का अर्थ है-"स्व से भिन्न अन्य पर विश्वास करना, और आत्मा से भिन्न अनात्मा पर विश्वास करना।" याद रक्खो, सबसे बड़ा धर्म सम्यक् दर्शन और सम्यक् श्रद्धान ही है। सम्यक् दर्शन के होने पर अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म आस्था में स्थिर रह सकता है । धर्म का अर्थ है-'स्व स्वरूपोलब्धि ।" जिसने अपने को समझ लिया, वस्तुतः वही धर्म के रहस्य को समझ सकता है। इसीलिए मैं कहता है कि पर-पदार्थ की तत्त्वरुचि और पर-पदार्थ का श्रद्धान धर्म नहीं हो सकता । आत्म-रुचि और आत्म-श्रद्धान ही सबसे बड़ा धर्म है, सबसे बड़ा कर्तव्य है । अहिंसा एवं सत्य आदि धर्म की साधना तभी सार्थक होती है, जब कि उनके आधारभूत आत्मा पर विश्वास हो । अभव्य और मिथ्या-दृष्टि आत्मा में सबसे बड़ी कमी यही है, कि वह जानता बहुत कुछ है, समझता बहुत कुछ है, किन्तु उसको स्वरूपोन्मुख-स्वरूप सम्यक् दर्शन और सम्यक् श्रद्धान का अभाव होने से वह मोक्ष के मार्ग को ग्रहण नहीं कर सकता। जब तक साधक मोक्ष के मार्ग की ओर उन्मुख और संसार-मार्ग को ओर विमुख नहीं होगा, तब तक वह कल्याण-पथ का पथिक नहीं बन सकता । तत्त्वार्थ
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१८० | अध्यात्म-प्रवचन
श्रद्धान का अर्थ जड़ पदार्थ का श्रद्धान नहीं है, बल्कि उसका सच्चा अर्थ आत्म-श्रद्धान एवं आत्म-भान ही है । पुद्गल की श्रद्धा करने से राग-द्वेष आदि कषाय घटते नहीं, बढ़ते हैं । राग एवं द्वेष आदि कषाय की क्षीणता एवं मन्दता तभी होगी, जब कि पुद्गल एवं जड़ तत्व का श्रद्धान न करके, आत्मा का श्रद्धान किया जाएगा । मोक्ष के साधक का यह कर्त्तव्य है, कि वह सबसे पहले स्व और पर में विवेक करना सीखे । स्व और पर का विवेक होने पर ही सच्चे धर्म की उपलब्धि हो सकती है और उसी धर्म से आत्मा का कल्याण हो सकता है, अन्यथा अनन्त भव-सागर में डूबते रहने के सिवा कुछ नहीं । कितनी विचित्र बात है, कि शरीर पर राग हो जाता है, धन पर प्रेम हो जाता है, विविध इन्द्रियों के विविध भोग्य पदार्थों पर आस्था जम जाती है, किन्तु आत्मा का अपने आप पर, निज शुद्ध स्वरूप पर विश्वास नहीं होता। याद रखिए, जब तक पुद्गल पर मोह रहेगा, तब तक आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि नहीं हो सकेगी । यह अन्तश्चित्त अनन्त - अनन्त काल से भोग - वासना का अधिष्ठान रहा है, अतः इसमें आज भी भोगों की दुर्गन्ध आती है । राग-द्वेष के वशीभूत होकर यह आत्मा क्षणिक सुख देने वाले पदार्थों में राग करता है और दुःख देने वाले पदार्थों में द्वेष करता है । राग करना और द्वेष करना, यही पतन का सबसे बड़ा कारण है । किसी पदार्थ को छोड़ देने मात्र से त्याग नहीं होता, किन्तु उस पदार्थ के प्रति आत्मविस्मृतिमूलक अथवा आत्म अस्थिरतामूलक जो राग है, उसका परित्याग ही सच्चा त्याग है ।
एक अनुभवी सन्त के पास एक बार एक धन-सम्पन्न व्यक्ति आया । सन्त उस समय अपने ध्यान योग में संलग्न थे । कोन आता है और कौन जाता है, इसका भान भी उन्हें नहीं था । वह भक्त आया और नमस्कार करके सन्त के समीप ही बैठ गया । सन्त ने जब अपनी समाधि खोली, तो आगन्तुक व्यक्ति ने नमस्कार करने के बाद सन्त से निवेदन किया कि "भगवन् ! मैंने अपनी सारी सम्पत्ति अपने परिवार के नाम करदी है । मैं अब किसी प्रकार का काम-धन्धा नहीं करता । सब कुछ छोड़ दिया है । यहाँ तक कि शरीर के वस्त्र भी साधारण हैं, खान-पान में भी अब मेरी विशेष रुचि नहीं रहती, किन्तु आश्चर्य है, कि सब कुछ त्याग देने पर भी अभी तक मुझे शान्ति नहीं मिली है । आप जैसे सन्तों के श्रीमुख से यह सुना था, कि जिस परिग्रह का संग्रह
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धर्म-साधना का आधार | १८१
किया है, उसका परित्याग कर देने पर शान्ति मिल जाती है, किन्तु मुझे तो अभी तक शान्ति नहीं मिली। इसका क्या कारण है ?” सन्त ने उसकी बातों को ध्यान से सुना और कहा - "जिस पात्र में वर्षों तक तेल रहा हो, उसमें से तेल की गन्ध अच्छी तरह मांजने पर भी आसानी से नहीं जाती । यह माना कि आपने अपनी सम्पत्ति का त्याग कर दिया किन्तु मन में से सम्पत्ति का राग जैसा छूटना चाहिए था, वैसा छूटा नहीं है । सम्पत्ति पुत्रों को सौंप दी है । किन्तु अब भी तुम्हारे मन में यह विकल्प है कि कहीं नादान लड़के सम्पत्ति नष्ट न कर दें । सम्पत्ति तो छोड़ी, किन्तु उसका राग कहाँ छोड़ा है ? और इस स्थिति में तुम्हें शान्ति लाभ हो, तो कैसे हो ?"
मैं आपसे कह रहा था, कि अनन्तकाल से जड़ पदार्थों के प्रति राग रूप अधर्म आत्मा में रहा है, परन्तु स्वरूपदर्शन रूप सम्यक् दर्शन धर्म के होते ही आत्मा का उत्थान होने लगेगा, चैतन्य का विकास होने लगेगा । धैर्य रखो और प्रतीक्षा करो, कि आपकी आत्मा में सम्यक् दर्शन का दिव्य प्रकाश जगमगाने लगे । सम्यग् दर्शन के दिव्य आलोक में ही आप अपने धर्म को और अपने कर्तव्य को भली भाँति समझ सकेंगे । समझ क्या सकेंगे ? सम्यक् दर्शन रूप धर्म के प्राप्त होते ही यह आत्मा धन्य-धन्य हो जाता है ।
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सम्यग् दर्शन की महिमा
यह आत्मा अनन्त काल से भव-बन्धनों में आबद्ध है । बन्धन से विमुक्त होने के लिए, जिन साधनों की आवश्यकता है, उन्हीं का वर्णन आजकल यहाँ चल रहा है । आत्मा जब अपने स्वभाव को छोड़कर विभाव में चला जाता है, तब वह उसकी बन्ध-दशा कहलाती है । जब आत्मा के विभाव भावों का अभाव हो जाता है, और आत्मा अपने स्वभाव में रमण करने लगता है, आत्मा को उस अवस्था को मोक्ष-दशा कहा जाता है। साधक के जीवन में जब तक सम्यक् दर्शन आदि रत्नत्रय भाव की पूर्णता नहीं होती है, वहाँ तक उसे जो कर्मबन्ध होता है, उसमें रत्नत्रय की हेतुता नहीं है। याद रखिए, रत्नत्रय तो मोक्ष का ही साधक है, वह बन्ध का कारण नहीं होता । परन्तु रत्नत्रय भाव का विरोधी जो रागांश होता है, वही बन्ध का कारण होता है । साधक को जितने अंश में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र प्राप्त हो चुका है, उतने अंश तक उसे बन्धन नहीं होता । किन्तु जितने अंश में राग है, उतने ही अंश तक उसे बन्धन होता है । इस कथन पर से यही फलितार्थ निकलता है, कि आत्मा के बन्धनों का अभाव करने के लिए आत्मा का स्वस्वभाव ही सबसे प्रधान एवं मुख्य साधन है ।
सम्यक् दर्शन एक ऐसा आध्यात्मिक स्वभाव है, जिसकी तुलना
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सम्यक दर्शन की महिमा | १८३
किसी भी भौतिक पदार्थ के लाभ से नहीं की जा सकती । एक ओर भौतिक पदार्थ का लाभ हो और दूसरी ओर सम्यक् दर्शन का लाभ हो, तो इन दोनों में सम्यक् दर्शन के लाभ का ही पलड़ा भारी रहता है । कल्पना कीजिए, किसी व्यक्ति को तीन लोक का राज्य भी मिल जाए, पर क्या वह राज्य स्थायी है ? राज्य और उसका वैभव कभी स्थायी नहीं रह सकते, यह सब परिवर्तनशील तत्त्व है । संसार की माया और संसार की तृष्णा का जब तक अन्त नहीं होगा, तब तक आध्यात्मिक राज्य का आनन्द नहीं होगा । सम्यक दर्शन एक ऐसा आध्यात्मिक गुण है, जिसके पूर्ण विकसित हो जाने पर, आध्यात्मिक भाव अनन्तकाल के लिए शाश्वत हो जाता है । सम्यक् दर्शन के होने पर ही अन्य सब गुण अधोमुख से ऊर्ध्वमुख हो जाते हैं ।
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सम्यक् दर्शन अध्यात्न-साधना का मूल आधार एवं मुख्य केन्द्र माना जाता है । सम्यक् दर्शन कहीं बाहर से आने वाला तत्त्व नहीं है, वह तो अनन्त काल से आत्मा में विद्यमान ही है । उस पर जो विकृति आ चुकी है, उसे दूर हटाने की बात ही मुख्य है । आत्मा में अन्य अनन्त गुण हैं, उनमें एक गुण सम्यक् दर्शन भी है, किन्तु सम्यक् दर्शन का इतना अधिक महत्व एवं इतना अधिक गौरव, इसलिए है, कि सम्यक् दर्शन के सद्भाव में ही ज्ञान और चारित्र पनप सकते हैं । सम्यक् दर्शन के सद्भाव में ही यम और नियम सफल हो सकते हैं । सम्यक् दर्शन के सद्भाव में ही तप और स्वाध्याय सार्थक हो सकते हैं । सम्यक् दर्शन समस्त सद्गुणों का आधार है । सम्यक् दर्शन अध्यात्म - जीवन की एक ऐसी कला है, जिसके प्राप्त हो जाने पर जीवन का दुःख भी सुख में परिवर्तित हो जाता है । सम्यक् दर्शन की भूमि में कदाचित दुःख का बीज भी गिर जाए, तो भी वह सम्यक् दर्शन की पवित्र भूमि में अंकुरित नहीं हो पाता है । यदि कभी अंकुरित हो भी जाए, तो वह मिथ्यादृष्टि के समान उद्वेगकारी एवं अनर्थकारी नहीं होता । सम्यग्दर्शन की पावन भूमि में पुण्यानुबन्धी पुण्यरूप अथवा आत्मरमणतारूप सुख का बीज तो खूब ही अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होता है । इसका अर्थ यही है कि सम्यक् दर्शन ही सुख-शांति और आनन्द की मूल जन्मभूमि है । साधक जीवन में यदि प्रज्ञा, मैत्री, समता, करुणा तथा क्षमा आदि की साधना सम्यक्त्व सहित की जाती है, तो उससे अवश्य हो सिद्धिलाभ होता है ।
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१८४ | अध्यात्म-प्रवचन __ सम्यक् दर्शन एवं सम्यक्त्व वास्तव में एक अद्भुत शक्ति है, क्योंकि इस सम्यक् दर्शन के प्रभाव से ही, आत्मा को विमुक्ति और सिद्धि मिलती है । अधिक क्या कहा जाए, अनन्त अतीत में जितनी भी आत्माएँ सिद्ध हुई हैं और अनन्त भविष्य में जितनी भी आत्माएँ सिद्ध होंगी, उन सबका सम्यक् दर्शन ही आधार है। इसीलिए मैं बार-बार आपके सामने सम्यक दर्शन की महिमा और गरिमा का वर्णन कर रहा है। यह सम्यक् दर्शन अनुपम सुख का भण्डार है, सर्व कल्याण का बीज है, और संसार-सागर से पार उतरने के लिए एक महान जहाज है । जिसने सम्यक् दर्शन को प्राप्त कर लिया, उसके समक्ष तीन लोक के राज्य का सुख भी कुछ मूल्य नहीं रखता। इस संसार का अन्त करने वाला यह सम्यक् दर्शन जिस किसी भी आत्मा में प्रकट हो जाता है, वह आत्मा कृतकृत्य हो जाता है । सम्यक् दर्शन को ज्योति जब साधक के जीवन-पथ को आलोकित कर देती है, तब इस अनन्त संसार-सागर में साधक को किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता । वह यह समझता है, कि सम्यक् दर्शन का चिन्तामणि रत्न जब मेरे पास में है, मेरे पास में क्या, मुझ में ही है, तब मुझे किस बात की चिन्ता है और किस बात का भय है ? जिसके पास सम्यक दर्शन है उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता।
__ मैं आपसे सम्यक दर्शन की बात कर रहा था । सम्यक दर्शन क्या वस्तु है ? जैन दर्शन के अनुसार और अध्यात्म-शास्त्र के अनुसार आत्म-दर्शन ही वस्तुतः सम्यक् दर्शन है । बिना आत्म-दर्शन के सम्यक् दर्शन हो ही नहीं सकता । सम्यक् दर्शन के लिए यह आवश्यक है, कि आत्मा की प्रतीति हो और इस बात की प्रतीति हो कि मैं हैं। और वह मैं, देह नहीं, देह से भिन्न आत्मा हैं। यह माया, यह मोह, यह ममता, यह राग और यह द्वष-ये सब अपनी ही अज्ञानता एवं भूल के कारण अपनी ही आत्मा की विभाव परिणति के विविध रूप हैं । परन्तु इस तथ्य को कभी मत भूलिए, कि यह विविध विकल्प एवं विकार स्वप्न के संसार के समान हैं। जिस प्रकार स्वप्न तभी तक रहता है, जब तक व्यक्ति निद्रा के अधीन रहता है, किन्तु ज्यों ही व्यक्ति जागता है, न जाने स्वप्न में उत्पन्न होने वाले वे दृश्य कहाँ भाग जाते हैं। इसी प्रकार आत्मा की विभाव परिणति के यह विविध रूप भी आत्मा की अज्ञानरूप निद्रा के दूर होते ही क्षण भर में सहसा विलुप्त हो जाते हैं । निद्रा-अधीन व्यक्ति अपनी स्वप्नावस्था में कभी
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सम्यक् दर्शन की महिमा | १८५ कभी बड़े विचित्र स्वप्न देख लेता है । वह अपने स्वप्न में देखता है कि मेरे सामने एक भयंकर सर्प है और वह मुझे डसने के लिए मेरी ओर बढ़ा चला आ रहा है । कभी स्वप्न में वह देखता है, कि वह एक भयंकर जंगल के गुजर रहा है, और उसके सामने एक शेर आ गया है, जिसकी भीषण गर्जना से समस्त वन प्रतिध्वनित हो उठा है | जगल में रहने वाले क्षुद्र जन्तु उसके भय से भयभीत होकर इधरउधर अपने प्राणों की रक्षा के लिए भाग रहे हैं और वह स्वयं भी अपने प्राणों की रक्षा की चिन्ता में इधर-उधर दौड़ रहा है । कभी वह देखता है, कि उसको चारों ओर से डाकुओं ने घेर लिया है और वह उनसे बचने के लिए इधर-उधर की दौड़-धूप कर रहा है । यद्यपि वास्तव में इनमें से एक भी उस समय उसके पास नहीं है । न सर्प है, न सिंह है और न कोई डाकू है, तथापि वह अपनी स्वप्न दशा में इन भयंकर दृश्यों को देखकर भयभीत हो जाता है और चिल्लाने लगता है | स्वप्नावस्था के इस भय एवं आतंक को दूर करने के लिए यह आवश्यक है, कि आप जाग उठें। आप ज्योंही जागृत हो जाएँगे, त्योंही वह भय एवं आतंक स्वतः ही विलुप्त हो जाएगा । उस भय एवं आतंक का कहीं अता-पता ही नहीं रहेगा । परन्तु याद रखिए, स्वप्न के भय एवं आतंक से विमुक्त होने के लिए जागरण की सबसे बड़ी आवश्यकता है । इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है, जिससे आप अपने स्वप्न के भय से विमुक्त हो सकें ।
आत्मस्वरूप की अज्ञानता और मिथ्यात्व के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ और वासना आदि असंख्य विकार एवं विकल्प अनादि काल से आत्मा को उसकी अपनी मोह-निद्रा में परेशान कर रहे हैं । अनन्त अनन्त विकल्प तो ऐसे हैं, जिनके नाम का भी हमें पता नहीं है । आत्मा के अनन्त विकल्पों में से कितने विकल्पों को हम तुम जानते हैं ? आत्मा में कवल अन्तर्मुहूर्त में ही असंख्य प्रकार के परिणाम उत्पन्न एवं विलुप्त होते रहते हैं । आत्मा अपनी उन सब परिगतियों में से निरन्तर गुजरती रहती है और इसके फलस्वरूप आकुलव्याकुल बनी रहती है । परन्तु यह विकल्प और विकार आत्मा में कब तक हैं, जब तक कि सम्यक् दर्शन की ज्योति आत्मा में प्रकट नहीं हो जाती हैं । आत्मा में सम्यक् दर्शन के प्रकट हो जाने पर कभीकभी तो केवल एक अन्तर्मुहूर्त में ही वे विकल्प और विकार विलुप्त हो जाते हैं ।
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१८६ | अध्यात्म-प्रवचन
मैं अभी आपसे कह रहा था, कि क्रोध, मान, माया और लोभ आदि विकारों में असंख्य विकार ऐसे हैं, जिनके नाम का भी हमें पता नहीं है। हमें केवल आत्मा के इने-गिने कुछ ही विकारों के नाम आते हैं। उदाहरण के लिए क्रोध को ही लीजिए, उसके चार रूपों को हम जानते हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, अप्रत्याख्यानी क्रोध, प्रत्याख्यानी क्रोध, और संज्वलनी क्रोध । ये क्रोध के बहुत ही स्थूल भेद हैं, जिन्हें हम जानते हैं, किन्तु इनमें से एक-एक भेद के भी असंख्यात एवं अनंत भेद प्रभेद होते हैं, जिनका हमें कुछ भी पता नहीं है और जिसके स्वरूप का प्रतिपादन करने के लिए हम अपनी भाषा में कोई शब्द नहीं पाते । जो बात क्रोध के सम्बन्ध में है, वही बात मान, माया एवं लोभ के सम्बन्ध में भी है। इस प्रकार आत्मा के विकार एवं विकल्पों के असंख्यात एवं अनन्त भेद हैं, जिनमें से आत्मा गुजरती रहती है । याद रखिए, बाहर का यह संसार तो बहुत छोटा है और उसकी तुलना में अन्तर्जगत बहत विशाल है। अध्यात्मनिष्ठ महापुरुषों ने एवं अनुभवी शास्त्रकारों ने अन्तर्जगत के इन विकार एवं विकल्पों के भय एवं आतंकों को स्वप्न के भय एवं आतक के समान कहा है। इन भय एवं आतंकों से बचने के लिए आध्यात्मिक जागरण की आवश्यकता है । अन्दर का जागरण आया नहीं कि ये सब भाग खड़े होते हैं । जब तक आत्मा का भान तहीं होता, और जब तक स्व का जागरण नहीं होता, तथा जब तक यह चैतन्य पर स्वरूप से स्व स्वरूप में नहीं आता, तब तक विकार एवं विकल्पों के भय एवं आतंक से आत्मा का मुक्ति पाना सम्भव नहीं है। आत्म दर्शन रूप सम्यक् दर्शन का जागरण ही उन विकल्प एवं विकारों से मुक्ति करा सकता है । अज्ञान के भय एवं आतंक को दूर करने का एकमात्र उपाय सम्यक् दर्शन ही है। ___ मैं आपसे सम्यक दर्शन को चर्चा कर रहा था। यह मैं मानता हैं कि सम्यक् दर्शन की चर्चा बहुत गहन एवं गम्भीर है, किन्तु उसकी गहनता और गम्भीरता को देखकर उसका परित्याग नहीं किया जा सकता । सम्यक् दर्शन के अभाव में हमारी साधना का जीवन-पथ ही अन्धकाराच्छन्न हो जाएगा। अज्ञान और मिथ्यात्व के उस घोर अन्धकार में यह आत्मा अनन्त काल से भटकती रही है और उसके अभाव में भविष्य में भी अनन्त काल तक भटकती ही रहेगी । अतः जीवन के उद्धार एवं उत्थान के लिए, सम्यक् दर्शन की उपलब्धि अत्यन्त आवश्यक है ? परन्तु सबसे बड़ा सवाल यह है, कि वह सम्यक
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सम्यक् दर्शन की महिमा | १८७ दर्शन है क्या वस्तु ? सम्यक् दर्शन की परिभाषा बताते हुए कहा गया है, कि 'तत्त्वार्थ श्रद्धान' ही सम्यक दर्शन है। तत्वों की श्रद्धा को सम्यक दर्शन कहा गया है। इस आत्मा में अतत्त्व का श्रद्धान या तत्त्व का अश्रद्धान अनन्त काल से रहा है। विचार कीजिए, निगोद की स्थिति में यह आत्मा अनन्तकाल तक रहा। फिर यह आत्मा पृथ्वीकाय, जल-काय, अग्निकाय, वायु-काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय में भी असंख्यात काल तक रहा। वहाँ पर जन्म और मरण करते हुए असंख्यात अवसर्पिणी और असंख्यात उत्सर्पिणी जितना दीर्घकाल गुजर गया, किन्तु आत्मा को सम्यक् दर्शन की ज्योति प्राप्त न हो सकी । इस अनन्त काल में यदि आत्मा को अतत्त्व का श्रद्धान नहीं हआ, तो उसे तत्त्व का श्रद्धान भी कहाँ था ? निगोद आदि में अतत्त्व का श्रद्धान नहीं था, तो तत्त्व की श्रद्धा भी कहाँ थी ? अतत्त्व की श्रद्धा के समान तत्त्व की श्रद्धा न होना भी सबसे बड़ा मिथ्यात्त्व है। कल्पना कीजिए, आत्मा अनन्त काल से निगोद में जन्म एवं मरण करता रहा । एक साँस में जहाँ अठारह बार जन्म एव मरण होता हो, तो विचार कीजिए, वहाँ जीवन कितनी देर रहा ? जीवन के नाम पर वहाँ इतना भी समय नहीं मिला कि मानव-जितना एक साँस भी पूरा ले सके । कितनी भयंकर वेदना की स्थिति है, यह । इतनी भयंकर वेदना उठाने पर भी इस आत्मा को सम्यक् दर्शन का प्रकाश नहीं मिल सका । सम्यक् दर्शन का प्रकाश मिलता भी कैसे ? जब तक साधक जीवन में से मोह निद्रा का अभाव नहीं होगा, तब तक आत्मा के शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि कैसे होगी? इसीलिए अध्यात्म शास्त्र में उपदेश दिया गया है, कि साधक ! जागृत हो, सतर्क हो, सावधान बन, प्रमाद को छोड़कर अप्रमत्त बन, उठ, जाग और अध्यात्म-साधना के पथ पर आगे बढ़ । जीवन में चाहे दुःख हो अथवा चाहे सुख हो, किन्तु एक क्षण के लिए भी आत्म-भाव को विस्मृत मत होने दो । अध्यात्म-साधना में क्षण मात्र के लिए भी स्वरूप का प्रमाद भयंकर विपत्ति उत्पन्न कर सकता है, इसलिए स्व के सम्बन्ध में क्षणमात्र का भी प्रमाद मत करो। अतीत काल में अनन्त बार जन्म-मरण कर चुके हो, उसे भूल जाओ और एक ही बात याद रखो कि वर्तमान में और भविष्य में फिर कभी जन्म मरण के परिचक्र में न फँस जाओ।
आत्म-विवेक के अभाव में यह आत्मा अदेव को देव समझता रहा, अगुरु को गुरु समझता रहा और अधर्म को धर्म समझता रहा । परन्तु
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१८८ | अध्यात्म प्रवचन
निगोद आदि की स्थिति में इस प्रकार का अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्व भी कहाँ था ? निगोदवर्ती जीव के द्रव्य मन से सम्पुष्ट एवं प्रबुद्ध इस प्रकार का भाव कहाँ था, जिससे कि वह अतत्त्व का संकल्प एवं विकल्प कर सकता ? निगोदवर्ती जीव में मिथ्या दर्शन तो अवश्य है ही, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता, किन्तु प्रश्न है, कि वहाँ पर कौनसा मिथ्यात्व है और कैसा मिथ्यात्व है ? क्योंकि मिथ्यात्वरूप विकल्प के भी असंख्य भेद होते हैं ।
सम्यक् दर्शन को समझने के लिए मिथ्या दर्शन को समझना भी आवश्यक हो जाता है । प्रकाश के महत्त्व को वही समझ सकता है, जो पहले कभी अन्धकार से परिचित रह चुका हो, अंधकार के तमस् भाव को जानता हो । यद्यपि यहाँ पर सम्यक् दर्शन के स्वरूप का वर्णन चल रहा है, किन्तु सम्यक् दर्शन के उस दिव्य स्वरूप को समझने के लिए उसके विपरीत भाव स्वरूप मिथ्यादर्शन को समझ लेना भी आवश्यक है । आत्मा के अनन्त गुणों में दर्शन नाम का भी एक गुण है । आत्मा का यह दर्शन नामक गुण, मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्या दर्शन रूप होता है, जिसका निमित्त कारण मिथ्यादर्शन कर्म का उदय है । इसके होने पर वस्तु का यथार्थ दर्शन एवं श्रद्धान नहीं होता, अयथार्थ ही होता है । इसी आधार पर इसको मिथ्या दर्शन कहते हैं । आत्मा का जो दर्शन गुण है, मिथ्या दर्शन उसकी अशुद्ध पर्याय हैं । इसके विपरीत आत्मा के दर्शन गुण की शुद्ध पर्याय को सम्यक् दर्शन कहते हैं, इसके होने पर वस्तु का यथार्थ दर्शन एवं श्रद्धान होता है ।
मैं आपसे यहाँ पर मिथ्यादर्शन की चर्चा कर रहा था । मिथ्यादर्शन का अर्थ है, मिथ्यात्व, जो सम्यक् दर्शन एवं सम्यक्त्व से उलटा होता है । मिथ्यादर्शन दो प्रकार का होता है - पहला तत्त्व विषयक यथार्थं श्रद्धान का अभाव और दूसरा अतत्त्व विषयक अयथाथ श्रद्धान । पहले और दूसरे में केवल इतना ही अन्तर है, कि पहला सर्वथा मूढ़दशा में हो सकता है, जब कि दूसरा विचार- दशा में ही होता है । उक्त भेदों को दूसरे शब्दों में अभिगृहीत मिथ्यात्व और अनभिगृहीत मिथ्यात्व भी कहते हैं । विचार शक्ति का विकास होने पर भी जब अपने मताभिनिवेश के कारण अतत्त्व में तत्त्वरूप श्रद्धा को अपना लिया जाता, तब विचार दशा के रहने पर भी होने से वह दृष्टि मिथ्या दर्शन कहलाती है । यह
अतत्त्व में पक्षपात उपदेश जन्य एवं
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सम्यक दर्शन की महिमा | १८६ विचारजन्य होने के कारण अभिगृहोत कही जाती है । इसके विपरीत जब विचार-दशा जागृत न हुई हो, तब अनादिकालीन दर्शन मोहनीय कर्म के आवरण के कारण केवल मूढ़-दशा होती है। यह मूढ़-दशा निगोदवर्ती आदि अविकसित जीवों में रहती है। उन जीवों में जैसेअतत्त्व का श्रद्धान नहीं है, वैसे तत्त्व का श्रद्धान भी तो नहीं होता। इस दशा में केवल मूढ़ता होने से तत्त्व का अश्रद्धान रूप मिथ्यात्व हैं । यह उपदेश-निरपेक्ष होने से अनभिगृहीत मिथ्यात्व कहा गया है। पंथ, मत, सम्प्रदाय आदि सम्बन्धी जितने भी एकान्त-प्रधान कदाग्रह हैं, वे सभी अभिगृहीत मिथ्यादर्शन हैं, जो कि विकसित चेतना वाली मनुष्य आदि जातियों में हो सकता है। और दूसरा अनभिगृहीत मिथ्यात्व तो एकेन्द्रिय निगोद आदि तथा क्षुद्र कीट पतंग आदि जैसी मूच्छित चैतन्य वाली जातियों में ही सम्भव है। ____ मैं आपसे कह रहा था, कि, देव को कुदेव और कुदेव को देव, गुरु को कुगुरु और कुगुरु को गुरु, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म, आदि समझने जैसे मिथ्यात्व के मापदण्ड तो पन्थयुग के बने हैं। ये सब उस समय कहाँ थे ? यह मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की परिभाषा एवं शब्दावली उस समय कहाँ थी, जब कि हमारी यह आत्मा निगोद आदि स्थिति में रही होगी। वहाँ पर अतत्त्व श्रद्धान रूप मिथ्यात्व नहीं था, फिर भी वहाँ मिथ्यात्व की स्थिति तो अवश्य थी ही। क्योंकि अतत्त्व का श्रद्धान तो मिथ्यात्व है ही, परन्तु तत्त्व का श्रद्धान न करना भी मिथ्यात्व ही है। उस स्थिति में और उस दशा में तत्त्व का श्रद्धान न करने का मिथ्यात्व था। __ अतत्त्व का श्रद्धान करना अभिगृहीत मिथ्यात्व है। इसको दूसरे शब्दों में विपरीत श्रद्धान भी कहा जा सकता है । इधर-उधर के ग्रन्थ, पोथी-पन्ने और पंथ एवं संप्रदायों से ग्रहण की हुई विपरीत दृष्टि अतत्त्व का श्रद्धान ही है । परन्तु जिस निगोद आदि स्थिति में विपरीत विकल्पों को ग्रहण करने वाला मन ही नहीं है, वहाँ विपरीत श्रद्धान रूप मिथ्यात्व नहीं होता। वहाँ तत्त्व के श्रद्धान का अभाव-स्वरूप अनभिगृहीत मिथ्यात्व होता है। अभिगृहीत मिथ्यात्व वह है, जा मन एवं बुद्धि से ग्रहण किया जाता है । यह विकसित चेतना वाले प्राणियों में ही हो सकता है । एकेन्द्रिय आदि जीव में द्रव्यमन नहीं होता और चिन्तन की स्पष्ट बुद्धि भी नहीं होती, इपी से वहाँ अतत्त्व के श्रद्धानरूप अभिगृहीत मिथ्यात्व भी नहीं होता, परन्तु तत्त्व के श्रद्धान का
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१६० । अध्यात्म-प्रवचन अभावरूप मिथ्यात्व रहता है। इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि अभिगृहीत मिथ्यात्व की अपेक्षा अनभिगृहीत मिथ्यात्व अधिक भयंकर होता है। यद्यपि भयंकर तो दोनों ही हैं, क्योंकि दोनों ही दशाओं में मिथ्यात्व की शक्ति रहती है, तथापि अभिगृहीत की अपेक्षा अनभिगृहीत को भयंकर मानने का कारण यह है, कि उसमें किसी प्रकार की विचार-दशा ही नहीं रहती, अतः सतत मूढ़दशा ही बनी रहती है । अभिगृहीत मिथ्यात्व मताग्रहरूप विचार-दशा में होता है। ऊपर से यह अधिक भयंकर प्रतीत होता है, परन्तु मूलतः ऐसा नहीं है। क्योंकि यदि वह आज पतन के मार्ग पह है, तो कल उत्थान के मार्ग पर भी लग सकता है। यदि आज वह कुमार्ग पर चल रहा है, तो कल वह सन्मार्ग पर भी चल सकता है। विचार-शक्ति तो है ही, केवल उसकी धारा बदलने की आवश्यकता है।
कल्पना कीजिए, किसी व्यक्ति को १०४ डिग्री अथवा १०५ डिग्री तीव्र ज्वर चढ़ा है, जिसके कारण ज्वरग्रस्त रोगी बहुत ही व्याकुल और परेशान रहता है। यह तीव्र ज्वर बहुत ही भयंकर होता है, क्योंकि इससे शरीर की अशक्ति एवं व्याकुलता बढ़ी रहती है। परन्तु एक दूसरा व्यक्ति है, वह भी ज्वरग्रस्त है। उसका ज्वर हल्का रहता है, किन्तु दीर्घकाल तक चलता रहता है, जब कि तीव्र ज्वर शीघ्र आता है और शीघ्र ही लौट भी जाता है। ज्वर दोनों को है, एक को तीव्र है, दूसरे को मन्द है, किन्तु इन दोनों में भयंकरतम ज्वर कौन-सा है ? निश्चय ही तीव्र ज्वर की अपेक्षा दीर्घकाल स्थायी मन्द ज्वर ही अधिक भयंकर है। यही स्थिति अभिगृहीत मिथ्यात्व और अनभिगृहीत मिथ्यात्व की है । अभिगृहीत मिथ्यात्व की अपेक्षा अनभिगृहीत मिथ्यात्व अधिक भयकर है । अभिगृहीत मिथ्यात्व तीव्र ज्वर के समान है और अनभिगृहीत मिथ्यात्व मन्द ज्वर के समान है । अनभिगृहीत मिथ्यात्व इस आधार पर अधिक भयंकर है, कि उसमें जीव की विचार-शून्य दशा रहती है एवं मूढ़ दशा रहती है, जिसमें अपने हित-अहित का कुछ भी चिन्तन नहीं रहता, जिसमें अपने उत्थान एवं पतन का कुछ भी संकल्प नहीं रहता। मैं कौन हूँ और क्या हूँ-यह भी भान नहीं रहता । अध्यात्म-दृष्टि से यह स्थिति बहुत ही भयंकर है । अभिगृहीत मिथ्यात्व उस भयंकर तीव्र ज्वर के समान है, जिस पर यथावसर शीघ्र ही एवं आसानी से काबू पाया जा सकता है, परन्तु अनभिगृहीत मिथ्यात्व उस मन्द एवं दीर्घ काल स्थायी ज्वर के समान है, जिसकी
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सम्यक् दर्शन की महिमा | १९१ उग्रता का वेग बाहर से उतना नहीं, जितना कि अन्दर में रहता हैं, जो अन्दर ही अन्दर शरीर की हड्डियों को गलाता रहता है, और चिकित्साशास्त्र की दृष्टि में दुःसाध्य भी होता है।
मैं आपसे मिथ्या दर्शन के दो रूपों की चर्चा कर रहा था-अभिगृहीत और अनभिगृहीत । मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि यद्यपि अध्यात्म दृष्टि से दोनों ही मिथ्यात्व आत्मा का अहित करने वाले है, तथापि अनभिगृहीत की अपेक्षा अभिगृहीत मिथ्यात्व चाहे कितना भी उग्र एवं भयंकर क्यों न हो, फिर भी उसमें विचार एवं विकास के लिए अवकाश रहता है । इन्द्रभूति गणधर गौतम का नाम आप जानते ही हैं। वे अपने युग के प्रकाण्ड पण्डित थे और धुरन्धर विद्वान थे। उनका विश्वास था कि यज्ञ में बलि देने से धर्म होता है और इससे लोक तथा परलोक दोनों जीवन आनन्दमय एवं उल्लासमय बनते हैं। गौतम के पांडित्य का प्रभाव प्रायः भारत के प्रत्येक प्रांत में फैल चुका था । इतना ही नहीं, उसके अद्भुत पांडित्य की छाप सुदूर हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक जन-मानस पर गहरी अंकित हो चकी थी। उसने अपने जीवन में दो चार नहीं, हजारों-हजार शास्त्रार्थ किए, जिनमें विजय प्राप्त की । यह सब कुछ होने पर भी, यह कहा जा सकता है, कि गौतम जिस प्रकार अपने युग का सबसे बड़ा पण्डित था, उसी प्रकार वह अपने युग का घोर एवं भयंकर अभिगृहीत मिथ्यात्वो भी था । भगवान महावीर के समवसरण में जाते हुए देवताओं को देखकर उसने उन देवताओं को इस आधार पर पागल मान लिया था, कि वे उसकी यज्ञशाला में न उतरकर भगवान महावीर के समवसरण में क्यों चले जा रहे हैं ? गौतम अपने पंथ एवं सम्प्रदाय में इतना प्रगाढ़ रागांध था, कि उसने भगवान महावीर को भी ऐन्द्रजालिक कह दिया था । गौतम के मन में यह भी अहंकार था, कि मेरे पांच सौ शिष्य हैं और अब मैं अवश्य ही इस ऐन्द्रजालिक महावीर को अपना शिष्य बनाकर छोड़ गा । इस घोर अहं एवं मिथ्यात्व के दर्प को लेकर वह भगवान महावीर के समवसरण में पहुंचा। जब वह भगवान के समीप पहुँचा, तब भगवान की शांत एवं भव्य छवि को देखकर तथा उनके दिव्य प्रभाव से प्रभावित होकर सहसा अपने आपको भूल-सा गया । उसका सारा अभिमान गल कर समाप्त होने लगा । भगवान महावीर ने शांत एवं मधुर स्वर में कहा-“गौतम ! तुम्हारा आगमन शुभ है, तुम बहुत ठीक समय पर आये हो।" भगवान के श्रीमुख से इन मधुर शब्दो के साथ दिये गए तत्वोपदेश
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१६२ | अध्यात्म प्रवचन को सुनकर वह अपने अहंकार के विचार को और अपने अहंकार की भाषा को भूल बैठा था। उसमें अभिगृहीत मिथ्यात्व की जितनी तीव्रता थी, वह क्षीण हो चुकी थी। इस प्रकार उसका मिथ्यात्व जितना भयंकर था, उतना ही शीघ्र वह समाप्त भी हो गया। इन्द्रभूति गौतम, जो विजेता का दर्प लेकर भगवान के समीप पहुँचा था, और जिसके हृदय में यह भावना थी, कि मैं महावीर को अपना शिष्य बनाऊँगा, वह स्वयं विचार बदलते ही तत्काल भगवान का शिष्य हो गया । अन्य साधकों की तरह वह सूचना देने के लिए घर भी नहीं गया। इतना ही नहीं, अपने पाँच सौ शिष्यों को भी उसने भगवान महावीर का ही शिष्य बना दिया। कितनी विचित्र स्थिति है जीवन की यह, कि जो व्यक्ति गुरु बनने का अहं लेकर गया, वह स्वयं शिष्य बन गया। जिसे शिष्य बनाने चला था, उसे ही अपना गुरु बना लिया । गौतम के मन में जो अभिगृहीत मिथ्यात्व था, उसके दूर होते ही उसकी आत्मा में सम्यक् दर्शन का दिव्य प्रकाश प्रकट हो गया था ।
कभी-कभी ऐसा होता है, कि साधक साधना के पथ पर आकर फिर वापिस लौट जाता है । कुछ ऐसे भी हैं, जो गिरकर फिर सँभल जाते हैं । और कुछ ऐसे भी हैं, जो गिरकर फिर संभल नहीं पाते । परन्तु कुछ ऐसे विलक्षण साधक होते हैं, जो एक बार साधना-पथ पर आए, तो फिर निरन्तर आगे ही बढ़ते रहे । पीछे लौटना तो क्या, वे कभी पीछे मुड़कर भी नहीं देखते । इन्द्रभूति गौतम इसी प्रकार के साधक थे । एक बार साधना के पथ पर कदम रख दिया, तो फिर निरन्तर आगे ही बढ़ते रहे, कभी पीछे लौटकर नहीं देखा। यह भी नहीं सोचा, कि पीछे घर की क्या स्थिति होगी और घरवालों की क्या स्थिति होगी? इन्द्रभूति गौतम की इस स्थिति को देखकर, उसके छोटे भाई अग्निभूत और वायुभूति भी अपने-अपने शिष्य-परिवार के साथ भगवान के शिष्य बन गए । गौतम के समान उनका भी अभिगृहीत मिथ्यात्व टूट गया और उन्होंने भी सत्य-दृष्टि को पा लिया। यह अपने युग की एक बहुत बड़ी क्रांति थी, जिसका उदाहरण भारतीय इतिहास में दूसरा नहीं मिल सकता । परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न यह है, कि यह सब कैसे हो गया और क्यों हो गया ? बात यह है कि जब तक आत्मा अभिगृहीत मिथ्यात्व के अन्धकार में प्रसुप्त थी, तब तक उनके जीवन में किसी प्रकार का चमत्कार उत्पन्न न हो सका, किन्तु ज्यों ही अभिगृहीत मिथ्यात्व का अन्धकार दूर हुआ, त्यों ही उनकी प्रसुप्त आत्मा जागृत हो गई। अभिगृहीत मिथ्यात्व का शोर गुल बहुत
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सम्यक् दर्शन की महिमा | १९३ रहता है, परन्तु उसके जाते भी विलम्ब नहीं लगता । विचार बदलते ही जीवन की सम्पूर्ण दशा भी बदल जाती है, परन्तु अनभिगृहीत मिथ्यात्व इतनी शीघ्रता से नहीं टूट पाता, क्योंकि उसमें जीवन की वह मूढ़ दशा रहती है, जिसमें शुद्ध भाव की स्फुरणा नहीं हो पाती, यदि होती भी है, तो बड़ी कठिनता से और दीर्घकाल के बाद ।।
देह, इन्द्रिय एव मन आदि अनात्मा को आत्मा समझना अभिगृहीत मिथ्यात्व है। परन्तु आत्मा को किसी भी रूप में आत्मा ही न समझना, आत्मा का भान ही न होना, अनभिगृहीत मिथ्यात्व है। अभिगृहीत मिथ्यात्व में देहादि में आत्म-बुद्धि होती है, देहादि के अतिरिक्त शुद्ध चैतन्य रूप से आत्मा का भान नहीं रहता और यदि देहादि से भिन्न आत्मा की प्रतीति भी होती है, तो अणु या महत् परिमाण के रूप में, एकान्त अकर्ता या कर्ता के रूप में, एकान्त नित्य या अनित्य के रूप में स्वरूपविपर्यास होता है । अभिगृहीत मिथ्यात्वी आत्मा अपने देहादि के अध्यास में ही फंसा रहता है। इस देह के भीतर शुद्ध एवं चिद्घनानन्दस्वरूप एक आत्मरूपो सूर्य की उसे जब तक प्रतीति नहीं होती, तभी तक वह मिथ्यात्व में फंसा रहता है। इसके विपरीत जब उसे देहादि के अभ्रपटल से भिन्न आत्मा रूपी सूर्य की प्रभा का आभास मिल जाता है, अणु एवं एकान्त अकर्ता आदि का स्वरूपविपर्यास दूर हो जाता है, तब वह प्रबुद्ध एवं जागृत सम्यग् दृष्टि हो जाता है।
मैंने सम्यक् दर्शन की परिभाषा एवं व्याख्या करते हुए कहा था, कि तत्वार्थ श्रद्धान ही सम्यक् दर्शन है। आत्मा भी एक तत्व है, यदि उस आत्म-तत्व में श्रद्धान नहीं हआ है, तो सम्यक दर्शन कैसे होगा? आत्म-श्रद्धान के अभाव में मेरु, नरक, स्वर्ग आदि का श्रद्धान अतत्व का श्रद्धान हो होगा । सम्यक् दर्शन का अर्थ यह नहीं है, कि संसार के बाह्य पदार्थों पर तो श्रद्धा की जाए और उनके श्रद्धान की ओट में आत्मा को भुला दिया जाए। मेरे विचार में आत्म-श्रद्धा, आत्म-निष्ठा, आत्म-आस्था और आत्म-प्रतीति ही शुद्ध एवं निश्चय सम्यक् दर्शन है। आत्मा शुद्ध, बुद्ध, निरंजन और निर्विकार है । जब आत्मा के इस स्वरूप का श्रद्धान होता है, तब उसे तत्वार्थ श्रद्धान कहा जाता है। उसके साथ यह ज्ञान होता है, कि देह जड़ है एवं चेतना-शून्य है । मैं देह नहीं, बल्कि उससे भिन्न में चैतन्य हूँ। देह जड़ है और मैं चेतन है । मैं सत्, चित् एवं आनन्द रूप हूँ। शुद्ध निश्चय नय से मैं सिद्ध
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१९४ | अध्यात्म-प्रवचन
स्वरूप है । जो जीव है वही जिनवर है और जो जिनवर है, वह जीव है । जीव के अतिरिक्त एवं चेतन से भिन्न, मैं अन्य कुछ भी नहीं हूँ । न मैं भूमि हूँ । न मैं जल हूँ । न मैं अग्नि हूँ । न मैं वायु हूँ। क्योंकि यह सब भौतिक हैं और मैं अभौतिक है । कान, नाक, आँख आदि इन्द्रिय भी मैं नहीं हैं । मैं मन भी नहीं हूँ । इन सबसे परे और इन सबसे ऊपर मैं एक चैतन्य शक्ति हूँ । आत्मा में इस प्रकार का भान और श्रद्धान का होना ही सच्चा सम्यक् दर्शन है । भूतार्थ नय से मैं ज्ञायक स्वभाव हूँ । द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि में विश्व की प्रत्येक आत्मा अपनी उपादान शक्ति से सिद्धस्वरूप है । इसी को परम पारिणामिक भाव का दर्शन एवं सम्यक् दर्शन कहते हैं । अपनी आत्म-ज्योति में आस्था ही सम्यक् दर्शन है ।
प्रश्न होता है, कि भूतार्थं नय से एवं निश्चय नय से गुण पर्यायभेदरहित केवल विशुद्ध आत्मद्रव्य में ही आस्था रखना जब सम्यक् दर्शन है, तब उससे भिन्न पर्यायनयापेक्षित जीव की जो संसारी अवस्था है, वह क्या है ? क्या इस दशा मैं जीव जीव नहीं रहता ? प्रश्न बड़ा ही विकट है । संसारी अवस्था में रहने वाले जीव को भी जीव ही कहा जाएगा, परन्तु याद रखिए, यह सब संसारी अवस्थाएँ अभूतार्थ व्यवहारनय पर आश्रित हैं । अशुद्ध नय से जब आत्म-तत्व पर विचार किया जाता है, तब जाति, इन्द्रिय, मन, मार्गणा एवं गुण-स्थान आदि सब जीव की अशुद्ध दशा हैं । निगोद से लेकर तीर्थंकर तक, तथा प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्दश गुणस्थान तक के जीव सभी अशुद्ध हैं | यदि इस दृष्टि से देखा जाता है, तो सारा संसार अशुद्ध ही अशुद्ध नजर आता है । यह स्थिति अशुद्ध नय की एवं व्यवहारनय की होती है | आप लोग इस तथ्य को न भूलें, कि मोक्ष जाने से पूर्व तेरहवें गुणस्थान एवं चौदहवें गुणस्थान को भी अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा । क्योंकि एक दिन ये गुणस्थान प्राप्त किए जाते हैं और एक दिन इन्हें छोड़ा भी जाता है । मैं मानता हूँ कि प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान अत्यन्त विशुद्ध है, फिर भी इनमें कुछ न कुछ अशुद्धि रहती ही है, क्योंकि जब तक कर्म है, तब तक उसका उदय भाव भी अवश्य रहेगा, और जब उदय-भाव है, तब तक वहाँ किसी न किसी प्रकार की अशुद्धि भी रहती ही है । इस दृष्टि से मैं यह कह रहा था कि मार्गणा और गुणस्थान जीव के स्वाभाविक परिणाम नहीं है । परन्तु इन सबके अतिरिक्त एक तत्त्व ऐसा है, जो
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सम्यक् दर्शन की महिमा | १६५
न कभी बदला है और न अनन्त भविष्य में ही कभी बदल सकेगा । उसमें एक समय मात्र के लिए भी न कभी परिवर्तन आया है और न -कभी परिवर्तन आयेगा । मेरे कथन का अभिप्राय यह है, कि यह जीव चाहे निगोद की स्थिति में रहे, चाहे सिद्ध की स्थिति में रहे, जीव - सदा जीव ही रहता है, वह कभी अजीव नहीं होता । यह त्रिकाली भाव है, अतः जीव के जीवत्वभाव में अणुमात्र भी परिवर्तन नहीं हो सकता | प्रश्न है कि किस कर्म के उदय से जीव जीव है ? अध्यात्मशास्त्र उक्त प्रश्न का एक ही समाधान देता है, कि जीव का जीवत्व - भाव किसी भी कर्म के उदय का फल नहीं हैं। जीव का जीवत्वभाव उसका त्रिकाली ध्रुव स्वभाव है। इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन हो ही नहीं सकता । जीव का यह त्रिकाली ध्रुव स्वभाव किसी भी कर्म के उदय का फल नहीं है । यदि वह किसी कर्म के उदय का फल होता तो फिर वह त्रिकाली नहीं हो सकता था । कर्मों के उदय से गति, जाति और इन्द्रिय आदि प्राप्त होते हैं । परन्तु जीव का जीवत्व भाव सदा और सर्वदा एकरस रहने वाला है । अतः किसी कर्म - के उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय से भी जीव का जीवत्व नहीं होता है । यह ध्रुव सत्य है कि जीव का जीवत्व भाव अनादि काल से है और वह जीव का सहज स्वभावी परिणाम है और वह परिणाम है उसका चैतन्य स्वरूप । यही उसका वास्तविक स्वरूप है। शुद्ध निश्चय नय की भाषा में इसी को आत्मा का त्रिकाली ध्रुव स्वभाव कहा गया है और शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से, यह त्रिकाली ध्रुव स्वभाव, विश्व की किसी एक ही आत्मा का नहीं, अपितु विश्व की समग्र एवं अनन्त आत्माओं का स्वभाव है ।
मैं आपसे शुद्ध निश्चय नय एवं भूतार्थ नय की चर्चा कर रहा था और यह बता रहा था, कि किस प्रकार निश्चय नय की दृष्टि में विश्व की समग्र आत्माएँ एक जैसी एवं समान हैं। भले ही व्यक्ति रूप में वे अलग-अलग रहें, किन्तु स्वरूप की दृष्टि से उनमें किसी भी प्रकार का भेद नहीं है। एक निगोद में रहने वाले जीव की आत्मा का शुद्ध निश्चय से जो स्वरूप है, वही स्वरूप एक तीर्थंकर की आत्मा का भी है और मोक्ष प्राप्त सिद्ध की आत्मा का भी वही स्वरूप है | इसलिए शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में तीर्थंकर, सिद्ध आदि और निगोद आदि में रहने वाले भी सभी अनन्तजीव शुद्ध हैं, कोई अशुद्ध नहीं है ।
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१६६ | अध्यात्म-प्रवचन
जब संसार को व्यवहार की दृष्टि से देखा जाता है, तो यह अशुद्ध ही अशुद्ध नजर आता है और जब इसे भूतार्थनय से एवं निश्चय नय से देखा जाता है, तो यह शुद्ध ही शुद्ध नजर आता है। ऐसा क्यों होता है ? इसके समाधान में कहा गया है कि जब दृष्टि बदल जाती है, तब सारी सृष्टि ही बदल जाती है। दिशा बदल गई तो दशा अपने आप बदल जाएगी ? मुख्य बात दिशा बदलने की है, दशा बदलने की नहीं । जैन दर्शन इसीलिए पहले दृष्टि एवं विश्वास को बदलने की बात कहता है । वह कहता है, कि निश्चय नय से इस विश्व की समग्र आत्माएँ विशुद्ध हैं, उनमें न क्षोभ है, न क्रोध है, न लोभ है, न मोह है और न शोक है । विशुद्ध नय की दृष्टि में दीनता एवं हीनता भी आत्मा के धर्म नहीं हैं। जैन दर्शन हमारे अन्तर की दीनता एवं हीनता को दूर करने का महत्वपूर्ण सन्देश देता है । वह आत्मा के क्रोध आदि विकारों को आत्मा का धर्म स्वीकार नहीं करता । उसकी निश्चय दृष्टि कहती है, कि आत्मन् ! तू न काम है, न क्रोध है, न लोभ है और न मद है, तथा तू न शरीर है, न इन्द्रिय है और न मन है । इन सबसे परे और इन सबसे ऊपर तू विशुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार एवं सच्चिदानन्द रूप परम आत्मा है । यही तेरा वास्तविक स्वरूप है । आत्मा के इसी दिव्य रूप पर आस्था एवं श्रद्धा रखनी चाहिए। आत्मा स्वयं अपने आप में जब विशाल एवं विराट है, तथा शुद्ध एवं पवित्र है, तब उसे क्षुद्र, पतित और अपवित्र क्यों समझा जाए ? यदि संसार की कोई भी आत्मा अपने उस दिव्य एवं सहज रूप में विश्वास न करके दीन-हीन बना रहता है तथा अपने आपको पतित और अधम समझता रहता है और अपने को अशुद्ध समझता रहता है, तो यह उस आत्मा का अपना दुर्भाग्य है ।
इस प्रसंग पर मुझे जैन महाभारत की एक घटना का स्मरण हो रहा है । यह घटना उस समय की है, जब कि ' धातकीखण्ड के राजा पद्मोत्तर ने देवी शक्ति से द्रौपदी का अपहरण कर लिया था । द्रौपदी के अपहरण से पाँचों पांडव हैरान और परेशान थे । श्रीकृष्ण को द्वारिका में नारदमुनि से यह पता चला कि द्रौपदी धातकीखण्ड में पद्मोत्तर राजा के अन्तःपुर में है । श्रीकृष्ण और पांचों पांडवों ने इस विकट स्थिति पर गम्भीरता के साथ विचार किया और परामर्श करने के बाद पद्मोतर राजा पर चढ़ाई करने का निर्णय कर लिया गया। अपनी पूर्ण
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सम्यक् दर्शन की महिमा | १९७ तैयारी के साथ, जब श्रीकृष्ण और पाँचों पाण्डव धातकीखण्ड की ओर चले जा रहे थे तब मार्ग में लवण समुद्र आया, जिसे पार करना किसी भी प्रकार शक्य नहीं था। श्रीकृष्ण ने समुद्र के देव की आराधना की और वह प्रकट होकर श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़ा हो गया और बोला-“कहिए, क्या आज्ञा है और मैं आपको क्या सेवा करूं ?" श्रीकृष्ण ने इतना ही कहा, कि "हम धातकीखण्ड जाना चाहते हैं, इसलिए जाने का मार्ग दे दो।" समुद्र देव ने प्रत्युत्तर में कहा-"आप वहां जाने का कष्ट क्यों उठाते हैं, यदि आपका आदेश हो, तो मैं स्वयं ही द्रोपदी को लाकर आपकी सेवा में उपस्थित कर सकता हूँ।" यदि आज के युग का कोई मनुष्य होता तो कह देता कि ठीक है, ला दीजिए। परन्तु श्रीकृष्ण ने कहा-"पद्मोत्तर राजा ने देवी शक्ति से द्रौपदी का अपहरण किया है। यदि हम भी देव शक्ति से ही द्रौपदी को प्राप्त करें, तो हमारी अपनी कोई विशेषता नहीं रहेगी। मनुष्य को किसी देव के बल में विश्वास करने की अपेक्षा स्वयं अपने बल में ही विश्वास करना चाहिए। तुम्हारी सहायता इतनी ही पर्याप्त है, कि तुमने हमें रास्ता दे दिया । यदि हम द्रौपदी को दैवी शक्ति के बल पर प्राप्त करें तो हमारे क्षत्रियत्व का तेज ही समाप्त हो जायेगा । हमें अपनी शक्ति के बल पर ही अपनी समस्या का स्वयं समाधान करना है और स्वयं अपने पुरुषार्थ के बल पर ही अन्याय का प्रतिकार करना है।" श्रीकृष्ण के मनोबल को देखकर तथा स्वयं की अपनी शक्ति में अटूट विश्वास देखकर देव बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने धातकी खण्ड जाने के लिए मार्ग दे दिया । श्रीकृष्ण और पाँचों पाण्डव धातकी खण्ड जा पहुंचे।
जिस समय मनुष्य अपनी आत्मशक्ति में विश्वास कर लेता है, उस समय बड़े-से-बड़ा काम भी उसके लिए आसान बन जाता है। श्रीकृष्ण और पाँच पाण्डव अपने साथ अपनी सेना को भी नहीं ले गए। उन्होंने कहा कि-"हम छह ही काफी हैं।" अपने पहुंचने की सूचना गुप्त न रखकर राजा पद्मोत्तर को दे दी गई । मनुष्य की रक्षा के लिए, जीवन में दो तत्वों की आवश्यकता रहती है-भक्ति और शक्ति । इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग मनुष्य के सामने अपने जीवन की सुरक्षा का नहीं रहता । शक्तिशाली अपने जीवन की रक्षा अपनी शक्ति के बल पर कर लेता है, किन्तु जिसमें शक्ति नहीं है, वह व्यक्ति भक्ति के बल पर, विनम्रता से अपने जीवन की रक्षा कर सकता है । श्रीकृष्ण ने धातकी
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१९८ ) अध्यात्म-प्रवचन खण्ड के राजा पद्मोत्तर को कहलवाया कि-"कहिए, आपको शक्ति और भक्ति में से कौन-सा मागं पसन्द है ? यदि भक्ति मार्ग स्वीकार हैं, तो द्रौपदी को सादर ससम्मान वापस करो, क्षमा याचना करो और भविष्य के लिए आश्वासन दो कि फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा। यदि आपको अपनी शक्ति पर अभिमान है और भक्ति-मार्ग स्वीकार नहीं है, तो अपनी सेना लेकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।" श्रीकृष्ण ने पद्मोत्तर राजा के लिए यह सन्देश अपने सारथी के द्वारा पत्र देकर भेजा। सारथी ने श्रीकृष्ण के पत्र को भाले की नोंक पर पिरोकर राजा पद्मोत्तर को दिया । पद्मोत्तर राजा ने क्रोध में भर कर पत्र पढ़ने के बाद सारथी से पूछा कि “कौन-कौन आए हैं और साथ में सेना कितनी है ?"सारथी ने बताया कि-"श्रीकृष्ण अकेले हैं और सेना के नाम पर पाँच पाण्डव ही उनके साथ हैं, जो द्रौपदी के पति हैं । इन छह पुरुषों के अतिरिक्त अन्य कोई सेना नाम की वस्तु नहीं है।" इस बात को सुनकर पद्मोत्तर हँसा और उपेक्षा के भाव से बोला-"वे मुझे क्या समझते हैं ? क्या उन्हें पद्मोत्तर की शक्ति का पता नहीं है ? क्या वे नहीं जानते कि पद्मोतर एक शक्तिशाली सम्राट् है ? संसार की अनेकानेक विजयी सेनाओं को मैं पराजित कर चुका हूँ। भला, ये छह प्राणी तो किस खेत की मूली हैं ?"
राजा पद्मोत्तर को अपनी शक्ति का तथा अपनी विशाल सेना का बड़ा अहंकार था। वह अहंकार के स्वर में गर्जता ही गया कि “वीर क्षत्रिय अपनी शक्ति के बल पर ही अपनी तथा दूसरों को रक्षा करते हैं । तुम दूत हो, अपराध करने पर भी अवध्य हो, इसलिए मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ । जाओ, और अपने स्वामी से कह दो, कि पद्मोत्तर राजा युद्ध के लिए तैयार है।" श्रीकृष्ण का सारथी वापस लौटा, और उसने समग्र घटना-क्रम कह सुनाया। इधर बहुत शीघ्र ही राजा पद्मोत्तर बडी साज-सज्जा के साथ अपनी विशाल सेना को लेकर युद्ध के लिए मैदान में आ डटा । मैदान गजों की घनघटा से छा गया। उस समय ऐसा लग रहा था, मानों धरती पर काली घन-घटाएँ घुमड़ती चली आ रही हैं । शस्त्रों की चमक उसमें बिजली के समान कौंध रही थी। राजा पद्मोत्तर के सेनापति अपनी मोर्चाबन्दी में व्यस्त हो गए। श्रीकृष्ण ने यह सब स्थिति देखी, तो उन्होंने पाण्डवों से कहा-“पद्मोत्तर राजा अपने देश में है और अपने घर में है। अपने घर में एक साधारण-सा कुत्ता भी शेर बन जाता है । जब कि राजा पद्मोत्तर स्वयं
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सम्यक् दर्शन की महिमा | १६६ वीर है, और साथ ही उसकी प्रचण्ड सेना का बल भी कुछ कम नहीं है । दूसरी ओर हम हैं - एक मैं और पाँच तुम, अपने देश और घर से लाखों कोस दूर । सेना के नाम पर हमारे पास कुछ भी नहीं है, न गज, न अश्व और न अन्य कोई मनुष्य । इस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए ? सामने एक विशाल सेना है, इससे मोर्चा लेना है और विजय प्राप्त करना है ।" श्रीकृष्ण ने पाँच पाण्डवों के मन की बात को जाँचने के लिए प्रश्न किया, कि "बताओ, युद्ध करोगे या देखोगे ?” भीम का अभिमान गरजा और अर्जुन के धनुष की टंकार गूंज उठी उन्होंने कहा कि, "क्षत्रिय स्वयं युद्ध करता है, वह युद्ध का तमाशा नहीं देखता ।" श्रीकृष्ण ने पूछा कि - "युद्ध किस प्रकार करोगे ?" पाँचों ही पाण्डवों ने एक स्वर से सिंह गर्जना करते हुए कहा – “आज के इस युद्ध में या तो पाण्डव ही नहीं, या पद्मोत्तर ही नहीं ।" भावावेश में यह भान नहीं रहा कि हम क्या कह रहे हैं ? शत्रु के नास्तित्व से पहले अपने मुख से अपने ही नास्तित्व की घोषणा की जा रही है । सर्वप्रथम अपने अस्तित्व का इन्कार, कितनी बड़ी भूल ? मनुष्य का जैसा भी भविष्य होता है, भाषा के रूप में वह बाहर प्रकट हो जाता है । पाण्डवों का पराजित संकल्प भाषा का रूप लेकर अन्दर से बाहर प्रकट हो गया, जिसे सुनकर श्रीकृष्ण अवाक् एवं स्तब्ध रह गए । श्रीकृष्ण ने दुबारा उसी प्रश्न को दुहराया, तब भी उन्हीं शब्दों में उत्तर मिला । श्रीकृष्ण ने मन ही मन सोच लिया कि पाण्डव, राजा पद्मोत्तर पर युद्ध में विजय प्राप्त नहीं कर सकते । जो स्वयं ही पहले अपने मृत्यु की बात कहते हैं, हारने की बात सोचते हैं । वे भला युद्ध में कैसे जीत सकेंगे ।"
युद्ध प्रारम्भ हुआ, पद्मोत्तर राजा की विशाल सेना सागर के समान गरजती हुई निरन्तर आगे बढ़ने लगी, यहाँ तक कि पाँच पाण्डव युद्ध करते हुए पीछे हटने लगे । उनके शरीर शत्रु के बाण प्रहारों से क्षत विक्षत हो गए, सब ओर रक्त की धाराएँ बहने लगीं । युद्ध में पैर जम नहीं रहे थे । न अर्जुन का बाण काम आया, न भीम की गदा सफल हो सकी और न युधिष्ठिर का खड्ग ही कुछ चमत्कार दिखा सका | श्रीकृष्ण ने देखा कि पाण्डव विकट स्थिति में फँस गए हैं एवं शत्रु के घातक प्रहार से अपने को सँभाल नहीं पा रहे हैं । श्रीकृष्ण ने सिंहनाद के साथ अपना पांचजन्य शंख बजाया, धनुष की टंकार को । श्रीकृष्ण के शंख और धनुष की भयंकर एवं भीषण ध्वनि को सुनकर
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२०० | अध्यात्म-प्रवचन 'पद्मोत्तर राजा की विशाल सेना तितर-बितर हो गई, सैनिक अपने रक्षण के लिए इधर-उधर भागने लगे। पद्मोत्तर राजा भयभीत हो गया कि जिसके शंख और धनुष की ध्वनि में इतनी शक्ति है, वह स्वयं कितना महाबली होगा। पाँच पाण्डवों से मैं लड़ सकता था, किन्तु श्रीकृष्ण से लड़ना मेरे वश की बात नहीं है । पद्मोत्तर राजा ने पराजय स्वीकार कर ली, द्रौपदी को लौटा कर क्षमा माँगी और भविष्य के लिए यह आश्वासन दिया, कि वह फिर कभी ऐसा अनार्य आचरण नहीं करेगा । पाँचों पाण्डव द्रौपदी को पाकर तो प्रसन्न थे, परन्तु अपनी घोर पराजय पर लज्जित भी थे। श्रीकृष्ण ने पाण्डवों से कहा कि “अन्तर की जैसी आवाज होती है, अन्ततः वैसा ही परिणाम निकलता है । तुमने तो युद्ध से पूर्व ही अपने अन्तर्हृदय में अपने विनाश एवं पराजय का संकल्प कर लिया था। तुम्हारा यह कहना, कि आज के युद्ध में या तो हम नहीं, या पद्मोत्तर नहीं, स्पष्ट ही तुम्हारे मन की दुर्बलता को प्रतिबिम्बित करता था। सर्वप्रथम 'हम नहीं यह क्यों कहा?" ___ कथा का सारांश है कि मनुष्य की जय और पराजय बाहर में तो बाद में होती है, पहले उसके अपने मन में ही हो जाती है। अपनी शक्ति का अविश्वास ही मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी एवं भयंकर पराजय है । “मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।" जो मन में हार गया, वह जीवन-क्षेत्र में भी हार जाता है और जो मन में जीत जाता है, वह बाहर भी विजय पा लेता है। इसलिए मन की हीनता एवं दीनता ही जीवन का सबसे भयंकर पतन है। जीवन-क्षेत्र में लड़ने वाले यदि अपने अस्तित्व से स्वयं ही इनकार कर देते हैं, तो वे कुछ भी नहीं कर सकते। लोक-जीवन में जो स्थिति है, वही स्थिति आध्यात्मिक क्षेत्र में भी है । अनादि काल से हम अपने आपको तुच्छ, हीन एवं दीन समझते आए हैं। कष्ट एवं संकट आने पर हम विलाप करते रहे हैं, किन्तु कभी भी धैर्य के साथ उनका मुकाबला करने के लिए दृढ़ संकल्प नहीं किया। हम होनी और भवितव्यता की बातों में इतने उलझ गए, कि अपने पुरुषार्थ को ही भूल बैठे । आत्मा एवं चेतन अपनी अनन्त शक्ति को भूल कर दीन, हीन एवं अनाथ सा हो गया। अपने भाग्य का रोना रोते रहना और अपनी भवितव्यता की अंधेरी गलियों में चक्कर काटना, अनन्त शक्ति-सम्पन्न चेतन का दुर्भाग्य ही है । आत्मा यह नहीं सोचता, कि जिस होनी और भवितव्यता के लिए
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सम्यक् दर्शन की महिमा | २०१ मैं रो रहा हूँ, उस भवितव्यता का निर्माण भी तो मैंने ही किया है । भवितव्यता एवं भाग्य का निर्माता, ईश्वर, मैं स्वयं ही तो है। अपने पुरुषार्थ से ही मै भाग्य एवं भवितव्यता के बन्द द्वार खोल सकता है। जब द्वार स्वयं मैंने ही बन्द किया है, तब खोलने वाला भी मैं स्वयं ही हैं। मैं स्वयं ही बन्द हआ है और स्वयं ही अपने बल पर मुक्त भो हो सकुंगा । जब आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप की उपलब्धि कर लेता है, है, तभी इस प्रकार के दिव्य विचार उसके मन में उठते हैं। जब आत्मा के दिव्य स्वरूप की अनुभूति प्राप्त होती है, तभी उसमें आत्मशक्ति की अदम्य ज्योति जगती है । सम्यक् दर्शन सिखाता है, कि तू दीन, हीन भिखारी नहीं है, बल्कि तू चैतन्य सम्राट् है, अपने आपका शाहंशाह है और अपनी जिन्दगी का बादशाह भी तू स्वयं ही है। फिर अपनी ही नगरी में तू क्यों पराजित होता है और क्यों भटकता है ! तेरा अज्ञान और मिथ्यात्व भाव ही तुझे भटकाने वाला है। अतः सम्यक दर्शन के दिव्य आलोक से, अपने इस भव-भ्रमण कराने वाले मिथ्यात्व भाव एवं अज्ञान भाव के अन्धकार से तू मुक्ति प्राप्त कर। __ जैन-दर्शन दीन से दीन, हीन से हीन, तुच्छ से तुच्छ और पतित से पतित पामर प्राणी में भी आत्मा की दिव्य ज्योति का एवं आत्म भाव के दिव्य आलोक का दर्शन कराता है। जैन-दर्शन की निश्चय दृष्टि के अनुसार संसार का दीन से दोन मनुष्य भी अपने मूल स्वरूप में विशुद्ध है । शुद्ध निश्चय नय से संसार की समस्त आत्माएं विशुद्ध हैं । एक भी आत्मा संसार में ऐसा नहीं है, जो अपने पुरुषार्थ के बल पर अपनी आत्मशक्ति के विकास से तथा अपने सम्यक् दर्शन के प्रभाव से, विकास करके महान न हो सकता हो । अध्यात्मवादी दर्शन के अनुसार एक चाण्डाल की आत्मा में तथा एक ब्राह्मण की आत्मा में तत्वतः किसी प्रकार का विभेद नहीं हो सकता। आत्म स्वरूप की दृष्टि से विश्व की समग्र आत्माएँ समान ही हैं । अन्तर केवल इतना ही है, कि जिसकी आत्मा अज्ञान-भाव में प्रसुप्त है, उस आत्मा के जीवन का प्रवाह अधोमुखी बन जाता है और जो आत्मा अपने अज्ञानभाव के बन्धन को तोड़ चुका है, उस आत्मा के जीवन का प्रवाह ऊर्ध्वमुखी बन जाता है । आपने हरिकेशी मुनि के जीवन का वर्णन सुना होगा अथवा कहीं पर पढ़ा होगा? हरिकेशी का जन्म एक चाण्डाल कुल में हुआ, जहाँ जीवन-विकास का एक भी साधन उसे उपलब्ध नहीं हो सका। शरीर की सुन्दरता और सुषमा भी उसे
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२०२ | अध्यात्म-प्रवचन प्राप्त नहीं हो सकी । उसके शरीर का रूप कोयले जैसा काला, भयंकर एवं डरावना था । जिधर से भी वह निकल जाता, सब लोग उसका मजाक उड़ाते और उसे छेड़ते । चारों ओर से उसे धिक्कार-ही-धिक्कार मिल रहा था। अपने जीवन की इस अधोदशा को देखकर वह व्याकुल हो गया था। हरिकेशी को मनुष्य-जीवन तो अवश्य मिला, किन्तु मनुष्य-जीवन के सुख और सन्मान एक क्षण के लिए भी कभी उसे मिले नहीं । एक मनुष्य के जीवन की पतित-से-पतित एवं तुच्छ से तुच्छ जो अवस्था हो सकती है, हरिकेशी ने जीवन की वही अवस्था एवं दशा थी । परन्तु जैन-दर्शन ने इस हरिकेशी चाण्डाल के गिरे-से-गिरे जीवन में भी विशुद्ध आत्मा का दर्शन किया। उसकी जीवन दशा का वर्णन मैं क्या करूं ? उसकी दशा एक कुत्ते से भी हीन एवं बुरी थी। जब वह अपने जीवन के तिरस्कार को सहन नहीं कर सका, तब वह नदी की वेगवती धारा में डूबकर मरने के लिए अपने घर से निकल पड़ा। अपने जीवन से निराश हरिकेशी चाण्डाल अपने जीवन का अन्त करने के लिए जब नदी में छलांग लगाने वाला ही था कि तट पर एक निकंज में विराजित शान्त एवं दान्त, योगी, तपस्वी एक जैन भिक्षु ने कहा-"वत्स ! जरा ठहरो, यह क्या कर रहे हो ? दुर्लभ मानव जीवन क्या इस तरह व्यर्थ ही नदी में ड्रबो देने के लिए है।" हरिकेशी ने यह सुना तो स्तब्ध रह गया । जीवन में पहली बार उसे इतना मृदु और शान्त वचन सुनने को मिला था। उसने मुनि के निकट जाकर कहा, "भंते ! मैं एक चाण्डाल पुत्र है। मैं अपने प्रति किए गए तिरस्कार से तंग आकर नदी में डूबकर आत्मघात करने के लिए यहां आया हूँ। चाण्डाल हूँ, केवल इसीलिए मेरे लिए कहीं स्थान नहीं है । सव ओर से तंग आकर मैंने इस जीवन का अन्त करने का संकल्प कर लिया है।"
तपस्वी मुनि ने गम्भीर होकर आश्वासन की भाषा में उससे कहा-"वत्स, तेरे स्वयं के कर्म ने ही तुझे चाण्डाल कुल में पैदा किया है, किन्तु तेरे इस भौतिक शरीर के भीतर जो एक दिव्य आत्मा है, वह चाण्डाल नहीं है । दुनिया भले ही किसी को चाण्डाल समझे, परन्तु आत्मा किसी का चाण्डाल नहीं होता। हरिकेशी ! तू शरीर नहीं है, इस शरीर के भीतर जो एक दिव्य चिद्रूप है, वही तू है । तू स्वयं अपने को चाण्डाल क्यों समझता है ?"
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सम्यक् दर्शन की महिमा | २०३ तपस्वी की इस दिव्य वाणी को सुनकर हरिकेशी की प्रसुप्त आत्मा जाग उठी और उसने मुनि बनकर अपने को अध्यात्म-साधना में लगा दिया । हरिकेशी ने अपने घोर तप और विशुद्ध संयम की साधना के आधार पर पूज्यत्व भाव प्राप्त कर लिया। फिर मनुष्य तो क्या, स्वर्ग के देव भी आकर उसके चरणों में नतमस्तक होने लगे । यह तभी हुआ, जब कि हरिकेशी ने अपने आत्म-स्वरूप की उपलब्धि कर ली । आत्म-स्वरूप की उपलब्धि हो जाने पर हीन से हीन व्यक्ति भी महान बन जाता है । एक दिन का भूला हुआ ओर पापात्मा हरिकेशी चाण्डाल अध्यात्म-भाव की साधना से पूज्य बन गया, फिर वे ही लोग श्रद्धा एवं भक्ति के साथ उसका आदर एवं सत्कार करने लगे, जो कभी एक दिन उसे देखना भी पसन्द नहीं करते थे, उसके शरीर की छाया तक से घृणा करते थे। आज वे ही उसका दर्शन पाकर प्रसन्न होने लगे । यह सब आत्मा की चैतन्यशक्ति का चमत्कार है और आत्मा के दिव्य गुण सम्यक् दर्शन का ही एक मात्र प्रभाव है।
आपने कुन्ती के जीवन का वर्णन सुना होगा। कुन्ती कौन थी ? उसका सम्पूर्ण जीवन-परिचय देने की यहाँ मुझे आवश्यकता नहीं है, संक्षेप में कुन्ती के जीवन का इतना परिचय ही पर्याप्त होगा, कि वह भारत के धुरन्धर वीर पांच पांडवों की माता थी। कुन्ती की गणना भारत की सुप्रसिद्ध सोलह सतियों में की जाती है। परन्तु प्रारम्भ में कुन्ती का जीवन कैसा था, इस बात का वहुत से लोगों को पता नहीं है । कुन्ती अपने यौवन काल में बड़ी सुन्दर थी, उसके शरीर के कणकण से लावण्य और सौन्दर्य की आभा फूट रही थी। जो कोई भी व्यक्ति एक बार कुन्ती के रूप एवं सुषमा को देख लेता था, वह मुग्ध हो जाता था। जिस किसी ने भी एक बार कुन्ती की छवि को देख लिया वह सब कुछ भूल जाता था, किन्तु याद रखिए, रूप एवं यौवन सदा अन्धा होता है । कुन्ती भी इस सिद्धांत का अपवाद न थी। एक दिन वासना में अन्धी होकर वह राजा पाण्डु के प्रेम-पाश में फँस गई, और कन्यावस्था में ही उसने कर्ण को जन्म दे डाला । कुन्ती के जीवन का यह अधः पतन था । वह वासना में इतनी अन्धी बनी, कि अपने पवित्र जीवन का भाव और अपने कुल की मर्यादा और गौरव का भी उसे भान नहीं रहा । कुन्ती के जीवन की यह एक भयंकर बिडम्बना थी।
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२०४ | अध्यात्म-प्रवचन
दूसरा एक जीवन चेलनाका है । चेलना के सम्बन्ध में आप सभी लोग भली भाँति यह जानते हैं कि वह वैशाली के अधिपति सम्राट चेटक की पुत्री थी। रूप और यौवन का अपार धन चेलना को प्रकृति की ओर से सहज ही मिला था । चेलना के अपार रूप ने, चेलना की अद्भुत सौन्दर्य-सुषमा ने और चेलना के अनुपम लावण्य ने उस युग में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी। चेलना के रूप शमा पर हजारों हजार राजकुमार पतंगे बनकर जल मरने के लिए तैयार थे। मगध के सम्राट राजा श्रेणिक ने चेलना के रूप एवं सौन्दर्य की चर्चा सुनी और वह उसे पाने के लिए व्याकुल हो गया। चेलना भी श्रेणिक के रूप पर मुग्ध थी। चेलना अपनो वासना के तूफान में, अपने जीवन की मर्यादा तथा अपने कुल की मर्यादा को भूलकर राजा श्रेणिक के साथ भाग गई । चेलना के जीवन की इससे बढ़कर और क्या बिडम्बना हो सकती है ? मैं समझता है, कुन्ती और चेलना के जीवन का यह अधः पतन किसी भी विवेकशील आत्मा को चौंका देने वाला है।
परन्तु यदि हम जीवन की गहराई में उतर कर जब मनुष्य के अन्तराल का निरीक्षण करते हैं, तब हमें ज्ञात होता है कि मनुष्य को जिस मनोभूमि में पतन के कारण हैं, उसी मनोभूमि में उत्थान के सुन्दर बीज भी विद्यमान रहते हैं। इसी आधार पर जैन दर्शन कहता है, कि-एक आत्मा अपने अज्ञान-भाव में चाहे कितनी भी भयंकर भूल क्यों न कर ले, किन्तु सम्यक् दर्शन का प्रकाश आते ही, उसकी आत्मा का समग्र अन्धकार क्षण भर में ही विलुप्त हो जाता है। जैन दर्शन कहता है, कि आत्मन् ! यदि मुझसे भूल हो गई है, तो रोने की आवश्यकता नहीं है, तू विलाप क्यों करता है ? अपनी भूल पर विलाप करने का अर्थ है-अपनी भूल को और भी भयंकर बना देना। रोने की आवश्यकता ही क्या? रोने से कुछ काम बनता नही है । उठ, जाग और अपनी भूलों का परिमार्जन करके अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने का प्रयत्न कर। यही जीवन के उत्थान का मार्ग है और यही जीवन के कल्याण का मार्ग है। कून्ती और चेलना के जीवन में आत्म-भाव की जागृति होते ही उनका जीवन पतितावस्था से ऊपर उठकर सतियों की श्रेणी में आ गया, यही उनके जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार है।
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सम्यकदर्शन के भेद
सम्यक् दर्शन क्या है ? सम्यक् दर्शन का क्या स्वरूप है ? अध्यात्मशास्त्र का यह एक महत्वपूर्ण विषय है । अध्यात्म-शास्त्र में कहा गया है कि धर्म का मूल सम्यक् दर्शन है । सम्यक् दर्शनरूप धर्म के बाद ही सम्यग् ज्ञान रूप धर्म होता है और सम्यक् दर्शन के बाद ही सम्यक् चारित्र रूप धर्म होता है। इसीलिए श्रद्धारूप धर्म को ज्ञानरूप धर्म और चारित्र रूप धर्म का मूल आधार कहा गया है। शुभ भाव, धर्म का सोपान नहीं है, सम्यक् दर्शन ही धर्म का प्रथम सोपान माना जाता है। जिस किसी भी आत्मा में सम्यकदर्शन की विमल ज्योति प्रकट हो जाती है, वहाँ मिथ्यात्वमूलक अन्धकार कभी ठहर ही नहीं सकता। अज्ञानवश आत्मा, यह मान लेता है कि शुभ भाव धर्म का कारण है, परन्तु तत्व-दष्टि से देखा जाए, तो शुभ भाव रागात्मक विकार है, वह धर्म नहीं है, और न धर्म का कारण ही है। सम्यक् दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व स्वयं धर्म भी है और अन्य धर्मों का मूल कारण भी है। मिथ्या दृष्टि जीव पुण्य को रुचि-सहित शुभभाव से नवम ग्रैवेयक तक चला जाता है, फिर वहाँ से निकलकर भवभ्रमण करता हुआ निगोद आदि में भी चला जाता है, क्योंकि अज्ञान-सहित शुभ भाव, तत्वतः पाप का मूल है। प्रायः अज्ञजन अशुभ में तो धर्म नहीं मानते । परन्तु
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२०६ / अध्यात्म-प्रवचन वे शुभ में अटक जाते हैं, फलतः अज्ञानवश शुभ को ही धर्म समझ लेते हैं। इस दृष्टि से यह कहा जाता है कि जब तक सम्यक दर्शन की उपलब्धि नहीं हो जाती है, तब तक धर्म अधर्म की समझ ही नहीं आती है।
सम्यक दर्शन क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्षइन तत्वों का एवं पदार्थों का सम्यक् श्रद्धान ही सम्यक् दर्शन है। ज्ञान, चारित्र और तप-ये तीनों जब सम्यक्त्व-सहित होते हैं, तभी उनमें मोक्ष-फल प्रदान करने की शक्ति होती है। क्योंकि सम्यक्त्व-रहित ज्ञान ज्ञान नहीं, कुज्ञान होता है। सम्यक्त्व-रहित चारित्र चारित्र नहीं, कुचारित्र होता है। सम्यक्त्व-रहित तप, तप नहीं, केवल एक प्रकार का कायक्लेश रूप कुतप ही है।
जैन-दर्शन में आराधना के चार प्रकार बताए गए हैं-दर्शन को आराधना, ज्ञान की आराधना, चारित्र की आराधना और तप की आराधना । उक्त चारों प्रकार की आराधनाओं में सबसे प्रथम आराधना सम्यक् दर्शन की है। शिष्य प्रश्न करता है, कि गुरुदेव ! जब उक्त चारों प्रकार की आराधनाएँ मोक्ष की साधना में समान हैं, तब फिर दर्शन की आराधना को अन्य आराधनाओं से मुख्यता एवं प्रधानता किस आधार पर दी गई है ? उक्त प्रश्न के समाधान में गुरु शिष्य से कहते हैं कि-सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान की साधना, चारित्र की साधना और तप की साधना मोक्ष का अंग न बनकर संसार की अभिवृद्धि का कारण बन जाती है। इसके विपरीत सम्यक्त्व-मूलक ज्ञान, चारित्र और तप ही संसारविनाशक मोक्ष के अंग बनते हैं। इसी आधार पर अन्य आराधनाओं की अपेक्षा दर्शन की आराधना को मुख्यता एवं प्रधानता दी गई है। कल्पना करो, दो व्यक्ति हैं । एक के पास एक रद्दी पाषाण खण्ड है और दूसरे के पास उतने ही वजन की एक बहुमूल्य मणि है । यद्यपि दोनों पत्थर हैं, इसलिए दोनों एक जाति के हैं तथा दोनों का वजन भी समान है, तथापि अपनी शोभा, अपनी कान्ति और अपने मूल्य के कारण पाषाण की अपेक्षा मणि का ही अधिक महत्व एवं गौरव रहता है। पाषाण का भार उठाने वाला व्यक्ति सोचता है कि मैं भार से दबा जा रहा हैं, जब कि मणि वाले व्यक्ति के लिए मणि का भार भार ही नहीं है, क्योंकि उसकी उपयोगिता इतनी महान है कि कुछ पूछिए नहीं। जिस प्रकार पाषाण का
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सम्यक् दर्शन के भेद | २०७ अधिक भार उसके उठाने वाले को मात्र कष्ट रूप ही होता है, उसी प्रकार जीव को मिथ्यात्व का भाव कष्टकर ही होता है । मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, यद्यपि दोनों ही दर्शन जाति की दृष्टि से एक हैं, फिर भी अशुद्ध और शुद्ध पर्याय की दृष्टि से दोनों में रात-दिन का सा अन्तर है । मिथ्यात्व नहीं, सम्यक्त्व ही आत्मा को वास्तविक सुख, शान्ति और आनन्द देने वाला है, मिथ्यात्व तो भव-भ्रमण का मूल बीज होने के कारण स्वरूपोपलब्धि रूप मोक्ष के अभीष्ट फल को कभी प्रदान ही नहीं कर सकता । यही कारण है कि अध्यात्मशास्त्र में सम्यक्त्व का अत्यधिक महत्व है ।
आपके सामने सम्यक् दर्शन की चर्चा चल रही है । सम्यक् दर्शन का हेतु क्या है ? सम्यक् दर्शन किस प्रकार उत्पन्न होता है ? उक्त प्रश्नों के समाधान में अध्यात्म-शास्त्र में बड़ी गम्भीरता के साथ विचार किया गया है । यह तो स्पष्ट हो ही गया, कि सम्यक् दर्शन मोक्ष की साधना का परमावश्यक और सर्वप्रथम अंग है । किन्तु अब यह जानना शेष रह जाता है, कि सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति कैसे होती है ? सम्यक दर्शन के दो भेद बताए गए हैं - निसर्गज सम्यक् दर्शन और अधिगमज सम्यक् दर्शन | यह निसर्ग और अधिगम क्या है ? इसको समझना ही सबसे बड़ी बात है ।
निसर्गज सम्यक् दर्शन क्या है ? अध्यात्म शास्त्र में इसका क्या और कैसा प्रतिपादन किया है ? जिज्ञासु को यह एक सहज जिज्ञासा है । निसर्गज सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में कहा गया है, कि कुछ आत्मा अपने आध्यात्मिक जीवन विकास में जब आगे बढ़ते हैं, तब उनके उस अध्यात्म विकास क्रम के साथ बाहर के किसी भी निमित्त की कारणता नहीं होती है। इस तथ्य को भली भाँति समझ लेना चाहिए कि बिना कारण के किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । यहाँ पर सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति भी एक कार्य है, अतः उसका भी कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए । कारण क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया है, कि कार्य- उत्पादक सामग्री को ही कारण कहा जाता है । कार्यं - उत्पादक सामग्री के मुख्य रूप में दो भेद हैं- उपादान और निमित्त । उपादान का अर्थ है-निज शक्ति अथवा निश्चय । निमित्त का अर्थ है - परसंयोग अथवा व्यवहार । उपादान कारण की परिभाषा देते हुए कहा गया है, कि जो द्रव्य स्वयं कार्य रूप में परिणत होता है, वही उपादान बनता है । जैसे घटरूप कार्य के लिए
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२०८ ] अध्यात्म-प्रवचन मिट्टी उपादान कारण है। और जो कारण कार्यरूप परिणत न हो पृथक रूप से रहे, वह निमित्त कारण होता है, जैसे कि घटरूप कार्य में चक्र और दण्ड आदि । कार्य किसको कहा जाता है ? उक्त प्रश्न के उत्तर में यहां पर केवल इतना ही समझना अभीष्ट है, कि कार्य को कर्म, अवस्था, पर्याय और परिणाम भी कहा जाता है। कार्य की उत्पत्ति के अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती कारण होता है और कारण के अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती कार्य होता है। यहाँ पर प्रसंग चल रहा है, सम्यक् दर्शन का। सम्यक् दर्शन रूप कार्य की उत्पत्ति में उपादान कारण स्वयं आत्मा ही है। क्योंकि आत्मा का सम्यक् दर्शन जो एक निज गुण है, उसकी विशुद्ध पर्याय को ही सम्यक् दर्शन कहा जाता है और मिथ्यात्व उसकी अशुद्ध पर्याय है । मिथ्यात्व रूप अशुद्ध पर्याय का व्यय और सम्यक् दर्शन रूप शुद्ध पर्याय का उत्पाद ही सम्यक् दर्शन है। यहाँ पर निसर्गज सम्यक् दर्शन की चर्चा चल रही है। निसर्ग का अर्थ है-स्वभाव, परिणाम और अपरोपदेश । जो सम्यक् दर्शन बिना किसी परसंयोग के एवं बाह्य निमित्त के प्रकट होता है उसे निसर्गज सम्यक् दर्शन कहते हैं । निसर्गज सम्यक् दर्शन में किसी भी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती है, स्वयं आत्मा में ही सहज भाव से जो स्वरूप ज्योति जलती है और जो सत्य दष्टि का प्रकाश जगमगाने लगता है, वह सम्यक् दर्शन की ज्योति है । उस ज्योति का उपादान कारण स्वयं आत्मा है । जब आत्मा अपने अन्तरंग में संसार की ओर दौड़ता-दौड़ता कभी सहजभाव से संसार को अपने पीठ पीछे छोड़कर मोक्ष की ओर दौड़ने लगता है, आत्मा की इसी स्थिति को निसर्गज सम्यक् दर्शन कहा जाता है। मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि बिना किसी बाहरी तैयारी के स्वयं आत्मा की अपनी अन्तरंग तैयारी से सहज भाव एवं स्वभाव से आत्मा को जो एक निर्मल ज्योति प्राप्त होती है, वह निसर्गज सम्यक दर्शन है। उसे निसर्गज कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि वर्तमान जीवन में एवं वर्तमान जन्म में तथा जीवन के उस क्षण में, जब कि वह ज्योति प्रकट हई, उस समय उसे बाहर में न किसी गुरु के उपदेश का निमित्त मिला, न वीतराग वाणी के स्वाध्याय का ही अवसर प्राप्त हुआ। ___ आत्मा समय-समय पर कर्म के नवीन आवरणों को बांधता रहता है और पुरानों को तोड़ता रहता है । कर्म के आवरणों को बांधने की
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सम्यक् दर्शन के भेद | २०६ और तोड़ने की दोनों क्रियाएँ एक साथ निरन्तर चलती रहती हैं। याद रखिए, यह आत्मा संसार की ओर तब बढ़ती है, जब कि भोग, भोग कर कर्म बन्धन को तोड़ने की प्रक्रिया कम होती है और बाँधने की प्रक्रिया अधिक बढ़ जाती है । कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अन्न से अपना एक कोठा भरता भी है और खाली भी करता है, खाली करने और भरने का क्रम यह है कि उसमें से एक सेर अन्न रोज निकालता है तथा बदले में चार सेर अन्न नया डाल देता है। इस स्थिति में वह अन्न-भण्डार क्या कभी खाली होगा? खाली क्या, इस प्रकार तो वह निरन्तर बढ़ता ही जाएगा। इसका कारण यह है, कि निकालने की मात्रा कम है और डालने की मात्रा अधिक है। इसी प्रकार अनन्तअनन्त काल से इस आत्मा ने अपने मिथ्यात्व भाव के कारण कर्मों के भण्डार को अधिक परिमाण में भरा है और उन्हें भोग भोगकर खाली करने की मात्रा बहुत अल्प की है। एक बात और है, यदि पूर्वकृत कर्मों को भोगते समय अनुकूल भोग में रागात्मक तथा प्रतिकूल भोग में द्वषात्मक परिणति हो जाती है, तो कर्मदल भोग रूप से जितने क्षीण होते हैं उससे कहीं अधिक उनका बन्ध हो जाता है। आत्मा का कोई भी मोहात्मक विभाव परिणाम जब उदय में आता है, भले ही वह विभाव परिणाम राग का हो, शोक का हो, क्रोध का हो अथवा लोभ आदि का हो, उससे कर्म का बन्ध ही होता है । उससे भोगरूप में कर्म का क्षय होता भी है, तो बहत ही अल्प मात्रा में होता है । सुख दुःख के भोगकाल में भी यदि आत्मा जागृत नहीं है, भोग वृत्ति से उदासीन नहीं है, तो वह भविष्य के लिए और कर्म बाँध लेता है। ___ एक मजदूर अपने घर सायंकाल को जब अपने एक सप्ताह का वेतन लेकर लौटा, तब उसने देखा कि उसका प्यारा बच्चा घर के आंगन में खेल रहा है । अपने आँखों के तारे को प्यार करते हुए मजदूर ने अपने हाथ का दस का नोट उसके हाथ में दे दिया और वह स्वयं आंगन में पड़ी हुई खाट पर विश्राम करने लगा। इधर बच्चा खेलता-खेलता चूल्हे के पास जा पहुंचा, और खेल-ही-खेल में अपने हाथ का वह नोट उसने आग में फेंक दिया। इस दृश्य को देख कर वह पिता हतप्रभ एवं स्तब्ध हो गया, उसके मस्तिष्क में क्रोध का तूफान इतने वेग के साथ उठा, कि वह अपने को न संभाल सका और
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२१० | अध्यात्म प्रवचन
क्रोध में अन्धा बनकर उसने अपने उसी बच्चे को, जिसे अभी थोड़ी देर पहले वह प्यार कर रहा था, चूल्हे की जलती आग में झोंक दिया। जीवन की यह एक विचित्र घटना है। उन लोगों के जीवन में इस प्रकार की घटना असम्भव नहीं है, जो लोग अपने मन के आवेगों पर नियंत्रण नहीं कर सकते । मैं मानता हूँ कि उस मजदूर पिता के लिए दस के नोट की कीमत एक बहुत बड़ी कीमत थी, उस नोट को आग में जलते हुए देखकर उसके हृदय को आघात पहुँचना भी कदाचित् सहज कर्म माना जा सकता था, किन्तु उसके सोचने-समझने का तौर-तरीका अपने आप में स्वस्थ न था। क्या वह दस का नोट ही उसके समग्र जीवन का आधार था ? क्या उसका सारा जीवन उसी पर चलने वाला था ? जब कभी मनुष्य के मन और मस्तिष्क में अपने भविष्य के प्रति इस प्रकार का अन्धकारपूर्ण दृष्टिकोण उत्पन्न हो जाता है, तब इस प्रकार की दारुण घटनाओं का घटित होना असम्भव नहीं कहा जा सकता। मानव-जीवन की स्थिति यह है, कि कभी भी, किसी भी समय और किसी भी निमित्त को पाकर, मनुष्य के चित्त का कोई भी सुप्त आवेग जागृत होकर उसके मस्तिष्क के संतुलन को बिगाड़ सकता है । जब कि कभी लोभ, कभी क्रोध, कभी राग और कभी द्वेष, मनुष्य के मानसिक संतुलन पर तीव्र आघात एवं प्रत्याघात कर सकते हैं, उस स्थिति में मनुष्य अपने उन मानसिक आवेगों पर नियंत्रण करने की अपनी शक्ति को खो बैठता है। कितने आश्चर्य की बात है, जो मनुष्य प्रेम और दया का संदेश लेकर संसार को क्रोध एवं लोभ की आग को शान्त करने के लिए चला था, वह स्वयं ही उसमें दग्ध हो रहा है। और जीवन के इन नगण्य प्रसंगों पर अपना संतुलन खोकर स्वयं अपने लिए ही नहीं, अपने परिवार और अपने समाज के लिए भी कटु, अप्रिय और विषम समस्या उत्पन्न कर रहा है। मैं समझता है, इस प्रकार के लोगों का मानसिक संकल्प बहत दूबेल होता है और वे अपने मन के किसी भी आवेग पर इस प्रकार के विषम प्रसंगों पर अपने नियंत्रण करने की शक्ति को खो बैठते हैं । यह उदाहरण है कि भोग काल में असावधान व्यक्ति किस प्रकार भयंकर नए कर्मों का बन्धन कर लेता है। अतः केवल भोग से कर्म क्षीण नहीं होते, आत्मा शुद्ध नहीं होती।
मैं आपसे विचार कर रहा था, कि यह आत्मा अनन्त-अनन्त काल से भव-बन्धन में बद्ध है। वह अपने पुरातन कर्म को जितना भोगता
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सम्यक् दर्शन के भेद | २११ है, उससे अधिक वह नवीन बन्ध कर लेता है । संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करने के बाद भी, वह कर्म-बन्ध का प्रवाह बना रहता है । यह ठीक है कि कर्मोदय पूर्वकृत कर्म को भोगकर पूरा करने के लिए होता है, परन्तु कितनी विचित्र बात है, कि असावधान आत्मा पूर्वकृत कर्म के सुखात्मक भोग से तो प्रसन्न होता है, और उसके दुःखात्मक भोग से भयभीत, हैरान एवं परेशान हो जाता है । मिथ्यादृष्टि आत्मा कर्मों के सुखात्मक भोग में आसक्त हो जाता है और कर्मों के दुःखात्मक भोग से व्याकुल हो जाता है । इस प्रकार बन्ध की जटिल प्रक्रिया समाप्त नहीं होती । सम्यक् दृष्टि आत्मा की दशा इससे भिन्न होती है । वह अपने सुखात्मक एवं दुःखात्मक भोग में अपने मन एवं मस्तिष्क के संतुलन को बिगड़ने नहीं देता है । दोनों ही प्रकार के भोग में वह अपने समत्व योग को स्थिर रखता है । सम्यक् दृष्टि आत्मा यह सोचता है, कि यदि कर्म विपाक का समय आ गया है, तो यह अच्छा ही है । क्योंकि समभाव से भोगकर वह कर्म क्षीण हो जाएगा। जब उदय आ गया है, तो अब भोगकर ही उसे पूरा करना ठीक है । विवेकशील आत्मा यह सोचता है, कि अपने पूर्वकृत कर्मों को समभाव से भोगकर ही मैं शान्ति पा सकूंगा । इस प्रकार सम्यक् दृष्टि आत्मा न दुःख के समय विचलित होता है, और म सुख के समय । सुख-दुःख के भोगकाल में यदि पूर्ण तटस्थता रहती हैं, तो कर्मबन्ध नहीं होता है, यदि पूर्ण तटस्थता नहीं रहती है, तब भी विवेकी आत्मा को अल्प ही कर्मबन्ध होता है ।
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कर्मोदय का विकट प्रसंग आने पर विचार करना चाहिए कि आज तो मुझे मनुष्य जीवन मिला है, आज तो मुझे परिवार की अनुकूल स्थिति मिली है, आज तो मुझे अनेक प्रकार की सुख सुविधाएँ उपलब्ध हैं, आज तो मुझे इतना विवेक मिला है, कि मैं अपना हित एवं अहित भली-भांति सोच सकता हूँ । यदि इस प्रकार के अनुकूल और सुन्दर प्रसंग मिलने पर भी समभाव के साथ मैं अपने कर्मों को भोग करके क्षीण नहीं कर सका, तब फिर कब करूंगा ? क्या उस पशु और पक्षी के जीवन में, जहाँ विवेक का लवलेश भी नहीं रहता । क्या उस क्षुद्र कीटपतंग के जीवन में, जहाँ अन्धकार ही अन्धकार है, कहीं पर प्रकाश की एक क्षीण रेखा भी दृष्टिगोचर नहीं होती । क्या नरक में, जहाँ दुःख भोग से क्षण भर का भी अवकाश नहीं मिल पाता
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२१२ | अध्यात्म-प्रवचन है। क्या उस स्वर्ग में, जहाँ सुख-भोगों के मोहक जाल में आत्मा अपना भान ही भूल जाता है। वस्तुतः मनुष्य जीवन ही एक ऐसा शानदार जीवन है, जहाँ अपने पूर्वकृत कर्मों से लड़ा जा सकता है
और नवीन कर्मों के प्रवाह को रोका जा सकता है। यदि यहाँ कुछ नहीं किया, तो फिर सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार है । सुख और दुःख के बादल तो जीवन-गगन पर यथा क्रम आते और जाते ही रहते हैं। इनके अनुकूल और प्रतिकूल भावों में फंसकर मैं अपने स्वरूप को क्यों भूलूं ? इसी मानव-जीवन में मैं अपने कर्मों से लड़कर विजय प्राप्त कर सकता हूँ। याद रखो, आने वाले कर्म को रोको मत, उसे अपने जीवन क्षेत्र में स्वछन्दता के साथ प्रवेश करने दो, फिर भले ही आने वाला कर्म चाहे सूखात्मक हो अथवा दुःखात्मक हो। उसे रोकने या टोकने की कोशिश मत कीजिए। बस, इतना ध्यान अवश्य रखिए, कि सुख या दुःख के प्रति अपने मन में रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्प न उठे । यदि राग और द्वेष आ गया, तो स्थिति बड़ी विषम हो जाएगी । यह एक ऐसी स्थिति होगी, कि पूर्वकृत कर्म को भोगकर अपने को पवित्र नहीं किया गया और उससे अधिक नवीन कर्म आकर जमा हो गया। राग-द्वेष रूप विकल्पों के करने से आने वाले कर्मों को रोका नहीं जा सकता । और आने पर उनका सुख-दुःखात्मक भाग भी अवश्य होगा ही। हाँ यह बात दूसरी है कि हम अपने विवेक को जागृत रखकर अपने मन में रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्प उत्पन्न ही न होने दें, यह हमारे अपने हाथ की बात है । परन्तु कर्मप्रवाह के आ जाने पर उसके फल से बच सकना, निश्चय ही अपने हाथ की बात नहीं है । परन्तु जैन दर्शन एक आशावादी दर्शन है, इसी आधार पर वह कहता है, कि कृत कर्मों के भोग से बचा तो नहीं जा सकता, किन्तु यह निश्चित है, कि अपने रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्पों को मन्द एवं क्षीण करके दीर्घ स्थिति को अल्प स्थिति में
और तीव्र रस को मन्द रस में बदला जा सकता है, क्योंकि जैन-दर्शन के अनुसार बन्धन की स्थिति में भी आत्मा पुरुषार्थ करने में स्वतन्त्र है । अपने उस पुरुषार्थ से वह आत्मा अनुकूलात्मक और प्रतिकूलात्मक दोनों ही प्रकार का पुरुषार्थ करने में स्वाधीन है।।
बद्ध कर्म का उदय भाव अवश्य आएगा, उसे किसी भी स्थिति में कोई भी टालने की क्षमता नहीं रखता है। कर्मों का उदय होगा ही, क्योंकि वह अवश्यंभावी है। संसार की साधारण आत्मा की बात
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सम्यक दर्शन के भेद | २१३ कौन करे ? अध्यात्म शक्ति के धनो तीर्थंकर और भौतिक शक्ति के धनी चक्रवर्ती भी कर्मोदय के परिचक्र से बच नहीं सकते । कृतकर्मों का एवं कर्म के उदयभाव का भोग किए बिना छुटकारा किसी का नहीं होता । जो कर्म उदय में आ रहे हैं, उन्हें शान्त भाव से भोगो, उन्हें भोगते समय समभाव रक्खो, जिससे कि फिर उस कर्म का नवीन बन्ध न हो । यदि भोग के बाद फिर बन्ध हो गया, तो फिर भोग और फिर बन्ध, इस प्रकार भोग और बन्ध का यह परिचक्र चलता ही रहेगा । इस प्रकार कभी किसी की मुक्ति सम्भव नहीं रहेगी । इसलिए विवेक का मार्ग यही है, जो कर्मोदय प्राप्त हो चुका है, उसे आने दिया जाए, क्योंकि उसमें किसी का कोई चारा नहीं है । जो बँध चुका है, वह तो उदय में आएगा ही, परन्तु यह तो अपने हाथ में है कि आगे के लिए बन्ध न डाला जाए। बस, इसी के लिए सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एव सम्यक् चारित्र की अपेक्षा रहती है । आत्मा का भाव जितना विशुद्ध रहेगा, कषायों की मन्दता उतनी ही अधिक रहेगी, इतना ही नहीं, बल्कि कर्मों की विपाक शक्ति की तीव्रता भी मन्द होगी और दीर्घकालीन स्थिति अल्पकालीन हो जाएगी । अतः आत्मा के विशुद्ध भाव की अपार महिमा है ।
कल्पना कीजिए, एक सर्प पकड़ने वाला मनुष्य है, वह भयंकर से भयंकर सर्प को अपने गले में डाल लेता है । उसे न किसी प्रकार का भय होता है और न किसी प्रकार की चिन्ता ही रहती है । वह सपं उसके गले में ही क्या, शरीर के किसी भी अंग में क्यों न चिपट जाए, किन्तु सपेरा जरा भी विचलित नहीं होता । सर्प से उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता । क्योंकि भय का कारण जो विष है, उसने उसे निकाल फेंका है, दूर कर दिया है । भय सर्प में नहीं, सर्प के विष में होता है । और उसने सर्प की उस विष दाढ़ को निकाल फेंका है, जिसमें विष संचित होता था । इसलिए अब उसे किसी प्रकार का भय सर्प से नहीं रहा । एक बात और है, जिस मारक विष से साधारण मनुष्य भयभीत होता है, परन्तु एक चतुर वैद्य अपनी बुद्धि के प्रयोग एवं उपयोग से उसी मारक विष को तारक अमृत बना देता है । वह अमृत अनेक भयंकर से भयंकर रोगों को नष्ट करके रोगियों को नया जीवन प्रदान करता है । आत्मा और कर्म के सम्बन्ध में भी यही सत्य है, यही तथ्य है । जागृत आत्मा वह सपेरा है, जो अपने कर्म रूपी साँपों के राग द्वेषात्मक विष-दन्त को निकाल फेंकता है, फिर उसे कर्म रूपी सर्प से किसी प्रकार का भय नहीं रहला । कर्म तो
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२१४ | अध्यात्म प्रवचन वीतराग गुण स्थानों में भी रहता है, वहाँ पर भी उसका सुखात्मक एवं दुःखात्मक भोग होता ही है, किन्तु वहाँ पर रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्प का विष न रहने से कर्मों के उस भोग में आकूलता नहीं रहती है। कर्म का परिचक्र वहाँ पर भी चल रहा है, क्योंकि कर्म की सत्ता वहाँ पर भी विद्यमान है ही और जब तक कर्म की सत्ता विद्यमान है, तब तक उसका अनुकूल-प्रतिकूल वेदन, होता ही रहेगा, उसे रोका नहीं जा सकता । इस जीव में जैसे-जैसे रागात्मक एवं द्वेषात्मक विकल्प क्षीण एवं मन्द होते जाते हैं, वैसे-वैसे आत्म-भाव की स्वच्छता के कारण उल्लास एवं आनन्द भी बढ़ता जाता है । याद रखिए, कर्म का भोग भोगना एक अलग बात है और उसमें हर्ष एवं विषाद करना एक अलग बात है। वास्तविक सुख निराकुलता में है। इसके विपरीत जो भी दुःख है वह सब आकुलता में है। सांसारिक सुख भी आकुलता रूप ही है, अतः वह भी अन्तविवेक की दृष्टि से दुःख की कोटि में ही आता है। जीवन के इस तथ्य को ध्यान में रखकर सम्यक् दृष्टि आत्मा उस चतुर वैद्य के समान हो जाता है, जो अनाकुलता के द्वारा सुख-दुःख रूप जीवन-घातक विष को भी जीवन-उन्नायक अमृत बना देता है । यह कला सम्यक् दृष्टि जीव में ही हो सकती है, मिथ्या दुष्टि जीव में नहीं । सम्यक दृष्टि आत्मा अपने विवेक के कारण अपने हित अहित का विचार करता है । इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि आत्मा, विवेक के अभाव में रागात्मक एवं द्वषात्मक विभाव-भावों के कुचक्र से प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकता । यही कारण है कि न उसे कर्म के उदय भाव में शांति है, न उसे कर्म भोग में शांति है और न उसे कर्म-बन्ध में शांति है। मिथ्यादृष्टि आत्मा कहीं भी क्यों न चला जाए, वह अपने जीवन के विभावों एवं विकल्पों के प्रभाव से बच नहीं सकता, और इसी कारण उसके जीवन में सम्यक् दर्शन की विमल ज्योति का आलोक प्रसृत नहीं होता, इसीलिए वह सुख मिलने पर हर्ष करने लगता है और दुःख मिलने पर विषाद करने लगता है ।
वर्षाऋतु में आपने देखा होगा, कि मेंढक टर्र-टर्र किया करता है। मेंढक गन्दी तलैय्या का प्राणी है । वह तलैय्या में रहता है, और तलैय्या के गन्दे पानी में ही अपने को सुखी समझता है। तलैय्या में वर्षाऋतु के कारण जैसे ही कीचड़ और गन्दा पानी बढ़ता है, वैसे ही मेंढक गन्दे जल को पीकर कर्ण-बेधी स्वर से हल्ला मचाता है, मानो उसे सुख का कोई अक्षय भण्डार मिल गया है। उसके लिए वह
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सम्यक् दर्शन के भेद | २१५. कीचड़ और गन्दा जल ही जीवन को बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। इसके विपरीत अथाह महासागर में रहने वाला मच्छ मौन भाव से रहता है। महासागर की अथाह एवं अगाध जल राशि को पाकर भी वह कभी शोर नहीं मचाता, अभिमान नहीं करता कि मैं बहुत समृद्ध हैं, मेरे पास कितना विशाल जल भण्डार है। संसार में अज्ञानी और विवेकहीन आत्मा को दुःख मिलना भी खतरनाक है और सुख मिलना भी। उसकी जिन्दगी को दोनों ही खराब और बरबाद करने वाले हैं । सुख एवं दुःख को पचाने की शक्ति ज्ञानी एवं सम्यक् दृष्टि जीव में ही होती है। क्योंकि सम्यक दृष्टि आत्मा एवं विवेक सम्पन्न आत्मा दुःख एवं क्लेश को घनघोर काली घटाओं में से भी चमकते चाँद के समान निकलता है और भयकर आग में तपाए हए स्वर्ण के समान दमकता है। सुख आने पर वह महासागर के महान मच्छ के के समान गम्भीर रहेगा और दुःख आने पर भी वह कभी अपनी विनम्रता एवं शालीनता का परित्याग नहीं करेगा। इसके विपरीत अज्ञानी आत्मा दुःख आने पर तो म्लान मुख हो ही जाता है, किन्तु सुख आने पर भी वह शांत नहीं बैठता और बरसाती मेंढक के समान टरटराता रहता है, हमेशा हल्ला मचाता रहता है। सुख और दुःख दोनों ही उसे व्याकुल बना देते है।
कृत कर्म अपनों शुभ या अशुभ फल सभी को प्रदान करता है। संसारी आत्मा, भले ही वह किसी भी स्थिति में क्यों न हो, कर्म के विपाक से बच नहीं सकता। कर्म का बन्धन संसार की प्रत्येक आत्मा में है, और यह बन्धन तब तक रहेगा, जब तक कि आत्मा की संसार दशा है । तीर्थंकर भी क्या है ? वह भी तीर्थंकर नाम कर्म का ही फल है । और तीथंकर नामकर्म मूलतः क्या है ? वह संसार ही है, मोक्ष नहीं । जब तक तीर्थंकर नामकर्म का भोग पूर्णरूप से नहीं भोग लिया जायेगा, तब तक तीर्थंकर की आत्मा भी मुक्ति नहीं पा मकती। मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि तीर्थंकर बन कर भी बन्धन रहता है, संसार रहता है। एक बार विचार-चर्चा के प्रसंग पर एक सज्जन ने मुझसे कहा कि “यदि मुझे अगले जन्म में मोक्ष प्राप्त हो और दूसरी ओर हजारों जन्मों के बाद तीर्थंकर होकर मोक्ष मिलने वाला हो तो मुझे हजारों जन्मों के बाद तीर्थंकर बन कर मोक्ष जाना ही अधिक पसन्द है।" मैंने पूछा-"ऐसा क्यों ?" तो उस भाई ने कहा"तीर्थंकर बनने पर इन्द्र सेवा में उपस्थित होंगे, छत्र और चामर
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२१६ | अध्यात्म-प्रवचन
होंगे, स्वर्ण कमलों पर पैर रखते हुए विहार होगा । कितना आनन्द आएगा ।" मैंने उस भाई से कहा - बस, इसी जय जयकार के लिए तीर्थंकर होना चाहते हो ? इससे आपको क्या लाभ होगा ? भाई, मुझे तो हजारों जन्मों बाद तीर्थंकर बनकर मोक्ष पाने के बदले अगले जन्म में क्या, इसी जन्म में मोक्ष जाना अधिक रुचिकर है, क्योंकि इस आत्मा को रागद्वेष से जितनी जल्दी छुटकारा मिल जाए उतना ही अधिक अध्यात्म लाभ है । तीर्थंकर बनना बुरा नहीं है, वह भी एक पुण्य प्रकृति है, किन्तु उसके लिए हजारों जन्मों तक राग द्वेष की मलिनता को स्वीकार करना, अध्यात्म दृष्टि से कैसे उचित कहा जा सकता है ? और फिर, तीर्थंकर पद उत्कृष्ट पुण्यरूप भले ही हो, आखिर है तो संसार की ही अशुद्ध स्थिति, संसार की ही बद्ध दशा । यदि कोई व्यक्ति यह सोचता है कि यदि मैं तीर्थंकर बन जाऊँ तो इन्द्र मेरी पूजा करने आएँगे, जब मेरा जन्म होगा, तव इन्द्र मेरा जन्ममहोत्सव मनाएँगे और जब मुझे केवल ज्ञान होगा, तब भी वे मेरी पूजा करेंगे तो यह सोचना ठीक नहीं है । जरा अध्यात्म दृष्टि से विचार तो करें, कि तीर्थंकर बन जाने पर इन्द्र आए और पूजा भी करे, तो उससे आत्मा का क्या लाभ होगा ? यदि निश्चय ही आत्मा का उससे कोई लाभ नहीं है, तो फिर हजार जन्मों तक तीर्थंकर बनने की प्रतीक्षा क्यों करू ? तीर्थंकर का भी जब मोक्ष होता है, तब यह इन्द्र- पूजा आदि बाह्य विभूति और बाहरी ऐश्वर्य सब संसार में ही रह जाता है । मोक्ष में तो केवल अकेला आत्मा ही जाता है । जब मोक्ष में जाने से पूर्व इस सब बाह्य विभूति को छोड़ना आवश्यक ही है, फिर उसके लिए हजारों जन्मों तक कर्म के बन्ध और उदय आदि के चक्र में पड़ने से क्या लाभ ? तीर्थकर पद पर आसीन होकर तीर्थंकर स्वयं भी उससे उपलब्ध होने वाली पूजा, प्रतिष्ठा और विभूति को संसार ही मानते है, बन्धन ही मानते हैं । तीर्थंकरों की दृष्टि में तीर्थंकर होना भी संसार है । जरा अपनी आत्मा में गहरे उतर कर विचार तो कीजिए कि जिस दर्शन में तीर्थंकर पद भी संसार और बन्धन बताया गया हो, उससे बढ़कर दूसरा और कौन वीतराग दर्शन एवं अध्यात्म दर्शन होगा ? यह वीतराग दर्शन की विशेषता है, कि वह इन्द्र की पूजा, छत्र, चामर आदि बाह्म विभूति को त्यागने की बात कहता है। इतना ही नहीं, उसकी अध्यात्मदृष्टि इतनी गहरी है, कि वह चक्रवर्ती पद और तीर्थंकर पद जैसे
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सम्यक् दर्शन के भेद | २१७ विशिष्ट पदों को भी संसार की संज्ञा देता है और उनसे ऊपर उठने की प्रेरणा देता है। वह कहता है कि भले ही तीर्थंकर पद सब पदों से श्रेष्ठ हो, किन्तु मूलतः वह भी ससार की ही एक स्थिति विशेष है और मोक्ष पाने के लिए उसको छोड़ना भी परमावश्यक है। यह एक वीतराग दर्शन एव अध्यात्म दर्शन की ही विशेषता है, कि वह संसार की किसी भी स्थिति को मोक्ष की स्थिति मानने को तैयार नहीं है । वह बन्धन को बन्धन स्वीकार करता है और कहता है, कि जब तक किसी भी प्रकार का बन्धन है, मोक्ष नहीं मिल सकता।
साधक के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है, कि वह बन्धन से विमुक्त कैसे हो? बद्ध कर्म को शीघ्र से शीघ्र कैसे क्षीण किया जाए एव कैसे उसे दूर किया जाए ? उदय में आए हुए कर्म को भोगकर नष्ट करने का मार्ग तो बहुत लम्बा मार्ग है और कई उलझनों से भरा हुआ भी है । अतः इसके लिए एक दूसरा उपाय बतलाया गया है, जिससे बद्ध कर्म से बहुत शीघ्र छुटकारा मिल सकता है और वह उपाय है-उदीरणा का। उदीरणा क्या वस्तु है, उसके स्वरूप को समझना भी परम आवश्यक है। उदीरणा के मर्म को समझे बिना और तद्नुकुल साधना किए बिना, बद्ध कर्मों से शीघ्र छुटकारा नहीं मिल सकता। ___ कहा जाता है, कि जब चरम तीर्थंकर भगवान महावीर अपनी कठोर साधना में संलग्न थे, उस समय आर्य क्षेत्र एवं आर्य देश में 'घोर तपस्या एवं कठोर साधना करते हए भी एक बार उनके मन में यह विचार उठा, कि मुझे आर्य देश छोड़कर अनार्य देश में जाना चाहिए, जिससे कि वहाँ पहुँचकर मैं अपने कर्मों की उदीरणा करके शीघ्र ही इस भव-बन्धन से विमुक्त हो जाऊँ। कर्मों की उदीरणा की यह प्रक्रिया बहुत ही सूक्ष्म एवं विचित्र है। तीर्थंकर या अन्य भी कोई महान् साधक जब आर्य देश में रहता है, तो वहाँ उसे सहज में ही पूजा एवं प्रतिष्ठा के सुन्दर प्रसंग मिलते रहते हैं और जय-जयकार की मधुर स्वर लहरी उनके चारों ओर दिग-दिगन्तरों में गंजती रहती है और भक्तों की भक्ति का ज्वार उमड़ता रहता है। इस स्थिति में साधक यदि पूर्ण जागृत नहीं है, तो अनुकूलता पाकर वह राग में फंस सकता है किन्तु अनार्य देश एवं अनार्य क्षेत्र में पहुँचकर, जहाँ उसका कोई परिचित नहीं होता, जहाँ कोई उसका भक्त नहीं होता, जहां कोई उसकी पूजा एवं प्रतिष्ठा करने वाला नहीं होता,
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२१८ ! अध्यात्म प्रवचन और जहाँ कोई उसकी जय-जयकार करने वाला नहीं होता, वहाँ सर्वत्र उसे प्रतिकूल वातावरण ही मिलता है एवं प्रतिकूल संयोग ही मिलते हैं । उस स्थिति में किसी के प्रति द्वष न करते हुए, समभाव में लीन रहकर कर्मों की उदीरणा की जाती है । जिस कर्मदल के भोग में सागर के सागर समाप्त हो जाते हैं, उसे एक आवलिका जितने अल्प काल में भोग लेना, अर्थात् उदय की एक आवलिका में लाकर अन्तमहत में उसे पूरा कर लेना, कोई साधारण बात नहीं है। अध्यात्म साधक उदय प्राप्त कर्मों को भोग-भोगकर क्षय करने की अपेक्षा उदीरणा के द्वारा कर्मों को समय से पूर्व ही शीघ्र क्षय करने में अधिक लाभ समझते हैं। किन्तु उदीरणा की प्रक्रिया की यह साधना, साधारण नहीं है। धीर, वीर एवं गम्भीर साधक ही इस उदीरणा की प्रक्रिया में अपने मन का संतुलन ठीक रख पाते हैं। इस प्रकार के ज्ञानी के लिए सुख एवं दुःख वरदान एवं उद्धार के साधन होते हैं । परन्तु अज्ञानी के लिए वे ही संहार के एवं संसार के साधन हो जाते हैं । मिथ्यात्वी आत्मा अनन्त-अनन्त काल से सुखात्मक एवं दुःखात्मक भोग भोग रहा है । किन्तु दुःखात्मक भोग में वह कुम्हला जाता है
और सुखात्मक भोग में वह फूल जाता है, जिससे कि वह भविष्य के लिए फिर नवीन कर्मों का बन्ध कर लेता है और कर्मों के भार के नीचे दब जाता है । अध्यात्म शास्त्र में इसी को संसार-वृद्धि कहा जाता है । परन्तु जो ज्ञानी आत्मा होता है और जिसका अध्यात्म भाव जागृत होता है, वह भयंकर से भयंकर एवं तीव्र से तीव्रतर विघ्न बाधाओं के आने पर भी विचलित नहीं होता, बल्कि उसे भोग कर समाप्त करने का ही उसका लक्ष्य रहता है, किन्तु उसका वह भोग समभाव के साथ होता है। जिससे कि फिर भविष्य के लिए नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता। अध्यात्म शास्त्र में इसी को संवर की साधना कहते हैं, इसी को निर्जरा की साधना कहते हैं और इसी को मोक्ष की साधना भी कहते हैं। ___ मैं आपसे यह कह रहा था, कि सम्यक् दर्शन के दो भेद हैंनिसर्गज सम्यक् दर्शन और अधिगमज सम्यक् दर्शन । निसर्गज सम्यक दर्शन वह है, जिसमें किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती । गुरु उपदेश के बिना ही, एवं स्वाध्याय आदि बाह्य निमित्त के बिना ही, स्वयं आत्मा की विशुद्ध परिणति से जिस सम्यक्त्व की उपलब्धि होती
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सम्यक् दर्शन के भेद | २१९ है, वह निसर्गज सम्यक् दर्शन है। निसर्गज सम्यक् दर्शन में अन्तर की दिव्य शक्ति एवं उपादान शक्ति से ही दर्शन मोहनीय कर्म क्षीण हो जाता है और अन्तर में सम्यक दर्शन का प्रकाश जगमगाने लगता है, इसमें बाहर का कोई भी निमित्त नहीं होता। कभी-कभी यह कहा जाता है, कि सम्यक्त्व की प्राप्ति मोहनीय कर्म के क्षय एवं उपशम आदि के पश्चात् होती है। परन्तु मैं पूछता है वह क्षय और उपशम स्वयं ही होता है क्या? यदि दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय और उपशम स्वयं नहीं होता है, तो उसका क्षय करने वाला कौन है ? यह एक बड़ा विकट प्रश्न है। इसके समाधान में कहा गया है कि-दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय एवं उपशम करने वाला कोई बाहर का अन्य पदार्थ नहीं है, वह स्वयं आत्मा ही है, आत्मा की उपादान शक्ति से ही मोहनीय कर्म का क्षय एवं उपशम होता है। कर्मों का आवरण स्वयं नहीं टूटता, उसे आत्मा के अन्तर का पुरुषार्थ ही तोड़ता है। आत्मा का पुरुषार्थ निसर्गज सम्यक् दर्शन में सहज होता है, उस पुरुषार्थ के जागृत होने पर दर्शन मोह का आवरण टूट जाता है और आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है । अन्तर पुरुषार्थ की जागृति के लिए किसी बाह्य निमित्त एवं पर की अपेक्षा नहीं रहती। जब आन्तरिक पुरुषार्थ का वेग तीव्र होता है, तब आत्मा बन्धनों को तोड़कर उससे विमुक्त हो जाता है। निसगंज सम्यक् दर्शन में आत्मा स्वयं ही साधक है, स्वयं ही साधन है और स्वयं साध्य है। निश्चय दृष्टि से एवं भूतार्थ ग्राही नय से यह आत्मा स्वयं अपनी उपादान शक्ति से ही अपने स्वरूप की उपलब्धि करता है, अथवा अपने स्वरूप को आविर्भूत करता है । अनन्त-अनन्त कर्मदल का भोग भोगते-भोगते आत्मा में कभी विलक्षण आध्यात्मिक जागरण होने से रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्प मन्द हो जाते हैं, और उससे वह विशुद्धि हो जाती है, कि आत्मा के दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम होने से तदनुसार सम्यक्त्व भी तीन प्रकार का हो जाता है-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । यद्यपि दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय में आत्मा की दर्शनविषयक पूर्ण विशुद्धि सदाकाल के लिए हो जाती है, किन्तु उपशम भाव में भी आत्मा को निर्मलता पूर्णरूपेण शुद्ध रहती है, किन्तु वह उतने ही क्षणों तक रहती है, जितने क्षण तक दर्शन मोहनीय कर्म का उपशमन रहता है। यह दोनों स्थितियाँ आत्मा की विशुद्ध स्थितियां हैं । शायोपशमिक सम्यक्त्व में कुछ अंश में विशुद्धि रहती है और कुछ
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२२० | अध्यात्म-प्रवचन
अंश में अशुद्धि भी, क्योंकि इसमें दर्शन मोहनीय कर्म की सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति का उदय रहता है और इस प्रकार सम्यक्त्व मोहनीय के आंशिक उदय से आत्मा की दर्शन सम्बन्धी पूर्ण विशुद्ध स्थिति नहीं रह सकती । आत्मा की दर्शन सम्बन्धी विशुद्ध स्थिति के लिए, या तो दर्शन मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाना चाहिए, अथवा उसका उपशमन हो जाना चाहिए । अब प्रश्न यह है कि अधिगमज सम्यक् दर्शन की व्याख्या और परिभाषा क्या है ? मैं पहले यह कह चुका हूँ कि निसर्ग शब्द का अर्थ है - स्वभाव, परिणाम और अपरोपदेश । अधिगम शब्द का अर्थ है - परनिमित्त, परसंयोग और परोपदेश । इसका अर्थ यह हुआ कि अधिकगमज सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में शास्त्र -स्वाध्याय आदि की आवश्यकता है और किसी न किसी परसंयोग की अनिवार्यता है । यद्यपि अधिगमज सम्यक् दर्शन में भी उसका अन्तरंग कारण दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम भाव, क्षयभाव और क्षयोपशम भाव अवश्य ही रहता है, तथापि अधिगमज सम्यक् दर्शन में बाहर का निमित्त भी अपेक्षित है । निष्कर्ष यह है कि जो सम्यक् दर्शन बाह्य एवं अन्तरंग दोनों कारणों की अपेक्षा रखता है, वह अधिगमज सम्यक् दर्शन कहलाता है । इसके विपरीत निसर्गज सम्यक् दर्शन में किसी भो बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती आत्मशुद्धि का जितना मार्ग निसर्गज सम्यक् दर्शन में तय करना पड़ता है, उतना ही अधिगमज सम्यक् दर्शन में भी तय करना पड़ता है । निसर्गज और अधिगमज सम्यक् दर्शन में अधिक अन्तर नहीं है, क्यों कि दोनों में अन्तरंग कारण तो समान ही है । उपादान की शक्ति दोनों जगह ही काम करती है, दोनों की स्वरूप-शुद्धि में भी कोई अन्तर नहीं है । आध्यात्मिक शुद्धि का स्वरूप दोनों का एक जैसा ही होता है । यदि दोनों में कुछ अन्तर है तो केवल इतना ही कि एक बाह्य निमित्तनिरपेक्ष है और दूसरा बाह्य निमित्त सापेक्ष है । एक में निमित्त नहीं रहता, इसलिए वह निमित्त-निरपेक्ष है और दूसरे में निमित्त रहता हैं, इसलिए वह निमित्त सापेक्ष है । परन्तु अध्यात्म क्षेत्र के विकास में निमित्त महत्वपूर्ण नहीं होता, महत्वपूर्ण तो आत्मा की अपनी उपादान शक्ति ही है । निमित्त बहुत बड़ा बलवान नहीं होता है । आत्मा के उपादान के बिना निमित्त का महत्व नहीं के बराबर है । आत्मा को अपने स्वयं के पुरुषार्थ के अभाव में सम्यक् दर्शन नहीं हो
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सम्यक् दर्शन के भेद | २२१ सकता है, यह एक निश्चित सिद्धान्त है। दोनों प्रकार के सम्यक् दर्शनों में उपादान की शक्ति का बल ही मुख्य एवं प्रधान है। मेरे विचार में सम्यक् दर्शन और निमित्त सापेक्ष हो, अथवा परनिमित्तनिरपेक्ष हो, पर वह आत्मा में कहीं बाहर से नहीं आता, अपने अन्दर के उपादान में से ही होता है। किसी आत्मा की उपादान में ऐसी तैयारी रहती है, कि सम्यर्क दर्शन की उपलब्धि में उसे बाह्य निमित्त की अपेक्षा रहती ही नहीं है। ___आप जीवन में इस तथ्य को भली भाँति जानते हैं कि एक व्यक्ति बिना किसी की शिक्षा के और बिना किसी के मार्ग दर्शन किए स्वयं अपने ही अभ्यास से और स्वयं अपने ही श्रम से अपनी कला में एवं अपने कार्य में दक्ष हो जाता है। दूसरी ओर संसार में कुछ व्यक्ति इस प्रकार के भी हैं, जिन्हें किसी भी कला में निपूणता प्राप्त करने के लिए, अथवा किसी भी कार्य में दक्ष होने के लिए गुरुजनों के उपदेश की एवं अपने अभिभावकों के मार्ग-दर्शन की आवश्यकता रहती है । इसी प्रकार निसर्गज सम्यक् दर्शन एक वह अध्यात्म कला है, जो स्वयं के आन्तरिक पुरुषार्थ से एवं स्वयं के आन्तरिक बल से प्राप्त की जाती है । और अधिगमज सम्यक् दर्शन जीवन की वह कला है जिसे अधिगत करने के लिए दूसरों के सहकार की आवश्यकता है। दूसरों के सहकार की भी कुछ सीमा होती है। वही सब कुछ नहीं है। मूल वस्तु तो अपने अन्दर का जागरण ही है। यदि कोई व्यक्ति गुरु का उपदेश तो सुने परन्तु उसे अपने हृदय में धारण न करे तो उस उपदेश से क्या लाभ होगा? शून्य-चित्त व्यक्ति को निमित्त पाकर भी कोई लाभ नहीं होता।
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१३
उपादान और निमित्त
किसी भी वस्तु का परिज्ञान करने के लिए जैन-दर्शन में दो दृष्टियों का वर्णन किया गया है-भेद दृष्टि और अभेद-दृष्टि । भेद दृष्टि का अर्थ है-एकता में अनेकता । अभेद-दृष्टि का अर्थ है-अनेकता में एकता। जब साधक इस विश्व को एवं विश्व के पदार्थों को भेद-दृष्टि से देखता है, तो उसे सर्वत्र अनेकता-ही-अनेकता दृष्टिगोचर होती है, उसे कहीं पर भी एकता नजर नहीं आती। किन्तु वही साधक जब विश्व को एवं विश्व के पदार्थों को अभेद-दृष्टि से देखता है, तब सर्वत्र उसे एकता ही एकता दृष्टिगोचर होती है, उसे कहीं पर भी अनेकता नजर नहीं आती। वस्तुतः संसार द्रष्टा के सामने वैसा ही उपस्थित हो जाता है, जिस दृष्टि से द्रष्टा उसे देखता है।
यहाँ पर आत्म-भाव का वर्णन चल रहा है, आत्म-भाव के वर्णन में सबसे मुख्य बात यह है कि आत्मा के स्वरूप का बोध करना और आत्मा के विशुद्ध स्वरूप की उपलब्धि के लिए प्रयत्न करना। मैं आपसे सम्यक् दर्शन की चर्चा कर रहा था। सम्यक् दर्शन क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में मैंने अपने पूर्व प्रवचन में कहा था, कि सम्यक्
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उपादान और निमित्त | २२३
दर्शन आत्मा के दर्शन - गुण की शुद्ध पर्याय है । दर्शन गुण है और आत्मा गुणी है । जैन दर्शन के अनुसार गुण और गुणी में न एकान्त भेद है और न एकान्त अभेद । गुण और गुणी में जैन दर्शन कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद स्वीकार करता है । परन्तु अध्यात्म दृष्टि से एवं परम विशुद्ध निश्चय नय से जब वस्तु तत्व का वर्णन किया जाता है, तब वहाँ भेद को गौण करके, अभेद की ही मुख्यता रहती है । अतएव सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में अभेद नय से कहा जाता है कि सम्यक् दर्शन आत्मा है और आत्मा सम्यक् दर्शन है । अभेद दृष्टि से गुण और गुणी में कोई भेद नहीं होता, कहने का भेद भले ही क्यों न हो । कल्पना कीजिए, आपके सामने मिश्री की एक डली रखी हुई है । क्या आप मिश्री के मिठास को मिश्री से अलग देख सकते हैं ? आपके सामने एक मोती रखा हुआ है । क्या आप मोती और उसकी श्वेतिमा ( सफेदी ) को अलग-अलग देख सकते हैं ? निश्चय ही मिश्री की मिठास और मोती की सफेदी, मिश्री और मोती से भिन्न नजर नहीं आती, दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होते । परन्तु दोनों को अलग भी कहते हैं । कहने और बोलने की भाषा अलग जो होती है । शब्दों में सत्य खण्ड रूप में ही अभिव्यक्त होता है । भाषा के किसी भी शब्द में सम्पूर्ण (अखण्ड) सत्य को अभिव्यक्त करने की शक्ति नहीं है । अस्तु, यह स्पष्ट है कि सम्यक् दर्शन आत्मा का गुण है और आत्मा गुणी है, दोनों में कोई भेद नहीं, क्यों कि जो आत्मा है वही सम्यक् दर्शन है।
सम्यक् दर्शन की व्याख्या करते हुए अथवा उसकी परिभाषा बताते हुए कहा गया है कि - सम्यक् दर्शन का आविर्भाव जब आत्मा में हो जाता है, तब उस निर्मल ज्योति के समक्ष, उस प्रज्वलित दीप के समक्ष आत्मा में मिथ्यात्व एवं अज्ञान का अन्धकार नहीं रहने पाता है । साधक के जीवन में सम्यक् दर्शन बहुत ही महत्वपूर्ण है । परन्तु उसकी उपलब्धि का उपाय क्या है, तथा किस साधना के द्वारा उसे उपलब्ध किया जा सकता है ? यह प्रश्न एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । इस प्रश्न का समाधान ही वस्तुतः अध्यात्म की साधना है । कल्पना कीजिए, अनन्त गगन में स्थित एवं प्रकाशमान स्वच्छ एवं निर्मल चन्द्र कितना सुन्दर लगता है, उसका प्रकाश कितना शीतल एवं प्रिय होता है । चन्द्र तो बहुत अच्छा है, यदि उसे अपने घर में रखा जाए तो, उससे बहुत शीतल प्रकाश मिल सकता है, परन्तु उसकी उपलब्धि
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२२४ | अध्यात्म प्रवचन कथमपि सम्भव नहीं है । उसका प्राप्त करना ही असम्भव है । यद्यपि चन्द्र सुन्दर है, प्रिय है, तथापि वह एक ऐसा पदार्थ है, कि उसे पकड़ कर कोई अपने घर में ला नहीं सकता है। किसी वस्तु का सुन्दर होना, अच्छा होना और महत्वपूर्ण होना एक बात है, परन्तु उसे प्राप्त करना दूसरी बात है। हजारों हजार प्रयत्न करने पर भी कोई व्यक्ति चन्द्र को पकड़ नहीं सकता । चन्द्र को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। किन्तु याद रखिए, आत्मा के देदीप्यमान गुण सम्यक् दर्शन का प्राप्त करना असम्भव नहीं, सम्भव है, प्रयत्न-साध्य है । वह आकाशकुसुम नहीं है, अथवा 'आकाश चन्द्र' नहीं है, जिसे प्राप्त न किया जा सके । मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि, जिस पकार आकाश के फल को हजार वर्ष के बाद भी कोई प्राप्त नहीं कर सकता, वसी बात सम्यक् दर्शन से सम्बन्ध में नहीं है। सम्यक् दर्शन की उपलब्धि अथवा उसकी प्राप्ति का उपाय कठिनतम हो सकता है, किन्तु उसे असम्भव कोटि में नहीं डाला जा सकता। क्योंकि सम्यक् दर्शन कोई बाह्य पदार्थ नहीं है, जिसे प्राप्त किया जाए। वह तो आत्मा का ही एक निज गुण है । मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का एक आवरण उस पर आ गया है, उस आवरण को हटाने भर की देर है, फिर तो सम्यक दर्शन की उपलब्धि अथवा आविर्भाव स्वतः हो जाता है। यह बात अवश्य है, कि सम्यक दर्शन के अभाव में हमारी किसी भी प्रकार की साधना सफल नहीं हो सकती। इसीलिए कहा गया है कि सम्यक् दर्शन केवल आवश्यक ही नहीं है, बल्कि अध्यात्म-साधना के विकास के लिए अनिवार्य भी है और महत्वपूर्ण भी है। और निश्चय ही जीवन में प्राप्त भी किया जा सकता है।
जैन-दर्शन केवल एक आदर्श वादी दर्शन ही नहीं है, बल्कि वह एक यथार्थवादी दर्शन भी है। कोरा आदर्शवाद कल्पना की वस्तु होता है, अतः उसके साथ यथार्थवाद का समन्वय आवश्यक है । जैनदर्शन में किसी भी प्रकार के एकान्तबाद को स्थान प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि अपने मूल रूप में वह अनेकान्तवादी है। इस अपेक्षा से यह कहा जा सकता है, कि जैन-दर्शन में कोरा आदर्शवाद मान्यता प्राप्त नहीं कर सकता और अकेला यथार्थवाद भी वहां स्वीकृत नहीं किया जा सकता । इसलिए जैन-दर्शन आदर्शवादी होते हुए भी यथार्थ वादी है और यथार्थवादी होकर भी वह आदर्शवादी है। आदर्शवाद
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उपादान और निमित्त | २२५ कल्पना की ऊँची और लम्बी उड़ान भरता है, वह कहता है किपरमात्मा अनन्त है, यह आत्मा आनन्द एवं ज्ञानमय है । आत्मा शुद्ध एवं बुद्ध है, निरंजन एवं निर्विकार है, किन्तु इस विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं किया जा सकता । यदि उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता और साधक अपनी साधना के बल पर उसकी उपलब्धि नहीं कर सकता, तो इस प्रकार का आदर्श किस काम का ? वैदिक दर्शन में परमात्मा को अनन्त अवश्य कहा गया, परन्तु साथ में यह भी कह दिया गया कि परमात्मा, परमात्मा है और तुम, तुम हो। तुम परमात्मा नहीं बन सकते, उसके भक्त और सेवक ही बने रह सकते हो । परमात्मा की कृपा से अथवा भगवान के अनुग्रह से ही तुम मुक्ति लाभ कर सकते हो । इस प्रकार के कल्पना - मूलक आदर्शवाद ने अध्यात्म साधना की जड़ ही काट कर रख दी । साधक के समक्ष साधना के मार्ग का कोई अर्थ नहीं रहता, यदि वह अपनी साधना के द्वारा प्रयत्न और पुरुषार्थ करने पर भी भक्त ही बना रहता है, भगवान नहीं हो सकता । इसके विपरीत अध्यात्मवादी दर्शन भले ही वे जैन, बौद्ध, वेदान्त, सांख्य आदि किसी भी परम्परा के क्यों न हों, सब का आदर्श उनके आदर्श से भिन्न है, जो अपने आपको ईश्वरवादी दार्शनिक कहते हैं । ईश्वरवादी दर्शन आदर्शवादी दर्शन अवश्य है, परन्तु यथार्थवादी दर्शन नहीं है, क्योंकि वह साधक के समक्ष साधना का राजमार्ग प्रस्तुत नहीं कर सकता । जैन दर्शन आदर्शवादी होते हुए भी यथार्थ - वादी है । उसका आदर्श स्वप्न के समान नहीं है, जिसमें अभीष्ट वस्तु प्राप्त तो होती है, किन्तु जागरण होते ही वह नष्ट हो जाती है । जैन दर्शन के अनुसार चेतन धर्म की ऊँची से ऊँची अवस्था को प्राप्त कर सकता है । यह आत्मा परमात्मा बन सकता है, भक्त भगवान बन सकता है, जीव ब्रह्म बन सकता है । जो कुछ आदर्श है, उसे यथार्थ रूप में प्राप्त किया जा सकता है। इसका अर्थ केवल इतना ही है कि बाहर से प्राप्त नहीं, बल्कि वह परमात्मभाव, वह परब्रह्मभाव, वह योग्यता, वह शक्ति और वह स्वरूप गुणों के रूप में तुम्हारे अन्दर ही विद्यमान है, केवल उसे व्यक्त करने की आवश्यकता है । वह आन्तरिक शक्ति प्रकट हुई नहीं कि आत्मा परमात्मा बन जाता है, भक्त भगवान बन जाता है । मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जैन-दर्शन यथार्थवादी इस अर्थ में है, कि वह जन-चेतना के समक्ष जो आदर्श
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२२६ | अध्यात्म-प्रवचन
रखता है, उस आदर्श की उपलब्धि का राजमार्ग भी वह प्रस्तुत करता है और कहता है, कि अध्यात्म-साधना के मार्ग पर चलकर विशुद्ध परमात्म भाव को प्राप्त किया जा सकता है । यह कठिन अवश्य है पर, असम्भव नहीं ।
इस विश्व - रचना में कार्य
इतनी चर्चा का सार तत्व इतना ही है, कि अध्यात्म-साधक अपनी अध्यात्म-साधना के बल एवं शक्ति पर आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकता है, और निश्चय ही कर सकता है, इसमें किसी प्रकार की शंका के लिए लेशमात्र भी अवकाश नहीं है । परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न साधन का एवं कारण का है। किसी भी साध्य की सिद्धि के लिए साधन की आवश्यकता रहती है । किसी भी कार्य की पूर्णता के लिए कारण की आवश्यकता रहती है । और कारण का भाव एक ऐसी कड़ी है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । कार्य-कारण का भाव एक ऐसा सिद्धान्त है, जिसके परिज्ञान के बिना साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । दर्शन - शास्त्र का यह एक मुख्य एवं प्रधान सिद्धान्त हैं, कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता है । कभी-कभी ऐसा भी होता है, कि किसी कार्य की पूर्णता में हमें बाहर में कोई कारण नजर नहीं आता, परन्तु जब उसकी गहराई में उतर कर देखा जाता है, तब उसका कोई न कोई कारण अवश्य ही होता है । परन्तु यह नहीं माना जा सकता कि कहीं पर बिना कारण के भी कार्य हो सकता है और बिना साधन के भी साध्य की उपलब्धि हो सकती है । जिस कार्य की पूर्णता में अथवा जिस साध्य की उपलब्धि में बाहर से कोई कारण देखने में नहीं आता, तो निश्चय ही अन्तरंग में वहाँ कोई कारण अवश्य है । भले ही हम किसी कार्य के कारण को देख सकें, या न देख सकें, किन्तु उसकी सत्ता में हमें अवश्य ही विश्वास करना चाहिए ।
प्रस्तुत में सम्यक् दर्शन का वर्णन चल रहा है । सम्यक् दर्शन भी एक कार्य है और जबकि वह एक कार्य है, तब उसका कोई कारण होना भी आवश्यक है, क्योंकि यदि बिना कारण के कोई कार्य होता, तो सारे संसार की व्यवस्था ही गड़बड़ी में पड़ जाती । अतः प्रत्येक कार्य के पीछे कारण की सत्ता अवश्य ही मानी जाती है । जब सम्यक् दर्शन का आविर्भाव होता है, और उस आविर्भाव में बाहर में न हम कोई शास्त्र स्वाध्याय देखते हैं, और न गुरु का उपदेश सुनते हैं, फिर
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उपादान और निमित्त | २२७
भी जो सम्यक् दर्शन की ज्योति प्रकट होती है, उसे निसर्गज सम्यक् दर्शन कहा गया है । बाहर में भले ही उसके कारण की प्रतीति न हो । किन्तु अन्तरंग में तो कोई कारण अवश्य होना चाहिए। क्योंकि बिना कारण के कोई कार्य होता ही नहीं है । जो भी स्थिति है, वह सहेतुक है, अहेतुक नहीं। और तो क्या, जीव क्यों है और अजीव क्यों है ? इस प्रश्न का भी सहेतुकता के रूप में ही समाधान किया गया है और कहा गया है कि-जीव इसलिए जीव है, क्योंकि उसमें जीवत्व गुण है और अजीव इसलिए अजीव है, क्योंकि उसमें अजीवत्व गुण है । यदि जीव में जीवत्व गुण न हो, तो वह कभी अजीव भी बन सकता है । और अजीव में यदि अजीवत्व गुण न हो, तो वह कभी जीव भी बन सकता है । परन्तु जीव का जीवत्व जीव को कभी अजीव नहीं बनने देता । और अजीव का अजीवत्व कभी अजीव को जीव नहीं बनने देता । अग्नि का कारण उसका दाहकत्व गुण ही है । यदि अग्नि में दाहकत्व गुण न हो, तो अग्नि, अग्नि नहीं रह सकती । इस प्रकार हमारी बुद्धि जहाँ तक दौड़ लगा सकती है, वह हर कार्य के पीछे उसके कारण को पकड़ लेती है ।
प्रश्न होता है कि जिस सम्यक् दर्शन को निसर्गज सम्यक् दर्शन कहा जाता है, उसका तो कोई कारण नहीं होना चाहिए। क्योंकि निसर्गज शब्द का अर्थ है - वह वस्तु अथवा वह तत्व जो अपने स्वभाव से, जो अपने परिणाम से अथवा जो सहज से ही उत्पन्न हो जाता है । फिर उसमें कारण मानने की क्या आवश्यकता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में यही कहना है, कि निसर्गज सम्यक् दर्शन स्वाभाविक अवश्य होता है, किन्तु बिना कारण के नहीं होता । यहाँ पर सम्यक्दर्शन को निसर्गज कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है, कि जिस किसी भी आत्मा को, जिस किसी भी काल में और जिस किसी भी क्षण में सम्यक् दर्शन की उपलब्धि होती है, वहां पर उस समय उपदेश एवं स्वाध्याय आदि कोई बाह्य निमित्त नहीं होता । बाह्य निमित्तों के अभाव में भी जब किसी को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है, तब वह निसर्गज सम्यक् दर्शन कहलाता है । भले ही उसका बाह्य निमित्त न रहे, किन्तु अन्तरंग निमित्त और आभ्यंतर कारण तो अवश्य ही रहता है । अन्तरंग में जब तक दर्शन मोहनीय कर्म का आवरण रहता है, सम्यक् दर्शन नहीं हो सकता । अन्तरंग
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२२८ | अध्यात्म-प्रवचन पुरुषार्थ तथा अन्तरंग कारण की आवश्यकता निसर्गज और अधिगमज दोनों ही प्रकार के सम्यक् दर्शन में समान भाव से रहती है । अन्तरंग पुरुषार्थ के जगते ही, मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम होते ही सम्यक दर्शन का आविर्भाव हो जाता है। प्रश्न यह है, कि उपशम-जन्य सम्यक् दर्शन, क्षय-जन्य सम्यक् दर्शन और क्षयोपशम जन्य सम्यक् दर्शन में से, पहले कौन सा सम्यक् दर्शन होता है ? सिद्धान्त-ग्रन्थों में उक्त प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया गया है कि अनादि कालीन मिथ्या दृष्टि आत्मा को पहले-पहल उपशम जन्य सम्यक् दर्शन होता है, बाद में उसे क्षयोपशम जन्य भी हो सकता है और क्षय जन्य भी हो सकता है। क्षय जन्य सम्यक् दर्शन सबसे विशुद्ध होता है, वह एक बार प्राप्त होने के बाद फिर कभी नष्ट नहीं होता, परन्तु उपशम-जन्य एवं क्षयोपशम-जन्य सम्यक् दर्शन उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं । दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम भाव, क्षयोपशम भाव और क्षय भाव, सम्यक् दर्शन का अन्तरंग हेतु है, फिर भले ही वह सम्यक् दर्शन निसगंज हो अथवा अधिगमज हो। मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है, कि निसर्गज सम्यक् दर्शन भी बिना कारण के नहीं होता है।
सम्यक् दर्शन की चर्चा में और उसकी व्याख्या में एक नया प्रश्न उपस्थित होता है, कि निसर्गज सम्यक् दर्शन में यदि कोई बाह्य निमित्त नहीं होता है, तो क्या वह केवल इस जीवन में ही नहीं होता, अथवा पूर्व जन्म में भी नहीं होता ? उक्त प्रश्न अध्यात्म शास्त्र में चिरकाल से चर्चा का विषय रहा है। प्रश्न बड़े ही महत्व का है और साथ ही विचारणीय भी। यह प्रश्न ऐसा प्रश्न नहीं है, जिसका उत्तर यं ही सहज में दिया जा सके । उक्त प्रश्न के समाधान के लिए, समयसमय पर अध्यात्म-शास्त्र के तत्वदर्शी विद्वानों ने शास्त्रों के गहन गम्भीर सागर में गहरी डुबकी लगाई है और उक्त प्रश्न का समाधान पाने के लिए एक दूसरे का खण्डन-मण्डन भी बहुत किया है । खण्डन एवं मण्डन, पक्ष एवं विपक्ष का दलदल इतना गहन हो गया है कि उसमें से आसानी से कोई पार नहीं हो सकता। तर्क और प्रतितर्क के घने कुहासे में जो सत्य छप गया है, उसे ढूंढ़ना कभी-कभी आसान नहीं होता।
आपने पुराणों में सागर-मंथन की कहानी सुनी होगी, वह बड़ी
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उपादान और निमित्त | २२६
ही विचित्र एवं दिलचस्प कहानी है। कहा गया है कि-सागर का मंथन करने के लिए एक ओर देवता लगे और दूसरी ओर दानव लने । मंदराचल पर्वत को मथानी बनाया गया और शेषनाग को नेति बनाया गया। फिर दोनों ने मिलकर सागर का मंथन किया, जिसमें से अमृत भी निकला और साथ में विष भी निकला। प्रत्येक व्यक्ति प्राणप्रद अमृत की उपलब्धि तो करना चाहता है, किन्तु मारक विष को कोई ग्रहण करने के लिये तैय्यार नहीं होता। इसी प्रकार शास्त्रों के सागर का मंथन करने वाले विद्वान संसार में बहुत हैं, किन्तु उनके मंथन के फलस्वरूप शास्त्र-सागर में से अमृत भी निकला और साथ में विष भी निकला। शास्त्र-सागर का अमृत क्या है -अहिंसा, संयम
और तप। और विष क्या है-सम्प्रदायवाद, पंथवाद और बाड़ाबन्दी । यदि शास्त्र-सागर का मंथन तटस्थ वृत्ति से किया जाता है तो उसमें से अमृत ही निकलता है, विष नहीं, किन्तु शास्त्र-सागर का मंथन जब पंथवादी मनोवृत्ति से किया जाता है, तब उसमें से विष ही निकलता है, अमृत नहीं। तत्वदर्शी विद्वान का कर्तव्य है कि वह अपनी तटस्थ वृत्ति से तथा समभाव से शास्त्र-सागर का मंथन करके उसमें से शाश्वत सत्य का अमृत निकाल कर स्वयं भी पान करे और दूसरों को भी पान कराए । परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका अथवा हुआ तो बहुत कम हो सका । पंथवादी मनोवृत्ति ने अनेकान्त के अमृत की उपेक्षा करके एकान्तवाद के विष का ही पान किया। किन्तु दुर्भाग्य से वह उस विष को भी अमृत ही समझती रही। इसी के फलस्वरूप श्वेताम्बर और दिगम्बर पंथों को एवं सम्प्रदायों की अखाड़ेबाजी और परस्पर एक दूसरे के विरोध में शास्त्रार्थ की कलाबाजी भी यत्र-तत्र उभयपक्ष के ग्रन्थों में आज भी उपलब्ध होती है । इस पंथवादी मनोवृत्ति ने धर्म, संस्कृति और दर्शन-शास्त्र को ही दूषित नहीं किया, बल्कि प्रभावशाली एवं युग-प्रभावक आचार्यों को भी अपना-अपना बनाकर उन पर अपनेपन की मुहर लगाने का प्रयत्न किया। उदाहरण के रूप में तत्वार्थसूत्र के प्रणेता वाचक उमास्वाति को ही लीजिए। दिगम्बर कहते हैं-उमास्वाति दिगम्बर थे और श्वेताम्बर कहते हैं-उमास्वाति श्वेताम्बर थे। इसी प्रकार आचार्य सिद्ध सेन दिवाकर के सम्बन्ध में भी उभय सम्प्रदाय में उन्हें अपना-अपना बनाने का वाद-विवाद चल रही है । दिगम्बर विद्वान कहते हैं-कि सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर थे
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२३० | अध्यात्म-प्रवचन
और श्वेताम्बर कहते हैं कि-सिद्धसेन दिवाकर श्वेताम्बर थे । उभयपक्ष उन्हें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर तो मानता है, किन्तु दुर्भाग्य यह है कि कोई भी उन्हें आत्मज्ञानी मानकर उनकी उपासना करने और उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलने के लिए तैय्यार नहीं है। इतना ही नहीं, इस पंथवादी मनोवृत्ति ने उनके द्वारा प्रणीत ग्रन्थों में भी अपनी-अपनी मनोवृत्ति के अनुकूल पर्याप्त परिवर्तन कर दिया है । यह सब कुछ क्या है ? मैं जब कभी इस प्रकार की घटनाओं का अन्तरनिरीक्षण करता है तो मुझे लगता है कि उभयपक्ष में कुठा समान भाव से आ चुकी है। वे अमृत को भूल गए और दुर्भाग्य से विष को अमृत समझकर पोते चले जा रहे हैं। ___ मैं आपसे सम्यक् दर्शन के स्वरूप की चर्चा कर रहा था। सम्यक् दर्शन आत्मा का एक विशुद्ध गुण है। क्योंकि आत्मा के दर्शन गुण के मिथ्यात्व पर्याय का जब नाश हो जाता है, तभी सम्यक्त्व पर्याय की उत्पत्ति होती है । सम्यक् दर्शन आत्मा की एक ज्योति है, आत्मा का एक प्रकाश है, किन्तु दुर्भाग्य है कि पंथवादी मनोवृत्ति ने सम्यक्त्व एवं सम्यक् दर्शन को भी अपने-अपने पक्ष में खींचने का प्रयत्न किया है । श्वेताम्बर अपने शास्त्रों को सम्यक्त्व का मूलाधार मानते हैं और दिगम्बर अपने शास्त्रों को। श्वेताम्बरों का कथन है कि श्वेताम्बर बनने से ही सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो सकती है, और दिगम्बरों का दावा यह है कि दिगम्बर होने से ही सम्यक् दर्शन की प्राप्ति हो सकती है । इस प्रकार पन्थवादी मनोवृत्ति ने केवल सम्प्रदाय के पोथी-पन्नों का ही बँटवारा नहीं किया, अपितु आत्मा के गुणों का और मुक्ति का भी बँटवारा कर लिया । बड़े ही अजब-गजब की बात है, एक के शास्त्र में दूसरे का विश्वास नहीं है, जबकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने शास्त्रों को सर्वज्ञ-कथित मानते हैं । इस पन्थवादी मनोवृत्ति ने शास्त्रों को बांटा, महापुरुषों को बाँटा और मुक्ति एवं आत्मा के गुणों का बँटवारा करने के लिए भी बैठ गये । पन्थवादी मनोवृत्ति किसी प्रकार के पन्थवाद में ही सम्यग् दर्शन की उपलब्धि मानती है। उसके पन्थ के बाहर जो कुछ भी है, फिर भले ही वह कितना ही स्वच्छ एवं पवित्र क्यों न हो, किन्तु वह उसे त्याज्य समझती है। इस प्रकार जो सम्यक् दर्शन हमारी अध्यात्म-साधना का मूल आधार था, सम्प्रदाय के नाम पर उसे भी बाँट लिया गया और उस पर भी
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उपादान और निमित्त | २३१ अपनेपन की मुहर लगाने का प्रयत्न किया गया और आज भी किया जा रहा है। __ मैं आपसे केवल एक ही बात कहना चाहता है, कि आप लोग सत्य को परखने का प्रयत्न करें, जहाँ कहीं से भी सत्य आपको मिलता है, आप उसे अवश्य लीजिए। सत्य, सत्य है, वह किसी एक का नहीं, सबका होता है । सत्य अमृत है, किन्तु इस अमृत में जब पन्थवादी मनोवृत्ति धुल जाती है, तब यह विष बन जाता है। आप अपने जीवन-सागर का मन्थन करके उसमें से अमृत-प्राप्ति का ही प्रयत्न करें और उसके विष का परित्याग कर दें। विष का परित्याग करने के लिए और अमृत को ग्रहण करने के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता सम्यक् दर्शन की ही है।
आपके सामने निसर्गज सम्यक् दर्शन की चर्चा चल रही है और यह प्रश्न था कि भले ही वर्तमान जन्म में उसकी उत्पत्ति के समय कोई बाह्य निमित्त न हो, परन्तु कभी-न-कभी पूर्व जन्म में भी उसका कोई बाह्य निमित रहा है या नहीं ? निसर्गज सम्यक दर्शन के बारे में बड़े ही महत्व का प्रश्न यह है कि उसमें कोई बाह्य निमित्त केवल इसी जीवन में नहीं रहा, कि पूर्व जन्मों में भी कभी नहीं रहा? सम्यक् दर्शन केवल निजपुरुषार्थ के बल पर ही प्राप्त होता है अथवा उसे प्राप्त करने के लिए किसी प्राचीन संस्कार को भी जगाना पड़ता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में बहुत कुछ लिखा गया है । कुछ आचार्य इस जन्म में तो बाह्य निमित्त नहीं मानते किन्तु कहीं न कहीं पूर्व जन्मों में देशनालब्धि के रूप में उपदेश आदि निमित्त का होना अवश्यम्भावी मानते हैं । और कुछ आचार्यों का कहना है कि निसर्गज सम्यक दर्शन के लिए पूर्व जन्मों में भी किसी प्रकार का निमित्त नहीं होता। उनका तात्पर्य इतना ही है कि यह आत्मा अनन्त काल से भव-भ्रमण करता आया है। कर्मावरण हलका होते-होते आत्मा को किसी भव में कुछ ऐसे अपूर्व अन्तरंग भाव उत्पन्न हो जाते हैं कि बिना किसी बाह्य निमित्त के ही अन्तरंग में आत्मा की उपादान शक्ति से भिथ्यात्व मोहनीय कर्म का आवरण क्षीण हो जाता है, टूट जाता है और इस प्रकार अन्तरंग के पुरुषार्थ से ही आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है । इस प्रकार निसगंज सम्यक् दर्शक की उपलब्धि में बाहर में कोई निमित्त नहीं होता। उदाहरण के रूप में मरुदेवी माता के जीवन को ही लीजिए। हम देखते हैं कि उन्हें
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२३२ | अध्यात्म-प्रवचन
उनके वर्तमान जीवन में किसी भी प्रकार का बाह्य निमित्त नहीं मिला । न किसी तीर्थंकर की वाणी का श्रवण किया गया और न किसी प्रकार की अन्य कोई विशिष्ट साधना ही की गई । मरुदेवी जी के लिए तो कहा जाता है कि वह अनादि काल से निगोद में ही रहती आई थीं, अतः पूर्व जन्मों में भी कभी उपदेश आदि का निमित्त नहीं मिला था । किन्तु फिर भी हाथी के ओहदे पर बैठे-बैठे ही मरुदेवी माता को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है । इस दृष्टि से मेरा यह कहना है, कि निसर्गज सम्यक् दर्शन में किसी बाह्य निमित्त को महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता । निसगंज सम्यक् दर्शन में न इस जीवन का ही कोई निमित्त मिलता है, और न किसी पूर्व जन्म के जीवन के किसी, बाह्य निमित्त का ही सहारा मिलता है । उसमें तो एक मात्र उपादान शक्ति ही काम करती है, जो कि आत्मा की निज शक्ति है और आत्मा का अपना ही अन्तरंग पुरुषार्थ एवं प्रयत्न है ।
आत्मा एक स्वतन्त्र पदार्थ है और उसकी शक्ति भी स्वतन्त्र है । उसे निमित्त चाहिए, परन्तु बाह्य पदार्थों के निमित्त का इतना महत्व नहीं है, कि जिसके बिना सम्यक् दर्शन हो ही न सकता हो । कुछ आचार्य निमित्त पर बल देते हैं, और कुछ उपादान पर । मेरे अपने विचार में उपादान की ही मुख्यता एवं प्रधानता है । बिना उपादान के किसी भी प्रकार अध्यात्म-विकास सम्भव नहीं है । जब स्वयं आत्मा में ही जागण नहीं आया, तब बाह्य निमित्त भी कितना उपयोगी हो सकेगा ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । दर्शन मोहनीय कर्म निमित्त से टूटता है अथवा स्वयं उपादान की शक्ति से टूटता है ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम करने के लिए किस कारण की आवश्यकता है ? बाह्य कारण की अथवा अन्तरंग कारण की ? मेरे विचार में आत्मा के अन्तरंग पुरुषार्थ से ही उसका उपशम, क्षय और क्षयोपशम होता है, जिसके फलस्वरूप आत्मा में सम्यक् दर्शन का आविर्भाव हो जाता है । परन्तु यह तभी होता है, जब कि आत्मा में स्वयं का जागरण आ जाता है । उपादान शक्ति अन्य कुछ नहीं है, आत्मा की निज शक्ति को ही उपादान कहा जाता है । आत्मा के विकास में आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता । यदि केवल बाह्य निमित्त से ही सम्यक् दर्शन की उपलब्धि सम्भव हो, तो फिर
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उपादान और निमित्त | २३३ वह सम्यक् दर्शन हर किसी व्यक्ति को हो जाना चाहिए, जिसको कि बाह्य निमित्त मिल जाता है । वस्तुतः होता यह है, कि जब तक मूल उपादान में परिवर्तन नहीं आता, तब तक एक बार क्या, हजार बार भी निमित्त मिलें, तो भी आत्मा में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आ सकता।
निसर्गज सम्यग् दर्शन के सम्बन्ध में एक प्रश्न है कि जब निसर्गज सम्यग् दर्शन बिना वाह्य निमित्त के अपने अन्दर के उपादान से ही होता है, तब उसमें देर सबेर क्यों होती है ? उपादान को तैयारी पहले क्यों न हई ? और सब आत्माएँ समान हैं, तो सबको सम्यक् दर्शन क्यों नहीं होता है ? अमुक काल विशेष में अमुक किसी एक आत्मा को ही सम्यक् दर्शन होने का क्या कारण है ? उक्त प्रश्न का समाधान है कि आत्मा अनन्त है, उनका स्वरूप एक होने पर भी व्यक्ति रूप में वे अनन्त हैं। आत्मा के उत्थान एवं विकास के काल-विशेष का आधार नियति एवं भवितव्यता को माना गया है। भवितव्यता
और नियति, दोनों का अर्थ एक ही है। प्रत्येक आत्मा की अपनी नियति और भवितव्यता दूसरी आत्मा की नियति एवं भवितव्यता से भिन्न होती है। यह ठीक है कि अनन्त आत्माओं में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और वीर्य आदि गुण समान होने पर भी उनकी नियति और भवितव्यता में भेद रहता है । प्रत्येक आत्मा की कर्म-बन्ध की प्रक्रिया भी भिन्न-भिन्न होती है। सत्ता और स्वरूप की दष्टि से आत्माओं में किसी प्रकार का विभेद नहीं है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि द्रव्य-दृष्टि से सिद्ध और निगोद के जीव समान हैं, क्योंकि सत्ता और स्वरूप की दृष्टि से उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता। संसारी आत्मा में अथवा मुक्त आत्मा में सत्ता और स्वरूप की दृष्टि से भेद न होने पर भी संसारी आत्माओं में नियति और भवितव्यता का भेद अवश्य रहता है।
यह संसारी आत्मा अनादिकाल से कभी जीवन के विकास के मार्ग पर चला है और कभी जीवन के पतन के मार्ग पर। कोई आत्मा विकास-मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ता जाता है और कोई आगे बढ़कर पीछे भी लौट आता है। यह एक अनुभव की बात है कि एक ही पिता के विभिन्न पुत्र एवं पुत्री एक जैसे नहीं होते । सब की गति और मति अलग-अलग होती है, सबके विचार भी अलग होते हैं और सबका
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२३४ ) अध्यात्म-प्रवचन आचार भी अलग होता है, इसी आधार पर उनके कर्म-बाँधने की प्रक्रिया भी अलग-अलग ही होती है। माता और पिता एक होने पर भी तथा घर का वातावरण समान होने पर भी इतनी विभिन्नता क्यों हो जाती है ? यह एक सहज प्रश्न है । बात यह है कि उनका उद्गम तथा वातावरण एक जैसा होने पर भी उनकी नियति एवं भवितव्यता भिन्न होने से उनकी गति और मति में भिन्नता रहती है। यह एक बड़े महत्व का प्रश्न है, जिस पर गम्भीरता के साथ विचार किया जाना चाहिए । एक ही माता-पिता की संतान में जब गति-भेद और मति-भेद देखा जाता है तब उसका मूल आधार नियति एवं भवितव्यता के अतिरिक्त अन्य क्या हो सकता है ? यद्यपि यह ठीक है कि रागद्वेष आदि विकल्पों की विभिन्नता के कारण कर्मबन्ध की विभिन्नता होती है और उसके फलस्वरूप कर्मफल की विभिन्नता होती है, परन्तु इन सब विभिन्नताओं के मूल में भी नियति का हेतु है। प्रत्येक आत्मा में कुछ सामान्य धर्म होने पर भी, उनमें अपनी एक विशेषता होती है। उदाहरण के लिए तीर्थंकर के जीवन को लीजिए । सभी तीर्थंकरों में तीर्थंकर नाम कर्म एक जैसा होता है, उसमें किसी प्रकार का भेद अथवा ऊंचा-नीचापन नहीं होता। कोई तीर्थकर बढ़िया हो और कोई तीर्थंकर घटिया हो, इस प्रकार का वचन-व्यवहार सर्वथा असंगत है। तीर्थकर तीर्थंकर रूप से समान होते हैं; इस तथ्य में शंका के लिए जरा भी अवकाश नहीं है, परन्तु जब तीर्थंकरों के जीवन का हम निरीक्षण करते हैं, तब उनमें भी कुछ अन्तर अवश्य नजर आता है । सबकी कृति एवं स्थिति एक जैसो कहाँ होती है ? कोई अल्प तपस्या करता है और कोई दीर्घ तपस्या करता है। उनकी प्ररूपणाओं में भी भेद देखा जाता है। उनके प्रभाव के विस्तार में भी अन्तर देखा जाता है। किसी के प्रभाव का विस्तार व्यापक है, तो किसी का संकुचित है । जैन परम्परा में मान्य चौबीस तीर्थंकरों में से चार तीर्थकर ही अधिक प्रसिद्ध हैं-ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर । इन चारों में भी दो ही प्रसिद्ध हैंपार्श्वनाथ और महावीर । प्रश्न होता है, सभी तीर्थंकरों का तीर्थंकर नामकर्म समान होने पर भी इतना भेद और अन्तर क्यों पड़ गया ? उक्त प्रश्न का समाधान यही हो सकता है कि प्रत्येक तीर्थंकर में तीर्थकर नामकर्म समान होने पर भी प्रत्येक तीर्थंकर की नियति एव . भवितव्यता भिन्न-भिन्न ही होती है। यदि नियति एवं भवितव्यता
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उपादान और निमित्त | २३५ को स्वीकार न किया जाए, तो सभी आत्माएँ एक जगह से और एक साथ तथा एक तरह से ही मोक्ष प्राप्त करें, परन्तु ऐसा होता नहीं है, हो सकता भी नहीं है, क्योंकि सबकी नियति और भवितव्यता अलगअलग है । वस्तु स्थिति यह है कि सभी आत्माओं का मूल गुण भले ही एक हो, परन्तु उन सब की बाह्य स्थिति नियति के आधार पर अलग-अलग ही होगी । क्योंकि प्रत्येक आत्मा के गुण एवं पर्याय का विकास एवं ह्रास उसकी भवितव्यता एवं नियति के आधार पर ही होता है । इस नियति एवं भवितव्यता के आधार पर ही किसी आत्मा को बाह्य निमित्त मिलता है, और जल्दी मिल जाता है तथा किसी आत्मा को देर में मिल पाता है और ऐसा भी हो सकता है, न भी मिले । बाह्य निमित्त का मिलना और न मिलना आकस्मिक नहीं होता, उसका भी एक कारण होता है और वह कारण है-उस आत्मा की अपनी नियति एवं भवितव्यता ।
मैं आपसे कह रहा था कि जैन दर्शन केवल यथार्थवादी दर्शन नही है, वह आदर्शवादी भी है और वह केवल आदर्शवादी ही नहीं, यथार्थवादी भी है । आदर्श अपने आप में बुरा नहीं होता, किन्तु यह भी निश्चित है कि जीवन के यथार्थ दृष्टिकोण का भी बहिष्कार एवं तिरस्कार नहीं किया जा सकता । जैन दर्शन आदर्श मूलक यथार्थवादी दर्शन है । वह इधर-उधर भटकने वाला नहीं है, बल्कि अपना एक लक्ष्य बनाकर दृढ़ता के साथ उस पर चलने वाला है । उसकी जीवन यात्रा में उसका प्रत्येक कदम विवेकपूर्वक हो उठता है । उसके आगे बढ़ने में भी विवेक रहता है और उसके पीछे हटने में भी विवेक रहता है । जीवन का हर कदम जहाँ भी उठता है और जहाँ भी पड़ता है, यह निश्चित है कि वह अकारण नहीं होता । परिवर्तन एवं विकास में भी वह अपना सन्तुलन नहीं खोता । उसके जीवन का गमन चाहे
वाही हो और चाहे अधोवाही हो, किन्तु उसके पीछे किसी न किसी प्रकार का कारण अवश्य रहता है और वह कारण अन्य कुछ नहीं, नियति एवं भवितव्यता ही होता है। जिस जीव की जैसी नियति और भवितव्यता होती है, उसको निमित्त भी वैसा ही मिलता है और उसके जीवन की परिणति भी वैसी ही होती है। जंसी जिसकी निर्यात होती है, वैसी ही उसकी परिणति भी होती है। जिसकी जैसी भवितव्यता होती है उसका काम भी वैसा ही होता चला जाता है।
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२३६ / अध्यात्म-प्रवचन प्रश्न हो सकता है, कि जब नियति एवं भवितव्यता ही सब कुछ है, तब पुरुषार्थ करने की आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? इस प्रश्न के उत्तर में मैं यहाँ पर इतना ही कहना चाहता हूँ, कि प्रत्येक आत्मा का पुरुषार्थ भी उसकी नियति के आधार पर ही बनता और बिगड़ता रहता है । जैसी नियति वैसा ही पुरुषार्थ होता है।
मैं आपसे एक बहुत ही ऊंचे सिद्धांत की बात कह रहा था और वह सिद्धांत है, भवितव्यता एवं नियतिवाद का। नियतिवाद के सिद्धांत को स्वीकार करने पर साधना का अपना क्या महत्व रह जाता है और जब साधना ही नहीं रही, तब फिर पंथ और सम्प्रदाय के यह बाहरी चोगे भी कब तक रह सकेंगे? शासन की व्यवस्था और शासन को मर्यादा कैसे अक्षुण्ण रह सकेगी? इस प्रकार के अनेक प्रश्न नियतिवाद के विरोध में उठाए जाते हैं। परन्तु सत्य यह है, कि नियतिवाद के विरोध में जितने भी प्रश्न उठे हैं, और जितने भी अधिक तके उपस्थित किए गए हैं, नियतिवाद उतना ही अधिक पल्लवित, विकसित और बलिष्ठ बनता रहा है। नियतिवाद के तर्कों को तोड़ा नहीं जा सकता है। भले ही हम अपने सम्प्रदाय और पंथ की किलेबन्दी एवं घेरेबन्दी की रक्षा के लिए उसकी उपेक्षा करदें। नियतिवाद एक वह सिद्धांत है जो आत्मा को निर्बल नहीं बलवान बनाता है । कल्पना कीजिए, एक छात्र बार-बार परीक्षा देता है और बार-बार असफल हो जाता है। उसने पुरुपार्थ करने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी, जो कुछ और जितना कुछ वह अपनी उपलब्धि के लिए कर सकता था, उसने किया, और ईमानदारी से किया, फिर भी उसे सफलता क्यों नहीं मिली ? यदि प्रयत्न से ही, यदि पुरुषार्थ से ही समस्या का हल हो सकता होता, तो कभी का हो गया होता। अपनी गोद के लाल को मृत्यु के मुंह में जाते हुए देखकर प्रत्येक मातापिता उसे बचाने का प्रयत्न एवं पुरुषार्थ अपनी शक्ति से अधिक करते हैं, फिर भी वह उसकी रक्षा नहीं कर सकते । यदि मृत्यु से जीवन का रक्षण, प्रयत्नसाध्य होता, तो आज संसार की स्थिति ही भिन्न प्रकार की होती। इसलिए मैं कहता है, कि पुरुषार्थ की अपनी एक सीमा है, और प्रयत्न की अपनी एक मर्यादा है। जब किसी नारी की नियति में उसके भाल का सिन्दूर मिटने वाला ही है, तब हजार प्रयत्न करने पर भी वह अपने मस्तक के सिन्दूर को अक्षुण्ण नहीं रख सकती।
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उपादान और निमित्त | २३७ राजा दशरथ जिस शुभमुहूर्त में अपने प्रिय पुत्र राम को अयोध्या के सिंहासन पर बैठाना चाहते थे, और शुभमुहूर्त को सफल बनाने के लिए वे जितना भी कर सकते थे, उन्होंने वह सब कुछ किया, किन्तु नियति का खेल अटल था। जिस शुभमुहूर्त में राम को अयोध्या का सिंहासन मिलने वाला था, उसी मुहर्त में राम को अयोध्या से वनवास मिला । यह सब कुछ क्या है ? मनुष्य की भवितव्यता, नियति ही उससे सब कुछ कराती है। पुरुषार्थ करने की भावना भी तभी जागृत होती है, जबकि नियति वैसी हो। नियति के विरोध में प्रयत्न कभी सफल नहीं हो सकता। भले ही उसे कितनी भी तीव्रता के साथ किया जाए।
एक उदाहरण और लीजिए-आपके सामने दो व्यक्ति हैं, दोनों को समान रोग है और दोनों का एक ही वैद्य ने निदान किया है, एक ही दिन दोनों ने उपचार चालू किया, दोनों को औषधि भी एक ही जैसी मिली है। यह सब कुछ समान होने पर भी परिणामस्वरूप में एक स्वस्थ हो जाता है और दूसरा दीर्घकाल तक अस्वस्थ बना रहता है। यह क्यों हुआ? क्या कभी आपने इस प्रश्न पर गम्भीरता के साथ विचार किया है ? यह सब नियति का खेल है, यह सब नियति का चक्र है और यह सब नियति का चमत्कार है । यहाँ पर बाह्य निमित्त तो समान था, किन्तु उसके परिणाम परस्पर विरोधी क्यों हो गये ? यदि निमित्त में ही शक्ति होती, यदि पुरुषार्थ में ही शक्ति होती और यदि प्रयत्न में ही बल होता, तो दोनों को एक साथ स्वस्थ हो जाना चाहिए था। परन्तु मूल शक्ति नियति में रहती है, निमित्त में नहीं।
एक दूसरा उदाहरण लीजिए-रोग एक ही होता है, किसी का वह रोग बिना दवा के ही अच्छा हो जाता है और किसी का दवा लेने पर भी अच्छा नहीं होता । साधारण रोग ही नहीं, भयंकर से भयंकर रोग भी कभी-कभी बिना औषधि और बिना उपचार के ही ठीक होते देखे गए हैं । और कभी-कभी साधारण रोग भी बड़ी से बड़ी औषधि लेने पर शांत नहीं होते, मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि रोग कभी दवा का निमित पाकर शांत होता है और कभी बिना दवा के निमित्त के भी शांत हो जाता है। यह लोक-व्यवहार की बात है । प्रश्न है, ऐसा क्यों होता है ? समाधान के लिए दूसरी
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२३८ | अध्यात्म-प्रवचन कोई बात नहीं है, एक मात्र नियति एवं भवितव्यता ही संतोषजनक सही समाधान प्रस्तुत करती है। ____ अब अध्यात्मिक जीवन का निरीक्षण करें, तो वहाँ पर भी हमें इसी शक्ति का दर्शन होता है । एक मिथ्यादृष्टि की आत्मा में अशुद्धि का भयंकर रोग लगा हुआ है । गुरु का निमित्त पाकर, शास्त्र-स्वाध्याय, जप एवं तप करके वह मिथ्यादष्टि आत्मा अपनी अशुद्धता के रोग को आत्मा से बाहर निकालने का प्रयत्न करता है, किन्तु फिर भी उसमें सफलता नहीं मिलती । इसके विपरीत एक आत्मा ऐसा है, कि जिसे कोई बाह्य निमित्त नहीं मिला, किन्तु फिर भी उसका मिथ्यात्व रूप अशुद्धि का रोग सहसा दूर हो गया और उसके स्थान में उसकी आत्मा में सम्यक्दर्शन का दिव्य स्वास्थ्यभाव प्रकट हो गया। यह सब आत्माओं की अपनी-अपनी नियति का खेल है, किसी की नियति में बाह्य निमित्त के आधार पर सम्यकदर्शन होना बदा है, तो किसी की नियति में निमित्त मिलने पर भी सम्यक्दर्शन होना नहीं बदा है । और किसी की नियति में अमुक देश और काल में बिना किसी बाह्य निमित्त के सहज ही सम्यक्दर्शन की ज्योति का प्रकाश निश्चित है।
आपने जम्बू द्वीप के वर्णन में उन्मग्नजला और निमग्नजला नाम की नदियों का वर्णन पढ़ा होगा अथवा सुना होगा । उन्मग्नजला नदी का यह स्वभाव है, कि उसमें जो भी वस्तु पड़ जाती है, वह उस वस्तु को उछालकर बाहर फेंक देती है, वह किसी भी वस्तु को अपने अन्दर नहीं रहने देती है। परन्तु इसके विपरीत निमग्नजला नदी का स्वभाव यह है, कि उसमें जो भी वस्तु पड़ जाती है, वह उस वस्तु को अपने अन्दर ही रख लेती है, बाहर नहीं फेंकती । अध्यात्म दृष्टि से विचार किया जाए, तो सम्यक् दृष्टि आत्मा का स्वभाव उन्मग्नलजा नदी के समान होता है । उसकी आत्मा में जब कभी रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्प उठता है, तो वह उसे बाहर फेंक देता है, अपने अन्दर नहीं रहने देता। किन्तु मिथ्या दृष्टि आत्मा का स्वभाव निमग्नजला नदी के समान होता है, जो अपने रागात्मक एवं द्वषात्मक विकल्पों को अपने अन्दर ही रख लेता है, बाहर नहीं फेंकता। अध्यात्मशास्त्र में कहा गया है, कि आत्मा का मूल स्वभाव तो उन्मग्नजला नदी के समान है। ज्यों ही कोई विकार उसमें अन्दर
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उपादान और निमित्त | २३६ आता है, वह उसे बाहर निकालकर फेंक देता है । कर्म पुद्गलों को भी अन्दर आते ही भोगकर वह उन्हें बाहर फेंकना आरम्भ कर देता है । आप देखते हैं कि जब तक शरीर सशक्त एव स्वस्थ रहता है तब तक वह विकार को बाहर फेंकता रहता है और रोग का आक्रमण होने पर जब शरीर दुर्बल एव अस्वस्थ हो जाता है, तब भी वह अपनी शक्ति के अनुसार रोग एवं विकार को बाहर फेंकने का ही काम चालू रखता है । बुखार आदि के रूप में जो रोग बाहर प्रकट होते हैं वे बाह्य लक्षण स्वयं रोग नहीं होते, वे तो अन्दर के रोग को बाहर में व्यक्त करने का एक लक्षण होता है । मैं अपने जीवन की एक बात आपसे कहे। एक बार मैं बहत अधिक अस्वस्थ हो गया था। शरीर की स्थिति इस प्रकार की हो चुकी थी, कि उसने अपनी सारी प्रकिया शिथिल एवं मन्द कर दी थी। जीवन के चिन्हस्वरूप सांस चलते रहने पर भी, ऐसा प्रतीत होता था, मानों मृत्यु की गोद में पहुँच गया होऊँ । जो कुछ भी दवा मुझे खाने व पीने को दी जाती थी, अन्दर की उछाल उसे बाहर फेंक देती थी। बहुत कुछ उपचार हुआ, किन्तु स्थिति नहीं सुधरी, बल्कि और अधिक बिगड़ती ही गई। सब हैरान और परेशान थे । स्वयं डाक्टरों के विचार में भी कुछ नहीं आ रहा था कि अब वे क्या करें ? श्रावकों और साधुओं को भी मेरे जीवन की विशेष आशा न रही थी। परन्तु संयोग की बात है, कि एक दूसरी श्रेणी का डाक्टर आया। उसने शरीर का परीक्षण किया, स्थिति को बारीकी से देखा और कुछ सोचकर बोला-जितनी भी खाने-पीने की दवाएँ दी जा रही हैं, सब एक दम बन्द कर दो, क्योंकि अभी शरीर में ऐसी प्रक्रिया चल रही है, जो बाहर की हर वस्तु को अन्दर नहीं जाने देती, बाहर फेंक देती है । अभी अन्दर में शरीर की प्रक्रिया बाहर फेंकने की चल रही है और जब तक यह क्रिया चलती रहेगी बाहर की किसी भी प्रकार की दवा अन्दर पहुँचकर भी अन्दर नहीं रह सकेगी, अतः उपचार का सबसे पहला कदम यह है कि मुख से खाने या पीने की सभी दवाओं को एक दम बन्द कर दिया जाए। और आप आश्चर्य करेंगे कि इस प्रक्रिया से मुझे काफी लाभ
हुआ।
. जो बात मैं आपसे अपने जीवन की अनुभूति के विषय में कह रहा था और जो बात मैं अपने शरीर के सम्बन्ध में कह रहा था,
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२४० | अध्यात्म-प्रवचन वही स्थिति आत्मा की भी है । इस आत्मा में जब कभी उन्मग्नजला नदी के सछान उछाल आता है, तब यह अपने अन्दर में से बाहर के हर विकार को बाहर ही फेंकती रहती है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि ज्यों ही कर्म-बन्ध होता है, त्यों ही उसका भोग भी प्रारम्भ हो जाता है । भोग का अर्थ है-अन्दर की वस्तु को बाहर की ओर फेंकना । आत्मा ने अनन्त अतीत में जो भी कर्म बन्ध किया है, कर्मों का भोग उसे बाहर की ओर फेंक देता है । भोग-काल में उदय-प्राप्त कर्म आत्मा के अन्दर टिका नहीं रह सकता। आत्मा ने अनन्त बार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय आदि कर्मों को बाँधा
और अनन्त बार भोग कर उन कर्मों के पुद्गलों को बाहर फेंक दिया। जो कर्म भोग लिया जाता है फिर वह कर्म आत्मा के अन्दर नहीं रह सकता । किसी भी कर्म का जब उदय काल आता है, तब स्वतः ही बिना किसी बाह्य प्रयत्नविशेष एवं पुरुषार्थ विशेष के आत्मा, कर्म रूप रोग को उछाल लगाकर उन्मग्नजला नदी के समान बाहर की ओर फेंकता चला जाता है। इसी को भोग की प्रक्रिया कहते हैं।
आत्मा में जब जागरण आता है और अन्दर से परम पुरुषार्थ फूटता है, तभी आत्मा की यह स्थिति होती है । आत्मा का अन्दर का जागरण और आत्मा का अन्दर का पुरुषार्थ अध्यात्म-साधना में एक महत्वपूर्ण वस्तु है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जब इस संसारी आत्मा में अन्दर का जागरण और अन्दर का पुरुषार्थ प्रकट होता है, तब यह आत्मा बिना किसी बाह्य निमित्त के ही कर्मों को बाहर फेंकना प्रारम्भ कर देता है । यह भी सम्भव है, कि कभी इसमें बाह्य निमित्त सहायक हो जाए। किन्तु मूल बात नियति एवं भवितव्यता की ही है। नियति एवं भवितव्यता दो प्रकार की होती हैएक वह जिसमें कोई बाह्य निमित्त नहीं रहता और दूसरी वह जिसमें कोई बाह्य निमित्त हो । जब आत्मा का मिथ्या दर्शन बिना किसी बाह्य निमित्त के नष्ट हो जाता है, तब उसे निसर्गज सम्यक् दर्शन कहा जाता है, और जब मिथ्या दर्शन के नष्ट होने में किसी बाह्य निमित्त का योग भी मिल जाए, तब उसे अधिगमज सम्यक् दर्शन कहते हैं । किन्तु अन्दर का पुरुषार्थ, जिसे मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम कहा जाता है, दोनों में समान भाव से रहता है। कुछ
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उपादान और निमित्त | २४१ विचारक देशनालब्धि को बड़ा महत्व देते हैं। उनका कहना है, कि उसके बिना कुछ भी नहीं हो सकता। इसके विपरीत कुछ विचारक यह भी कहते हैं, कि देशनालब्धि कुछ काम नहीं देती, जब तक कि नियति और भवितव्यता वैसी न हो। देशनालब्धि का अर्थ है-उपदेश रूप बाह्य निमित्त । यदि अन्दर का उपादान ही शुद्ध नहीं है, तो बाह्य निमित्त भी क्या काम करेगा? इस संसारी, आत्मा को अनन्त बार तीथंकरों का उपदेश सुनने को मिला और गणधरों का उपदेश सुनने को मिला, किन्तु फिर भी अभी तक इसका कल्याण क्यों नहीं हुआ ? तीर्थंकर और गणधर से बढ़कर देशनालब्धि और क्या होगी? परन्तु वास्तविकता है, कि जब तक अन्दर का जागरण न हो, तथा जब तक अन्दर का पुरुषार्थ न हो, तब तक देशनालब्धि भी प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर सकती। निमित्त चाहे तटस्थ हो और चाहे प्रेरक, उसका महत्व उपादान से बढ़कर नहीं हो सकता। यह एक ध्रुव सिद्धांत है । आत्माएँ सत्ता और स्वरूप में एक समान होने पर भी, उनमें निमित्त और भवितव्यता का भेद होने से, उनकी गति-मति में भेद हो जाता है। नियति और भवितव्यता के आधार पर ही उनके विकास में भी भेद हो जाता है। यह बात सिद्धांत और व्यवहार दोनों दृष्टियों से यथार्थ है।
जब तक उपादान को महत्व नहीं मिलेगा, तब तक आज के सम्प्रदायवादी और पंथशाही रगड़े और झगड़े भी समाप्त नहीं होंगे, क्योंकि वे सब बाह्य निमित्त के आधार पर ही खड़े हैं । यदि उपादान शुद्ध होता है, तो आस्रव का स्थान भी संवर का स्थान बन जाता है, और यदि उपादान शुद्ध नहीं है तो संवर का स्थान भी आस्रव का स्थान बन जाता है । यह एक ऐसा सिद्धांत है, जो पंथवाद और सम्प्रदायवाद की मूलभित्ति को ही हिला देता है । निमित्त के आग्रह से ही समग्र संघर्ष खड़े होते हैं । निमित्त को तटस्थभाव से ग्रहण करना चाहिए, परन्तु उसका आग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि निमित्त के आग्रह से ही राग एवं द्वष उत्पन्न होते हैं। ___मैं आपको अफ्रीका देश की एक परम्परा का वर्णन सुना रहा हूँ। वहाँ ऐसी परम्परा है कि जब कोई गुरु अथवा धर्माचार्य मर जाता है, तो उसके शिष्य एवं भक्त उसके शरीर को काट-काट कर प्रसाद के रूप में आपस में बाँट लेते है। उन लोगों का विश्वास है, कि ऐसा करने से गुरु का ज्ञान उन्हें भी मिल जाएगा। यह एक
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२४२ / अध्यात्म-प्रवचन । प्रकार का अन्धविश्वास ही नहीं, बल्कि घोर और भयंकर अन्धविश्वास है। भला जब जीवित गुरु से ही ज्ञान ग्रहण नहीं कर सके, तब इसके जड़ शव से ज्ञान प्राप्त कैसे होगा? कोई भी विचारक उनके इस अन्धविश्वास से सहमत नहीं हो सकता। परन्तु मैं आपसे यह कह रहा था, कि आज के इस वैज्ञानिक युग में भी इस प्रकार का अनर्थ क्यों होता है ? इसका एक ही कारण है-बाह्य निमित्त दृष्टि । बाह्य निमित्त का यह एक भयंकर रूप है जिसे निमित्त की दुर्दशा ही कहा जा सकता है। उन्हें यह भी पता नहीं, कि गुरु में ज्ञान था भी या नहीं, और यदि था, तो वह उसकी आत्मा में था अथवा शरीर में ? निमित्त के भयंकर रूपों का वर्णन कहाँ तक सुनाया जाए । हमारे भारत का मध्यकाल पंथवादी और सम्प्रदायवादी रगड़ों और झगड़ों से भरा पड़ा है। एक मात्र बाह्य निमित्त को ही आधार मानकर हमने एक दूसरे को नास्तिक कहा, और हमने एक दूसरे को मिथ्या दृष्टि कहा । जब तक विशुद्ध उपादान को महत्व नहीं दिया जाएगा, तब तक सम्प्रदायवाद और पंथवाद के आधार पर होने वाले रागात्मक और द्वषात्मक विकल्प और विकार भी कभी दूर नहीं हो सकेंगे।
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पंथवादी सम्यक दर्शन
सम्यक् दर्शन अध्यात्म-साधना का एवं जैन धर्म का प्रवेशद्वार है । अनन्तकाल के बन्धनों को तोड़कर स्वतन्त्र होने एवं स्वस्वरूप में लीन होने और मोक्ष-मन्दिर में पहुँचने के लिए सम्यक् दर्शन के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नही है । ज्ञान चाहे मति, श्रुत और अवधि में से कोई-सा भी क्यों न हो, किन्तु सम्यक् दर्शन के अभाव में वे अज्ञान ही है । यह एक बहुत ही विचिच और अद्भुत बात है, कि सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान, ज्ञान नहीं रहता, अज्ञान बन जाता है । अध्यात्म-शास्त्र कहता है कि यदि एक मिथ्या दृष्टि आत्मा अश्व को अश्व कहता है, गज को गज कहता है, जीव को जीव कहता है, और जड़ को जड़ कहता है, तब भी उसका वह ज्ञान मिथ्याज्ञान एवं अज्ञान ही है। यदि वह सीप को सीप और चाँदो को चाँदी कहता है, तब भी उसका वह ज्ञान अज्ञान ही है। इसके विपरीत यदि एक सम्यक् दृष्टि आत्मा, भ्रम से जीव को अजीव कह देता है, अश्व को गधा कह देता है और सीप को चाँदी कह देता है, तब भी उसका वह ज्ञान अज्ञान न होकर ज्ञान ही होता है। मिथ्यादृष्टि को ठीक बात भी अज्ञान हो जाती है और सम्यकदष्टि की उलट-पुलट बात भी ज्ञान हो जाती है । आखिर सम्यक् दृष्टि में और मिथ्यादृष्टि में ऐसा
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२४४] अध्यात्म-प्रवचन
मौलिक भेद क्या है, जिसके आधार पर एक की सही बात भी गलत हो जाती है और दूसरे की गलत बात भी सही मानी जाती है ? उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि सम्यक दृष्टि और मिथ्या दृष्टि में मौलिक भेद यह है, कि मिथ्या दृष्टि आत्मा संसाराभिमुखी होता है और सम्यक् दृष्टि आत्मा मोक्षाभिमुखी होता है । सम्यक् दृष्टि की प्रत्येक क्रिया विवेकपूर्ण होती है, जबकि मिथ्या दृष्टि की क्रिया में किसी प्रकार का विवेक नहीं होता । सम्यक् दृष्टि को भेद-विज्ञान हो जाता है, जबकि मिथ्या दृष्टि को भेद-विज्ञान नहीं होने पाता। भेद विज्ञान वाला सम्यक् दृष्टि आत्मा कदाचित भ्रान्तिवश सही बात को गलत भी समझ लेता है और गलत को सही भी समझ लेता है, फिर भी उसके भावों में सरलता रहती है, दृष्टि आत्माभिमुखी होती है और वह समय पर अपनी भूल को सुधार भी सकता है। इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि आत्मा में कुटिल भाव होने के कारण अपनी आध्यात्मिक दर्शन सम्बन्धी भूल को स्वीकार नहीं करता और न उसे सुधारने की ओर उसका लक्ष्य ही होता है । यही कारण है, कि सम्यक् दृष्टि और मिथ्या दृष्टि के दृष्टिकोण में एक मौलिक भेद रहता है । इस भेद के कारण ही उनके आचरण में भी भेद हो जाता है। वस्तु सम्बन्धी विभ्रम ज्ञानावरण की विचित्र क्षयोपशमता का परिणाम है और आध्यात्मिक विपरीत दृष्टि दर्शनमोह का परिणाम है । अतएव सम्यक् दृष्टि को मति भ्रम हो सकता है, अध्यात्मिक अज्ञान नहीं। ____ मैं आपसे सम्यक् दर्शन की बात कह रहा था। सम्यक् दर्शन का वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में, विभिन्न प्रकार से किया गया है । किसी ग्रन्थ में जीव आदि नव पदार्थों के अथवा जोव आदि सप्त तत्वों के श्रद्धान को सम्यक् दर्शन कहा गया है। किसी ग्रन्थ में आप्त, आगम और धर्म के यथार्थ श्रद्धान को सम्यक् दर्शन कहा गया है। किसी ग्रन्थ में स्वानुभूति को सम्यक् दर्शन कहा गया है। किसी ग्रन्थ में स्व-परविवेक को अथवा भेद-विज्ञान को सम्यक दर्शन कहा गया है। व्याख्या
और परिभाषा भिन्न-भिन्न होने पर भी उनमें केवल शाब्दिक भेद ही है, लक्ष्य सबका एक ही है और वह है जड़ से भिन्न चेतन की सत्ता पर आस्था करना । जीवन में और विशेषतः अध्यात्म जीवन में सम्यक् दर्शन का बहुत बड़ा महत्व है। सम्यक् दर्शन एक प्रकार से विवेक-रवि है, जिसके उदय होने पर मिथ्यात्व तमिस्रा का घोर
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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २४५
अन्धकार रहने नही पाता । मोक्ष रूप प्रासाद पर चढ़ने के लिए सम्यक् दर्शन प्रथम सोपान है । यदि एक व्यक्ति विविध प्रकार से तप करता है, विविध प्रकार के जप करता है, और विविध प्रकार की क्रिया-कलापों का अनुष्ठान करता है, किन्तु यदि उसके पास सम्यक् दर्शन नहीं है, तो इन सबसे उसके ससार को अभिवृद्धि ही होती है । यह सब अनुष्ठान संसार के कारण बन जाते हैं । सम्यक् दर्शन शब्द, दो शब्दों के मेल से बनता है - सम्यक् और दर्शन । प्रत्येक पदार्थ का जो स्वरूप है, उसे उसी रूप में प्रतिभान एवं विश्वास करना सम्यक् दर्शन कहा जाता है । हम यह देखते हैं, कि साधारण अवस्था में देह और देही, अलग-अलग प्रतीत नहीं होते, किन्तु सम्यक दर्शन की उपलब्धि होते ही, देह और देही का भेदविज्ञान प्राप्त हो जाता है । इस देह में निवास करने वाला देही, नित्य है एवं शाश्वत है, जबकि रह देह विनश्वर है एवं नाशवान है । संसार का यही सबसे बड़ा भेद-विज्ञान है । इस भेद-विज्ञान को बिना समझे सब कुछ समझकर भी, अनसमझा हो जाता है । सम्यक् दर्शन आत्म धर्म हैं, अतः वह आत्मा की सत्य प्रतीति से सम्बन्ध रखता है, चेतन और जड़ के पार्थक्य बोध से सम्बन्ध रखता है । सम्यक् दर्शन का चेतन तत्व से भिन्न किसी और से सम्बन्ध जोड़ना अनुचित है।
कितनी विचित्र बात है, कि आज का जन-मानस आत्म-धर्म की ओर से विमुख होता जा रहा है और रूढ़िधर्म की ओर उन्मुख होता जा रहा है । हम जो कुछ कहते हैं अथवा हमारे पोथी एवं पन्ने जो भी कुछ कहते हैं, वही सत्य है, इससे बढ़कर प्रतिक्रियावाद का नारा और क्या हो सकता है ? जब साधक आत्मधर्म को भूलकर रूढ़िधर्म को ओर झुक जाता है, तब वह आत्म-धर्मी न रहकर, पंथ धर्मी बन जाता है । वह आत्मा के धर्म में विश्वास न करके, अपने पंथ के धर्म में विश्वास करने लगता है, इसी को मैं प्रतिक्रियावाद कहता हूँ । प्रतिक्रियावाद भले ही किसी भी युग का क्यों न हो, किन्तु वह अपने आपमें कभी स्वस्थ नहीं होता । प्रतिक्रियावादी व्यक्ति अपने सम्प्रदाय एव अपने पंथ के अतिरिक्त जो कुछ भी सत्य एव उदात्तभाव है, उसे स्वीकार नहीं करता । मेरी दृष्टि में यही उसका सबसे बड़ा मिथ्यात्व का दृष्टिकोण है । दुनियादारी के ज्ञान से सम्यक् दर्शन का कोई वास्ता नहीं होता, किन्तु वह दुनियादारी के ज्ञान को ही सम्यक् दर्शन समझने
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२४६ | अध्यात्म-प्रवचन लगता है । सम्प्रदाय वादी व्यक्ति कहता है, मेरु पर्वत पर विश्वास करना सम्यक् दर्शन है और नन्दनवन पर श्रद्धा करना सम्यक् दर्शन है। वह जड़ पदार्थों की बात तो करता है, किन्तु चेतन की बात को भूल जाता है । वह कहता है, कि मेरुपर्वत स्वर्णमय है, सोने का बना हुआ है, किन्तु इस देह में रहने वाले उस देही पर उसका विश्वास नहीं होता, जो वस्तुतः अध्यात्म साधना का मूल केन्द्र है । मेरुपर्वत की ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई पर विश्वास करने की अपेक्षा, अपनी आत्मा की ऊँचाई पर ही विश्वास करना मेरी दृष्टि में सच्चा सम्यक् दर्शन है। आश्चर्य तो इस बात का है, कि पथवादी व्यक्ति बाहर की जड़ वस्तुओं पर भी भगवान के नाम की मुहर लगाता रहता है और कहता है, कि यह सब कुछ भगवान ने कहा है, इसलिए इस पर विश्वास करो । परन्तु मेरे विचार में यह उचित नहीं है । यदि सम्यक् दर्शन को सुरक्षित रखना है, तो जड़ वस्तु की अपेक्षा चेतन के विज्ञान एवं विकास की ओर ही अधिक लक्ष्य देना चाहिए। किसी भी जड़ पदार्थ की ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई के ज्ञान से तथा कीट पतंगों की संख्या के ज्ञान से भगवान की सर्वज्ञता को सिद्ध करने का प्रयत्न व्यर्थ है। सोने और चाँदी के पलड़ों पर भगवान की सर्वज्ञता को तोलना, बुद्धिहीनता का ही लक्षण है । जीवन-विकास के लिए, मैं स्पष्ट कहता हूँ कि किसी भी पर्वत के ज्ञान की, किसी भी नदी के ज्ञान की एवं किसी भी आत्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थ के ज्ञान की आवश्यकता नहीं है । एक मात्र आवश्यकता है, आत्म दर्शन की एवं आत्म-ज्ञान की । आत्म-ज्ञान के अभाव में सम्प्रदायवादी और पंथवादी नियम एवं उपनियम निस्सार हैं। कुछ लोग वेश-विशेष में श्रद्धा रखने को ही सम्यक् दर्शन समझते हैं। किन्तु यह भी उनके पंथवादी दृष्टिकोण का ही प्रसार है। किसी भी वेश-विशेष में, सम्यक् दर्शन नहीं रहता। सम्यक् दर्शन तो आत्मा का धर्म है, आत्मा के अतिरिक्त किसी भी बाह्य पदार्थ में उसकी सत्ता मानना संसार का सबसे बड़ा मिथ्यात्व है। इसी प्रकार पूजा प्रतिष्ठा में, आहार विहार में और लौकिक व्यवहार में सम्यक् दर्शन मानना भी एक प्रकार का मिथ्यात्व ही है। किसी व्यक्ति को जाति से ऊँचा समझना और किसी व्यक्ति को जाति से नीचा समझना, यह भी एक प्रकार का मिथ्यात्व ही है। सम्यक् दर्शन न किसी जाति का धर्म है, न किसी राष्ट्र का धर्म है और न वह किसी पंथ-विशेष का ही धर्म है, वह तो एक मात्र आत्मा
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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २४७ का ही धर्म है । आत्मा से बाहर कहीं पर भी सम्यक् दर्शन की सत्ता एवं स्थिति को स्वीकार करना, प्रतिक्रियावादी और पंथवादी दृष्टिकोण है। ___मैं आपसे यह कह रहा था, कि सम्यक दर्शन के स्वरूप को पंथवादी व्यक्ति सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकता, क्योंकि उसकी दृष्टि बाहर में रहती है, अन्दर की ओर नहीं। किसी भी बाह्य निमित्त को सम्यक् दर्शन कहना, न तर्क संगत है और न न्यायसंगत । मैं आपसे यह कह रहा था, कि जब आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी बाह्य वस्तु में सम्यक् दर्शन रहता ही नहीं है, तब क्यों उसे किसी पंथविशेष के उपकरणों में परिकल्पित किया जाता है । जब मनुष्य आत्मधर्म को भूलकर, रूढ़िधर्म को ही अपना परम कर्तव्य समझने की भूल करता है, तब यथार्थ रूप में न वह आत्मा को समझ पाता है और न आत्मा में रहने वाले धर्मों को ही पकड़ पाता है। उसके जीवन का सबसे प्रधान ध्येय पंथ का ही बन जाता है। पंथ का आग्रह और पंथरक्षा का प्रयत्न, यह संसार का बहुत बड़ा विष है, इससे मुक्त हुए बिना आत्म-धर्म की साधना नहीं की जा सकती। एक हिन्दू के मन में अपनी चोटी के प्रति असीम आग्रह रहता है, जबकि एक मुसलमान के मन में अपनी दाढ़ी का आग्रह रहता है। किन्तु चोटी और दाढ़ी में, जनेऊ और खतना में, अथवा केश, कंघी और कृपाण आदि में विश्वास रखना निश्चय ही आत्म धर्म नहीं कहा जा सकता। यह सब पंथ की दृष्टि है। पंथ में रहते हुए मनुष्य उसकी चारदीवारी के बाहर के किसी भी सत्य को स्वीकार करने के लिए तैय्यार नहीं होता । जैनों में भी श्वेताम्बर और दिगम्बर तथा स्थानकवासी और तेरापंथ आदि सम्प्रदाय एवं उपसंप्रदाय, पंथ के बाह्य उपकरणों को लेकर खोंचातानी एवं संघर्ष करते रहे हैं। किसी ने मयूरपिच्छी में धर्म माना, तो किसी ने रजोहण रखने में धर्म माना, किसी ने दण्ड रखने में धर्म माना, तो किसी ने मुख-वस्त्रिका में धर्म माना । पंथ को नापने वाले यह गज, इतने ओछे एवं अधरे हैं कि इन गजों से अमर तत्व आत्मा को नहीं नापा जा सकता । दिगम्बर कहते हैं-नग्नता के विश्वास में ही सम्यक् दर्शन है । श्वेताम्बर कहता है-मूर्ति पूजा की श्रद्धा में ही सम्यक् दर्शन है। स्थानकवासी कहता है-मुखवस्त्रिका लगाने की रुचि में ही सम्यक् दर्शन है, किन्तु मेरे विचार में इनमें से किसी भी वस्तु में सम्यक् दर्शन नहीं है । मेरे विचार में सच्चा सम्यक
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२४८ | अध्यात्म प्रवचन दर्शन तो अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा में विश्वास करना ही है। जब तक आत्मा में विश्वास नहीं होगा, तब तक पंथ पर विश्वास करने से भी काम नहीं चलेगा। यह सब आत्मा का धर्म नहीं है, और जो आत्मा का धर्म नहीं है, वह सम्यक् दर्शन कैसे हो सकता है ?
अध्यात्म ग्रन्थों में मुख्य रूप से सम्यक दर्शन के दो भेद किए गए हैं-व्यवहार सम्यक् दर्शन और निश्चय सम्यक् दर्शन । यद्यपि तत्वतः सम्यक् दर्शन एक है, अखण्ड है और अविभाज्य है, फिर भी यहाँ जो दो भेद किये गए हैं, वे नय-दृष्टि की अपेक्षा से किए गए हैं। स्वरूप की दृष्टि से सम्यक् दर्शन में किसी प्रकार का भेद नहीं हो सकता। दर्शन आत्मा का मूल गुण है । सम्यक दर्शन और मिथ्या दर्शन उसकी पर्याय हैं। एक शुद्ध पर्याय है और दूसरी अशुद्ध पर्याय है। जब तक जीव को स्व-पर का विवेक नहीं होता है तब तक आत्मा का वह दर्शन गुण मिथ्या दर्शन कहा जाता है। स्व-पर का विवेक होते ही, वह मिथ्या दर्शन से सम्यक् दर्शन बन जाता है। सम्यक् दर्शन जीव की स्वाभाविक अवस्था है, और मिथ्या दर्शन जीव की नैमित्तिक अवस्था है। मिथ्या दर्शन में दर्शन मोहनीय कर्म का उदय रहता है और सम्यक् दर्शन में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय और क्षयोपशम भाव रहता है। इस प्रकार दर्शन गुण की अशुद्धि और शुद्धि दर्शन मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम पर निर्भर रहती है। ___ मैं आपसे यह कह रहा था, कि अपने जीवन को पवित्र बनाने के लिए सम्यक् दर्शन को समझने की नितान्त आवश्यकता है। किन्तु हमें यह समझना होगा, कि सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में निमित्त को मानते हुए भी मूल कारण उपादान की ओर ही विशेष लक्ष्य रहना चाहिए। जीवन-विकास के लिए अथवा आध्यात्मिक-साधना के विकास के लिए, निमित्त की आवश्यकता को सभी मानते हैं, भले ही वह निमित्त अंतरंग का हो, अथवा बाह्य का हो। मिथ्यादर्शन और मिथ्या ज्ञान आज का ही नहीं, अनन्तकाल से चला आया है। कभीकभी बाहर में शुद्ध निमित्त भी मिले, किन्तु उपादान शुद्ध न हो सका, इसीलिये शुद्ध निमित्त की उपलब्धि भी सार्थक न हो सकी। सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में निमित्त की आवश्यकता है। उपादान और निमित्त दोनों मिलकर ही कार्यकारी होते हैं । और यह निमित्त बाह्य
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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २४६ और अन्तरंग दोनों प्रकार के होते हैं । अतः सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में यदि कोई बाह्य निमित्त हो, तो बहुत सुन्दर है, किन्तु दर्शन मोह का उपशमादि अंतरंग निमित्त तो आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । आत्मा के अन्दर ही एक गुण दूसरे गुण में निमित्त बन जाता है । मिथ्याज्ञान को सम्यक् ज्ञान में बदलने के लिए बाहर का हेतु काम नहीं देता, अंतरंग हेतु सम्यक् दर्शन काम आता है । बाहर के हजारों हजार निमित्त मिलें तब भी अज्ञान ज्ञान में परिणत नहीं हो सकता । परन्तु सम्यक् दर्शन के सद्भाव में तुरन्त ही मिथ्याज्ञान सम्यक् ज्ञान में परिणत हो जाता है। इसी आधार पर कहा गया है, कि दर्शनपूर्वक ही ज्ञान, ज्ञान बनता है अर्थात् सम्यक् दर्शन से ही सम्यक् ज्ञान का आविर्भाव होता है । यदि केवल बाह्य निमित्त को ही एकमात्र कारण मान लिया जाए, तब तो बाहर में सबको समान निमित्त मिलने पर समान ही फल प्राप्ति होनी चाहिए, परन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि उपादान सबका भिन्न-भिन्न है । इसलिये बाह्य निमित्त समान होने पर भी उपादान सबका भिन्न होने के कारण फल प्राप्ति में अन्तर रहता है। एक बीमार को एक डाक्टर ने दवा दी और वह अच्छा हो गया, किन्तु वही दवा उसी रोग में दूसरे व्यक्ति को दी तो वह स्वस्थ नहीं हो सका । बाह्य निमित्त समान होने पर भी, उपादान भिन्नभिन्न होने से यह फल-भेद दृष्टिगोचर होता है । दूसरी बात यह भी है, कि मनुष्य जितना बाहर में देखता है, उतना अपने अन्तर में नहीं देख पाता । जब तक वह अन्तर की ओर नहीं देखता, तब तक वह बाह्य निमित्त से ही चिपटा रहता है ।
अध्यात्म-शास्त्र में दो प्रकार की लब्धि का वर्णन है—देशनालब्धि और कालब्धि | देशनालब्धि का अर्थ है - बाह्य निमित्त । काललब्धि का अर्थ है - अन्तरंग निमित्त । कल्पना कीजिए, दो साधक समान भाव से एक जैसी साधना करते हैं । साधना करते हुए एक की मुक्ति इसी जन्म में हो जाती है और दूसरे की इस जन्म में नहीं हो पाती । इसका क्या कारण है ? क्या आपने कभी विचार किया है ? आप देखते हैं, कि दोनों साधकों के जीवन में देशनालब्धि तो समान है, परन्तु काललब्धि दोनों की भिन्न-भिन्न है । एक की कालब्धि का परिपाक हो चुका था, इसलिये उसकी मुक्ति हो गई, दूसरे की कालfor का परिपाक अभी तक नहीं हुआ, इसलिये उसे
मुक्ति नहीं मिल
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२५० | अध्यात्म प्रवचन सकी। मुख्य बात काललब्धि की है, उपादान की है और अंतरंग निमित्त की है। जब तक साधक मूल उपादान को न पकड़कर बाह्य निमित्त को ही पकड़े रहता है, तब तक उसकी साधना सफल नहीं होती है। उपादान और अन्तरंग निमित्त में किसी प्रकार का संघर्ष नहीं होता, संघर्ष होता है बाह्य निमित्त में। एक बार वैदिक दर्शन के एक विद्वान मुझे मिले । संयोग की बात है, कि आस्तिक और नास्तिक की चर्चा छिड़ गई। उसने कहा, कि जो व्यक्ति वेदों पर विश्वास नहीं करता और वेद-विहित अनुष्ठान का आचरण नहीं करता, वह आस्तिक नहीं, नास्तिक है। अपनी बात को कहकर वह चुप हो गया । मैंने कहा-श्रीमान्, आपको यह भी तो ध्यान में रखना चाहिए, कि एक मुसलमान क्या कहता है ? वह कहता है, कि जो इन्सान कुरान पर विश्वास नहीं करता, वह काफिर होता है । इस प्रकार ईश्वरवादी, ईश्वरवाद के विश्वास में ही आस्तिकता स्वीकार करता है और कर्मवादी कर्म के विश्वास में । परन्तु सत्य क्या है, इस का पता कैसे चले ? किसी भी बाह्य निमित्त को पकड़कर यदि सत्य का अनुसंधान किया जाएगा तो उसकी उपलब्धि नहीं हो सकेगी । जो सत्य है, उसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वह तो स्वयं सिद्ध होता है। सूर्य को सिद्ध करने के लिए दीपक जलाने की आवश्यकता नहीं रहती। लोग अपनी छोटी-सी बुद्धि को लेकर उस अनन्त सत्ता को सिद्ध करने के लिए चल पड़ते हैं, परन्तु सत्य यह है, कि लोग अपने विकल्प और वितर्क के जाल में उलझ जाते हैं, सत्य के मूल केन्द्र तक नहीं पहुंच पाते । सत्य के मूल केन्द्र तक पहुँचने के लिए पंथवादी और बाह्य निमित्तवादी दृष्टिकोण के एकान्त-आग्रह का परित्याग करना होगा।
जैन-दर्शन के अनुसार तत्वज्ञान किसी बाह्य पदार्थ में नहीं है, वह तो अपनी स्वयं की आत्मा में है । ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, वह तो आत्मा का निज स्वरूप ही है, आवश्यकता है, केवल उसके ऊपर आए हुए आवरण को दूर करने की। इसी आधार पर अध्यात्मवादी जैन-दर्शन यह कहता है, कि संसार के बाहरी अनन्त पदार्थों को पकड़ने की आवश्यकता नहीं है। एक मूल को पकड़ लो, जिससे सारा विश्व पकड़ में आ जाता है । और वह मूल क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि सबका मूल आत्मा है। वही ज्ञान का स्रष्टा है और वही ज्ञान का दृष्टा भी है। उसकी प्रतीति ही
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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २५१ सम्यक् दर्शन की प्राप्ति है। मैं आत्मा हूँ, मैं शुद्ध, बुद्ध एवं निरंजन हूँ, इस प्रकार का विश्वास विशुद्ध दृष्टि के बिना नहीं हो सकता। किन्तु याद रखना चाहिए कि आत्मा के सम्बन्ध में इतना ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। आत्मा पर विश्वास करना भर ही सम्यक् दर्शन नहीं है । वस्तुतः दीपक की अचंचल स्थिर ज्योति के समान 'स्व' की निर्विकल्प प्रतीति सम्यक् दर्शन है। मैं आत्मा हूँ, यह विश्वास तो बहुत बार हो जाता है, परन्तु निर्विकल्प शुद्ध स्वरूप की अनुभूति कुछ विलक्षण ही है । वह मन वाणी से परे की स्थिति है। यदि मैं आत्मा हूँ, यही बुद्धि सम्यक् दर्शन है, तो सिद्धों की भी क्या केवल वही दृष्टि रहती है, कि मैं आत्मा हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं निर्विकल्प हूँ। नहीं, ऐसी बात नहीं है । वहां आत्मा का विश्वास नहीं, बल्कि उसकी निर्विकल्प प्रतीति होती है । लोग प्रायः श्रद्धा के बहुत साधारण हल्के अर्थ को लेकर चल पड़ते हैं और उसे सम्यक् दर्शन मान लेते हैं। सम्यक् दर्शन का अर्थ आत्मा की निर्विकल्प प्रतीति है। निश्चय दृष्टि से विचार किया जाए तो सम्यक् दर्शन की भूमिका में विकल्प के द्वारा केवल इतनी अनुभूति नहीं होती कि मैं आत्मा हूँ। यह विचार और विश्वास तो अन्दर के उस निर्विकल्प तत्व दर्शन के लिए, तथा उस आत्म स्वरूप की निर्विकल्प प्रतीति के लिए प्राथमिक भूमिकाओं में ही किया जाता है। चतुर्थ गुण स्थान के सम्यक् दर्शन में और अग्रिम गुण स्थानों एवं केवल ज्ञानी सिद्धों के सम्यक् दर्शन में आत्मा की निर्विकल्प प्रतीति एक सी होती है, और यह निर्विकल्प स्वप्रतीति सतत एक अखण्ड एवं अविच्छिन्न रूप से प्रदीप्त रहती है। जब ज्ञानोपयोग आत्मा में रहता है, तब भी, और जब बाहर के संसारी कामों में रहता है तब भी । यह नहीं कि बाहर के संसारी भोगों में जब चित्त वृत्ति लगी हो, तब सम्यक् दर्शन नहीं रहता हो । और जब में आत्मा हूँ, इत्यादि विकल्पानुभूति हो तब सम्यक् दर्शन पुनः आ जाता है। संसार के विषय भोगों में और भयंकर युद्ध में लगे रहने पर भी सम्यक दृष्टि आत्मा की निर्विकल्प स्वरूपानुभूति वस्तुतः बाहर में न रह कर अन्दर में ही रहती है। उदाहरण के लिए शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ इन तीनों तीर्थंकरों के जीवन को लीजिए, जो अपने जीवन में चक्रवर्ती भी रहे और तीर्थंकर भी रहे । यद्यपि तीनों तीर्थंकर होने वाले जीव थे, फिर भी तीनों ही प्रारम्भ में संसार के भोगों एवं युद्धों
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२५२ ! अध्यात्म प्रवचन
में संलग्न रहे । वासना का सेवन भी किया और भयंकर युद्ध भी किये । संसार के कार्य करते हुए भी वे क्षायिक सम्यक् दृष्टि के रूप में इतने ऊँचे कैसे रहे ? यह प्रश्न उठना सहज है, किन्तु शास्त्रकारों ने इसका यह समाधान किया है कि वे बाहर से भोगी होकर भी अन्दर में त्यागी थे । चारित्रमोह के उदय से उनमें विषय का राग तो था, परन्तु दर्शन-मोह के क्षय हो जाने से उनकी दृष्टि में राग का राग नहीं था, उदासीन भाव था । यही कारण है कि वे संसार में रहे, संसार के भोग भी भोगे और भयंकर युद्ध भी किए, यह सब कुछ होते हुए और करते हुए भी उनका क्षायिक सम्यक् दर्शन अक्षुण्ण रहा। उनके क्षायिक सम्यक् दर्शन में किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं हो सकी । जीवन की इतनी पवित्रता, इतनी उज्ज्वलता और इतनी महाता तभी अधिगत होती है, जब कि बाहर में वस्तु का राग होते हुए भी अन्दर में राग के प्रतिपक्ष वैराग्य की पवित्र धारा प्रवाहित हो और अनासक्ति का महासागर लहराता हो । यह वह स्थिति है, जिसमें चारित्रमोह का विकल्प तो होता है परन्तु दर्शनमोह का विकल्प नहीं होता । बाहर की वस्तुओं में मेरेपन का विकल्प तो होता है, मेरे पन की भूल तो होती है, परन्तु इन ममता के विकल्पों में निर्विकल्प स्व की अनुभूति विस्मृत नहीं होती ।
एक बार एक भाई ने मुझ से प्रश्न किया कि जब साधु आहार पानी करता है, निद्रा लेता है अथवा चलता फिरता है, तब उसमें साधुत्व का छठा गुण स्थान रहता है या नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा - उस स्थिति में व्यक्ति-विशेष को छठा गुणस्थान रहता है या नहीं, यह तो केवलज्ञानी के ज्ञान का विषय है, अथवा वह स्वयं ही अपने को समझे कि उस स्थिति में उसका कौन सा गुणस्थान है ? सामान्य रूप से सैद्धान्तिक समाधान है कि भोजन पान गमनागमन एवं शयनादि क्रियाएं करते समय भी साधु में साधुत्व रहता ही है । बाहर में अन्य क्रियाओं में संलग्न रहते हुए अन्दर में आध्यात्मिक भाव के मूल केन्द्र से सम्पर्क ज्यों का त्यों बना रहता है, वह टूटता नहीं है । साधुत्व भाव एक विलक्षण अन्दर की क्रिया है, उस का बोहर की भोजनपान आदि की क्रियाओं से कोई विकास एवं ह्रास नहीं होता है । यदि खान-पान पर ही अथवा आहार-विहार पर ही गुणस्थान का रहना और न रहना निर्भर करता है, तो छठे गुणस्थान की जो देशोनपूर्व कोटि तक की दीर्घ स्थिति बताई गई है, वह कैसे
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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २५३ घटित हो सकती है ? भोजन पान आदि की क्रियाओं के समय साधुत्व का अभाव माना जाए तो फिर एक दिन भी साधुत्व का छठा गुण स्थान नहीं रह सकता। बाहर में कुछ भी हो, अन्दर स्वरूप ज्योति अखण्ड रूप से जलती रहती है, वह ज्योति कभी व्यक्त रूप से बुद्धि की पकड़ में आती है और कभी नहीं भी आती है। परन्तु अन्दर में वह अव्यक्त रूप से सतत प्रज्वलित रहती है। यही बात सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में भी है। ___मैं आपसे सम्यक् दर्शन की चर्चा कर रहा था। सम्यक् दर्शन अंतरंग की वस्तु है, बाहर की वस्तु नहीं, परन्तु पंथवादी लोगों ने इसे बाहर की वस्तु बना दिया है । एक पंथवादी मनुष्य यह कहता है, कि मेरे पंथ के अनुसार सोचना और मेरे पंथ के अनुसार आचरण करना ही, सम्यक् दर्शन है। इसलिए एक सम्प्रदाय ने दूसरे को मिथ्यात्वी करार दे दिया। पंथवाद इतना फैला, कि श्वेताम्बर और दिगम्बर परस्पर एक दूसरे को मिथ्या दृष्टि कहने लगे। इस प्रकार के उल्लेख आज भी अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। प्राचीन युग में पंथवादी लोग प्रत्येक नवीन जैसे लगने वाले सत्य का विरोध करते रहे हैं और वर्तमान में भी कर रहे हैं। उनकी दृष्टि में जो कुछ प्राचीन है वही सम्यक् दर्शन है, और जो कुछ नवीन है वह मिथ्या. दर्शन है। भले ही नवीन विचार कितना भी उपयोगी क्यों न हो, किन्तु वे उसे ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं होते। इसके विपरीत प्राचीन विचार भले ही आज की स्थिति में कितना ही अनुपयोगी क्यों न बन गया हो, किन्तु फिर भी वे उसका परित्याग नहीं कर सकते । जिस प्रकार किसी व्यक्ति को अपने पुरखों की पुरानी वस्तु से व्यामोह हो जाता है, उसी प्रकार कुछ लोगों को प्राचीनता का इतना व्यामोह हो जाता है कि वे हर चीज को प्राचीनता की तुला पर तोलने के आदी बन जाते है। अनन्त सत्य को वह अपनी सीमित बुद्धि में सीमित करना चाहते हैं। जो कुछ सत्य है वह हमारा है, यह विचार तो ठीक है, किन्तु सम्प्रदाय वादी इसके विपरीत यह कहता है, कि जो मेरा है, वही सत्य है । जो कुछ मेरे पंथ का विचार है, वही सच्चा विचार है। जो कुछ मेरे पंथ का विश्वास है, वही सच्चा सम्यक् दर्शन है । जो कुछ मेरे पंथ का आचार है, वही सच्चा धर्म है । यह एक प्रकार की विचार जड़ता है। इस विचार जड़ता
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२५४ | अध्यात्म प्रवचन
को भी लोग सम्यक् दर्शन की संज्ञा देते हैं । यह बड़े ही विचार की बात है, कि ये लोग वस्तु की उपयोगिता को न देखकर उसकी प्राचीनता को ही अधिक देखते हैं । मेरे विचार में कोई सिद्धान्त प्राचीन होने से ही ग्राह्य हो, यह बात गलत है । और कोई विचार नवीन होने से ही अग्राह्य हो, यह भी गलत है । मेरे विचार में न प्राचीनता का महत्व है और न अर्वाचीनता का महत्व है । जो वस्तु समीचीन हो और जो विचार यथार्थ हो, उसे अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए, फिर भले ही वह प्राचीन हो अथवा अर्वाचीन हो ।
नूतनता एवं पुरातनता, प्राचीनता एवं अर्वाचीनता अपने आप में कुछ महत्व नहीं रखती हैं, क्यों कि यह तो एक कालकृत भेद ही है । यदि नवीनता की पूजा को पंथवादी लोग पाप समझते हैं, अधर्म समझते हैं अथवा मिथ्यात्व समझते हैं, तो प्राचीनता की पूजा भी उसी प्रकार पाप है, अधर्म है और मिथ्यात्व है । क्योंकि प्राचीनता और नवीनता दोनों ही काल के विभाग हैं और काल एक जड़ वस्तु है । मेरे विचार में समीचीनता की पूजा ही सच्चा सम्यक् दर्शन है । किसी भी एकान्तवाद का आग्रह करना, जिन शासन में मिथ्यात्व माना गया है । फिर भी यह सत्य है, कि सम्प्रदायवादी एवं पंथवादी मनुष्य के मन में पुरातनता का व्यामोह, इतना रूढ़ हो जाता हैं, कि अच्छी से अच्छी बात को भी वह नवीनता के नाम पर ग्रहण करने को तैयार नहीं होता । अपनी बुद्धि और विवेक को ताक पर रखकर पंथवादी व्यक्ति प्रत्येक नवीन विचार का विरोध करने में अपने जीवन की समग्र शक्ति को लगा देता है और निरन्तर आधुनिकता के नाम पर दूसरों की निन्दा और अवगणना ही करता रहता है । उस मूढ़ व्यक्ति की यह परिज्ञान नहीं होता, कि पुरातन होने मात्र से कोई विचार अच्छा और नूतन मात्र होने से कोई विचार बुरा नहीं कहा जा सकता, यदि नूतनता सर्वथा बुरी ही वस्तु है और पुरातनता ही एकमात्र अच्छी वस्तु है, तो मिथ्यात्व सदा प्राचीन होता है, वह आज का नहीं अनादि से चला आ रहा है, और सम्यक् दर्शन की उपलब्धि नवीन होती है । तब क्या प्राचीन होने से मिथ्यात्व को पकड़े रहें, और नवीन होने से सम्यक् दर्शन का परित्याग कर दें ? पापाचार बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है, तो प्राचीनता - प्रेमी उसे क्यों छोड़ने का प्रयत्न करते हैं । प्राचीनता का मोह एक प्रकार की मूढ़ता एवं बुद्धि - जड़ता का ही प्रतीक है । यह सत्य है, कि नवीन
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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २५५
सभी कुछ ग्राह्य नहीं होता, परन्तु यह भी उतना ही सत्य है, कि प्राचीन भी सव कुछ ग्राह्य नहीं होता । मेरे विचार में जो समीचीन है, वही ग्राह्य होता है । पुरातनता में भी कुछ बात अच्छी हो सकती है और नवीनता में भी कुछ बात अच्छी हो सकती है । पुरातनता के नाम पर पीतल संग्रह करने के योग्य नहीं होता और नूतनता के कारण कनक त्याज्य नहीं हो सकता। किसी भी वस्तु के सद्गुण और असद्गुण को परखने की कसौटी, न एकान्त प्राचीनता हो सकती है और न एकान्त नवीनता ही हो सकती है, एक मात्र समीचीनता ही उसकी कसौटी हो सकती है । बड़े ही आश्चर्य की बात है, कि एक पंथवादी और पुरातनता प्रेमी व्यक्ति एक विचार शील और अनुभवशील बुद्धिमान व्यक्ति की मात्र इस आधार पर दुरालोचना करता है कि उसके विचार नए हैं । पाचीन पुरुषों ने अपने युग में जिस व्यवस्था को बनाया, वह उस युग के लिए उपयुक्त थी, किन्तु आज भी वह ज्यों की त्यों उपयुक्त ही है, यह नहीं कहा जा सकता । अपने प्राचीन पुरुषों के झूठे गौरवमय गीत गाने से काम नहीं चलता । प्राचीन पुरुषों का आदर करना, एक अलग बात है, किन्तु उनकी हर बात का अन्धानुकरण एवं अन्धानुसरण करना, यह एक अलग बात है । जो भी सत्य है, वह मेरा है, यह एक विवेक दृष्टि है । इसके विपरीत यदि यह कहा जाए, कि जो कुछ मेरा है, जो कुछ मैं कहता हूँ, वही सत्य है, यह एक अविवेक दृष्टि है । जरा विचार तो कीजिए, पंथवादी जिस व्यक्ति को आज नवीन कह कर उड़ा देना चाहता है, वही व्यक्ति मरने के बाद, नई पीढ़ी के लिए क्या पुराना नहीं हो जाता है ? आज का नया, कल भविष्य का पुराना होगा ! संसार की हर वस्तु नूतन और पुरातन होती ही रहती है । जिन्हें आज हम पुरातन पुरुष कहते हैं और पुरातनता के नाम पर आज हम जिनकी पूजा करते हैं, क्या अपने युग में वे कभी नवीन नहीं रहे होंगे ? सिद्धान्त यह है, कि प्रत्येक नवीन पुरातन होता है और फिर प्रत्येक पुरातन नवीन बनता है । आज के युग के प्राचीन कहे जाने वाले पुरुष, जिनका आज एक मात्र कार्य है, पंथवाद और सम्प्रदायवाद के नाम पर जनता की श्रद्धा को बटोरना और उस पर अपने रूढ़िवादी विश्वास और विचार की मुहर लगाना, अपने युग में वे भी तो कभी नवीन रहे होंगे, उन्होंने भी तो कभी नवीन बातों का समर्थन किया होगा | फिर आज का नवीन व्यक्ति यदि किसी नवीन
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२५६ | अध्यात्म प्रवचन विचार का समर्थन करता है, तो क्या बुरा करता है। यह प्राचीनता
और अर्वाचीनता काल कृत है, काल के परिचक्र के अनुसार जगत में नित्य परिवर्तन होता रहता है। इस परिवर्तन की उपेक्षा नहीं की जा सकती और इस परिवर्तन को झुठलाया नहीं जा सकता। जिस व्यक्ति के पास विवेक का बल है, और जिस व्यक्ति के पास प्रतिभा की शक्ति है, वह पुरातन वाद को भी, अपनी बुद्धि की तुला पर तोल कर ही ग्रहण कर सकता है। किसी भी बात पर आँख मूंद कर और कान बन्द कर, वही व्यक्ति मौन रह सकता है, जिसके पास अपना विवेक न हो और जिसके पास अपनी बुद्धि न हो। यदि आज का विचार सुन्दर है, जीवन उपयोगी है, जिन्दगी को ताजगी देने वाला है, तो उसे ग्रहण करने में इस आधार पर पीछे नहीं हटना चाहिए, कि यह विचार नवीन है। यदि कोई विचार असुन्दर है, जीवन के लिए उपयोगी नहीं रहा है, उससे जीवन के लिए कोई निर्माण कारी प्रेरणा नहीं मिल रही है, तो इस आधार पर उसे नहीं पकड़े रहना चाहिए, कि यह प्राचीन है। किसी भी असम्बद्ध और असंगत बात को प्राचीनता के नाम पर स्वीकार कर लेना, एक प्रकार का अन्धविश्वास है, एक प्रकार का अज्ञान है और एक प्रकार का रूढ़िवाद है, उसे सम्यक दर्शन कहना पाप है, और उसे सम्यक दर्शन कहना मिथ्यात्व है । प्राचीनता एक मात्र भूषण है और नवीनता एक मात्र दूषण है, यह विचार उन लोगों का होता है, जो पंथवादी होते हैं और प्रत्येक वस्तु को उपयोगिता की तुला पर न तोल कर अपने स्वार्थ पोषण के लिए केवल प्राचीनता की तुला पर ही तोलते रहते हैं।
मैं आपसे इस बात की चर्चा कर रहा था, कि सम्यक् दर्शन और मिथ्यादर्शन का निर्णय, प्राचीनता और अर्वाचीनता के आधार पर मत कीजिए। उसका निर्णय कीजिए, समीचीनता के आधार पर । एक व्यक्ति का जो सत्य है, वही सत्य दूसरे व्यक्ति का हो, यह कैसे हो सकता है ? एक व्यक्ति के लिए दूध पीना रुचिकर हो सकता है, किन्तु दूसरे के लिए दही खाना रुचिकर होता है । यद्यपि दूध और दही दोनों अपने आप में अच्छी वस्तु हैं, दोनों से शरीर को पुष्टि मिलती है, किन्तु रुचि के आधार पर एक के लिए दूध सत्य है, तो दूसरे के लिए दही भी उतना ही सत्य है। इसी प्रकार मैं आपसे कह रहा था, कि किसी व्यक्ति के लिए उत्तराध्ययनसूत्र रुचिकर हो
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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २५७
सकता है, तो किसी दूसरे व्यक्ति के लिए तत्वार्थसूत्र रुचिकर हो सकता है । किन्तु तत्वार्थसूत्र को यह कह कर ठुकरा देना, कि वह वाचक उमास्वाति की कृति है, संस्कृत में है और नवीन है । यह भी एक प्रकार का मिथ्यात्व है, बुद्धि की मूढ़ता है और विचारों की जड़ता है । किसी भी पंथ का, किसी भी सम्प्रदाय का, किसी भी ग्रन्थ का और किसी भी व्यक्ति विशेष का आग्रह रखना, और उसकी बातों को अन्धभक्त होकर स्वीकार करना, एक प्रकार का मिथ्यादर्शन ही है । यहाँ पर मैं एक उदाहरण इसलिए दे रहा हूँ, कि पंथवादी लोग अपने पंथ का पोषण करने के लिए, किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की आड़ लेकर किस प्रकार सम्यक्त्व के नाम पर मिथ्यात्व की प्रचार करते रहे हैं ।
एक बार एक श्रमण से एक व्यक्ति ने प्रश्न किया, कि संवत्सरी के विषय में शास्त्र का प्रमाण दीजिए कि क्यों मनाई जाती है ? इस प्रश्न के उत्तर में तथाकथित विद्वान श्रमण ने कहा - 'कि संवत्सरी के दिन अधिकांश जीवों को नवीन आयुष्यकर्म का बन्ध होता है । अतः उस दिन आत्म-विशुद्धि के लिए आहार आदि का त्याग कर धर्माराधना में ही तल्लीन रहना चाहिए ।" उक्त प्रश्न और उत्तर से यह भलीभांति शांत हो जाता है, कि पंथवाद के नाम पर, पंथवादी लोग किस प्रकार घोर मिथ्यात्व का प्रचार एवं प्रसार कर सकते हैं । शास्त्र और आगम के नाम पर अपनी प्रतिष्ठा का प्रासाद खड़ा करने वाले लोग किस प्रकार मिथ्या विश्वास और मिथ्या विचार का प्रचार करते रहे हैं और कर रहे हैं। भक्त ने शास्त्र का प्रमाण पूछा था । परन्तु किसी भी शास्त्र एवं आगम ग्रन्थ का प्रमाण न देकर, तथाकथित भ्रमण ने अपना मनगढ़ंत समाधान प्रस्तुत कर दिया और अन्धभक उसे शास्त्र का गम्भीर ज्ञान समझकर नाच उठे और झूम उठे । क्या यह नवीन विचार का प्रचार नहीं है ? जब हर नवीन विचार मिथ्यात्व की कोटि में है, तब तथाकथित गुरु का उक्त आगमiधारहीन समाधान एवं कथन मिथ्यात्व की कोटि में क्यों नहीं ? परन्तु पंथवादी व्यक्ति उक्त तथाकथित गुरु के मनगढंत समाधान को मिथ्यात्व कहने के लिए इसलिए तैयार नहीं होता, क्योंकि वह उसके गुरु का कथन है। यह भी एक प्रकार का मिथ्यात्व है, बल्कि एक घोर मिथ्यात्व है, किन्तु पंथवादी लोगों ने उस पर सम्यक्त्व का लेबिल लगा दिया है ।
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२५८ | अध्यात्म-प्रवचन
अध्यात्म साधना
यह तभी सम्भव सम्यक् दर्शन की
मैंने आपसे यहाँ पर कुछ उन विचारों की चर्चा की है, जो सम्यक् दर्शन के नाम पर आज चल रहे हैं। मैं आपसे पहले कह चुका है, कि सम्यक् दर्शन का वास्तविक अर्थ - आत्म-श्रद्धान और आत्म-प्रतीति ही है । सिद्धान्त की दृष्टि से, जैन-दर्शन का तत्वज्ञान बाहर के अनन्त पदार्थों में नहीं भटकता, वह मूल को पकड़ता है, जिससे सारा विश्व पकड़ में आ जाता है। सबका मध्यबिन्दु एवं मुल केन्द्र आत्मा ही है । सम्यक् दर्शन की महिमा यह है, कि वह आविर्भूत होते ही मिथ्याज्ञान को सम्यक् ज्ञान बना देता है और मिथ्या चारित्र को सम्यक् चारित्र बना देता है । का लक्ष्य है - आत्म जागृति और आत्म विकास । है, जब कि सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाय । उपलब्धि होते ही, आत्मा और अनात्मा का स्पष्ट परिबोध हो जाता है । परन्तु कषायभाव के कारण तथा उसकी तीव्रता के कारण, फिर मलिनता आने की सम्भावना बनी रहती है । कषायभाव की जितनी मन्दता रहती है, आत्म-भाव उतना ही निर्मल रहता है और कषाय भाव की जितनी ही तीव्रता रहती है, आत्मभाव उतना ही मलिन हो जाता है । कुछ लोग इस प्रकार सोचते हैं, कि सम्यक्दर्शन की उपलब्धि होने पर आत्मा में ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और जब तक सम्यक् दर्शन रहता है, ज्ञान बढ़ता रहता है । परन्तु सिद्धान्त की दृष्टि से यह विचार युक्ति-युक्त नहीं है । क्योंकि सम्यक् दर्शन का काम, न ज्ञान को उत्पन्न करना है और न ज्ञान को बढ़ाना है । यह तभी उचित कहा जा सकता है, जबकि ज्ञान आत्मा से भिन्न कोई बाह्य पदार्थ हो, किन्तु जैन दर्शन की दृष्टि से तो ज्ञान ही आत्मा है और आत्मा ही ज्ञान है । सम्यक् दर्शन ज्ञान को उत्पन्न नहीं करता एवं ज्ञान को बढ़ाता नहीं है, बल्कि वह उसकी दिशा बदल देता है । ज्ञान की जो धारा संसाराभिमुखी होती है, उसे मोक्षाभिमुखी बना देना ही सम्यक् दर्शन का प्रधान कार्य है । सम्यक् दर्शन ज्ञानधारा को मोक्ष साधना में नियोजित कर उसे मात्र सम्यक् बना देता है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है, कि उस समय ज्ञान केवल आत्मा को ही जानता है और आत्मा से भिन्न जड़ को नहीं जानता । ज्ञान तो एक दर्पण के समान है, जिसमें आत्मा और अनात्मा तथा जड़ और चेतन सभी कुछ प्रतिबिम्बित हो सकता है । किन्तु साधना का लक्ष्य एक
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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २५६ मात्र यही है, कि जीवन की अधोवाही धारा को ऊर्ववाही धारा बनाया जाय । इसका मूल आधार सम्यक् दर्शन ही है । सम्यक् दर्शन के बिना अध्यात्म-साधना ऊर्ध्वमुखी नहीं होती। और ज्ञान भी मोक्षाभिमुखी नहीं होता। ___ यात्रा और भटकने में बड़ा अन्तर है । यात्रा में एक लक्ष्य स्थिर होता है, एक उद्देश्य निर्धारित होता है, किन्तु भटकने में न कोई लक्ष्य होता है और न कोई उद्देश्य ही । निरन्तर अपने लक्ष्य के पथ पर ही कदम बढ़ाते जाना तो यात्रा है, और कभी इधर चले गये और कभी उधर चले गए, और कभो फिर पथ पर आ गए और फिर इधर-उधर चले गए, और वापस लौट गए, तो इसे यात्रा नहीं, भटकना ही कहा जाता है । कल्पना कीजिए, आपका एक लड़का है किसी निर्धारित कार्य के लिए वह घर से बाहर जाता है। दिन भर कार्य-निष्पत्ति के लिए इधर-उधर घूमता फिरता रहता है और सांयकाल को फिर बाहर से घर आ जाता है, उस स्थिति में आप उसका आदर करते हैं। परन्तु यदि वही लड़का बिना किसी निश्चित लक्ष्य और कार्य के यों ही दिन भर इधर-उधर भटक भटका कर घर आता है, तब उसे आप क्या कहेंगे ? भटकने वाला आवारा अथवा कार्य करने वाला सहयोगी ? एक व्यक्ति किसी प्रयोजनवश घर से बाहर बहुत दूर चला जाता है और दीर्घकाल तक घर से बाहर रहता है और फिर घर लौट आता है। इसी प्रकार कालान्तर में फिर वह प्रयोजनवश घर से बाहर चला जाता है और फिर घर आ जाता है । दूसरा व्यक्ति बिना किसी लक्ष्य के यों ही बहुत दूर दूर घूमता है घर लौट आता है और ऐसा बार-बार करता है। आप इन दोनों को क्या कहेंगे? यात्रा करने वाले यात्रो अथवा भटकने वाले आवारा ? यह दो चित्र आपके समक्ष हैं, गमन दोनों में होता है और आगमन भी दोनों में होता है । किन्तु एक के न जाने में कोई उद्देश्य है और न आने में ही कोई उद्देश्य है जबकि दूसरे का गमन भी सोद्देश्य है और आगमन भी सोद्देश्य है। आवारा व्यक्ति घर में रहकर भी घर को अपना नहीं समझता, जबकि कार्यशील व्यक्ति घर से दूर रहकर भी घर को अपना समझता है। भागने, भटकने और आने जाने में बड़ा अन्तर होता है। जिसका कोई लक्ष्य न हो और जिसका कोई उद्देश्य न हो, उसका जाना और आना भी भट
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२६० / अध्यात्म-प्रवचन कना ही है, और जिसका कोई उद्देश्य है, जिसका कोई एक लक्ष्य है, उसका जाना भी और उसका आना भी यात्रा ही है, भटकना और भागना नहीं । यही उक्त दोनों व्यक्तियों में विशेष अन्तर है। जो बात इन दो के सम्बन्ध में है, वही बात मिथ्या दृष्टि और सम्यक् दृष्टि की भी है। मिथ्या दृष्टि क्रोधादिरूप में आत्मारूपी घर से बाहर चला जाता है, फिर कदाचित् क्षमादिरूप में वह लौट भी आए, किन्तु उसका लौटना भी जाने के बराबर ही है, क्योंकि-न उसके जाने में विवेक है और न उसके आने में विवेक है। इसके विपरीत सम्यक् दृष्टि आत्मा आत्मारूपी घर में ही रहता है। कभीकभी विभाव-भाव की परिणति भी उसके जीवन में आती रहती है, किन्तु अपनी विवेक दृष्टि के कारण वह शीघ्र ही सावधान हो जाता है, और फिर विभाव से हटकर स्वभाव में स्थिर हो जाता है। इसी आधार पर मैं यह कहता हूँ, कि मिथ्या दृष्टि भटकता है और सम्यक दृष्टि यात्रा करता है । सम्यक् दृष्टि आत्मा, कर्मोदय वश भले ही विभाव में भटके, किन्तु वह अपना घर अपनी आत्मा को ही समझता है। वह कभी भी विभाव को अपना स्वभाव नहीं समझता, किन्तु मिथ्या दृष्टि आत्मा अपने विभाव को ही अपना स्वभाव समझ लेता है, दोनों की दृष्टि में यही सबसे बड़ा. अन्तर है। इसी आधार पर दोनों की जीवन चर्या में भी भेद खड़ा हो जाता है। सम्यक् दर्शन ज्ञान को अपने घर और अपने स्वरूप में ले आता है। वह भूले हए और भटके हुए ज्ञान को अपने घर में लाकर स्थिर कर देता है। आत्मा का वह ज्ञान सम्यक् दर्शन के द्वारा जब एक बार अपने घर में आ जाता है तब फिर वह पहले तो भटकता नहीं, यदि भटक भी जाता है तो फिर शीघ्र ही सावधान हो जाता है। अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में सम्यक् दर्शन का बड़ा ही महत्व है। कहा गया है कि तीर्थकर भी सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में तो निमित्त बन सकते हैं। किन्तु सम्यक् ज्ञान की उपलब्धि में वे निमित्त नहीं बन सकते। सम्यक् ज्ञान तो सम्यक् दर्शन द्वारा ही होता है। कुज्ञान के सुज्ञान होने में, मिथ्या ज्ञान के सम्यक् ज्ञान होने में, एकमात्र सम्यक् दर्शन ही साक्षात कारण है। __ अध्यात्म साधक की दृष्टि शान्त, दान्त और गम्भीर होनी चाहिए । साधना के पथ पर आगे बढ़ने वाले पथिक का हर कदम दृढ़ता और मजबूती के साथ पड़ना चाहिए। उसके मन में अपने
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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २६१ लक्ष्य के प्रति इतनी एकाग्रता और एकनिष्ठता रहनी चाहिए, कि कोई भी प्रलोभन और भय उसे अपने मार्ग से विचलित न कर सके । संसार के किसी एक ही पदार्थ का नहीं, बल्कि असंख्य पदार्थों का ज्ञान भी क्यों न हो जाये, परन्तु मूल में आत्मा का ज्ञान अवश्य रहना चाहिए। क्योंकि आत्मा का ज्ञान ही सम्यक् दर्शन है। यदि आत्मा में सम्यक् दर्शन का आलोक और सम्यक ज्ञान की विमल ज्योति है, तो प्रारब्ध के सारे भोग भोगते हुए भी, भोगावली कमों के उदय में आने पर भी उनके विपाक के समय सम्यक दृष्टि आत्मा की रागात्मक एवं द्वषात्मक वृत्ति मंद रहती है। साधक की स्थिति यह हो जाती है कि बाह्य पदार्थ के रहते हुए भी उसके मन में उसकी आसक्ति नहीं रहती । यदि साधक के मन में रागात्मक और द्वेषात्मक परिणति नहीं है, तो पदार्थों का ज्ञान करने में कोई आपत्ति नहीं है। राग और द्वष के मिश्रण से ही, ज्ञान मलिन एवं अपवित्र बनता है। सम्यक् दर्शन अध्यात्म जीवन के क्षेत्र में सबसे बड़ी कला और सबसे बड़ा जादू यही सिखाता है, कि तुम संसार में रहो, कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु याद रखो, संसार तुम्हारे में न रहे । नाव जल में चलती है कोई भय की बात नहीं, किन्तु नाव में जल नहीं जाना चाहिए । शरीर रहे कोई आपत्ति नहीं, किन्तु शरीर में ममताभाव नहीं रहना चाहिए। भोग्य पदार्थ रहें, कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु भोग के क्षणों में रागात्मक एवं द्वषात्मक दृष्टि नहीं रहनी चाहिए । मैं स्पष्ट कहता हूँ कि संसार के पदार्थों का ज्ञान करना चाहिए, परन्तु उनका ज्ञान राग या द्वेष के साथ नहीं करना चाहिए, यदि इस कला को हस्तगत कर लिया जाए तो फिर बाह्य पदार्थों में वह शक्ति नहीं है कि जो आत्मा को अपने आप में बाँध सकें । याद रखिए, आत्मा के साथ आत्मा को बांधने की आवश्यकता है, न कि पदार्थों को । आत्म-भाव में स्थिर रहने वाला साधक संसार में रहकर भी संसार के बन्धनों से ऊपर उठ जाता है, शरीर में रह कर भी शरीर की ममता के कारागार में बद्ध नहीं रहता। सम्यक दृष्टि आत्मा, जिसे विमल सम्यक् दर्शन की ज्योति की उपलब्धि हो चुकी है, वह व्यक्ति परिवार में रहता है, समाज में रहता है और राष्ट्र में रहता है, किन्तु फिर भी अपने मूल घर आत्मा को वह कभी भूलता नहीं है । जिस साधक की यह आत्म दृष्टि स्थिर हो जाती है,
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२६२ | अध्यात्म-प्रवचन
फिर उसे किसी प्रकार का न भय रहता है, और न किसी प्रकार के प्रलोभन में ही वह फँसता है, किन्तु जिसकी दृष्टि में अभी अध्यात्म भावना स्थिर नहीं है, उस आत्मा को कदम-कदम पर भोगों का भय और बन्धन का डर रहता है । विचार और विकल्पों के जाल में वह उलझ जाता है, क्यों कि सम्यक् दर्शन की कला की उपलब्धि उसे नहीं हो सकी है। वह अभी उस जादू से अपरिचित है, जो जल में रह कर भी कमल के समान रह सके, और जो भोगों के कीचड़ से उत्पन्न होकर भी कमल के समान मुस्करा सके । सम्यक् दर्शन में एक ऐसी विलक्षण शक्ति है, कि जिसके प्रभाव से अनन्त - अनन्त जन्मों के मिथ्यात्व के बन्धन क्षण भर में विध्वस्त हो जाते हैं । सम्यक् दर्शन में एक वह शक्ति है, कि जिसके प्रभाव से आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप का बोध कर लेता है और अपने स्वभाव में स्थिर होकर समग्र विभाव भावों के विकार एवं विकल्पों के जाल से अपने को मुक्त कर सकता है ।
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अमृत
की साधना : सम्यक् दर्शन
दर्शन - शास्त्र में एक प्रश्न बहुत बड़ी चर्चा का विषय रहा है । भारत के तत्व-चिन्तकों के मन एवं मस्तिष्क में उसके सम्बन्ध में पर्याप्त चिन्तन एवं मनन होता रहा है । आप यह जानते ही हैं कि भारत के दर्शन का और भारत के धर्म का अनुचिन्तन एवं परिशीलन कभी अधोमुखी नहीं रहा है। उसका प्रवाह कभी नीचे की ओर नहीं रहा, वह सदा से नीचे से ऊपर की ओर ही प्रवाहित होता रहा है । उसका प्रवाह विकास से ह्रास की ओर न जाकर, ह्रास से विकास की ओर ही जाता रहा है। इसलिए भारतीय दर्शन का प्रथम और मूल आधार भौतिकवाद नहीं; अध्यात्मवाद हो रहा है। भारत के दर्शनों में एवं धर्मों में आत्म स्वरूप और आत्म-विवेक के लिए, काफी गवेषणा तथा विचारणा की गई है। भारत के जिन साधकों ने अपनी अनन्त ज्ञान ज्योति से सब कुछ का दर्शन किया है, कार किया है; उन्होंने केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि, आधार से ही सत्य का दर्शन नहीं किया, वे तो स्वयं द्रष्टा हैं और
समग्र का साक्षा
शास्त्र और गुरु
के
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२६४ | अध्यात्म-प्रवचन
अध्यात्म-साधना में स्वयंभू हैं। यह जड़ चेतनात्मक समग्र विश्व उनकी ज्ञान-दृष्टि के समक्ष हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष था। उन्होंने अपने अन्तर में और बाहर प्रकृति में भी अनन्त का दर्शन किया था। अपनी आत्मा के अनन्त परिणामों को भी उन्होंने जाना था, और इस जड़ प्रकृति के अनन्त रूप-परिधानों को भी उन्होंने जाना था। परन्तु अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में कुछ साधक ऐसे भी थे, जिनका जीवन इतनी ऊँचाई पर नहीं पहुँच सका, परन्तु फिर भी वे अपने साधनापथ पर अग्रसर होते हुए, हताश एवं निराश नहीं हुए। यदि उन्हें उनकी जिन्दगी में जीत नहीं मिल सकी, तो हार भी उन्होंने स्वीकार नहीं की। वे अपनी साधना के क्षेत्र में किंकर्तव्यविमूढ़ होकर नहीं बैठे । यदि उन्हें स्वयं के अभ्यास एवं अनुभव से सत्य की उपलब्धि नहीं हो सकी, तो उन्होंने महापुरुषों की वाणी से प्रेरणा लेकर तथा गुरु के उपदेश से दिशा दर्शन लेकर सत्य की उपलब्धि का प्रयत्न किया । और कभी जब मार्ग में चलते-चलते स्वयं की बुद्धि का प्रकाश ओझल होने लगा तो वे शास्त्र तथा गुरुवाणी के प्रकाश का अवलम्बन लेकर अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहे।
इस प्रकार अध्यात्म-साधना के फलस्वरूप साधकों को सत्य की उपलब्धि दो रूपों में होती रही है-प्रत्यक्ष रूप में और परोक्ष रूप में । परम विशुद्ध ज्ञान से सत्य की जो उपलब्धि होती है, उसे परम प्रत्यक्ष कहा जाता है। इस उपलब्धि का कारण केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन होता है। अवधिज्ञान और मनःपर्याय ज्ञान से जो सत्य का साक्षात्कार होता है, वह भी प्रत्यक्ष है, परन्तु वह शास्त्रीय भाषा में विकल अर्थात् खण्ड प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके विपरीत अपनी स्वयं की चिन्तन-बुद्धि से अथवा शास्त्र ज्ञान आदि के आधार पर सत्य की जो उपलब्धि होती है, उसे परोक्ष कहा जाता है। केवलज्ञानी ने अपने केवल ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से सत्य का साक्षात्कार किया, तो श्रुत ज्ञानी ने शास्त्र आदि के चिन्तन एवं मनन के आधार पर, विश्व के सत्य स्वरूप का परोक्ष दर्शन कर लिया। मूल प्रश्न यह है, कि जब अध्यात्म-साधकों ने अपने जीवन के सत्य को परखने का प्रयत्न किया, तब उन्होंने जाना कि आत्म-तत्वरूप चैतन्य में जीवन का जो अनन्त सागर लहरा रहा है, उसे उन्होंने किस रूप में देखा और परखा ? संक्षेप में समाधान दिया गया है कि कुछ महापुरुषों ने प्रत्यक्ष रूप में देखा, तो कुछ ने परोक्ष रूप में देखा।
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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २६५ प्रस्तुत सत्य के साक्षात्कार के साथ एक और प्रश्न है, जो आज से नहीं, चिरकाल से चर्चा का विषय रहा है। प्रश्न है कि उन तत्व ज्ञानियों ने और उन अध्यात्म-साधकों ने जीवन के सत्य को अमृत रूप में देखा अथवा विष रूप में देखा ? उनके चिन्तन एवं अनुभव में, जीवन अमृत था अथवा विष ? हजारों साधक ऐसे थे, जो संसार में ठोकरें खाते रहे हैं, उन्होंने कहा, कि जीवन विष है, इसमें कहीं पर भी अमृत रस दृष्टिगोचर नहीं होता है। उन्हें जीवन में विष के अतिरिक्त अन्य कुछ दष्टिगोचर नहीं हो सका। अपने चिन्तन एवं अनुभव के आधार पर यह कहा कि इस ससार में कदम-कदम पर दुःख, क्लेश, पीड़ा, अज्ञान और असत्य का साम्राज्य सर्वत्र फैला हुआ है । जब इस संसार में सर्वत्र विष का साम्राज्य व्याप्त है, फिर इसमें सुख और शान्ति कैसे मिल सकती है? परन्तु क्या वस्तुतः संसार का यह सही रूप है? क्या वास्तव में संसार का यह रूप, विष रूप है ? जेन-दर्शन में इस सम्बन्ध में कहा गया है, कि संसार को दुःख एवं कष्ट रूप में अथवा विष रूप में जो देखा जा रहा है, वह जीवन का वास्तविक स्वरूप नहीं है, बल्कि यह स्वयं की तुम्हारी कल्पना का रूप है, जीवन तो वास्तव में अमृत है। फिर भी यदि तुम्हें यह जीवन विषरूप लगता है, तो यह तुम्हारी अपनी दृष्टि का खेल है। जिसे आप विष समझते हैं, वह भी आखिर क्या वस्तु है ? विष एवं जहर भी तो अन्दर के अमृत का ही एक विकृत रूप है। अमृत में जब विकार आ जाता है, तब वह अमृत ही विषरूप में प्रतिभासित होने लगता है । अतः विष भी मूलतः अमृत का ही एक दूषित रूप आपके सामने खड़ा है । अध्यात्म-शास्त्र में कहा गया है, कि क्रोध क्या है ? वह क्षमा धर्म का ही एक विकृत रूप है । क्रोध की परिभाषा करते हुए कहा गया है, कि क्षमा का विकार ही क्रोध है । मूल में क्रोध कोई अलग वस्तु नहीं है। आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा, कि शास्त्रकारों ने लोभ के बारे में बताया है, कि अन्तर आत्मा में लोभ कोई स्वतन्त्र वृत्ति नहीं है, बल्कि आत्मा के मूल गुण सन्तोष का ही वह एक विकृत रूप है । मान और माया के विषय में भी यही सत्य है, कि वह अपने मूल गुण नम्रता एवं सरलता के विकृत रूप ही हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यह है, कि क्रोध, मान, माया और लोभ को शास्त्रीय परिभाषा में कषाय कहा गया है और जो भी कषाय है, वह सब चारित्र गुण का विकृत रूप होने से कुचारित्र है, मिथ्या चारित्र है । इस दृष्टि से मैं कह रहा था कि अमृत में जो
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२६६ | अध्यात्म-प्रवचन
विकार आ गया है, वही विष है । विष का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की विपरीतता ही विष है । यदि इस विपरीतता को हटा दिया जाए, तो फिर कहीं भी विष नहीं है, जो है सब अमृत हो अमृत है। जैन दर्शन की मर्यादा का ठीक अध्ययन एवं चिन्तन करने पर पता चलेगा, कि आत्मा में दो प्रकार के भाव हैं-विकारी भाव और अविकारी भाव । इसी को अध्यात्म - भाषा में स्वभाव और विभाव भी कहा जाता है । उदाहरण के लिए देखिए - दर्शन आत्मा का निज गुण है, उसकी दो पर्याय हैं - एक शुद्ध और दूसरी अशुद्ध । उसकी शुद्ध पर्याय को सम्यक् दर्शन कहा जाता है और उसकी अशुद्ध पर्याय को मिथ्यादर्शन कहा जाता है । इस दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है, कि सम्यक्दर्शन और मिथ्यादर्शन दो अलग तत्त्व नहीं हैं । आत्मा के दर्शन गुण का अशुद्ध रूप ही मिथ्या दर्शन है और आत्मा के दर्शन गुण का शुद्ध रूप ही सम्यक् दर्शन है । दोनों मूल में एक तत्व हैं, किन्तु उसके दो रूप प्रतिभासित होते हैं - एक विकारी और दूसरा अविकारी | विकारी रूप मिथ्या दर्शन है और अविकारी रूप सम्यक् दर्शन है | सम्यक् दर्शन अमृत है और मिथ्या दर्शन विष है । यही सत्य ज्ञान के सम्बन्ध में भी है। ज्ञान आत्मा का निज गुण है, किन्तु उसको दो पर्याय हैं - सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान । सम्यक् ज्ञान का अथं है - सम्यक्त्व सहचरित ज्ञान और मिथ्या ज्ञान का अर्थ है - मिथ्यात्व सहचरित ज्ञान । इस प्रकार सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान भी मुल में दो भिन्न तत्व नहीं है, बल्कि एक ही तत्व के दो रूप हैं । जैनदर्शन का कहना है, कि स्वतन्त्र रूप में दोनों अलग चीज नहीं है । अन्तर में सदा ही ज्ञान की अजस्र धारा प्रवाहित होती रहती है तथा चेतना का अनन्त सागर लहराता रहता है । जब आत्मा की चैतन्य धारा से स्वयं विवेक शून्यता का विकार मिल जाता है, तब वह विकृत बन जाती है, अज्ञान हो जाती है । जब आत्मा की यही चैतन्य धारा स्व-पर विवेक का प्रकाश लेकर अपने स्वरूप की ओर उन्मुख रहती है, तब उसी धारा को सम्यक् ज्ञान कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान धारा जब आत्मभाव से अनात्म भाव की ओर उन्मुख हो जाती है, तब उसको मिथ्या ज्ञान कहा जाता है । मिथ्या ज्ञान विकारी भाव है और सम्यख ज्ञान अविकारी भाव है । सम्यक् ज्ञान, ज्ञान का विशुद्ध रूप है और मिथ्या ज्ञान, ज्ञान का अशुद्ध रूप है ।
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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २६७
मिथ्या ज्ञान विष है और सम्यक् ज्ञान अमृत है, किन्तु दोनों का मूल केन्द्र एक ही है, आत्मा का निज गुण ज्ञान । इसी प्रकार चारित्र के सम्बन्ध में भी यही कहा जाता है, कि चारित्र आत्मा का निज गुण है और उसकी दो पर्याय हैं - सम्यक् चारित्र और मिथ्या चारित्र । सम्यक् चारित्र चारित्र को विशुद्ध पर्याय है और मिथ्या चारित्र चारित्र की अशुद्ध पर्याय है, किन्तु दोनों का मूल गुण एक ही हैंचारित्र गुण | चारित्र क्या है ? आत्मा का अपना पुरुषार्थं, आत्मा का अपना पराक्रम और आत्मा की अपनी वीर्य शक्ति । आत्मा की जो अपनी क्रिया शक्ति है, वस्तुतः वही स्वरमणरूप भाव चारित्र है । भाव चारित्र का अर्थ है - स्वभाव में रमण करना, स्वभाव में लीन रहना और जीवन के विशुद्ध स्वरूप सागर में गहरी डुबकी लगाना । आत्मा की किया - शक्ति जब स्वरूप रमण की ओर होती है, तब वह सम्यक् चारित्र होती है, पर जब वही आत्मा के मूल केन्द्र को छोड़कर संसार की तथा संसार की वासनाओं की ओर दौड़ने लगती है, जब आत्मभाव के बदले वह अनात्मभाव में लीन होती है, और जब वह आत्मा में रमण न करके संसार के बाह्य पदार्थों में रमती है, तब उसे मिथ्या चारित्र कहा जाता है । रमण की मूल क्रिया एक ही है, परन्तु उसका स्व स्वरूप में रमण होना सम्यक् चारित्र है, तथा उसका परस्वरूप में राग द्वेष रूप से रमण करने लगना मिथ्या चारित्र है । सम्यक् चारित्र अमृत है और मिथ्या चारित्र विष है ।
मैं आपसे कह रहा था, कि यदि आप भारत के अध्यात्मवादी दर्शन का गम्भीरता के साथ चिन्तन एवं मनन करेंगे, तो आप भली भाँति जान सकेंगे, कि जीवन मूल में विष नहीं है, अमृत है । एक विचार और है । सम्भवतः आपके मन में यह प्रश्न उठता होगा, कि यह जीवन क्या वस्तु है ? मेरे विचार में जीवन और आत्मा अलगअलग नहीं हैं । जो आत्मा है, वही जीवन है और जो जीवन है, वही आत्मा है । दोनों एक ही तत्व हैं। आत्मा के अभाव में जीवन की सत्ता नहीं रह सकती और जीवन के अभाव में आत्मा की सत्ता नहीं रहती । अध्यात्मवादी दर्शन आत्मा को एक विशुद्ध तत्व मानता है और वह यह भी कहता है, कि यह आत्मा ही परमात्मा है और यह जीव ही परब्रह्म है । भारत का अध्यात्मवादी दर्शन एक ही सन्देश देता है, कि राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध सब तुम्हारे अन्दर में ही हैं। भारत का दर्शन दीर्घ काल तक परमतत्व की खोज करता रहा
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२६८ | अध्यात्म-प्रवचन और खोज करते-करते अन्त में उसने पाया कि मैं जिसकी खोज कर रहा था, वह मेरे ही अन्दर में है, बल्कि वह मैं स्वयं ही हूँ । इस प्रकार भारत का अध्यात्मवादी दर्शन एक महत्वपूर्ण केन्द्र को पकड़ने का प्रयत्न करता है। उसने स्वर्ग और मुक्ति का दर्शन बाहर नहीं, बल्कि अपने अन्दर में ही किया है। मुक्ति का अनन्तप्रकाश और आत्म-तत्व का अनन्तप्रकाश का प्रवाह अन्तर में ही प्रवाहित होता रहा है, वह कहीं बाहर में नहीं है, उसे बाहर में खोजना एक भयंकर भूल है। आत्म-तत्व किसी समय-विशेष में और अवस्था-विशेष में बद्ध रहने वाली वस्तु नहीं है। वह सदा एक रूप है, एक रस है और वह है उसका चैतन्य भाव । जिस प्रकार स्वर्ण-पिंजर में रहने वाले पक्षी में और लोह-पिंजर में रहने वाले पक्षी में मूलतः एवं स्वरूपतः कोई भेद नहीं होता, उसी प्रकार संसारी अवस्था में भी, आत्मा आत्मा ही रहता है और सिद्ध-अवस्था में भी आत्मा, आत्मा हो रहता है। यह उसका त्रिकालो ध्रुव स्वभाव है। यह एक ऐसा स्वभाव है-जो न कभी मिटा है, न कभी मिट सकेगा। ... मनुष्य जब दीन-हीन बनकर संसार के सुख के लिए द्वार-द्वार पर भीख माँगता है और जब वह जीवन के सुख और स्वर्ग के लिए मांग करता है, तब भारतीय दर्शन कहता है, आनन्द की खोज में तू कहाँ भटक रहा है ? वह सुख, वह स्वर्ग और वह मुक्ति, जिसकी खोज में तू बाहर भटक रहा है, वह बाहर नहीं, तेरे अन्दर ही है, किन्तु तुझे उसका परिज्ञान नहीं है। अपनी शक्ति और अपनी सत्ता का वास्तविक परिबोध न होने के कारण ही यह संसारी आत्मा बाह्य पदार्थों से सुख प्राप्त करने की अभिलापा करता है। यह तो वही स्थिति है, जैसे किसी दरिद्र के घर के कोने में चिन्तामणि रत्न पड़ा हो, जिसमें दरिद्रता को चकनाचूर करने की अपार शक्ति एवं सामर्थ्य है, किन्तु उसकी शक्ति एवं सत्ता का यथार्थ परिबोध न होने के कारण ही वह दरिद्र, जीवन भर दरिद्र बना रहता है। इस देह रूप घर में चिन्तामणि रत्न रूप आत्मा छपा हुआ है, जो सुख और आनन्द का अक्षय निधि है एवं अपार महासागर है । परन्तु उसकी शक्ति और सत्ता का वास्तविक परिज्ञान न होने के कारण ही मनुष्य बाहर के तुच्छ पदार्थों में तुच्छ सुख की अभिलाषा करता है । क्षीर महासागर में रहने वाला और रात दिन किलोल करने वाला मच्छ यदि तृषाकुल रहता है, तो यह उसका परम दुर्भाग्य ही है। जिस क्षीर सागर के
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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २६६ एक बिन्दु में भी भयंकर से भयंकर तृषा के दाह को शान्त करने का अपार सामर्थ्य है, उसमें रह कर भी अगर कोई प्यासा रहता है, तो इसमें क्षीरसागर का क्या दोष है ? वसन्त-समय आने पर, जब कि प्रकृति के कण कण में आमोद और प्रमोद परिव्याप्त हो जाता है, और जब वनस्पति-जगत के कण-कण में नव जीवन, नव जागरण और नव स्फूर्ति अंगड़ाई लेने लगती है, तथा जब प्रकृति-सुन्दरी नवकिसलय
और नव पुष्पों का परिधान पहन कर हजारों हजार रूपों में अभिव्यक्त होती है, यदि समद्धि के उस काल में भी करील वृक्ष पर नवकिसलय नहीं आते, तो इसमें वसन्त का दोष ही क्या? अनन्त आनन्द
और असीमित सुख के आधारभूत आत्म-तत्व को पाकर भी, जिसका मिथ्यात्व दूर न हो सका और जिसका अज्ञान दूर न हो सका, तथा जिसमें स्वयं जागरण की बुद्धि नहीं है, उस मोह-मुग्ध आत्मा को कौन जगा सकता है ? मैं कह रहा था आपसे, कि आपको जो कुछ पाना है. उसे आप अपने अन्दर से ही प्राप्त कीजिए। बाहर की आशा मत कीजिए । बाहर की आशा की कभी पूर्ति नहीं हो सकेगी। जो कुछ बाहर का है, वह कभी स्थायी नहीं हो सकता। जो कुछ अपना है, वही शाश्वत होता है। तुम्हें जो कुछ चाहिए, वह अपने अन्दर से प्राप्त करो, अपने अन्तर का अनुसन्धान करो, वहाँ सब कुछ मिल सकेगा, सुख भी, आनन्द भी और शान्ति भी। - इस सम्बन्ध में मुझे भारतीय संस्कृति का एक अत्यन्त प्राचीन उपाख्यान स्मरण में आ रहा है, जिसमें भारत की आत्मा का यथार्थ दर्शन होता है और जिसमें भारतीय दर्शन और धर्म, वास्तविक रूप में प्रतिभासित और प्रतिबिम्बित हुआ है। वह उपाख्यान इस प्रकार है कि-एक था गरीब ब्राह्मण । वह अत्यन्त दरिद्र था और उसकी धनहीनता सदा उसे व्याकुल बनाए रहती थी। धन की अभिलाषा में उसने वह सब कुछ किया, जो कुछ उसे नहीं करना चाहिए था। फिर भी धन उसे अधिगत नहीं हो सका। धन की अभिलाषा में वह वर्षों तक पर्वत, नदी एवं जंगलों में घूमता फिरता रहा, किन्तु उसके भाग्य के द्वार नहीं खुले । एक दिन वृक्ष के नीचे वह हताश निराश और उदास बनकर शिला पर बैठा हुआ था, कि सहसा उसी विकट वन में साधना करने वाले एक योगी और सिद्ध का दर्शन हुआ । उसने उस योगी एवं सिद्ध पुरुष से कहा-"बहत वर्षों की साध आज पूरी हुई है। मुझे विश्वास है, कि आप जैसे सिद्धपुरुषों के दर्शन कभी
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२७० | अध्यात्म-प्रवचन निष्फल नहीं होते। आज मैं कृतकृत्य हो गया है और आज मेरा जीबन सफल हो गया है।" योगी ने दरिद्र ब्राह्मण की दुर्दशा को देख कर दयाभाव से पूछा-"आखिर, तुम चाहते क्या हो ?" "मंत्र, केवल धन प्राप्ति का मंत्र, अन्य कुछ नहीं"-दरिद्र ब्राह्मण ने कहा। योगी ने दयार्द्र होकर धनाभिलाषी ब्राह्मण से कहा-“लो, यह इन्द्र का मंत्र है । इन्द्र देवताओं का राजा है, इस मंत्र से वह प्रसन्न हो जाएगा और फिर जो तुम मांगोगे, वह तुम्हें दे देगा। किन्तु देखो, इस मंत्र का जप हिमगिरि की किसी एकान्त गुफा में जाकर करना।" ब्राह्मण तत्काल हिमगिरि की ओर चल पड़ा और वहाँ पहुँचकर अपनी साधना प्रारम्भ कर दी । वर्षानुवर्ष व्यतीत हो गए । बारह वर्ष के बाद उसके समक्ष इन्द्र प्रकट हुआ और बोला-“सौम्य, तुम्हें क्या चाहिए ? किस उद्देश्य से तुमने मेरी उपासना की है ?" ब्राह्मण, बहुत दिनों की साधना से बलहीन एवं कमजोर हो गया था, इन्द्र के आने पर उसने खड़े होने की कोशिश की और बोलने का प्रयत्न किया, किन्तु शरीर की अशक्ति के कारण न वह खड़ा हो सका, न वह बोल सका । इन्द्र ने फिर शान्त और मधुर स्वर से पूछा-“बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?" ब्राह्मण के मन में, बहुत दिनों से भूखा-प्यासा रहने के कारण, रोटी चक्कर काट रही थी। हड़बड़ा कर बोला-"मुझे और कुछ नहीं चाहिए, बस रोटी मिल जाए।" ब्राह्मण की इस बात को सुनकर इन्द्र ने मुस्कान के साथ कहा-"बस, इतनी सी बात के लिए मुझे बुलाया। बस, रोटी के एक टुकड़े के लिए तूने मुझे याद किया। जब तेरे अन्दर इतनी शक्ति है, कि तू स्वर्ग से मुझे यहाँ बुला सकता है; तो क्या तेरे अन्दर इतनी शक्ति नहीं है, कि तू अपनी भूख को मिटाने के लिए, अपनी रोटी का प्रश्न स्वयं हल कर सके ?" ___मैं समझता हूँ, आप सबको उक्त कहानी के ब्राह्मण की बुद्धि पर विस्मय हो रहा है । आप सब विचार करते हैं, कि यह भी कैसा पागल व्यक्ति है, जो रोटी के टुकड़े के लिए स्वर्ग से इन्द्र को बुलाता है, परन्तु मेरे विचार में इसमें कोई बिस्मय की बात नहीं है। जिन लोगों के बुद्धि के द्वार नहीं खुले हैं, वे लोग इसी प्रकार सोचा करते है । इससे भिन्न प्रकार से वे कुछ सोच ही नहीं सकते। और एक ब्राह्मण की क्या बाता संसार के हजारों, लाखों, करोड़ों मनुष्यों की यही स्थिति है और यही दशा है । जिनके मन और मस्तिष्क में सदा धन का रंगीन चित्र रहता है, वे उस ब्राह्मण से अधिक अन्य कुछ
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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २७१ सोच भी तो नहीं सकते। यह एक रूपक है, एक कथानक है, इसके मर्म को समझने का प्रयत्न कीजिए। वह प्रत्येक मनुष्य उस दरिद्र ब्राह्मण के समान है, जो अपने इस देह में रहने वाले आत्मारूपी इन्द्र से, जो अक्षय आनन्द एवं अक्षय शक्ति का स्वतन्त्र स्वामी है, केवल इन्द्रिय जन्य भोगों की आकांक्षा तथा माँग करता है। इस आत्मा में इतना ऐश्वर्य, इतनी विभूति और इतना प्रभाव है, कि इसके समक्ष एक इन्द्र तो क्या, कोटि-कोटि इन्द्र भी फीके पड़ जाते हैं । इस आत्मा को भुला कर, यदि मनुष्य इन्द्रियों के तुच्छ भोगों से ऊपर नहीं उठ सकता, तो यह उसके लिए एक बड़ी लज्जा की बात है। जो आत्मा इतना महान है और इतना विराट है, कि इन्द्र को भी स्वर्ग से नीचे उतार सकता है, क्या वह अपनी साधारण सी जीवन-समस्याओं का हल नहीं कर सकता? इस मनुष्य की आत्मा में इतनी विराट शक्ति है, कि उसके उपयोग एवं प्रयोग से रोटी के दो टुकड़े तो क्या, मुक्ति को भी प्राप्त किया जा सकता है। यदि हम उस अध्यात्म-शक्ति का सही-सही उपयोग करना सीख ले, तो फिर जीवन के सम्बन्ध में स्पष्ट और स्वस्थ दृष्टिकाण रखकर, हम अपने इस वर्तमान जीवन में ही दिव्य प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं। उस परम तत्व को जानकर हम सब कुछ को जान सकते हैं । इस शरीर को केवल शरीर ही मत समझिए, बल्कि इसे आत्मरूप भगवान का समवसरण ही समझिए, जिसमें शक्तिरूपेण जिनमुद्रा से आत्मदेव विराजमान है। जब तक अपने ही अन्दर उस आत्मदेव एवं जिन देव को पाने के लिए, प्रयास नहीं किया जाता, तब तक समस्या का समाधान नहीं हो सकता। आत्मा ही जिन है और जिन ही आत्मा है, उसे समझने का एक स्वस्थ दष्टिकोण अवश्य चाहिए। मैं आपसे कह चुका है, कि जीवन विष नहीं है, अमृत है, पर हम उसे अज्ञानवश विष समझकर पथ-भ्रान्त हो रहे हैं । अपनी अज्ञानता एवं अपनी अविद्या के कारण ही, हमने अमृत को भी विष समझ कर भयंकर भूल की है । भारत के अध्यात्मवादी दर्शन का दृष्टिकोण निन्ति है। उसका दृष्टिकोण स्पष्ट है। वह कहता है, कि आत्मा के प्रकाश में यह जीवन विष नहीं, अमृत ही है । जिसने आत्मा को जान लिया, उसके लिए इस संसार में कहीं पर भी विष नहीं है । उसके लिए सर्वत्र और सर्वदा अमृत का सागर ही लहराता रहता है । उसके जीवन के कण-कण में अमृत व्याप्त है।
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२७२ | अध्यात्म-प्रवचन
यह एक विचार का प्रश्न है, कि भगवान महावीर ने अथवा भारत के अध्यात्मवादी अन्य ऋषियों एवं मुनियों ने, अध्यात्म साधक के लिए कौन-सा मार्ग खोज निकाला है, जिस पर चलकर वह अपने अभीष्ट की सिद्धि प्राप्त कर सके ? इसके लिए भारत के महापुरुषों ने और ऋषियों ने केवल एक ही मार्ग बतलाया है, और वह मार्ग है - भेदविज्ञान का । जिस घट में भेद - विज्ञान का दीपक प्रज्वलित हो जाता है, फिर उस घट में अज्ञान और अविद्या का अन्धकार कैसे रह सकता है ? मैं पूछता हूँ-वह भेद-विज्ञान क्या है ? वह भेद - विज्ञान है, सम्यक् दर्शन । सम्यक् दर्शन की ज्योति प्रकट होने पर ही आत्मा आत्मा को समझ सकेगा । भारतवर्ष के तत्व-चिन्तकों ने अपने चिन्तन और अपने अनुभव से, मनुष्य को निरन्तर ही अपने स्वरूप का दर्शन कराया है । अपने स्वरूप का दर्शन कराना ही वस्तुतः सम्यक् दर्शन है । महापुरुषों ने अपनी दिव्य वाणी से हमें अपने अन्तर की शक्ति का परिचय करा दिया है । यदि मनुष्य को अपने स्वरूप का बोध करा दिया जाता है, तो फिर इससे बढ़कर उसके जीवन के लिए और दूसरा कौन वरदान होगा ? कुछ लोग सोचते और प्रश्न करते हैं, कि तीर्थंकर एवं अन्य महापुरुषों ने क्या किया है ? किस प्रकार की साधना की है ? उन्होंने शरीर से कौन-कौन सी क्रियाएँ की हैं ? कौन - सा आसन और प्राणायाम किया है ? कौन-सा त्याग किया ? कैसी तपस्या की ? परन्तु वे यह नही समझते कि शरीर की ये स्थूल क्रियाएँ तभी सार्थक हैं, जबकि इनके अन्तर में रहने वाली ज्योति का परिबोध हो जाए । विचार ज्योति के अभाव में यदि शरोर से काम लेने और काम करने की हो बात का महत्त्त होता, तो हजारों कीड़े-मकोड़े तथा पशु-पक्षी भी, अपने-अपने शरीर से तपन आदि की क्रियाएँ करते रहते हैं । परन्तु वे विवेक और आत्मिक विचार से काम नहीं लेते हैं । जिस क्रिया में विवेक की ज्योति नहीं रहती, केवल शरीर का ही माध्यम रहता है, उसका अपने आप में कुछ भी महत्त्व नहीं है । अध्यात्मवादी दर्शन में जीवन के सम्बन्ध में कहा गया हैकि देह - दृष्टि और देह-क्रिया की अपेक्षा से एक मनुष्य में और पशु
में कुछ भी अन्तर नहीं है । अतः आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को देखने एवं जानने के लिए, शरीर के केन्द्र से ऊपर उठने की आवश्यकता है । इसके लिए अन्तर में विवेक की ज्योति जगाना आवश्यक है विवेक की ज्योति के अभाव में मात्र शारीरिक क्रियाओं का मुल्य
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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन [ २७३ एक शून्य विन्दु से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता । जब इंसान के अन्दर में आत्मविज्ञान की निर्मल गंगा बहती है, तभी उसका जीवन पावन और पवित्र बनता है । मैं आपसे कह रहा था, कि मानसिक शक्ति का केन्द्र ही सबसे बड़ा केन्द्र है । बाह्य जगत को क्रियाओं का मूल मन के अन्दर रहता है । बाह्य दृश्य जगत का मूल अन्तर के अदृश्य जगत में रहता है। विचार करने पर आप इस सत्य को समझ सकेंगे, कि तीर्थंकर, गणधर और अन्य आचार्यों ने जीवन-विकास का जो पथ अध्यात्म-साधकों को बताया है, यही उनका महान उपकार है, जो कभी भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने हमारे जीवन के अज्ञान और अविद्या को दूर करने का उपाय बताया तथा आत्म-साक्षात्कार का मार्ग बताया, इससे अधिक सुन्दर और मधुर अन्य क्या वरदान हो सकता है ? उन महापुरुषों के द्वारा की जाने वाली मानव जाति की यह बहुत बड़ी सेवा है, कि उन्होंने हमें भोग के अन्धकार से निकाल कर योग के दिव्य आलोक में लाकर खड़ा कर दिया। उन्होंने हमें बतलाया, कि यह जीवन जो तुम्हें उपलब्ध हो चुका है, विष नहीं है। अमृत है । अमृत समझकर ही इसकी उपासना करो। यही दिव्यदृष्टि और यही दिव्य आलोक भारत के उन महापुरुषों की अपूर्व देन है। कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अन्धा है, वह कुछ देख नहीं पाता, इसलिए वह बड़ा हैरान और परेशान रहता है। इस स्थिति में उसके पास एक व्यक्ति आता है और कहता है, कि लो, यह धन की थैली मैं तुम्हें दान में देता हूँ, इसे पाकर तुम सुखी हो जाओगे, यह धन तुम्हारी समस्त जीवन-समस्याओं का समाधान कर सकेगा। एक दूसरा व्यक्ति आता है, और उस अन्धे से कहता है, कि लो, मैं तुम्हारी सेवा के लिए आ गया है, मैं सदा तुम्हारी सेवा करता रहेगा, जहाँ जाओगे, वहाँ, तुम्हारा हाथ पकड़ कर ले जाऊँगा। यह भी सेवा का एक प्रकार है । दूसरे व्यक्ति के पास धन तो नहीं है, किन्तु शरीर की सेवा अवश्य है। किन्तू एक तीसरा व्यक्ति आता है, जो एक वैद्य है या योगी है और वह उस अन्धे व्यक्ति को दृष्टि प्रदान कर देता है । वह अन्धा व्यक्ति दृष्टि को पाकर परम प्रसन्न होता है और वैद्य अथवा योगी के उपकार से अत्यन्त उपकृत हो जाता है। यद्यपि वैद्य ने अथवा योगी ने न उसे धन दिया, न शरीर से उसकी कोई सेवा की, किन्तु सब कुछ न करके भी उसने सब कुछ कर दिया। उस अन्धे को दृष्टि प्रदान करके उन्होंने एक ऐसी शक्ति दे दी, कि अब उसे न किसी के धन की
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२७४ | अध्यात्म प्रवचन
आवश्यकता रहती है और न किसी अन्य व्यक्ति की सेवा की ही आवश्यकता रहती है । दृष्टि के अभाव में ही धन और सेवा उसके सूख के साधन हो सकते थे, किन्तु दृष्टि मिल जाने पर तो वह स्वयं ही उन्हें प्राप्त कर सकता है, फिर उसे किसी के आगे हाथ फैला कर भीख मांगने की आवश्यकता नहीं रहती। तीर्थंकर और गणधर उस दृष्टि दाता के समान ही हैं, जो मोहमुग्ध संसारी आत्माओं को सम्यक् दर्शन रूप दिव्य दृष्टि प्रदान करके, उसे आत्म-निर्भर बना देते हैं। ___ कहा जाता है, कि पीटर एक बहुत दयालु व्यक्ति था। एक बार एक दीन-हीन भिखारी, जो कि पैर से लँगड़ा था, पीटर के पास आया, और गिड़गिड़ा कर भीख मांगने लगा। पीटर ने उस भिखारी से मधुर स्वर में कहा-"मेरे पास तुम्हें देने के लिए, सोने और चाँदी के सिक्के तो नहीं हैं, पर मैं तुम्हें एक चीज अवश्य दे सकता हूँ।" और पीटर ने आगे बढ़कर उस लँगड़े भिखारी का पैर ठीक कर दिया, और कहा, भाग जाओ। वह भिखारी जो लँगड़ाता-लँगड़ाता आया था, अब सरपट दौड़ता चला गया। यह एक छोटी सी घटना है। इसमें शाब्दिक तथ्य कितना है, इसकी अपेक्षा यह समझने का प्रयत्न कीजिए, कि इसका मर्म क्या है ? पीटर ने उस दीन भिखारी को जो कुछ दिया, उससे अधिक दान और सेवा क्या हो सकती थी ? यह एक सत्य है, कि सोना और चाँदी देने की अपेक्षा, यदि किसी व्यक्ति को स्वयं उसके पैरों पर खड़े होने की कला सिखा दी जाए, तो यह उसकी सबसे बड़ी सेवा होगी। अध्यात्मवादी भारत के दर्शन और चिन्तन ने भले ही संसार को धन और ऐश्वर्य न दिया हो, परन्तु उसने लंगड़ों को पैर और अन्धों को आँख अवश्य दी हैं, तथा जो भोगवादी व्यक्ति अपने स्वरूप को भूल गए थे, उन्हें उनके स्वरूप का बोध अवश्य कराया है। साधक की प्रसुप्त शक्ति को जागृत करने का दिव्य संदेश उसने अवश्य दिया है। ___ साधक के जीवन की एक सबसे बड़ी भूल यह है, कि वह अपना विकास स्वयं अपने पुरुषार्थ पर न करके, किसी बाहरी शक्ति के अवलम्बन की आशा रखता है। वह इस तथ्य को भूल जाता है, कि जो कुछ पाना है, अपने अन्दर से ही पाना है। आत्मा जैसा भी शुभ या अशुभ कर्म करता है, वैसा ही उसका जीवन परिवर्तित होता जाता है । आत्मा की एक सबसे बड़ी भूल यह है, कि वह शुद्ध का दर्शन न
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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २७५ करके, अशुद्ध की ओर अधिक झुकता है। जितना ध्यान दोष देखने की ओर होता है, उतना गुण देखने का नहीं होता। जब तक अशुद्ध से पराङ मुख होकर शुद्ध को देखने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होगी, तब तक जीवन के शुद्ध तत्व को कैसे प्राप्त किया जा सकेगा? साधक के जीवन का लक्ष्य अशुभ से हटकर केवल शुभ को प्राप्त करके बैठ जाना नहीं है, किन्तु उससे भी आगे बढ़कर शुद्ध को प्राप्त करना है। परन्तु जब तक शुद्ध भाव की उपलब्धि न हो, तब तक शुभ को पकड़े रखना भी आवश्यक है । अशुभ की निवृत्ति के लिए ही शुभ का अवलम्बन है । अस्तु, जीवन की प्रत्येक क्रिया में शुभत्व का दर्शन करना चाहिए। हम अपने नेत्रों से शुभ को देखें, हम अपने कानों से शुभ को सुनें, हम अपनी वाणी से शुभ को बोलें और हम अपने मन में शुभ का ही चिन्तन करें। हमें शुभत्व के दर्शन का इतना अभ्यास कर लेना चाहिए, कि बाहर में जो सबके लिए अशुभत्व हो, उसमें भी हमें शुभत्व का ही दर्शन हो। यदि अशुभ देखने की ही हमारी आदत बनी रही तो यह निश्चित है, कि हमारे जीवन का विकास नहीं हो सकेगा। साधक-जीवन की यह कितनी भयंकर विडम्बना है, कि वह सर्वत्र अशभ ही अशुभ देखता है। जब मन में अशुभत्व होता है, तो बाहर भी सर्वत्र अशुभत्व ही दृष्टिगोचर होता है। यहाँ तक कि जहां प्रेम, सेवा और सद्भावना का दीप जलता रहता है, वहाँ भी उसे अशुभ एवं अन्धकार ही नजर आता है। इसका कारण यह है, कि हमारी दृष्टि अशुभ देखने की बन जाती है। इसी से जीवन की जाज्वल्यमान ज्योति वहाँ भी नजर नहीं आती। जब हम किसी विचारक व्यक्तिविशेष की अथवा किसी पंथ-विशेष की ओर देखते हैं, तब हमें उसमें दोष ही दोष नजर आते हैं, कहीं पर भी गुण नजर नहीं आता । जिन लोगों की दृष्टि दोषमय बन जाती है, उन लोगों के लिए यह सारी सुष्टि ही दोषमय बन जाती है। गुलाब का फूल कितना सुन्दर होता है, उसमें कितनी अच्छी महक आती है और देखने में वह कितना लुभावना लगता है, किन्तु जिस व्यक्ति को दृष्टि दोष देखने को हो जाती है, वह इस सुन्दर और सुरभित कुसुम में भी दोष ही देखता है । वह देखता है, कि गुलाब का फूल नुकीले काँटों की डाली पर बैठा है, उसके इधर-उधर उसे कांटे ही काँटे नजर आते हैं। परन्तु वह यह नहीं सोचता कि यदि गुलाब की डाल काँटों से भरी है, तो उसमें सुगन्ध से भरपूर फूल भी खिला है। हमारी दृष्टि फूलों पर नहीं,
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२७६ | अध्यात्म प्रवचन
बल्कि काँटों पर रहती है। जीवन में यदि हमारी दृष्टि इस प्रकार की बन जाती है, तो फिर जीवन क्षेत्र में हम कहीं भी चले जाएं, या विश्व के किसी भी किनारे पर क्यों न चले जाएँ, हमें सर्वत्र अशुभ ही दृष्टिगोचर होगा ।
इस सम्बन्ध में मुझे एक रूपक याद आ रहा है, जो काल्पनिक होकर भी सत्य का उद्घाटन करता है । एक बार एक कौआ बड़ी तेजी के साथ नील आकाश में उड़ा चला जा रहा था । एक कोयल ने, जो आम के वृक्ष की सबसे ऊँची डाली पर बैठी हुई थी, इस दृश्य को देखा और कौवे से पूछा - "आज आप इतनी तेजी के साथ कहाँ जा रहे हो ?" कौवे ने उपालम्भ के स्वर में कहा - "तुम्हें क्या बतलाऊँ, कहाँ जा रहा हूँ ? जिसके दिल में दर्द होता है, वही उसकी पीड़ा को अनुभव कर सकता है । तुम मेरे दिल के दर्द को और मेरी पीड़ा को कैसे अनुभव कर सकती हो । " कोयल ने सान्त्वना के स्वर में पूछा - " आखिर बात क्या है ? आपके दिल का दर्द कैसा है, जरा मैं भी तो सुनूं । यह ठीक है जब तक किसी के दिल के दर्द का किसी को पता न हो, तब तक उसकी पीड़ा का वह अनुभव नहीं कर सकता। मैं यह जानना चाहती है, कि आपके दिल का दर्द क्या है और कैसा है ?" कौवे ने कहा - "देखिए, मुझे खाने-पीने की चीज की कमी नहीं है, किन्तु जीवन में खाना-पीना ही तो सब कुछ नहीं है । खाने-पीने से भी बड़ी एक चीज है, जिसकी प्रत्येक प्राणी को आवश्यकता रहती है और वह है, उसका आदर और सत्कार । मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ मेरा कोई आदर सत्कार नहीं करता है । इसलिए मैं इस देश को छोड़कर दूर के किसी देश में जा रहा हूँ, जहाँ आदर और सत्कार मिले । आज मेरे धैर्य का बाँध टूट गया है । मैं इस देश में जहाँ भी जाता हूँ, वहाँ सर्वत्र कदम-कदम पर मुझे तिरस्कार और पत्थर ही मिलते हैं । आदर और सत्कार की कोई वस्तु मेरे जीवन में नहीं है । इस देश का एक भी प्राणी, मुझसे प्रेम नहीं करता । यही मेरे दिल का दर्द है । और इसी दिल के दर्द को दूर करने के लिए, मैं इस देश को छोड़कर किसी दूर देश में जा रहा हूँ । भले ही वहाँ खाने-पीने को कम मिले, परन्तु आदरसत्कार तो अवश्य ही मिलेगा ।" कोयल ने कौवे की सब बातों को बड़ी सहानुभूति के साथ सुना, और बहुत ही संयत एवं शान्त स्वर में बोली - " यदि आप बुरा न मानें, तो एक सत्य कह दूँ ?" कौवे ने
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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २७७
कहा - "हाँ, अवश्य कहो, मैं तुम्हारी बात को धैर्य के साथ सुनूंगा ।" कोयल ने अपने को सम्भालते हुए कहा - " आप इस देश को छोड़ कर किसी दूर विदेश में जा रहे हैं, किन्तु जरा अपनी बोली बदल कर जाना ।" कौवे ने कहा - " क्या मतलब है तुम्हारा ? क्या बोली बदलना मेरे हाथ की बात है ।" कोयल ने व्यंग के स्वर में कहा"यदि बोली बदलना तुम्हारे हाथ की बात नहीं है, तो विदेश में जाकर सत्कार पाना भी तुम्हारे हाथ की बात नहीं है ।" कोयल ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - " यदि सुदूर विदेश में जाकर भी तुम्हारी यही कटु-कठोर वाणी रही, तुम्हारा यही कुवचन रहा तथा बोलने का यही ढंग रहा, तो वहाँ पर ही तुम्हें तिरस्कार ही मिलेगा । जो व्यक्ति बाहर भी काला हो और अन्दर भी काला हो, उसे कहीं पर भी सुख चैन नहीं मिल सकता । बाहर का कालापन तो प्रकृतिदत्त है, किन्तु अपनी बोली को तो बदलो और अपने अन्दर के कालेपन को तो उज्ज्वल बना लो, फिर तुम्हें विदेश जाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी, इसी देश में तुम्हारा आदर और सत्कार होने लगेगा। देखते हो मुझे, मैं भी तो बाहर से तुम्हारे समान ही काली हूँ । किन्तु मेरा स्वर मधुर है, इसी आधार पर लोग मेरा सत्कार करते हैं ।" कोयल की बात कौवे के गले नहीं उतरी, और वह उड़ता ही चला गया । परन्तु निश्चय ही जीवन का एक यह बहुत बड़ा सिद्धान्त है कि जीवन में जब तक मन और दृष्टि नहीं बदलती, अशुभ दर्शन की वृत्ति नहीं बदलती, तब तक इस प्रकार के कौवों का कहीं पर भी आदर और सत्कार नहीं हो सकता । बाहर का रूप तो प्रारब्ध की वस्तु है, उसे बदला नहीं जा सकता, किन्तु अन्दर के रूप को बदलना तो इन्सान के अपने हाथ की बात है । बाहर की गरीबी और बाहर की अमीरी, बाहर की झोंपड़ी और बाहर के रंगीन महल प्रारब्ध से मिले है । सम्भवतः यह बदले भी जा सकते हों और नहीं भी बदले जा सकते हों, परन्तु अन्दर का मन तो बदलना ही पड़ेगा । कौवे को अपनी बोली का स्वर बदलना ही होगा । परन्तु सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि जब तक विचार में शुभ दर्शन नहीं आता, तब तक कुछ नहीं हो सकता । जो व्यक्ति अपने मन में अशुभ संकल्प रखता है, उसकी वाणी में और उसके आचरण में शुभ कैसे आ सकेगा ? जो व्यक्ति अपने आपको अपने मन में पापात्मा समझता है,
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२७८ | अध्यात्म-प्रवचन
और अपने पापिष्ठ होने का विश्वास करता है, उसका उद्धार कैसे हो सकता है और कौन कर सकता है ? जो व्यक्ति बाहर में तथा अन्दर में सर्वत्र अशुभ का ही दर्शन करते हैं, उन्हें सम्यक् दर्शन की दिव्य ज्योति की उपलब्धि कभी नहीं हो सकती । भारत का अध्यात्मवादी दर्शन कहता है, कि जब अन्तर का दर्शन करो, तब अन्तर में रावण का दर्शन मत करो, राम का करो । यदि अन्दर घट में झांक कर देखने में परमात्मा की ज्योति जगमगाती नजर आए, तो समझना कि 'सम्यक् दर्शन मिल गया है और मुक्ति का द्वार खुल गया है । इसके विपरीत यदि अन्दर में भी तुम विलाप ही करते हो, दुःख और क्लेश के काले कजरारे बादल ही तुम्हारे हृदयाकाश में उमड़-घुमड़ कर छा रहे हों और वहाँ अहंकार को घोर गर्जना हो रही हो, तथा वासना की बिजली चमक रही हो, तो समझ लेना, तुम्हारा उद्धार नहीं हो सकेगा । विश्वास रखिए, और ध्यान में रखिए कि अविश्वासी क्रूर आत्मा को कभी सम्यक् दर्शन की दिव्य ज्योति मिल नहीं सकती । अतः अन्दर में शुभ दर्शन का अभ्यास करो और जब शुभ से शुद्ध की परिणति हो जाएगी, तब तुम्हें अपने घट के अन्दर ही परमात्म-ज्योति का साक्षात्कार हो जाएगा । सम्यक् दर्शन आत्मा में स्वरूप की ज्योति का दर्शन कराता है, तथा आत्मा को जागृत करके अन्धकार से प्रकाश में लाता है । निश्चय ही यदि जीवन में सम्यक् दर्शन की ज्योति जग गई तो फिर कभी न कभी, यह आत्मा परमात्मा बन सकता है, यह जीव ब्रह्म बन सकता है। जैसे अपने से fra किसी दूसरी आत्मा को नीचे समझना पाप है, उसी प्रकार अपनी स्वयं की आत्मा को भी नीच समझना पाप है, अतएव साधक को चाहिए कि वह न कभी दूसरे के अन्दर रावण को देखे और न अपने स्वयं के अन्दर ही रावण का दर्शन करे। अपने में और दूसरों में सदा सर्वदा राम के ही दर्शन करना चाहिए । यही सम्यक् दर्शन है । सम्यक् दर्शन में अपने अन्दर और बाहर में सर्वत्र विराट चैतन्य शक्ति का ही महा सागर लहराता दृष्टिगोचर होता है, यही हमारी साधना का एकमात्र ध्येय है ।
भारत का अध्यात्मवादी दर्शन एक महत्वपूर्ण बात कहता है, कि भगवान कहीं अन्यत्र नहीं है । हर चैतन्य भगवान का रूप है । अतः अपने अन्दर एवं दूसरों के अन्दर भगवान का दर्शन करो और इसका ध्यान रखो, कि इस देह के अन्दर रहने वाले भगवान का कहीं
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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २७६ अनादर न हो जाए । शरीर एक मन्दिर है, जिसके अन्दर आत्मरूप से परमात्मा का ही निवास है, अतः किसी भी प्रकार से आत्मा का अपमान नहीं होना चाहिए । आत्मा का अपमान, चेतन का अपमान है और चेतन का अपमान स्वयं परमात्मा का अपमान है। भारत की मूल संस्कृति में जड़ की पूजा का नहीं, चेतन की पूजा का अधिक महत्व है, साकार की पूजा का नहीं, निराकार की पूजा का अधिक महत्व है । जो संस्कृति यह मानकर चलती है, कि घट-घट में मेरा साँई रहता है, कोई भी सेज साँई से शुन्य नहीं है, उससे बढ़कर दूसरी और कौन ऊँची संस्कृति है। इस सम्बन्ध में दक्षिण भारत के प्रसिद्ध सन्त नामदेव के जीवन की एक घटना का स्मरण आ रहा है। नामदेव भारत का वह एक भक्त है, जिसकी गणना भारत के प्रसिद्ध सन्तों में की जाती है। नामदेव यद्यपि बहुत पढ़े लिखे न थे। जिसे आज की भाषा में शिक्षा कहा जाता है, वह किताबी शिक्षा नामदेव के पास नहीं थी, परन्तु जो तत्वज्ञान सम्भवतः उस युग के बड़े-बड़े विद्वानों में नहीं था, वह ज्ञान नामदेव के पास था । वेद, उपनिषद् और गीता सम्भवतः नामदेव ने न पढ़ी हों, किन्तु उनका समस्त ज्ञान नामदेव के जीवन में रम चुका था । नामदेव में सम्भवतः वेदान्त का ज्वार नहीं था, किन्तु नामदेव के जीवन में आत्मा का ज्वार और आत्मा की आवाज की बुलन्दी इतनी जोरदार थी, कि वह उनके समकालीन किसी अन्य वैष्णव विद्वान में नहीं थी। भक्ति-शास्त्र के अनुसार भक्त वह कहलाता है, जो सदा प्रभु की भक्ति में लीन रहता हो, इतना ही नहीं; सृष्टि के प्रत्येक चेतन में प्रभु का ही रूप देखता हो । भक्त को सत्य का दर्शन इस प्रकार होना चाहिए, जैसा कि नामदेव का था । नामदेव वास्तविक अर्थ में प्रभु के भक्त थे । ___ नामदेव के जीवन की वह घटना, जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया है, इस प्रकार है-एक बार नामदेव को कहीं से भोजन की सामग्री मिली, यद्यपि यह भोजन की सामग्री उन्हें बहुत दिनों के बाद उपलब्ध हुई थी। भूख अधिक थी और भोजन-सामग्री अल्प थी, परन्तु फिर भी नामदेव को उसी में सन्तोष था। सन्तोष से बढ़ कर इस संसार में अन्य कोई धर्म नहीं हो सकता, और यह सन्तोष नामदेव के जीवन के कण-कण में रम चुका था । उस उपलब्ध भोजन सामग्री से नामदेव ने दो-चार रोटियां बना लीं। रोटियां बनाने के
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२८० | अध्यात्म प्रवचन बाद नामदेव ने सोचा, जिस सज्जन ने मुझे इस भोजन की सामग्री दी है, उसने कुछ थोड़ा सा घी भी मुझे दिया है, उसका उपयोग भी मुझे कर लेना चाहिए। इधर नामदेव के मन में एक दूसरा पवित्र विचार भी चक्कर काट रहा था, कि इस शुभ वेला में कोई भी अतिथि आए तो क्या ही अच्छा हो ! मैं पहले उसे भोजन करा कर फिर स्वयं भोजन करू । भोजन के समय किसी अतिथि का स्मरण करना, भारतीय संस्कृति की अपनी एक विशेषता है। और यह विशेषता ऊँची भूमिका के सन्तों में भी है, मध्यम भूमिका के नागरिकों में भी है तथा नीची भूमिका के किसानों में भी हैं। अतिथिसत्कार भारतीय जीवन के कण-कण में परिव्याप्त है। जैन-संस्कृति में इस अतिथि-सत्कार का एक विशिष्ट रूप है, जिसे 'अतिथि संविभाग व्रत' कहा गया है। अतिथि-संविभाग का अर्थ है-भोजन की वेला में जो कुछ, जैसा भी और जितना भी तुम्हें प्राप्त हुआ है, उसमें सन्तोष कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि भोजन से पूर्व अपने मन में यह भावना करो, कि मेरे जीवन का वह क्षण कितना धन्य हो, जबकि भोजन के समय कोई अतिथि मेरे यहाँ उपस्थित हो, और इस प्राप्त भोजन में से मैं उसका संविभाग उसे अर्पित करूं। संविभाग अर्थात् सम-विभाग का अर्थ, किसी को भीख देना नहीं है, बल्कि आदर के साथ उचित रूप में और उचित मात्रा में अर्पित करना है। नामदेव के जीवन में, जिसकी चर्चा मैं आपसे यहाँ कर रहा हूँ, यही संस्कृति काम कर रही थी। नामदेव ज्यों ही अपनी झोंपड़ी के अन्दर रखे हुए घी को लेने गया, त्यों ही बाहर से एक कुत्ता अन्दर आया और वह सबकी सब रोटियाँ लेकर भागा। नामदेव ने इस प्रकार कुत्ते को रोटो ले जाते हुए देखा, परन्तु अजबगजब की बात है, कि इस दृश्य को देखकर भी नामदेव को जरा भी क्रोध नहीं आया और न किसी प्रकार का दुःख ही हुआ। यद्यपि वे बहुत दिनों से भूखे थे और स्वयं उन्हें ही रोटियों की अत्यन्त आवश्यकता थी, किन्तु उन्होंने अपने मन की गहराई में यही सोचा कि यह कुत्ता कुत्ता नहीं है, यह कुत्ता भी भगवान का ही एक रूप है। नामदेव की दृष्टि में वह कुत्ता नहीं था, उनकी दृष्टि में हर आत्मा परमात्मा का ही रूप था। वे उस घी के पात्र को हाथ में लेकर कुत्ते के पीछे-पीछे दौड़े । कुत्ता आगे-आगे भागा जा रहा था और पीछे
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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २८१ पीछे नामदेव दौड़े चले जा रहे थे। नामदेव बहुत ही शान्त और मधुर स्वर में उस कुत्ते को सम्बोधित करके कह रहे थे-"अरे भाई ! रोटी ले जा रहे हो, तो ले जाओ, इसकी मुझे जरा भी चिन्ता नहीं है । परन्तु रोटियाँ रूखी हैं, उन पर जरा घी तो लगवा लो।" इस दृश्य को देखकर दूसरे लोग हंस रहे थे और नामदेव का मजाक कर रहे थे।
किसी अन्य की भक्ति का मजाक करना आसान है, किन्तु स्वयं भक्ति करना आसान नहीं है। भक्ति वही कर सकता है, जिसने अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर दिया हो। लोग कहते हैं, चन्दना ने भगवान को दान तो दिया, किन्तु वह दान क्या था, उबले हुए उड़द । भगवान महावीर को चन्दना ने उबले हुए उड़दों का दान किया, तो क्या यह कोई बहुत बड़ा दान था ? किर भी हम सुनते हैं, कि चन्दना के इस दान के महात्म्य से प्रभावित होकर, चन्दना के घर पर स्वर्ग के देवों ने, स्वर्ण की दृष्टि की। कहाँ स्वर्ण की वृष्टि और कहाँ तुच्छ उबले हुए उड़दों का दान ? परन्तु मैं आपसे यह कहता हूँ कि चन्दना ने भगवान महावीर को क्या दिया, यह मत देखो। देखना यह है, कि किस भाव से दिया। दान में वस्तु का मूल्य नहीं होता, भाव का ही मूल्य होता है । चन्दना को सी भावना हर किसी दाता में कहाँ होती है ? चन्दना की भावना का वेग उस समय अपने आराध्य देव के प्रति इतना प्रबल था, कि यदि उस समय उसके पास त्रिभुवन का विशाल साम्राज्य होता, तो उसे भी वह उसी भाव से अर्पित कर देती, जिस भावना से उसने उड़दों का दान किया। आज के तर्कशील लोग चन्दना के दान का उपहास करते हैं, उपहास करना सरल है, किन्तु जरा वह अपने हृदय को टटोल कर देखें, क्या उनके हृदय में वह भावना है, जो अपने आराध्य देव के प्रति चन्दना में थी। आराधक जब अपने आराध्य के चिन्तन में तन्मय हो जाता है, तब उसे यह भी पता नहीं रहता कि मैं अपने आराध्य को क्या कुछ दे रहा है । भक्त के हृदय में भक्ति का एक वह जादू होता है, जिसके प्रभाव से विश्व की तुच्छ से तुच्छ एवं नगण्य से नगण्य वस्तु भी महान और विराट बन जाती है। माधुर्य किसी वस्तु में नहीं होता, बल्कि मनुष्य की भावना में ही वह रहता है। अपने घर पर आने वाले किसी अतिथि को आप मधुर से मधुर भोजन कराएं और साथ में उसका तिरस्कार भी करते रहें, तो वह मधुर भोजन भी विष बन जाता है। इसके
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२८२ | अध्यात्म प्रवचन विपरीत यदि आप किसी को रूखा-सूखा भोजन परोसते हैं, किन्तु आदर के साथ एवं प्रेम के साथ देते हैं, तो वह भोजन भी सरस एवं मधुर प्रतीत होता है। राम को भीलनी के जूठे बेर खाने में जो आनन्द आया, वह अयोध्या के राज महलों के मोहनभोग में नहीं आया। श्रीकृष्ण को जो आनन्द, जो स्वाद और जो माधुर्य, विदुर के घर केले के छिलके खाने में आया, वह दुर्योधन के छत्तीस प्रकार के राजभोग में नहीं आया । मैं आपसे कह रहा था, कि माधुर्य किसी वस्तु में नहीं रहता, वह मनुष्य के मन की भावना में रहता है । यही कारण है, कि चन्दना के उबले हुए उड़दों में जो शक्ति एवं जो प्रभाव था, वह किसी राजा-महाराजा के खीर-खाँड़ के भोजन में भी नहीं था। ___ मैं आपसे नामदेव की बात कह रहा था । नामदेव की भक्ति को देख कर, देखने वाले लोग उसका उपहास कर रहे थे और कह रहे थे, कि यह कैसा पागल है ? एक तो कुत्ता रोटी लेकर भागा और दूसरी ओर यह घी का पात्र लेकर उसके पीछे दौड रहा है। किन्तु लोग नामदेव के मन की बात को क्या जाने ? नामदेव कुत्ते को कुत्ता नहीं समझ रहा था, वह तो उसे भगवान ही समझ रहा था । कुत्ते को भगवान समझना कुछ अटपटा सा अवश्य लगता है, किन्तु अन्दर गहराई में पैठकर देखा जाए, तो वस्तुतः विश्व की हर आत्मा परमात्मा ही है । नामदेव इसी भावना को लेकर कुत्ते के पीछे दौड़ रहा था। जो तत्व-ज्ञान नामदेव के पास था, वह उसका मजाक उड़ाने वाले अन्य वेदान्तियों के पास कहाँ था ? वेदान्त का अध्ययन कर लेना अलग वस्तु है और वेदान्त की भावना को अपने जीवन के धरातल पर प्रयुक्त करना अलग बात है। आत्मा-परमात्मा की चर्चा करना आसान है, किन्तु हर आत्मा को परमात्मा समझना आसान नहीं है। जिस व्यक्ति के जीवन में तत्वज्ञान साकार हो जाता है, वह व्यक्ति ही वैसा कर सकता है, जैसा कि नामदेव ने किया, जैसा कि चन्दन बाला ने किया, जैसा कि विदुर ने किया और जैसा कि एक भोलनी ने किया । तत्व-ज्ञान यदि आचार का रूप नहीं लेता, तो वह व्यर्थ है और बुद्धि का केवल एक बोझ ही है। __ मैं आपसे यह चर्चा कर रहा था, कि एक साधक के जीवन में अमृत क्या है और विष क्या है ? संसार का एक साधारण व्यक्ति जिस को अमृत समझता है, ज्ञानी की दृष्टि में वह विष क्यों है ? इसके
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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २८३ विपरीत एक तत्व-दर्शी व्यक्ति की दृष्टि में जो विष है, वह एक संसारी आत्मा की दृष्टि में अमृत क्यों है? यह सब दृष्टि का खेल है। संसारी आत्मा भोगों में आसक्त होने के कारण, भोगों को ही अमृत समझता है, परन्तु विवेक-दृष्टि की उपलब्धि हो जाने पर वही व्यक्ति उन्हें विष समझने लगता है । आखिर वह विवेक-दृष्टि क्या है ? वह विवेकदृष्टि अन्य कुछ नहीं, सम्यक् दर्शन ही है, जिसके प्रभाव से विरक्त आत्मा को संसारी भोग विष-तुल्य प्रतीत होने लगते हैं। मैं आपसे कह रहा था, कि भारत का अध्यात्मवादी चिन्तन और भारत का अनुभवमूलक वैराग्य प्रत्येक जीवन को अमृत ही समझता है और अमृत रूप में ही देखता है। वह अपने अन्दर तो अनन्त ज्योतिपुंज एवं अनन्त शक्तिमान परमात्मा के दर्शन करता ही है, किन्तु दूसरों के जीवन में भी वह उसी विराट और विशाल सत्ता का दर्शन करता है। भारत का अध्यात्मवादी साधक किसी को कष्ट या पीड़ा देने में स्वयं ही कष्ट और पीड़ा का अनुभव करता है। इसका अर्थ इतना ही है, कि अहिंसा रूप परब्रह्म सभी में परिव्याप्त है। इसी आधार पर एक का सुख, सबका सुख है और एक का दुःख, सबका दुःख है। अध्यात्म-साधना के क्षेत्र की यह भावना इतनी उज्ज्वल एवं उदात्त है, कि नीची भूमिका के लोग इसका अनुभव नहीं कर सकते । आप किसी को भी दान दीजिए, आप किसी की भी सेवा कीजिए, किन्तु उसे दीन-हीन समझकर नहीं, बल्कि यह समझकर कीजिए कि यह भी भी मेरे जैसा एक चेतन है । भारतीय संस्कृति इससे भी ऊँचे आदर्श में विश्वास रखती है। वह कहती है कि--सेवा करते समय यह भाव रहना चाहिए, कि हम किसी तुच्छ व्यक्ति की नहीं, अपितु एक प्रभु की सेवा कर रहे हैं । यदि दान देने में माधुर्य नहीं है, यदि सेवा करने में माधुर्य नहीं है, तो वह दान और सेवा अमृत होकर भी विष ही है।
भारत का अध्यात्मवादी दर्शन कहता है, कि जो भी कुछ करो, माधुर्य के साथ करो, भावना के साथ करो । दान करो, तो भावपूर्वक करो। शील का पालन करो, तो भावपूर्वक पालन करो। तप करो, तो भावपूर्वक करो । भावना के अभाव में दान, शील और तप अमृत होकर भी विष हैं। भारत की अध्यात्म-साधना विष की साधना नहीं, अमृत की साधना है। भारत का अध्यात्मवादी चिन्तन स्पष्ट रूप से यह कहता है, कि सब में शुभ का ही दर्शन करो, किसी में अशुभ का
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२८४ | अध्यात्म-प्रवचन दर्शन मत करो । अशुभ का दर्शन विष है और शुभ का दर्शन अमृत है। यदि किसी की आलोचना करनी हो, तो स्नेह और सद्भाव के साथ उसकी आत्मा को जगाने के लिए आलोचना करो, उसकी आत्मा को और अधिक गिराने के लिए नहीं । आपकी आलोचना और टीका, फूल के समान सुरभित हो, काँटे के समान तीखी और नुकीली नहीं। किसी भी व्यक्ति की, किसी भी जाति की और किसी भी पंथ की आलो. चना, उसे गिराने के लिए मत करो, क्योंकि किसी को गिराना विष है, अमृत नहीं । आपकी आलोचना का उद्देश्य यह होना चाहिए, कि व्यक्ति अन्धकार से प्रकाश में आए। आलोचना करो, चाहे टीका करो, किन्तु एक बात को सदा ध्यान में रखो, कि हर आत्मा वही चाहता है, जो तुम अपने लिए पसन्द करते हो। यदि तुम्हें किसी की कटु आलोचना पसन्द नहीं है, तो दूसरे को भी तुम्हारी कटु आलो. चना पसन्द कैसे हो सकती है ? प्रत्येक आत्मा की शुभता एवं शुद्धता को देखो, उसकी अशुभता एवं अशुद्धता की ओर मत देखो, और यदि देखना ही हो तो हित-दृष्टि से देखो एवं विवेक-दृष्टि से देखो । क्योंकि विवेक ही अमृत है, विवेक ही सम्यक् दर्शन है । इस सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाने पर सब कुछ अमृत हो जाता है। विष रहता ही
नहीं।
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जैन-दर्शन का मूल :
सम्यक् दर्शन
सम्यक् वर्शन की व्याख्या और सम्यक् दर्शन को परिभाषा कर सकना, सरल नहीं है। वस्तुतः सम्यक् दर्शन शब्द-स्पर्शी व्याख्या एवं परिभाषा का विषय नहीं है, यह तो मात्र अनुभूति का विषय है । अध्यात्मवादी दर्शन जीवन के दो आधार मानकर चलता हैचिन्तन के साथ अनुभव और अनुभव के साथ चिन्तन । प्रश्न है, कि चिन्तन किसका किया जाए और अनुभव किसका किया जाए ? मेरे विचार में भारतीय दर्शन का और विशेषतः अध्यात्मवादी दर्शन का एक ही लक्ष्य है और वह यही है, कि चिन्तन भी आत्मा का करो और अनुभव भी आत्मा का ही करो । आत्मा के अतिरिक्त जो भी कुछ है, उसका चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं है और उसका अनुभव करने की भी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आत्मा के अतिरिक्त जो भी कुछ है, वह अपना नहीं है और जो कुछ अपना नहीं है, उसका चिन्तन करने से क्या लाभ, और उसका अनुभव करने से भी क्या लाभ ? इसलिए अपने से अपने आपको ही जानने का प्रयत्न करो, यही सम्यक् दर्शन की साधना और यही सम्यक् दर्शन की
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२८६ | अध्यात्म प्रवचन आराधना है । सम्यक दर्शन की उपलब्धि से पूर्व आत्मा को किसकिस परिस्थिति में से गुजरना पड़ता है और किस प्रकार अन्त में उसे सत्य की झाँकी मिलती है, यह शास्त्र का एक गम्भीर विषय है। यह एक ऐसा विषय है, जो आसानी से समझ में नहीं आता, पर सच्चे हृदय से प्रयास किया जाए, तो बहुत कुछ समझ में आ सकता है।
अनादि कालीन मिथ्या दृष्टि आत्मा को भव का भ्रमण करतेकरते और संसार के सन्ताप को सहते-सहते, कभी ऐसा अवसर भी प्राप्त हो जाता है, जबकि इसके मोह का प्रगाढ़ आवरण कुछ मन्द और क्षीण होने लगता है। शास्त्र में कहा गया है, कि अकाम निर्जरा करते-करते कभी ऐसा अवसर आता है, कि कर्मों की दीर्घ स्थिति भी ह्रस्व हो जाती है । मोह कर्म की उत्कृष्ट स्थिति शास्त्रकारों ने सत्तर कोटाकोटि सागरोपम को बतलायी है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ठ स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की बतलायी है। नाम कर्म की और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटि सागरोपम की बतलायी है। आयुष्य-कर्म को उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की बतलायी है। इन सभी कर्मों में से आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति घट कर, जब एक कोटाकोटि सागरोपम से भी किंचित् न्यून रह जाती है, तब आत्मा की वीर्य शक्ति में कुछ सहज उल्लास उत्पन्न होता है। इस उल्लास को अथवा आत्मा के इस विशिष्ट परिणाम को एवं भाव को शास्त्रीय भाषा में यथा-प्रवृत्तिकरण कहते हैं । यद्यपि इस स्थिति में आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि नहीं होती है, सम्यक् दर्शन अभी बहुत दूर की वस्तु है । इस स्थिति में आत्मा केवल अन्धकार से पराङमुख होकर प्रकाश की ओर उन्मुख ही हो पाता है । यथाप्रवृत्तिकरण की मूल भावना को सरलता के साथ हृदयंगम करने के लिए, कर्म-साहित्य में एक सुन्दर रूपक दिया है। ___कल्पना कीजिए, एक नदी है, जो पर्वतीय प्रदेश से बहतीबहती समतल भूमि की ओर आती है। आप जानते हैं जिस समय जल का वेग तेजी के साथ पहाड़ की ऊंचाई से समतल भूमि की नोचाई की ओर आता है, तब उस समय क्या होता है ? नदी के उस वेग में जो भी कोई शिला, शिला-खण्ड और पाषाण आ जाता
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जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २८७ है तो आपस में टकराते-टकराते और घिसते-घिसते वह गोल और चिकना बन जाता है। यद्यपि एक विशाल पाषाण खण्ड का यह छोटा सा गोल और चिकना रूप एक दिन में बनकर तैयार नहीं होता । उसे इस स्थिति में पहुँचते-पहुँचते वर्षानुवर्ष व्यतीत हो जाते हैं। तब कहीं जाकर वह एक अनगढ़ पत्थर सालिग्राम बन कर पूजा का पात्र बनता है । यह एक रूपक है। सत्य के मर्म को समझने के लिए यह एक दृष्टान्त है। जो स्थिति पर्वत के इस पाषाण की होती है, वही स्थिति आत्मा की भी होती है । यह आत्मा भी भव' का भ्रमण करते-करते, संसार का सन्ताप सहते-सहते और संकट की विकट घाटी में से चलते-चलते इस स्थिति में पहुंच जाता है कि उसका तीव्रतम राग और उसका तीव्रतम द्वष कुछ मन्द होने लगता है । कषाय की इस मन्द अवस्था का नाम ही, यथाप्रवृत्तिकरण कहा जाता है। यथाप्रवृत्तिकरण में जो 'करण' शब्द है उसका अर्थ शास्त्रकारों ने जीव का परिणाम किया है। यथाप्रवत्तिकरण के दो भेद हैं-एक साधारण और दूसरा विशिष्ट । साधारण एवं सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण वाला जीव विशुद्धि के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो पाता है, क्योंकि यह सामान्य अथवा साधारण यथाप्रवृत्तिकरण इतना दुर्बल होता है, कि वह राग-द्वष की तीव्रग्रन्थि का भेदन नहीं कर पाता । उक्त सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण अभव्य जीवों को भी अनन्त बार हो चुका है। दूसरा यथाप्रवृत्तिकरण है-विशेष या विशिष्ट । इसमें इतनी क्षमता और शक्ति होती है, कि जिस आत्मा में यह परिणाम आता है, वह अन्धकार से निकलकर प्रकाश की प्रथम क्षीण रेखा को देख पाता है। यद्यपि इसमें भी सत्य के प्रकाश की उपलब्धि नहीं होती है, किन्तु इतना तो अवश्य है कि अन्धकार के विरोधी प्रकाश की एक क्षीण रेखा को देख लेता है। उक्त यथाप्रवृत्तिकरण के बाद आत्मा अपूर्वकरण आदि के रूप में भावविशुद्धि की ओर आगे बढ़ जाता है और सम्यग् दर्शन प्राप्त कर लेता है। और यदि भाव विशुद्धि की अपकर्षता होने लगे, तो फिर वापस लौट कर भव भ्रमण के चक्र में भटकने लगता है । भव-भ्रमण करताकरता और संसार के संताप सहता-सहता भव्यात्मा कभी इस स्थिति में पहुँच जाता है, कि उसकी वीर्य-शक्ति का उल्लास और अधिक प्रबल एवं उज्ज्वल बन जाता है, तब आत्मा के इस शुद्ध परिणाम को शास्त्रीय भाषा में 'अपूर्वकरण' कहा जाता है। अपूर्वकरण का अर्थ है-आत्मा की अपूर्व वीर्य-शक्ति, आत्मा का एक ऐसा दिव्य परिणाम
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२८८ ! अध्यात्म प्रवचन
एवं आत्मा का एक ऐसा विशुद्ध भाव, जो अभी तक कभी नहीं आया था, उसे अपूर्वकरण, कहते हैं । यद्यपि सम्यक् दर्शन की उपलब्धि यहाँ पर भी नहीं होती है, किन्तु अपूर्वकरण के प्रभाव से यह आत्मा एक ऐसी भूमिका पर पहुंच जाता है, जिसे शास्त्रीय भाषा में 'ग्रन्थि-देश' कहते हैं । ग्रन्थि-देश का अर्थ है-आत्मा के राग एवं द्वष की सम्यग् दर्शननिरोधक तीव्रता एवं प्रगाढ़ता की भूमि । अपूर्वकरण में आकर जीव ग्रन्थि-देश का भेदन तो नहीं करता, किन्तु उसकी प्रगाढ़ता को शिथिल बना देता है । आत्मा के सघन एवं प्रगाढ़ राग-द्वेष रूप अविशुद्ध परिणाम को ग्रन्थि कहा जाता है। आत्मा में यह ग्रन्थि आज से नहीं, अनन्त काल से है। बाँस की गाँठ के समान इस गाँठ का भेदन करना भी, सरल एवं आसान काम नहीं है। ग्रन्थि-देश पर पहे. चने के बाद आत्मा फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ता है और वह एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जिसे शास्त्रीय भाषा में अनिवृत्तिकरण कहते हैं। अनिवृत्तिकरण आत्मा का वह परिणाम है, जहाँ पहुँचकर वह सम्यक् दर्शन को बिना प्राप्त किए नहीं रहता। अनिवृत्तिकरण में पहुँचकर आत्मा राग-द्वेष की तीव्र ग्रन्थि का भेदन कर देता है और इस ग्रन्थि का भेदन होते ही, अन्तर्मुहूर्त के अन्दर आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है। आत्मा को स्वरूप का प्रकाश मिल जाता है।
इन तीनों कारणों को स्पष्ट समझने के लिए, शास्त्रकारों ने एक बड़ा सुन्दर रूपक दिया है और वह रूपक इस प्रकार है। एक बार एक ही ग्राम के रहने वाले तीन मित्र मिल कर धन कमाने के लिए विदेश की ओर चल पड़े। तीनों मित्र थे, तीनों में अत्यन्त प्रेम था
और आप समझते हैं, कि जहाँ प्रेम होता है, वहाँ किसी प्रकार का द्वैत-भाव नहीं रहता। वे तीनों साथ रहते, और साथ चलते तथा साथ ही खाते-पीते भी थे। एक बार यात्रा करते-करते वे तीनों एक विकट एव विजन वन की पर्वत-घाटी में जा पहुँचे। जैसे ही वे घाटी में कुछ आगे बढ़े कि कुछ दूर उन्हें चार डाकू दिखलाई दिए । उनकी भयंकर आकृति और उनके बलिष्ठ शरीर को देखकर, वे तीनों मित्र भय से काँपने लगे और तीनों के हृदय में एक ही भावना प्रबल हो उठी कि किसी भी तरह अपने प्राणों की रक्षा करें। मनुष्य को धन प्रिय होता है, क्योंकि धन के लिए वह बहुत से कष्ट, परिताप और
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जैन- दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २८६
दुःख सहन करता है । परन्तु धन से भी अधिक प्रिय उसे अपने प्राण होते हैं । जिनकी रक्षा के लिए वह अपने धन का भी परित्याग कर देता है । तीनों मित्रों में से एक तो डाकुओं को देखते ही पीछे की ओर भाग गया। दूसरा मित्र कुछ साहसी था, इसलिए साहस करके वह आगे तो बढ़ गया, किन्तु अकेला उन चारों का प्रतिकार एवं पराभव न कर सकने के कारण, उनकी पकड़ में आ गया। तीसरा मित्र उन दोनों से अधिक बलवान और पराक्रमशील था । उसने अकेले ही चारों से संघर्ष किया और अपनी 'शक्ति और अपने पराक्रम से उन्हें पराजित करके दुर्गम घाटी को पार करता हुआ अपने अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँच गया । आपने सुना कि तीन मित्रों की तीन स्थिति हुई । एक भाग गया, एक पकड़ा गया, और एक पार हो गया । यह एक रूपक है, यह एक दृष्टान्त है, जिसके आधार पर शास्त्र के गम्भीर मर्म को समझने में सहारा मिलता है। जो स्थिति उन तीन मित्रों की हुई, वही स्थिति आत्मा को भी होती है । संसार में अनन्त आत्माएँ हैं, उनमें से कुछ विकास -पय पर आरूढ़ होकर अपने अभीष्ट लक्ष्य की ओर चल पड़ती हैं, किन्तु उन तीन मित्रों के समान कुछ आत्माएँ, चार कषायों की ग्रन्थि रूप भयंकरता के कारण वापिस लौट जाती हैं, और संसार में भटकने लगती हैं । कुछ आत्माएँ साहस करके आगे बढ़ती हैं, किन्तु अपनी दुर्बलता के कारण वे भी कषायों से ग्रस्त हो जाती हैं और कुछ आत्माएँ इतनी प्रबल होती हैं, कि वे अपने साहस और पराक्रम के बल पर आगे बढ़कर कषाय रूप डाकुओं को पराजित करके, अपने अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँच जाती हैं । अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँचने का क्या अर्थ है ? यही कि वह मिथ्यात्व से निकल कर सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेती हैं । वे अन्धकार से निकलकर प्रकाश में पहुँच जाती हैं । शास्त्र में इसी तथ्य को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि कहा गया है ।
मैं आपसे सम्यक दर्शन की बात कह रहा था । सम्यक् दर्शन क्या है ? यह एक विकट प्रश्न है । सम्यक्दर्शन, जैसा कि मैंने आपको कहा, चिन्तन का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है । परन्तु इतना अवश्य है, कि समग्र धर्मों का मूल यदि कोई एक तत्व हो सकता है, तो वह सम्यक् दर्शन ही हो सकता है । जैसे मूल के अभाव में कोई भी वृक्ष अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रह सकता, वैसे ही सम्यक् दर्शन के अभाव में कोई भी धर्म स्थिर नहीं रह सकता । जैन दर्शन का मूल सम्यक् दर्शन ही है । जिस प्रकार समग्र वृक्ष की प्राण-शक्ति का
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२६० | अध्यात्म-प्रवचन आधार और केन्द्र, उसकी जड़ होती है, उसी प्रकार जैन दर्शन का मूल सम्यक् दर्शन है । वृक्ष के मूल एवं जड़ के कारण हो वृक्ष की सारी पत्तियाँ हरी-भरी रहती हैं, उसमें फल-फूल लगते हैं और वह वृक्ष विकासोन्मुख बना रहता है, परन्तु यह तभी तक है, जब तक कि वृक्ष का मूल एवं वृक्ष की जड़ हरी भरी बनी रहती है। जब तक वृक्ष की जड़ सशक्त है, तभी तक उसमें नयी-नयी कोपलें फूटती रहती हैं, नयेनये पत्ते आते रहते हैं, उस पर फूलों की मधुर मुस्कान बनी रहती है और उस पर मधुर फल लगते रहते हैं। अतः वृक्ष की प्राण-शक्ति, उसका वैभव, उसका सौन्दर्य एवं उसके विकास का मूलाधार उसकी जड़ होती है, जो भूमि के अन्दर बहुत गहरी होती है। जो सत्य एक वृक्ष के सम्बन्ध में है, वही सत्य अध्यात्म-साधना के सम्बन्ध में भी है । अध्यात्मवादी दर्शन के अनुसार अध्यात्म-साधना का मूल आधार सम्यक् दर्शन ही है । सम्यक् दर्शन से ही अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य आदि व्रत फलते-फूलते हैं । श्रावक-जीवन की मर्यादा का मूल आधार भी सम्यक् दर्शन ही है । इसी के आधार पर श्रावक का जीवन निर्मल एवं स्वच्छ रहता है । साधु-जीवन के व्रत एवं नियमों का आधार भी यही सम्यक् दर्शन है । यदि सम्यक् दर्शन नहीं है, तो साधुत्व भाव भी उसमें कैसे रह सकता है ? किसी भी साधक के अन्तरंग में जब तक सम्यक दर्शन की ज्योति है और जब तक उसके जीवन के कण-कण में सम्यक दर्शन की भावना परिव्याप्त रहती है, तब तक धर्म का वृक्ष हरा-भरा रहता है और फलता-फूलता रहता है । यह तो आपको पता ही है, कि वृक्ष में प्रति वर्ष परिवर्तन आता रहता है और यह परिवर्तन उसके जीवन के विकास के लिए आवश्यक भी है। वक्ष में प्रतिवर्ष नये पत्ते आते रहते हैं और पुराने पत्ते झड़ते जाते हैं; नये फूल आते हैं और पुराने फूल समाप्त हो जाते हैं और नये फल आते हैं तथा पुराने फल क्षीण हो जाते हैं, यह परिवर्तन वृक्ष में प्रति वर्ष आता है, परन्तु इस परिवर्तन के होते हुए भी उसकी जड़ ज्यों की त्यों बनी रहती है। इसी प्रकार आचार से सम्बन्धित बाहर के नियमउपनियम बदलते रहते हैं, परन्तु उनका मूलाधार जो सम्यक् दर्शन है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। धर्म और साधना के क्षेत्र में युग
और काल-क्रम से बाहर के नियम एवं उपनियमों में परिवर्तन आता है, परन्तु धर्म के मूलाधार में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । यह जो कुछ परिवर्तन बाहर के नियम एवं उपनियमों में होता रहता है, इससे किसी प्रकार की हानि नहीं हा सकती, यदि मूल शुद्ध एवं पवित्र है तो।
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जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २९१
परिवर्तन जीवन का एक स्वस्थ रूप है । परिवर्तन का अर्थ -जोवन शक्ति । जिसमें जीवन-शक्ति है उसमें परिवर्तन अवश्य होगा । और जिसमें किसी प्रकार परिवर्तन नहीं होता, समझना चाहिए, उसमें जीवन-शक्ति का अभाव है । मैं आपसे वृक्ष की बात कह रहा था, पतझड़ और बसन्त में होने वाला वृक्ष का यह परिबर्तन इस बात का द्योतक है, कि वृक्ष में प्राण-शक्ति है और उसमें जीवन-शक्ति विद्यमान है । यदि उसमें जीवन-शक्ति न रहे तो फिर न उसमें पत्ते लगेंगे और न फूल-फल ही लगेंगे । बस परिवर्तन में एक बात और रहती है, जिसका समझना आवश्यक है और वह यह है, कि प्रत्येक बसन्त में वृक्ष में परिवर्तन हो आता है, नये पत्ते और नये फल-फूल भी लगते हैं, परन्तु वे पत्ते और फल फूल उनसे भिन्न नहीं हैं जो पहले वर्ष में लगे थे । यह परिवर्तन सदृश हो होता है विसदृश नहीं । यदि गुलाब का फूल एक बसन्त में एक रंग-रूप का है, तो ऐसा कभी नहीं होगा, कि दूसरी बसन्त में वह दूसरे रंग-रूप का बन जाए। हर बार फल-फूल एक ही रंग-रूप के होंगे, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा । यही सिद्धान्त धर्म एवं साधना क्षेत्र में भी लागू होता है । बाहर के क्रिया-काण्डों में परिवर्तन होता रहता है, बाहर के अनुष्ठानों में परिवर्तन होते हुए भी अन्तरंग धर्म में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आता । अहिंसा सदा अहिंसा ही रहेगी, सत्य सदा सत्य ही रहेगा, अचौर्य सदा अचौर्य ही रहेगा, ब्रह्मचर्य सदा ब्रह्मचर्य ही रहेगा और अपरिग्रह सदा अपरिग्रह ही रहेगा । देश - काल और परिस्थिति के वश क्रिया काण्डरूप आचार में परिवर्तन होना सम्भव है, किन्तु मूल विश्वास में और मूल आचार में किसी प्रकार का परिवर्तन नही होता । सामायिक या पौषध आप कुछ भी क्यों न करें, उसका मूल भाव एवं उसका मूल स्वरूप कभी परिवर्तित नहीं होता । दोनों के अन्तरंग में संवर है तथा दोनों में ही आत्मा को संसार की वासना से अलग करने का भाव है । आप भक्तामर पढ़ें या कल्याण मन्दिर पढ़ें, परन्तु आत्मा में तो वही प्रभु के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करने की भावना रहती है। दान देने से, शील पालने से और तप करने से भी आत्मा में शुभ या शुद्ध धर्म की ज्योति जगमगाती है | मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि मूल एक होकर भी ऊपरी वातावरण में जो परिवर्तन आता है, उससे मूल भावना बदल नहीं जाती है । कल्पना कीजिए, एक ऐसा व्यक्ति है, जो प्रतिदिन नयी-नयी वेशभूषा धारण करता है, इतना ही नहीं, बल्कि दिन
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२६२ | अध्यात्म प्रवचन
में तीन-तीन बार कपड़े बदलता रहता है- परन्तु इस प्रकार नये-नये पड़े बदलने की क्रिया से वह आप नहीं बदल जाता । आप तो वहीं का वहीं रहता है । उसके अपने आपके मूल स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । आप स्वयं भी चाहे अपने रूप कितने ही क्यों न बदल लें, आप किसी भी रूप में क्यों न रहें, पर देर-सबेर आपकी अपनी मौलिक पहचान अवश्य हो जायेगी । इसी प्रकार बाहर के क्रिया काण्ड भले ही बदलें, परन्तु अन्तर में साधक की आत्मा संवर एवं निर्जरा के स्वरूप को कभी नहीं बदलती । यदि मूल आधार ही बदल जाए, तब तो सभी कुछ गड़बड़ा जाएगा । यदि मूल के विशुद्ध, पवित्र और स्थिर रहते हुए, बाहर में हजारों हजार परिवर्तन भी आ जाएँ, तब भी आत्मा का कुछ बिगड़ नहीं सकता । हमारी अध्यात्म - साधना का मूल आधार सम्यक् दर्शन ही है, यदि वह सुरक्षित है एवं वह अक्षुण्ण है तो फिर बाहर के परिवर्तनों से हमें किसी प्रकार का भय नहीं होना चाहिए | अध्यात्मवादी जैनदर्शन में समाज, जाति और परम्परा के सम्बन्ध में कुछ विशेष नहीं लिखा गया है । समाज के रीति रिवाजों और परम्पराओं की उलझन में उलझना उसे अभीष्ट नहीं था, क्योंकि वह आत्मा का धर्म है, किसी भी समाज एवं जाति का धर्म नहीं है । जो धर्म समाज एवं जाति पर आधारित होता है, उसी में इस प्रकार के समाज और जाति के नियमों का विधान होता है । यही कारण है कि अध्यात्मवादी दर्शन में आत्मा के अतिरिक्त अन्य सामाजिक विधि-विधानों को महत्व नहीं दिया जाता है । उसका लक्ष्य एक मात्र आत्म-विशुद्धि ही होता है ।
अभी मैं आपसे यह कह रहा था, कि जैन परम्परा के किसी भी आचार्य ने इस सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा, कि विभिन्न समाजों और विभिन्न जातियों में प्रचलित रीति रिवाजों और परम्पराओं में से क्या ठीक है और क्या नहीं ? किसे रखना और किसे नहीं रखना, किसे छोड़ना और किसे नहीं छोड़ना ? क्योंकि यह सब समाज के कर्तव्य हैं और समाज के कर्तव्यों में से क्या रखना और क्या छोड़ना और क्या करना और क्या नहीं करना - यह अध्यात्म-शास्त्र का विषय नहीं है । यही कारण है, कि किसी भी प्राचीन जैन आचार्य ने वैदिक मनुस्मृति जैसा स्मृति ग्रन्थ नहीं लिखा । इस सम्बन्ध में वस्तुस्थिति यह है, कि अध्यात्मवादी दर्शन एकमात्र यही बात
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जैन दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २९३
बतलाता है, कि आत्मा से परमात्मा कैसे बना जाए, तथा भवबन्धनों का अभाव कैसे किया जाए ? समाज-धर्म, जाति-धर्म और परम्परा के कर्तव्यों का मार्ग, भले ही वह कितना भी लम्बा क्यों न हो, उसको संकलित करने की और अंकित करने की शक्ति होते हुए भी, अध्यात्मवादी सन्तों ने उसकी उपेक्षा क्यों की ? यह एक महत्व - पूर्ण प्रश्न है । जिन्होंने समस्त मार्गों के कण-कण को देख लिया, महासागर जैसे विशालकाय दर्शन ग्रन्थों की जिन्होंने रचना की, क्या वे स्मृतियों की रचना नहीं कर सकते थे ? अवश्य ही कर सकते थे, फिर भी उन्होंने वैसा नहीं किया । कारण, उन्होंने देखा कि सामाजिक क्रियाकाण्ड शाश्वत सत्य नहीं है । वह आज है, कल नहीं है, अतः इसके लिए अपनी शक्ति का अपव्यय क्यों किया जाए ? समाज और परम्परा के नियमों में प्रान्त, जाति, देश और काल आदि की भिन्नता भी अवश्य ही रहेगी । उन्होंने सोचा कि इन पुराने घेरों को तोड़ कर नये घेरे क्यों डाले जाएँ ? यदि रीति-रिवाजों के घेरों में बंधना आवश्यक है, तो पुरानों में ही क्यों न बंधा जाए, उसके लिए नए बन्धन बाँधने की क्या आवश्यकता ? इस स्थिति में एक प्रश्न उत्पन्न होता है, कि परंपरागत स्मृतियों के किन-किन विधानों को आप स्वीकार करते हैं और किन-किन विधानों को आप स्वीकार नहीं करते ? इस प्रश्न के उत्तर में जैन परम्परा के अध्यात्मवादी संतों ने एक ही उत्तर दिया, कि न हम किसी विधान को एकान्त रूप से स्वीकार करते हैं और न किसी विधान को हम एकान्त रूप में अस्वीकार ही करते हैं । जिसके स्वीकार करने से हमारा आत्म-भाव अक्षुण्ण रहता है, वह सब कुछ हमें स्वीकार है । और जिससे आत्मा में मलिनता उत्पन्न होती है, जिससे आत्मा अपवित्र बनती है, वह सब कुछ हमें स्वीकार नहीं है । मूल बात आत्मा की है और उससे भी पहले मूल बात सम्यक दर्शन की है । सम्यक् दर्शन को क्षति पहुँचाने वाला कोई भी विधान हमें स्वीकार नहीं हो सकता । एकान्त निषेध और एकान्त विधान जैसी स्थिति को हम स्वीकार नहीं कर सकते । जीवन - विकास में जो विधान सहायक है, उसका हम आदर करते हैं और उसे स्वीकार भी करते हैं । इसके विपरीत आत्म विकास में बाधा डालने वाले किसी भी विधान को स्वीकार नहीं किया जा सकता । आखिर समाज के यह विधि और निषेध स्थायी नहीं हैं ! इनमें तो परिवर्तन होता ही रहता है । परिवर्तित देश और काल के अनुसार विधि निषेध बन जाते हैं और निषेध विधि । वह लौकिक
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२९४ | अध्यात्म-प्रवचन विधि, जो सम्यक् दर्शन में एवं व्रताचरण में बाधा उपस्थित नहीं करती, उसे स्वीकार करने में जैन धर्म को किसी प्रकार की अड़चन नहीं है। जैन धर्म का कहना है कि सारे संसार में मानव जाति का एक ही रूप है, उसके विभिन्न रीति-रिवाजों से, उसकी परस्पर विरोधी परम्पराओं से तथा उसके विचित्र क्रिया-काण्डों से हमारा कोई झगड़ा नहीं है। केवल इतना ही ध्यान रखना आवश्यक है, कि उनसे सम्यक्त्व एवं सदाचार को किसी प्रकार की बाधा न पहुँचे । सम्यक् दर्शन में कोई धक्का न लगता हो और आत्म-भाव की साधना में किसी प्रकार की रुकावट न आती हो, तो फिर किसी भी रीति-रिवाज को मानने से हमारा क्या बिगड़ता है ? हम जीवन की किसी भी अवस्था में क्यों न रहें, हमारे लिए यही आवश्यक है, कि हम अपने स्वरूप को न भूलें। चाहे हम दान करें, शील का पालन करें और तप करें, किन्तु एक बात का ध्यान रखें, कि संवर और निर्जरा की साधना से हम अपनी आत्मा को पवित्र बनाते रहें। संवर और निर्जरा की साधना ही वास्तविक साधना है। इस साधना से ही सम्यक् दर्शन निर्मल, स्वच्छ, पवित्र और पावन होता है। इसी को अध्यात्म धर्म कहा जाता है|
एक शिष्य ने अपने गुरु से प्रश्न किया, कि “ससार और मोक्ष के क्या हेतु हैं ?" उक्त प्रश्न के उत्तर में गुरु ने बहुत ही सुन्दर समाधान दिया-"जो आस्रव है, वही संसार का हेतु है और जो संवर है, वही मोक्ष का हेतु है।" जो आस्रव है, वह चाहे शुभ हो या अशूभ हो, त्याज्य है। जिस प्रकार पाप त्याज्य है, उसी प्रकार अन्ततः पुण्य भी त्याज्य है। परन्तु जो संवर है, जिसमें न पुण्य है न पाप, जो शुभ और अशुभ दोनों से भिन्न है, वही ग्रहण करने के योग्य है । पुण्य हमें सुख देता है, इसलिए उसे पकड़कर बैठे रहें, और पाप हमें दुःख देता है, इसलिए हम उसे छोड़ दें, यह एक संसार की दृष्टि है। अध्यात्म-दृष्टि तो शुभ एवं अशुभ दोनों से ऊपर उठ कर आत्मा के विशुद्ध भाव को ही ग्रहण करती है। कल्पना कीजिए, आपके समक्ष एक ऐसा व्यक्ति खड़ा है, जिसने अपने शरीर पर दुग्ध-धवल वस्त्र धारण किये हुए हैं। यदि कोई व्यक्ति उसके ऊपर काली स्याही के छींटे देता है, तो वह क्रुद्ध हो जाता है और कहता है, कि तूने मेरे वस्त्रों को खराब कर दिया है। यदि कोई दूसरा व्यक्ति उसके उन्हीं वस्त्रों पर केशर का छींटा डालता है, तो वह कहता है, कि बहुत
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जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २९५ अच्छा हुआ, यह केशर कितनी सुन्दर और सुगन्धित है। यह एक संसार-दृष्टि है । संसार-दृष्टि का अर्थ है-अशुभ पर द्वेष करना और शुभ पर राग करना। परन्तु एक अध्यात्मवादी व्यक्ति की दष्टि में काली स्याही का दाग और केशर का दाग दोनों समान हैं। स्वच्छ वस्त्र पर चाहे काली स्याही का धब्बा हो, अथवा केशर का धब्बा हो, दोनों ही उस वस्त्र की मूल स्वच्छता एवं धवलता के लिए घातक एवं बाधक हैं । वस्त्र की स्वच्छता बनाये रखने के लिए, दोनों से ही बच कर रहना आवश्यक है। दोनों ही धब्बों में वस्त्र के शुद्ध स्वरूप का नाश होता है । वस्त्र की जितनी दूरी में वह धब्बा रहता है, फिर चाहे वह धब्बा कालो स्याही का हो अथवा केशर का हो, वस्त्र की स्वच्छता में बाधक ही है, साधक नहीं हो सकता। यदि किसी श्वेत वस्त्र को केशर के रंग से रंग दिया जाए, तो संसार की दृष्टि में उस वस्त्र का मूल्य बढ़ जाता है, इसके विपरीत यदि किसी स्वच्छ वस्त्र को कीचड़ में लथपथ कर दिया जाए, तो संसार की दृष्टि में उस वस्त्र का मूल्य गिर जाता है, किन्तु एक अध्यात्मवादी साधक की दृष्टि में दोनों हो विकार हैं, चाहे वह केशर हो, चाहे वह कीचड़ हो । क्योंकि वस्त्र का जो निज स्वरूप था और उसका जो श्वेत रूप था, वह तो दोनों ही स्थितियों में समाप्त हो जाता है। वस्त्र की स्वच्छता और स्वस्थता दोनों ही स्थितियों में नष्ट हो जाती है । इसी प्रकार आत्मा में चाहे पुण्य का केशर डालो और चाहे पाप का कीचड़ डालो, आत्मा की पवित्रता दोनों ही स्थितियों में नहीं रह सकती। अध्यात्मवादी दर्शन कहता है, कि पुण्य भले ही अनुकूल है, पाप भले ही प्रतिकूल है, परन्तु दोनों ही आत्मा का अहित करते हैं और दोनों ही आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का घात करते हैं। पुण्य और पाप दोनों ही विकार हैं, दोनों ही बन्धन हैं और दोनों ही आकुलता रूप होने से आत्मा का अहित करने वाले हैं; यही परमार्थ-दृष्टि है और यही अध्यात्म-दृष्टि है।
एक प्रश्न और उठता है। पूछा जाता है, कि मोक्ष की स्थिति में चारित्र रहता है या नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि द्रव्य-चारित्र तो वहाँ नहीं रहता, परन्तु भाव-चारित्र वहाँ अवश्य रहता है । द्रव्य चारित्र का अर्थ है-बाह्य क्रिया-काण्ड एवं बाह्य नियम और उपनियम । यह तो इसी जीवन के लिए स्वीकार किए जाते हैं । इस जीवन की अन्तिम श्वास तक तो ये जीवन के साथ रह
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२६६ | अध्यात्म-प्रवचन
सकते हैं, किन्तु इसके बाद कैसे रह सकते हैं ? इनके लिए 'जावजीवाए' का ही पाठ आता है न ? अतः प्रस्तुत जीवन के बाद मोक्ष में ये कैसे रह सकते हैं ? अब रही भाव चारित्र की बात, वह तो आत्मा का निज धर्म है । भाव चारित्र का अर्थ है - स्वरूप रमणता, स्वरूपलीनता । स्वरूप रमण मोक्ष में अवश्य रहता ही है । जहाँ आत्मा है, वहाँ उसका स्वरूप भी अवश्य रहेगा और उस स्वरूप में तन्मयता एवं तल्लीनता रूप भाव चारित्र मोक्ष में अवश्य ही रहता है । सिद्धों में व्रत रूप चारित्र नहीं रहता, परन्तु स्वरूपरमणता रूप चारित्र तो रहता ही है । यदि सिद्धों में स्वरूपरमणतारूप चारित्र भी न माना जाए, तब वहाँ कौन-सा चारित्र रहेगा ? द्रव्य चारित्र तो वहां रह नहीं सकता । और चारित्र सर्वथा न रहे, यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि चारित्र जब आत्मा का निज गुण है, तब जहाँ गुणी है, वहाँ उसका गुण अवश्य रहेगा ही । इस दृष्टि से मैं आपसे यह कह रहा था, कि मोक्ष की स्थिति में भी चारित्र रहता है । जैसे वहाँ क्षायिक सम्यक् दर्शन और क्षायिक सम्यक् ज्ञान रहता है, वैसे ही क्षायिक सम्यक् चारित्र भी वहाँ अवश्य रहता है । जब चारित्र मोह का सर्वथा क्षय होने पर क्षायिक सम्यक् दर्शन और क्षायिक ज्ञान के समान क्षायिक चारित्र हो गया तो वह मोक्ष में कहाँ चला जाएगा ? यदि क्षायिक चारित्र नष्ट हो सकता है तो फिर क्षायिक सम्यक्दर्शन और क्षायिक ज्ञान भी नष्ट क्यों नहीं हो सकते हैं ?
यह ठीक है कि आगमों में मोक्ष दशा में चारित्र नहीं माना है । परन्तु यह तो तर्क से विचार करना ही पड़ेगा कि वह कौन सा चारित्र है, जो मोक्ष में नहीं माना जाता । व्यवहार चारित्र सिद्धों में नहीं है, यह तो ठीक है । परन्तु निश्चय चारित्र तो वहाँ तर्क सिद्ध है । क्षायिक भाव वही होता है, जो सादि अनन्त हो । इस तर्क से क्षायिक चारित्र मुक्तदशा में पूर्णरूपेण तर्क सिद्ध है । यदि कोई कहे कि तर्क अप्रमाण है, हम तर्क को नहीं मानते, तो उनका यह कहना अयुक्त है । सिद्धान्त के निर्णय के लिए तर्क करना अच्छा है, बुरा नहीं है । बुद्धि के द्वार को बन्द करना मैं कभी पसन्द नहीं करता । आखिर किसी भी सिद्धांत के तथ्य को परखने की कसौटी बुद्धि और तर्क ही तो है । मैं उन आचार्यों का हजार बार अभिनन्दन करता हूँ, जिन्होंने तर्क और बुद्धि को महत्व दिया है । आँख मूँद कर किसी बात को स्वीकार करने की अपेक्षा, मैं यह अधिक उचित समझता है, कि तर्क और बुद्धि से विचार
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जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २९७ कर ही किसी तथ्य को स्वीकार किया जाए। जब हम अपने प्राचीन शास्त्रों का एवं दर्शन-ग्रन्थों का अध्ययन और मनन करते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है, कि तर्कों का एक प्रचण्ड तुफान आ गया है। देखा गया है, कि इस तर्क के युद्ध में कभी-कभी शिष्य अपने गुरु से भी आगे निकल जाता है । जब गुरु का निर्णय शिष्य को नहीं भाया, तो उसने अपने तर्क और बुद्धि के बल पर आगे दौड़ लगाई और वह अपने गुरु से भी आगे बढ़ गया। गुरु गुड़ ही रह गया और चेला चीनी बन गया । गुरु के विचारों से शिष्य का मतभेद होना, पतन का मार्ग नहीं है। यह ठीक नहीं है, कि गुरु से शिष्य निरन्तर हीन ही होता जाए। यह बात गलत है, कि एक गुरु का शिष्य सदा शिष्य ही बना रह जाए, वह गुरु न बन सके । . एक बार वेदान्त-परम्परा के एक सन्यासी मुझे मिले । हम दोनों में काफी देर तक विचार-चर्चा चलती रही। बातचीत के प्रसंग में मैंने पूछ लिया, कि “एक व्यक्ति किसी गुरु का शिष्य क्यों बनता है ?" सन्यासी जी ने मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि-"शिष्य गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु का शिष्य बनता है।" मैंने कहा कि "ज्ञान क्या कोई लेने देने की चीज है ? यह तो आत्मा का अपना ही निज गुण है। और निज गुण बाहर में दूसरे को कैसे दिया जा सकता है ? जब ज्ञान लेने और देने जैसी कोई चीज नहीं है, तो फिर एक व्यक्ति किसी गुरु का शिष्य क्यों बनता है ?" सन्यासी वेदान्ती थे । वेदान्त के अनुसार भी ज्ञान आत्मस्वरूप ही होता है, अतः वह लेने और देने की वस्तु नहीं है। मैंने सन्यासी से कहा-कि "आपका जवाब एक साधारण बाजारू जवाब है। आपके सिद्धान्त के अनुसार भी यह कैसे उचित हो सकता है, कि एक शिष्य गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु का शिष्य बनता है। स्वामी जी, जरा गहराई में उतरिए, शिष्य शिष्य बनने के लिए नहीं, अपितु शिष्य, गुरु बनने के लिए ही शिष्य बनता है । जो गुरु शिष्य को शिष्य बनाता है, वह उसे गुरु नहीं बना सकता । यदि शिष्य सदा शिष्य ही बना रहता है, तो यह कोई सुन्दर बात नहीं है । मेरे विचार में प्रत्येक शिष्य गुरु बनने के लिए ही शिष्य बनता है। शिष्य सारे जीवन भर शिष्य बने रहने के लिए और गरु के विचारों की भारी भर-कम गठरियों को सिर पर ढोने के लिए शिष्य नहीं बनता है । भारतीय दर्शन के अनुसार शिष्य श्रोता नहीं, द्रष्टा है, वह सत्य को श्रवण तक ही नहीं, अनुभव तक
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२६८ | अध्यात्म प्रवचन
ले जाना चाहता है । फलतः वह अनुभवी गुरु बनने के लिए हा शिष्य बनता है। हीन से हीन और अन्धकार में भटकता हुआ व्यक्ति जब गुरु के समक्ष आकर खड़ा होता है, तो समझ लीजिए, वह भिखारी बनने के लिए नहीं आया है, बल्कि गुरु के सानिध्य में रहकर गुरु बनने के लिए ही आया है। यह ठीक है कि आज ही वह गुरु नहीं बन सकता, किन्तु गुरू के सानिध्य में रहकर और अध्यात्म-योग की साधना करके वह भी एक दिन अवश्य ही गुरु बन सकता है।
मनुष्य की आत्मा में अपार शक्ति और अमित बल है। जब वह साधना-क्षेत्र में उतर कर उसमें स्थिर बन जाता है, तो मनष्य तो क्या, स्वर्ग के देव भी उसके चरणों में नत मस्तक हो जाते हैं। यह भी क्या अजब-गजब की बात है, कि जब संसार के अन्य पंथ देवदेवियों की पूजा की बात कहते हैं और देव-पूजा में धर्म बतलाते हैं, तब अध्यात्मवादी जैन-दर्शन यह आघोष करता है, कि भौतिक शक्ति में भले ही देव मनुष्य से बड़ा हो, किन्तु अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में तो मनुष्य ही देवता से बड़ा है। जब मनुष्य अपने बन्धनों को तोड़ कर, अपने अन्तर के प्रकाश को प्राप्त कर लेता है, तब वह देवाधिदेव बन जाता है । जिस मनुष्य में देवाधिदेव बनने की शक्ति विद्यमान है, जिसमें आत्मा से परमात्मा बनने का बल है, फिर क्या बात है कि वह मनुष्य शिष्य से गुरु न बन सके ? प्रत्येक मानव में अपनी आत्मशक्ति को जागृत करके, जब परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है, तब वह गुरु के ऊँचे सिंहासन पर आरूढ़ क्यों नहीं हो सकता ? अवश्य हो सकता है ? ___ मैं आपसे बुद्धि और तर्क की बात कर रहा था। मुझे स्वयं को तर्क बहुत पसन्द है । जब कभी कोई जिज्ञासु व्यक्ति मुझसे तर्क करता है, तब मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। वह स्थिति मुझे कितना आनन्द देती है, जब कि मैं यह देखता हूँ, एक गुरु किसी ग्रन्थ की रचना करता है और उसका शिष्य उसे भी आगे बढ़कर उस पर भाष्य लिखता है । फिर उसका भी शिष्य उस पर एक और विशाल टीका रचता है। इस प्रकार तर्क और प्रति तर्क की यह आगे कड़ी जुड़ती चली जाती है। इससे अन्धकार में पड़े प्रतिपाद्य विषय का और अधिक स्पष्टीकरण हो जाता है। हमें इस बात को नहीं भूलना है, कि हम बुद्धिवादी एवं तर्कवादी होकर भी आदर्शवादी और श्रद्धावादी हैं, और आदर्शवादी एवं श्रद्धावादी होकर भी बुद्धिवादी एवं तर्कवादी
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जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २९६ हैं । सत्य का उद्घाटन तर्क के साथ श्रद्धा से करते हैं और श्रद्धा के साथ तर्क से करते हैं ? यदि हम अपनी अध्यात्म-साधना के मार्ग पर अग्रसर होते हुए तर्क और श्रद्धा को भूल जाते हैं, तो हमारे जीवन की यह एक विषम स्थिति होगी।
विश्व में एक मात्र चेतनतत्व ही प्रधान तत्व है। उसी के प्रति विश्वास और श्रद्धा होनी चाहिए । व्यक्ति के नाम और रूप के प्रति श्रद्धा का क्या मूल्य है ? व्यक्तिविशेष के नाम और रूप तो क्षणिक हैं, किन्तु नाम और रूप जिसके आधार पर चलते हैं, वह अमर आत्मा हो वस्तुतः अमर है। संसार में जितने भी भी झगड़े हैं, जितने भी संघर्ष है, और जितने भी तूफान हैं, वे सब नाम और रूप की श्रद्धा को लेकर ही होते हैं। नाम और रूप की श्रद्धा को लेकर उठने वाले ये तूफान और संघर्ष केवल श्रद्धा प्रधान तर्क से ही शान्त हो सकते हैं । श्रद्धा प्रधान तर्क हमसे पूछता है, कि इस नामात्मक और रूपात्मक जगत में किस व्यक्ति का नाम और रूप स्थिर रहा है ? संसार के साधारण व्यक्तियों की बात छोड़ दीजिए, तीर्थंकरों के जीवन की बात को ही लीजिए, अनन्त अतीत में अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं, किसका नाम और रूप स्थिर रहा है ? तथा भविष्य में अनन्त तीर्थंकर होंगे, उनका भी नाम और रूप कैसे स्थिर रह सकेगा? कुछ काल आगे बढ़ने के बाद वर्तमान के तीर्थकरों के नामों का भी हमें स्मरण न रहेगा । आज भी हम कितने तीर्थंकरों के नामों का स्मरण रख पाते हैं ? जबकि इस जगत में तीर्थंकर जैसी विभूति का भी नाम रूप स्थिर नहीं रह पाता, तब संसार के साधारण जनों की बात कौन कहे ? अतः व्यक्ति विशेष के नाम और रूप के प्रति श्रद्धा सम्यग् दर्शन नहीं है । शुद्ध चैतन्य तत्व का शुद्ध श्रद्धान ही सम्यग् दर्शन है। ___भारतीय संस्कृति में व्यक्ति को इतना महत्व नहीं दिया गया है, जितना कि उसके विचार एवं सिद्धान्त को दिया गया है। जब तक व्यक्ति खड़ा रहता है, तब तक उसका नाम और रूप भी खड़ा रहता है । नाम और रूप से भिन्न यदि व्यक्ति को देखना हो, तो उसके विचार एवं सिद्धान्त को देखिए । नाम और रूप का किसी एक सीमा तक महत्व अवश्य है, किन्तु सव कुछ नाम एवं रूप को ही समझ लेना एक बहुत बड़ी भूल है । नाम और रूप कभी स्थायी नहीं होते। स्थायी होता है, केवल व्यक्ति का व्यक्तित्व । व्यक्ति अमर नहीं होता,
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३०० | अध्यात्म-प्रवचन
क्योंकि वह नाम रूपात्मक होता है, किन्तु व्यक्ति का व्यक्तित्व अमर होता है, क्योंकि वह नाम और रूप से भिन्न विशुद्ध आत्म-तत्व होता है । भारत के बहुत बड़े विचारक विनोबा भावे से दिल्ली में जब मिलना हुआ, तब उस समय मंत्र-चर्चा का प्रसंग चला, कि “प्रत्येक पंथ और सम्प्रदाय अपने शिष्यों को अलग-अलग मन्त्र देते हैं। कोई 'नमः शिवाय' कहता है तो कोई 'नमो विष्णवे' कहता है । और भी अनेक मन्त्र ऐसे हैं, जिनमें व्यक्ति विशेष के नाम हैं और वे धर्मों को परस्पर मिलने नहीं देते ।" इस पर मैंने कहा कि “यह बात जैन धर्म में नहीं है । जैन-धर्म के मन्त्र में किसी के व्यक्तिगत नाम का उल्लेख नहीं किया गया है । जैन-धर्म के महामन्त्र नवकार में जिनको नमस्कार किया गया है, वे व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि व्यक्ति के व्यक्तित्व के मूल आधारभूत तत्व हैं। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-इस प्रकार आत्मा के पांच शुद्ध स्वरूपों को उक्त मन्त्र में नमस्कार किया गवा है । इस मन्त्र में जैन संस्कृति के उपदेष्टा चौबीस तीर्थकरों में से किसी भी तीर्थंकर का वैयक्तिक नाम नहीं है। यद्यपि श्रमण संस्कृति में भगवान ऋषभदेव, भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है, तथापि इस मन्त्र में उनके नाम का उल्लेख भी नहीं है। यह मन्त्र नाम और रूप से बहुत दूर है । इसमें केवल आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ही उल्लेख किया गया है । अरिहन्त पद कहने से विश्व के समस्त अरिहन्तों का ग्रहण हो जाता है, फिर भले ही वे अतीत काल में हए हों और चाहे भविष्यकाल में होने वाले हों, अथवा वर्तमान काल में कहीं भी हों। इसमें देश, काल और जाति का बन्धन भी स्वीकार नहीं किया गया है फिर पंथ और सम्प्रदाय की बात तो हो ही कैसे सकती है । पंथ और सम्प्रदाय की बात वहीं आती है, जहाँ स्वरूप को मुख्यता न देकर नाम और रूप को मुख्यता दे दी जाती है । जहाँ नाम और रूप को ही महत्व मिलता है, वहाँ किसी न किसी सम्प्रदाय की गन्ध भी अवश्य ही आती रहेगी, और वहाँ किसी न किसी व्यक्ति का नाम भी अवश्य ही जड़ा हआ रहेगा। यदि किसी मन्त्र में किसी व्यक्ति का नाम दे दिया जाता है, तो वह मन्त्र असीम न रहकर सीमित हो जाता है । अतः नाम नहीं देने से इस मन्त्र में अनन्त सत्य को बिना नाम और रूम के बन्द कर दिया गया है। नाम और रूप अमर नहीं रहता है। भारतीय संस्कृति इस तथ्य को स्वीकार करती है कि नाम
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जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | ३०१
और रूप केवल शरीर तक ही सीमित रह जाते हैं । जब इस नाम रूपात्मक शरीर में से शिव निकल जाता है, आत्मा निकल जाता है, तब केवल शव ही शेष रह जाता है, जिसे अन्त में अग्नि की भेंट कर दिया जाता है । स्पष्ट है कि संसार में नाम और रूप स्थिर नहीं है, केवल स्वरूप ही स्थिर रहता है, और यही जीवन की वास्तविकता है ।"
मैं आपसे पहले कह चुका हूँ, कि सिद्धों में द्रव्य चरित्र नहीं, भाव - चरित्र रहता है | चारित्र के दो भेद हैं - निश्चय चारित्र और व्यवहार चारित्र । व्यवहार चारित्र को ही द्रव्य चारित्र कहा जाता है और इसी को क्रियात्मक एवं व्रतरूप चारित्र भी कहा जाता है । यह चारित्र सिद्धों में नहीं रहता, परन्तु स्वरूपरमणता, स्वरूप में लीनतारूप जो निश्चय चारित्र है, वह कभी नष्ट नहीं होता। यह निश्चय चारित्र ही सिद्धों में रहता है । इसी प्रकार सम्यक् दर्शन के भी दो भेद किए गए हैं - व्यवहार सम्यक् दर्शन और निश्चय सम्यक् दर्शन । व्यवहार सम्यक् दर्शन चाहे कितनी भी बार क्यों न हो जाए, किन्तु उससे आत्मा के लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती है । व्यवहार सम्यक् दर्शन अनन्त अतीत में न जाने कितनी बार हो चुका है, परन्तु उससे कार्य की सिद्धि नहीं हो सकी । निश्चय सम्यक् दर्शन ही वास्तविक सम्यक् दर्शन है । निश्चय सम्यक् दर्शन के अभाव में, मात्र व्यवहार सम्यक् दर्शन आत्मा में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकता । आत्मस्वरूप की उपलब्धि निश्चय सम्यक् दर्शन से ही होती है । निश्चय सम्यक् दर्शन को त्रिकाली सत्य कहा जाता है । व्यवहार की बात केवल समय-विशेष के लिए होती है, समय-विशेष के बाद उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है । इसीलिए मैं कहता हूँ, व्यवहार पर आश्रित जो भी कुछ है, वह स्थायी नहीं होता । इसके विपरीत निश्चय, जो कि आत्मा का अपना शुद्ध स्वरूप है, वही त्रिकाली सत्य हैं । जब तक निश्चय में लीनता नहीं होगी, तब तक परमार्थ भाव की उपलब्धि भी नहीं हो सकेगी ।
आपके सामने सम्यक् दर्शन की चर्चा चल रही है | अध्यात्मवादी दर्शन के अनुसार सम्यक् दर्शन आत्मा का एक दिव्य प्रकाश है । मिथ्यात्व के अन्धकार को दूर करने के लिए, सम्यक् दर्शन रूप सूर्य की नितान्त आवश्यकता है । सम्यक् दर्शन के अभाव में आत्मा का विकास हो ही नहीं सकता । यही कारण है, कि जैन-दर्शन में अन्य
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३०२ | अध्यात्म-प्रवचन तत्वों की अपेक्षा सर्शप्रथम सम्यक् दर्शन को ही महत्व दिया गया है । जैन दर्शन के प्रत्येक ग्रन्थकार ने किसी न किसी रूप में सम्यक् दर्शन का वर्णन अवश्य ही किया है। यह वर्णन किसी ग्रन्थ में विस्तार के साथ हैं, तो किसी ग्रन्थ में संक्षेप में है। परन्तु इतना अवश्य ही ध्यान देने योग्य है, कि एक भी ग्रन्थकार सम्यक् दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सका है, बल्कि कुछ ग्रन्थकारों ने तो अपने ग्रन्थ का मूल आधार ही सम्यक् दर्शन को बनाया है। साधक दो प्रकार के होते है-श्रद्धावादी और तर्कवादी। श्रद्धावादी, श्रद्धा को ही मुख्यता प्रदान करता है, जबकि तर्कवादी तर्क को ही प्रधानता देता है । वस्तुतः श्रद्धा केवल श्रद्धा नहीं होनी चाहिए, उसके साथ तर्क का योग भी चाहिए और तर्क भी केवल तर्क नहीं होना चाहिए, अपितु उसके साथ श्रद्धा का समन्वय भी चाहिए। श्रद्धा और प्रज्ञा का सुन्दर समन्वय ही, साधना का राजमार्ग है। आगमों में हम देखते हैं, सुनते हैं और पढ़ते हैं, कि, कि गणधर गौतम, भगवान महावीर से प्रश्न पूछते हैं और भगवान उसका उत्तर देते हैं। समाधान न होने पर गौतम फिर प्रश्न उपस्थित करते हैं और भगवान फिर उसका समाधान करते हैं । इस प्रकार तर्क और युक्ति चलती रहती है। परन्तु सत्य अधिगत होते ही गणधर गौतम उसे स्वीकार कर लेते हैं। जब सत्य की उपलब्धि हो गई, तब तर्क और युक्ति का अपने आप में कोई महत्व नहीं रहता । तके और युक्ति सत्य के उपलब्धि के साधन हैं, साध्य नहीं । जैन दर्शन में एकान्त तर्क और एकान्त श्रद्धा को जरा भी स्थान नहीं है। यद्यपि जैन दर्शन तक और बुद्धि का द्वार बन्द नहीं करता है यहाँ गौतम के समान कोई भी भक्त प्रभु से तर्क और युक्ति कर सकता है, परन्तु उस तर्क और युक्ति का आधार सत्य का अनुसंधान होना चाहिए । जब सत्य की उपलब्धि हो जाय, तब तर्क और युक्ति विश्वास एवं श्रद्धा में परिणत हो जाते हैं । कितना भी तर्क किया जाए, अन्त में गुरु के हाथों में शिष्य को अपना मस्तिष्क अर्पित करना ही पड़ेगा। जब एक शिष्य गुरु के समक्ष अपना मस्तक समर्पित कर देता है, तब इसका अर्थ यह होता है, कि उसने श्रद्धा एवं विश्वास को स्वीकार कर लिया है । श्रद्धा को स्वीकार करने का अर्थ है-उसने अपने आत्मस्वरूप पर विश्वास कर लिया है और आत्मस्वरूप पर विश्वास करना ही, निश्चय सम्यक् दर्शन है। एक युग आया था, जिसमें
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जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | ३०३ विभिन्न सम्प्रदायों के पण्डितों ने एक दूसरे को पराजित करने के लिए दलीलों की अखाड़ेबाजी जमा दी थी। उस समय का एक मात्र ध्येय यही था, कि अपने से भिन्न पन्थ के पण्डित को किसी भी प्रकार से निरुत्तर कर दिया जाए। इस युग को साहित्य के इतिहास में न्याययुग और तर्क-युग कहा जाता है। इस युग के जैन-विद्वानों में भी तर्क-युग का प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य समन्तभद्र अपनेअपने ग्रन्थों में तर्क और यूक्ति के बल पर ही, अनेकान्तवाद की भव्य स्थापना की है। फिर आगे चलकर अकलंक और हरिभद्र ने इस तर्क वादी मोर्चे को सम्भाला और विभिन्न प्रकार के तर्कों के बदले प्रति तर्क उपस्थित किये। सबसे अन्त में न्याय-युग के प्रखर पण्डित वाचक यशोविजयजी ने इस तर्कवादी मोर्चे को सम्भाला और नवीन न्याय की शैली में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया । परन्तु इस तर्क-युग में तर्क और प्रति तर्क करते हुए भी जैन विद्वान अपने अध्यात्मवादी दृष्टिकोण को भूले नहीं। सम्यक् दर्शन के मूल स्वरूप का प्रतिपादन किसी न किसी रूप में प्रत्येक विद्वान ने अपने ग्रन्थ में किया ही है । जैन विद्वानों ने भले ही अपने ग्रन्थ की रचना संस्कृत भाषा में की हो अथवा प्राकृत भाषा में की हो, और वह रचना करने वाला विद्वान भारत के किसी भी प्रान्त का क्यों न रहा हो, किन्तु उन सब के विचारों में और उन सब की वाणियों में कोई मौलिक भेद नहीं रहा, भले ही प्रतिपादन की शैली भिन्न अवश्य रही हो। उन विद्वानों की रचना और कृति हमारे लिए एक सुन्दर, स्वादु और पौष्टिक भोजन के समान सिद्ध हुई है। उन्होंने बिखरे मोतियों को एक सूत्र में पिरोकर एक सुन्दर हार बनाकर और उसे सजाकर अपने युग को जन-चेतना के समक्ष प्रस्तुत कर दिया था। वह एक सूत्र क्या था, जिसमें बिखरे हुए मोतियों को उन्होंने एक सुन्दर हार बना दिया ? वह एक सूत्र था-सम्यक् दर्शन । सम्यक् दर्शन को आधार बना कर ही, उन्होंने अहिंसा ओर अनेकान्त के अमृतमय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। सम्यक् दर्शन है, तो सब कुछ है । यदि सम्यक् दर्शन नहीं है, तो अन्य सव कुछ होते हुए भी सब शून्य-हो-शून्य है।
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संसार और मोक्ष
सम्यक् दर्शन की चर्चा बहुत हो चुकी है, फिर भी चर्चा को किनारा कहाँ मिला है ? क्योंकि सम्यक् दर्शन एक ऐसा विषय है, जिस पर सम्पूर्ण जीवन भर भी लिखा जाए अथवा बोला जाए, तो उसका अन्त नहीं आ सकता । अन्त आ भी कैसे सकता है ? क्योंकि प्रत्येक गुण जब अपने शुद्ध स्वरूप में पहुँच जाता है, तब वह अनन्त हो जाता है । यद्यपि तत्त्व श्रद्धानरूप मूलस्वरूप की दृष्टि से सम्यक् - दर्शन में किसी प्रकार का भेद अथवा खण्ड नहीं होता, किन्तु किसी एक व्यक्ति की अपेक्षा अथवा देश और काल आदि की अपेक्षा, उसके भेद एवं प्रभेदों की कोई इयत्ता नहीं है, और तदनुसार सम्यक् दर्शन की व्याख्या एवं परिभाषाओं की भी कोई एक सीमा नहीं रहती है । गंगा की एक ही निर्मल एवं अखंड धारा होती है। गंगा का जल जब अपनी मूल धारा में प्रवाहित रहता है, तो उसमें किसी प्रकार का भेद उपस्थित नहीं होता, परन्तु जब धारा के जल को व्यक्ति अपने-अपने पात्र विशेष में बन्द कर लेते हैं, तब वह जल एक होकर भी अनेक बन जाता है । इसी प्रकार सम्यक् दर्शन अपने आप में एक अखण्ड तत्व होते हुए भी उसकी अभिव्यक्ति विभिन्न देश और विभिन्न काल के विभिन्न व्यक्तियों में होने के कारण
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संसार और मोक्ष | ३०५
वह एक होकर भी अनेक हो जाता है । सम्यक् दर्शन के इस विशाल एवं विराट रूप को समझने के लिए, किसी न किसी प्रकार का आधार अवश्य चाहिए । प्रश्न है, वह आधार क्या हो और कैसा हो ? भूतकाल के ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में उसका कैसा अंकन एवं चित्रण किया है ? यह प्रश्न बड़ा ही महत्वपूर्ण है । मुझे उक्त प्रश्न के समाधान में केवल इतना ही कहना है, कि यदि आप उन ग्रन्थकारों के शब्दों को पकड़ेंगे, तब तो समाधान यह होगा कि जितने ग्रन्थकार हैं, उतने ही सम्यक् दर्शन की व्याख्या, परिभाषा और लक्षण हैं । इसके विपरीत जब आप उन ग्रन्थकारों की भाषा को न पकड़ कर, मुलभाव को ग्रहण करें, तब सबका लक्षण एक ही होगा, सबकी व्याख्या एक ही होगी और सबकी परिभाषा भी एक ही होगी । उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं हो सकता ।
सबसे पहला और सबसे मुख्य प्रश्न यह है, कि सम्यक् दर्शन क्या वस्तु है ? उसका क्या स्वरूप है और उसका क्या लक्षण है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि सप्त तत्व और नव पदार्थ पर श्रद्धान करना ही सम्यक् दर्शन है। जैन दर्शन में यह कहा गया है, कि पञ्च अस्तिकाय, षड़द्रव्य, सप्त तत्व और नवपदार्थ पर श्रद्धान करना, सम्यक् दर्शन है । सम्यक् दर्शन का यह लक्षण ऐसा है, जिसे घूम फिर कर सभी ग्रन्थकारों ने स्वीकार किया है । ग्रन्थकारों की ही बात नहीं है, मूल आगम में भी सम्यक् दर्शन का यही लक्षण किया गया है, और ग्रन्थकारों ने इसी को अपना आधार बनाया है । किसी भी युग का आचार्य क्यों न हो, उसका मूल आधार तो वीतरागवाणी आगम ही रहेगा । आज मैं भी आपके समक्ष सम्यक् दर्शन की जो परिभाषा एवं व्याख्या उपस्थित कर रहा हूँ, उसका आधार भी वीतरागवाणी आगम ही है । हमारा सौभाग्य है, कि हम एक ऐसे युग में पैदा हुए हैं, जिसमें आगम और आगम के बाद के विशिष्ट आचार्यों का चिन्तन हमें उपलब्ध हुआ है। जैसे मूल आगम से आचार्यों ने भाव ग्रहण करके, उसे पल्लवित किया है, वैसे ही आज हम भी आगम और उत्तरकालीन ग्रन्थों के चिन्तन को लेकर उसे पल्लवित कर देते हैं। क्योंकि सत्य सदा त्रैकालिक होता है, वह न कभी नया होता है और न कभी पुराना होता है । सत्य एक ही होता है, किन्तु उसे अभिव्यक्त करने वाली पद्धति और शैली युगानुकूल बदलती रहती है । मैं आज आपके समक्ष जो सम्यक् दर्शन के स्वरूप
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३०६ | अध्यात्म-प्रवचन
का प्रतिपादन कर रहा है और उसके लक्षण के कथन करने का प्रयत्न कर रहा हूँ, वह पूर्वकालीन चिन्तन और साथ ही मेरे अपने वर्तमान चिन्तन का परिणाम ही है।
आज का सबसे मुख्य प्रश्न यह है, कि सम्यक् दर्शन क्या है ? यह प्रश्न आज ही उत्पन्न नहीं हआ, अतीत काल में भी उत्पन्न हो चुका है और अनन्त भविष्य में भी उत्पन्न होता रहेगा। परन्तु सभी युगों में मुलरूप से इसका एक ही उत्तर दिया जाता रहा है, कि सप्त तत्व एवं नव पदार्थ पर यथार्थश्रद्धान ही सम्यक् दर्शन है । सम्यक् दर्शन को इससे सुन्दर अन्य कोई परिभाषा नही दी जा सकती। एक बात ध्यान में रहे । इस सम्बन्ध में पहले भी बताया जा चुका है, कि सम्यक् दर्शन वास्तव में अनुभूति का विषय है । फिर भी यह सत्य है, कि मन्द बुद्धि साधक को समझाने के लिए, उसका कुछ न कुछ शाब्दिक लक्षण करना ही होगा और वही लक्षण मैंने आपको बतलाया है। प्रश्न किया जा सकता है, कि जब तत्व-श्रद्धान अथवा पदार्थ-श्रद्धान ही सम्यक् दर्शन है, तब यह जिज्ञासा रहती है कि वह तत्व क्या है और कितना है ? इसके समाधान में कहा गया है, कि यथाभूत सत् अर्थ तत्त्व है, और वह सात प्रकार का है-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । यदि इन सात तत्वों में आस्रव अथवा बन्ध के बाद पूण्य और पाप को और मिला दिया जाए, तब वे नव पदार्थ हो जाएंगे। इन तत्व एवं पदार्थों पर यथार्थ श्रद्धान सम्यक दर्शन है, और यथार्थ बोध सम्यक ज्ञान है और उनका यथार्थ परिपालन सम्यक् चारित्र है। परन्तु इतनी बात ध्यान में रखिए, कि सम्यक् दर्शन के होने पर ही, ज्ञान सम्यक् बनता है और चारित्र, सयम्क् चारित्र बनता है ।
भारतीय दर्शन में और विशेषतः अध्यात्मवादी दर्शन में साधना के स्वरूप को बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। भारतीय दर्शन बाहर में देव, गुरु और धर्म की बात अवश्य करता है, परन्तु फिर वह झट अन्दर को ओर चला जाता है । अन्दर में यदि सत्य है, तभी तो वह बाहर प्रकट होगा। यदि अन्दर में ही अन्धकार है, तो बाहर में प्रकाश कैसे फैलेगा ? प्रत्येक सद्गुरु, साधक से कहता कि नरक और स्वर्ग तथा मोक्ष-ये कहीं बाहर में नहीं हैं, ये तो मूलतः तेरे अन्दर में ही हैं । तेरे मन के अन्दर का नरक ही तुझे नरक में ले जाता है, तेरे मन के अन्दर का स्वर्ग ही तुझे स्वर्ग में ले जाता है और
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संसार और मोक्ष | ३०७
तेरे मन के अन्दर का मोक्ष हो तुझे मोक्ष में ले जाता है । यदि अंधकार से प्रकाश में आना तुझे अभीष्ट है, तो पहले अपने मन के अन्धकार को दूर कर । अन्दर मन में प्रकाश नहीं है, तो तेरे लिए बाहर भी प्रकाश नहीं है और यदि तेरे मन में अन्दर अन्धकार नहीं है, तो बाहर भी तेरे लिए अन्धकार नहीं है । पुण्य और पाप के बीज तथा धर्म और अधर्म के बीज पहले तेरे अन्तर्मन में ही प्रकट होते हैं। मनुष्य अपने जीवन में जो पुण्य करता है, वह क्यों करता है ? इसलिए कि उसके मन में पुण्य है। यदि मनुष्य अपने जीवन में पाप करता है, तो इसलिए, कि उसके अन्तर्मन में पाप है। जो कुछ तेरे अन्दर में है, वही तो बाहर प्रकट होता है। इसलिए तू बाहर में कैसा है, इसके लिए तुझे सर्वप्रथम यह सोचना होगा, कि मैं अन्दर में कैसा है ?
सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में एक बात और सोचने एवं समझने की है, कि उस पर किसी व्यक्ति विशेष या जाति विशेष की बपौती नहीं है और न उस पर किसी का पैतृक अधिकार है। जो श्रम एवं साधना करेगा, वही उसे प्राप्त करेगा। सम्यक् दर्शन कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे पिता अपने पुत्र को उत्तराधिकार में दे सके, अथवा गुरु अपने शिष्य को उत्तराधिकार में दे सके । वह कोई धन-वैभव को वस्तु नहीं है, वह कोई राज्य-सिंहासन नहीं है, जिसे उत्तराधिकार में अपने उत्तराधिकारी को सौंपा जा सके। वह तो साधक को अपनी निजी चीज है और अपनी निजी चीज पर सभी का अधिकार होता है। अपने स्वरूप की प्राप्ति का अधिकार सभी को है। शास्त्रकारों ने कहा है कि नव तत्वों की चर्चा अथवा नव पदार्थों की चर्चा, केवल बुद्धि-विलास के लिए नहीं है, यह तो स्वस्वरूप को समझने के लिए है और स्वस्वरूप की उपलब्धि के लिए है । आत्म-विवेक और आत्मपरिबोध के लिए है।
भारतीय दर्शनों में, जिनका मूलस्वर में एक ही प्रकार का सुनता हूँ, किन्तु अपनी बात को कहने की जिनकी शैलो भिन्न-भिन्न है, प्रश्न उठाया गया है कि मोक्ष एवं मुक्ति का मार्ग, उपाय, साधन एवं कारण क्या है ? यह प्रश्न बहुत ही गम्भीर है। प्रत्येक युग के समर्थ आचार्य ने अपने युग की जन-चेतना के समक्ष इसका समाधान करने का प्रयत्न किया है। किन्तु जैसे-जैसे युग आगे बढ़ा, वैसे-वैसे यह प्रश्न भी आमे बढ़ता रहा, और हजार वर्ष पहले जैसा प्रश्न था, वैसा प्रश्न आज भी है। भौतिकवादी दर्शन को छोड़कर, समग्र अध्यात्म
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३०८ | अध्यात्म-प्रवचन वादी दर्शन का लक्ष्य एवं साध्य एक ही है-मोक्ष एव मुक्ति । साध्य में किसी प्रकार का विवाद नहीं है, विवाद है केवल साधन में । एक ने कहा है-मुक्ति का एक मात्र साधन ज्ञान ही है। दूसरे ने कहा है-मुक्ति का एक मात्र साधन, भक्ति ही है । और तीसरे ने कहा है, मुक्ति का एक मात्र साधन कर्म ही है। मैं विचार करता है कि एक ही साध्य को प्राप्त करने के लिए, उसके साधन के रूप में किसी ने ज्ञान पर बल दिया, किसी ने भक्ति पर बल दिया और किसी ने कर्म पर बल दिया। संसार में जितने भी साधना के मार्ग हैं, क्रिया-कलाप हैं अथवा क्रियाकाण्ड हैं, वे सब साधना के अलंकार तो हो सकते हैं, किन्तु उसकी मूल आत्मा नहीं। किसी भी पंथ का विरोध करना मेरा उद्देश्य नहीं है, मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है, कि जो कुछ भी किया जाए, सोच समझ कर किया जाना चाहिए। प्रत्येक साधक की रुचि अलग-अलग होती है, कोई दान करता है, कोई तप करता है और कोई सेवा करता है। दान, तप और सेवा तीनों धर्म हैं, किन्तु कब, जबकि विवेक का दीपक घट में प्रकट हो गया हो । इसी प्रकार कोई सत्य की साधना करता है, कोई अहिंसा की साधना करता है और कोई ब्रह्मचर्य की साधना करता है। किसी भी प्रकार की साधना की जाए, कोई आपत्ति की बात नहीं है, परन्तु ध्यान इतना ही रहना चाहिए, कि वह साधना विवेक के प्रकाश में चलती रहे । अलग-अलग राह पर चलना भी कोई पाप नहीं है, यदि आत्मा के मूलस्वरूप की दृष्टि को पकड़ लिया है, तो जिस व्यक्ति के हृदय में विवेक के दीपक का प्रकाश जगमगाता है, वह जो भी साधना करता है, वह उसो में एकरूपता, एकरसता और समरसता प्राप्त कर लेता है। जीवन में समरसी भाव की उपलब्धि होना ही, वस्तुतः सम्यक्-दर्शन है। __ अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में विशुद्ध ज्ञान का बड़ा ही महत्व है। भारत के अध्यात्मवादी दर्शनों में इस विषय में किसी प्रकार का विवाद नहीं है, कि ज्ञान भी मुक्ति का एक साधन है । वेदान्त और सांख्य एक मात्र तत्व-ज्ञान अथवा आत्म-ज्ञान को ही मुक्ति का साधन स्वीकार करते हैं । इसके अतिरिक्त कुछ दर्शन केवल भक्ति को ही, मुक्ति का सोपान मानते हैं और कुछ केवल क्रिया काण्ड एवं कर्म को ही मुक्ति का कारण मानते हैं । जैन-दर्शन का कथन है, कि तीनों का समन्वय ही, मुक्ति का साधन हो सकता है। इसमें किसी भी प्रकार का
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संसार और मोक्ष | ३०६ सन्देह नहीं है, कि अज्ञान और वासना के सघन जंगल को जलाकर भस्म करने वाला दावानल ज्ञान ही है। ज्ञान का अर्थ यहाँ पर किसी पुस्तक या पोथी का ज्ञान नहीं है, अपने स्वरूप का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है । "मैं हूँ" यह ज्ञान जिसे हो गया, उसे फिर अन्य किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती। परन्तु यह स्वरूप का ज्ञाम भी तभी सम्भव है, जबकि उससे पहले सम्यक दर्शन हो चुका हो। क्योंकि सम्यक दर्शन के बिना जैनत्व का एक अंश भी प्राप्त नहीं हो सकता है। यदि सम्यक दर्शन की एक किरण भी जीवन-क्षितिज पर चमक जाती है, तो गहन से गहन गर्त में पतित आत्मा के भी उद्धार की आशा हो जाती है। सम्यक् दर्शन की उस किरण का प्रकाश भले ही कितना ही मन्द क्यों न हो, परन्तु उसमें आत्मा को परमात्मा बनाने की शक्ति होती है । याद रखिए, उस निरंजन, निर्विकार, शुद्ध, बद्ध, परमात्मा को खोजने के लिए कहीं बाहर भटकने की आवश्यकना नहीं है, वह आपके अन्दर में ही है । जिस प्रकार घनघोर घटाओं के बीच, विजली को क्षीण रेखा के चमक जाने पर क्षणमात्र के लिए सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है, उसी प्रकार एक क्षण के लिए भी सम्यक् दर्शन की ज्योति के प्रकट हो जाने पर कभी न कभी आत्मा का उद्धार अवश्य हो ही जाएगा। बिजली की चमक में सब कुछ दृष्टिगत हो जाता है, भले ही वह कुछ क्षण के लिए ही क्यों न हो? इसी प्रकार यदि परमार्थ तत्त्व के प्रकाश की एक किरण भी अन्तर्हृदय में चमक जाती है, तो फिर भले ही वह कितनी ही क्षीण क्यों न हो, उसके प्रकाश में ज्ञान सम्यग् ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार ज्ञान को सम्यक् ज्ञान बनाने वाला, सम्यक् दर्शन ही है । यह सम्यक् दर्शन जीवन का मूलभूत तत्व है। ____ मैं आपसे कह रहा था, कि सप्त तत्व और नव पदार्थ पर श्रद्धान करना ही, सम्यक दर्शन है । तत्वों में अथवा पदार्थों में सबसे पहला जीव ही है । जीव, चेतन, आत्मा और प्राणी ये सब पर्यायवाची शब्द हैं । इस अनन्त विश्व में सबसे अधिक महत्वपूर्ण यदि कोई तत्व है, तो वह आत्मा ही है । 'मैं' की सत्ता का विश्वास और बोध यही अध्यात्म-साधना का चरम लक्ष्य है । इस समत्र संसार में जो कुछ भी ज्ञात एवं अज्ञात है, उस सबका चक्रवर्ती एवं अधिष्ठाता यह आत्मा ही है । आत्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य दूसरे तत्व या पदार्थ हैं, वे सब उसके सेवक या दास हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशा
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३१० | अध्यात्म प्रवचन
स्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल ये पांचों द्रव्य जीव के सेवक और दास हैं । इनको इतना भी अधिकार नहीं है, कि वे जीव रूप राजा की आज्ञा में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित कर सकें । जीव रूपी राजा को धर्मास्तिकाय सेवक यह आदेश नहीं दे सकता, कि चलो, जल्दी करो । अधर्मास्तिकाय सेवक उस राजा को यह नहीं कह सकता, कि जरा ठहर जाओ । आकाशास्तिकाय यह नहीं कह सकता, कि यहाँ ठहरिए और यहाँ नहीं । पुद्गलास्तिकाय सदा उसके उपभोग के लिए तैयार खड़ा रहता है । काल भी उसकी पर्याय परिवर्तन के लिए प्रतिक्षण तैयार रहता है। ये सब जीव के प्रेरक कारण नहीं, मात्र उदासीन और तटस्थ कारण ही होते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं, कि सात तत्वों में, षड्द्रव्यों में और नव पदार्थों में सबसे मुख्य और सबसे प्रधान जीव ही है । इसी आधार पर जीव को चक्रवर्ती और अधिष्ठाता कहा जाता है। एक बात और है, हम जीव को अपनी अलंकृत भाषा में भले ही चक्रवर्ती कह लें, वस्तुतः वह चक्रवर्ती से भी महान है, क्योंकि चक्रवर्ती केवल सीमित क्षेत्र का ही अधिपति होता है । सीमा के बाहर एक अणुमात्र पर भी उसका अधिकार नहीं होता और उसका शासन नहीं चल सकता । परन्तु जीव में वह शक्ति है, कि जब वह केवल ज्ञान प्राप्त कर लेता है एवं अरिहन्त बन जाता है, तब वह त्रिलोकनाथ और त्रिलोकपूजित हो जाता है । त्रिलोक के समक्ष चक्रवर्ती के छह खण्ड का विशाल राज्य भी महासिन्धु में मात्र एक बिन्दु के समान ही होता है । चक्रवर्ती को चक्रवर्ती अन्य कोई व्यक्ति नहीं बनाता है, वह अपनी निज की शक्ति से ही चक्रवतीं बनता है । इसी प्रकार इस आत्मा को भी त्रिलोकनाथ और त्रिलोकपूजित बनाने वाली अन्य कोई शक्ति नहीं है, आत्मा स्वयं अपनी शक्ति से ही तीन लोक का नाथ और तीन लोक का पूज्य बन जाता है । मैं आपसे यह कह रहा हूँ, कि आत्मा को परमात्मा बनाने वाला अन्य कोई नहीं होता । स्वयं आत्मा ही अपने विकल्प और विकारों को नष्ट करके, आत्मा से परमात्मा बन जाता है ।
आप इस बात को जानते ही हैं, कि सिंह को वन-राज कहा जाता है । वन-राज का अर्थ है-वन का राजा, वन का सम्राट और वन का चक्रवर्ती। मैं पूछता हूँ आपसे कि आखिर उस सिंह को वन का राजा किसने बनाया ? कौन ऐसा पशु एवं पक्षी है,
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संसार और मोक्ष | ३११ जो आगे बढ़कर उसका राज्याभिषेक करता है। सिंह को वन का राज्य दिया नहीं जाता, बल्कि वह स्वयं अपनी शक्ति से उसका उपार्जन करता है। इसी प्रकार यहाँ पर भी यही सत्य है, कि इस जीव को त्रिलोक का नाथ दूसरा कोई बनाने वाला नहीं है, यह स्वयं ही अपनी शक्ति से तीन लोक का नाथ बन जाता है। जैसे राजा के सेवक सदा राजा के आदेश का पालन करने के लिए तत्पर खड़े रहते हैं, वैसे ही जीव रूप राजा के आदेश का पालन करने के लिए, अन्य द्रव्य, अन्य तत्व और अन्य पदार्थ सदा तत्पर खड़े रहते हैं। किसी में यह ताकत नहीं है, कि उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे चला सके, ठहरा सके अथवा अन्य भी कोई कार्य करा सके। जब उसकी इच्छा होती है, वह चलता है, जब उसकी इच्छा होती है, तब वह ठहरता है, जब उसकी इच्छा होती है. तभी वह अपना अन्य कोई कार्य संपादन करता है । अन्य पदार्थ तो केवल उसकी आज्ञा-पालन में तैयार खड़े रहते हैं। कुछ भी करने वाला और कुछ भी न करने वाला तो स्वयं जीव ही है । अन्य पदार्थ उसके कार्य में अथवा क्रिया कलाप में निमित्त मात्र ही रहते हैं। और निमित्ति भी प्रेरक नहीं, केवल उदासीन ही । यह जड़ शरीर और इसके अन्दर रहने वाली ये इन्द्रियाँ और मन भी तभी तक कार्य करते हैं, जब तक जीव रूप राजा इस शरीर रूप प्रासाद में रहता है। उसकी सत्ता पर ही इस संसार के सारे खेल चलते हैं। इस जड़ात्मक जगत का अधिष्ठाता और चक्रवर्ती यह जीव जब तक इस देह में है, तभी तक यह देह हरकत करता है, इन्द्रियाँ अपनी प्रवृत्ति करती हैं और मन अपना काम करता है। इस तन में से जब चेतन निकल जाता है, तब तन, मन और इन्द्रियाँ सब निरर्थक हो जाती हैं। इसी आधार पर मैं आपसे यह कह रहा था कि तत्वों में मुख्य तत्व जीव है, द्रव्यों में मुख्य द्रव्य जीव है और पदार्थों में प्रधान पदार्थ जीव है । इस अनन्त सृष्टि का अधिनायकत्व जो जीव को मिला है, उसका मुख्य कारण, उसका ज्ञान-गुण ही है । ज्ञान होने के कारण ही यह ज्ञाता है और शेष संसार ज्ञेय है। जीव उपभोक्ता है और शेष समग्र संसार उसका उपभोग्य है, ज्ञाता है, तभी ज्ञेय की सार्थकता है, उपभोक्ता है, तभी उपभोग्य की सफलता है । इस अनन्त विश्व में जीवात्मा अपने शुभ या अशुभ कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह पाप भी कर सकता है और पुण्य भी कर सकता है, वह अच्छा भी कर सकता है और बुरा भी कर सकता है।
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नहीं?
३१२ | अध्यात्म-प्रवचन पाप करके यह नरक में जा सकता है, पूण्य करके यह स्वर्ग में जा सकता है तथा संवर एवं निर्जरा रूप धर्म की साधना करके, यह मोक्ष में भी जा सकता है। मोक्ष अथवा मुक्ति जीव की ही होती है, अजीव की नहीं। जब हम अजीव शब्द का उच्चारण करते हैं, तो उसमें भी मुख्य रूप से जीव की ध्वनि ही कर्णगोचर होती है क्योंकि जीव का विपरीत भाव ही तो अजीव है। कुछ लोग तर्क करते हैं, कि जीव से पहले अजीव को क्यों नहीं रक्खा ? यदि सात तत्वों में, षड् द्रव्यों में और नव पदार्थों में पहले जीव को न कहकर, अजीव का ही उल्लेख किया जाता, तो क्या आपत्ति थी ? सबसे पहले हमारी अनु. भूति का विषय यह जड़ पदार्थ ही बनता है। यह शरीर भी जड़ है, इन्द्रियाँ भी जड़ हैं और मन भी जड़ है। जीवन की प्रत्येक क्रिया जड़ एवं पुद्गल पर ही आधारित है, फिर जीव से पूर्व अजीव क्यों
आपने देखा, कि कुछ लोग अजीव की प्रमुखता के समर्थन में किस प्रकार तर्क करते हैं ? मेरा उन लोगों से एक ही प्रति प्रश्न है, प्रतितक है। यदि इस तन में से चेतन को निकाल दें, यदि इस देह से देही को निकाल दें, तो इस शरीर की क्या स्थिति रहेगी ? चेतन हीन और जीव विहीन शरीर को आप लोग शव कहते हैं। याद रखिए, इस शिव के सम्बन्ध से ही, यह शव शिव बना हुआ है। यदि सात तत्वों में अथवा नव पदार्थों में जीव से पहले अजीव को रख दिया गया होता, तो यह इंसान के दिमाग का दिवालियापन ही होता । और तो क्या, मोक्ष की बात को भी पहले नहीं रखा, सबसे अन्त में रखा है। सबका राजा तो आत्म ही है, उसी के लिए यह सब कुछ है, उसकी सत्ता से ही अजीव की सार्थकता है। पूण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर और निर्जरा स्वतन्त्र कहाँ हैं, जीव की ही अवस्थाविशेष हैं ये सब । मोक्ष भी जीव की ही अवस्था है, और मोक्ष के हेतु संवर और निर्जरा भी जीव के ही स्वरूप हैं। बन्ध और मोक्ष जीव के अभाव में किसको होंगे ? अतः संसार में जीव की ही प्रधानता है।
संस्कृत भाषा में जिसे आत्मा कहते हैं, हिन्दी भाषा का 'आप' शब्द उसी का अपभ्रंश है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है, कि आत्मा से ही प्राकृत का अप्पा और अप्पा से हिन्दी का 'आप' बना है। आप और आत्मा दोनों का अर्थ एक ही है। आत्मा की बात अपनी बात
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संसार और मोक्ष | ३१३
है और अपनी बात आत्मा की बात है । यही जीवन का मूल तत्व है, जिस पर जीवन की समस्त क्रियाएँ आधारित हैं । जब तक यह शरीर में विद्यमान रहता है, तभी तक शरीर क्रिया करता है। शुभ क्रिया अथवा अशुभ क्रिया का आधार जीव ही है । जीवन के अभाव में न शुभ क्रिया हो सकती है और न अशुभ क्रिया हो सकती है । मन, वचन और शरीर की जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका आधार जीव ही तो होता है । यदि आत्म-तत्व न हो, तो फिर इस विश्व में कोई भी व्यवस्था न रहे । विश्व की व्यवस्था का मुख्य आधार जीव ही है ।
आपने देखा होगा, कि जो लोग मधुमक्खी पालने का काम करते हैं, वे लोग किस प्रकार उनसे मधु प्राप्त करते हैं । मधु प्राप्त करने की प्रक्रिया का वर्णन करना मुझे यहाँ अभीष्ट नहीं है, मैं तो आपको केवल यह बताना चाहता हूँ, कि मधुमक्खियों का जीवन व्यवहार कैसा होता है और उनके जीवन की व्यवस्था किस प्रकार चलती है ? हजारों-हजार मधुमक्खियों में रानी मक्खी एक ही होती है, उसी के संकेत पर शेष मक्खियां अपना-अपना कार्य करती हैं । जब तक छत्ते पर रानी मक्खी बैठी रहती है, तब तक सब अपना-अपना कार्य करती रहती हैं, और जब रानी मक्खी चली जाती है, तो शेष सभी मक्खियाँ भी चली जाती हैं । यही सिद्धान्त यहाँ पर लागू होता है । शरीर में जब तक आत्मा है तभी तक मन, वचन, शरीर, इन्द्रियां आदि सभी अपना-अपना कार्य करते रहते हैं और इस तन से चेतन के निकलते ही, सब का काम एक साथ और एकदम बन्द हो जाता है । मधुमक्खी के छत्ते पर अधिकार करने का सबसे आसान तरीका यह है, कि रानी मक्खी को पकड़कर दूर ले जाया जाए, फिर एक-एक मक्खी को हटाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी । रानी मक्खी के जाते ही शेष मक्खियाँ स्वयं चली जाती हैं । यह कभी नहीं हो सकता, कि रानी मक्खी के चले जाने के बाद भी, शेष मक्खियाँ अपना शहद चाटने के लिए वहीं पड़ी रहें । इस प्रकार हम देखते हैं, कि मधुमक्खियों में जीवन की कितनी सुन्दर व्यवस्था है और उनका शासन-तन्त्र कितनी अच्छी पद्धति से चलता है । आत्मा भी इस संसार में मधुकर राजा है । जब तक वह इस देहरूप छत्ते पर बैठा है, तभी तक मन, वचन, शरीर, इन्द्रिय तथा पुण्य, पाप, शुभ एवं अशुभ आदि का व्यापार चलता रहता है । यह आत्मा रूप
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३१४ | अध्यात्म प्रवचन
मधुकर राजा जब अपना छत्ता छोड़ देता है, तो इस जीवन की शेष समस्त क्रियाएँ अपने आप बन्द हो जाती हैं, उन्हें बन्द करने की आवश्यकता नहीं रहती। इस बात का ध्यान रखें, कि जिस मधुमक्खी को रानी कहा जाता है, पहले उसे राजा कहा जाता था। उसका प्रयोग स्त्रीलिंग और पुल्लिग दोनों में होता है। आत्मा शब्द का स्त्रीलिंग और पूल्लिग दोनों में प्रयोग किया जाता है । यद्यपि आत्मा का अपना कोई लिंग नहीं होता--न स्त्रीलिंग और न पुल्लिग । फिर भी लोक-भाषा में हम इस प्रकार का प्रयोग किया करते हैं, कि मेरी आत्मा अथवा मेरा आत्मा, इसी पर से यह जाना जाता है, कि आत्मा शब्द का प्रयोग हिन्दी में उभयलिंग में किया जाता है । यह सब व्यवहार-दृष्टि है, निश्चय दृष्टि में तो आत्मा का कोई लिंग होता ही नहीं। आत्मा न स्त्री है, न पुरुष है और न नपंसक है। आत्मा न बाल है, न तरुण है, न प्रौढ़ है और न वृद्ध है । ये सब अवस्थाएँ आत्मा की नहीं, शरीर की होती हैं। परन्तु इनके आधार पर शरीर को आत्मा समझना और आत्मा को शरीर समझना एक भयंकर मिथ्यात्व है। जब तक यह मिथ्यात्व नहीं टूटेगा, तब तक आत्मा का उद्धार और कल्याण भी नहीं हो सकेगा। इस मिथ्यात्व को तोड़ने की शक्ति एकमात्र सम्यक दर्शन में ही है।
मैं आपसे कह रहा था, कि जीवन के रहने पर ही सब कुछ रहता है और जीवन के न रहने पर कुछ भी नहीं रहता। इसी आधार पर अध्यात्मवादी दर्शन में जीव को अन्य सभी तत्वों का राजा कहा जाता है। यदि इस जीव, चेतन और आत्मा का वास्तविक बोध हो जाता है, तो जीव से भिन्न अजीव को एवं जड़ को पहचानना आसान हो जाता है। अजीव के परिज्ञान के लिए भी, पहले जीव का परिबोध ही आवश्यक है। अपने को जानो, अपने को पहचानो, यही सबसे बड़ा सिद्धान्त है, यही सबसे बड़ा ज्ञान है और यही सबसे बड़ा सम्यक् दर्शन है ! जीव की पहचान ही सबसे पहला तत्व है। जब जीव का ज्ञान हो जाता है, तब प्रश्न उठता है कि क्या इस संसार में जीव का प्रतिपक्षी भी कोई तत्व है ? इसके उत्तर में हम कह सकते है, कि जीव का प्रतिपक्षी अजीव है। अतः अजीव के ज्ञान के लिए जीव को ही आधार बनाना पड़ता है। इसीलिए मैंने कहा था, कि सप्त तत्वों में, षड् द्रव्यों में और नव पदार्थों में सबसे मुख्य तत्व और सबसे मुख्य द्रव्य, सबसे प्रधान पदार्थ जीव ही है । जीव
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संसार ओर मोक्ष | ३१५ के ज्ञान के साथ अजीव का ज्ञान स्वतः ही हो जाता है। शास्त्रकारों ने जीव का लक्षण बतलाया है-उपयोग । और अजीव के लिए कहा है, कि जिसमें उपयोग न हो वह अजीव है। अजीव का शब्दार्थ ही है कि जो जीव न हो वह अजीव, अर्थात अ+जीव । अतः अजीव से पहले जीव का ही प्रमुख स्थान है।
जीव और अजीव के बाद आस्रव तत्व आता है। आस्रव क्या है ? जीव और अजीव का परस्पर विभावरूप परिणति में प्रवेश ही आस्रव है। दो विजातीय पृथग्भूत तत्वों के मिलन की क्रिया, विभाव परिणाम ही आस्रव है । जीव की विभाव रूप परिणति और अजीव की विभाव रूप परिणति ही वस्तुतः आस्रव है। एक ओर आत्मा रागद्वेषरूप विभाव अवस्था में परिणत होता है, तो दूसरी ओर कर्माण पुद्गल भी कर्मरूप विभाव अवस्था में परिणति करता है। उक्त उभयमुखी विभाव के द्वारा जब जीव और अजीव का संयोग होता है, उस अवस्था को शास्त्रकारों ने आस्रव कहा है। इसीलिए जीव और अजीव के बाद आस्रव को रखा गया है। ____ आस्रव के बाद बन्ध आता है। बन्ध का अर्थ है-कर्म पुद्गल रूप अजीव और जीव का दूध और पानी के समान एक क्षेत्रावगाही हो जाना । बन्ध का अर्थ है-वह अवस्था, जब कि दो विजातीय तत्व परस्पर मिलकर सम्वद्ध हो जाते हैं। इसी को संसार अवस्था कहा जाता है।
पुण्य और पाप, जो कि शुभ क्रिया एवं अशुभ क्रियाएँ है, उनका अन्तर्भाव आस्रव में और बन्ध में कर दिया जाता है। आस्रव दो प्रकार का होता है-शुभ और अशुभ । आस्रव के बाद बन्ध की प्रक्रिया होती है, अतः वन्ध भी दो प्रकार का होता है-शुभ बन्ध और अशुभ बन्ध । इस प्रकार शुभ और अशुभ रूप पुण्य और पाप दोनों ही आश्रव और बन्ध में अन्तभुक्त हैं । यहाँ तक संसार-अवस्था का ही मुख्य रूप से वर्णन है । बाहर के किसी भी वन, पर्वत, नदी आदि जड़ पदार्थ को संसार नहीं कहा जाता। वास्तविक संसार तो कर्म परमाणुओं का अर्थात कर्म दलिकों का आत्मा के साथ सम्बन्ध हो जाना ही है । जब तक जीब और पुद्गल की यह संयोग अवस्था रहेगी, तव तक संसार की स्थिति और सत्ता भी रहेगी। यह स्वर्ग और नरकों के खेल, यह पशु-पक्षी और मानव का जीवन, सब आस्रव और बन्ध पर ही आधारित हैं । शुभ और अशुभ अर्थात् पुण्य
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३१६ | अध्यात्म-प्रवचन
और पाप, यह भी सब संसार के ही खेल हैं। इनसे आत्मा का कोई हित नहीं होता, बल्कि अहित ही होता है । अध्यात्म-ज्ञानी की दृष्टि में शुभ भी बन्धन है और अशुभ भी बन्धन है, पाप भी बन्धन है, और पुण्य भी बन्धन है, सुख भी संसार है, और दुःख भी संसार है, शुभ भी संसार है और अशुभ भी संसार है।
प्रश्न होता है, कि यदि यह सब कुछ संसार है, तो संसार का विपरीत भाव मोक्ष क्या है ? इसके समाधान में कहा गया है, कि आत्मा की विशुद्ध अवस्था ही मोक्ष है, जो शुभ और अशुभ दोनों से अतीत है । दुःख की व्याकुलता यदि संसार है तो सुख की आसक्ति रूप आकुलता भी संसार ही है। मोक्ष की स्थिति में न दुःख की व्याकुलता रहती है, और न सुख की आकूलता ही रहती है । जब तक जीव इस भेद-विज्ञान को नहीं समझेगा, तब तक वह संसार से निकल कर मोक्ष के स्वरूप में रमण नहीं कर सकेगा। पुद्गल और जीव का संयोग यदि संसार है, तो पुद्गल और जीव का वियोग ही मोक्ष है, परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है, कि जो अजीव कर्म पुद्गल जीव के साथ सम्बद्ध होने वाला है या हो चुका है, उसे जीव से अलग रखने या अलग करने का प्रयत्न किया जाए, इसी को मोक्ष की साधना कहते हैं। इस साधना का मुख्य केन्द्र-बिन्दु है, आत्मा और अनात्मा का भेद-विज्ञान । जब तक जीव पृथक् है और अजीव पृथक् है यह भेद-विज्ञान नहीं हो जाता है, तब तक मोक्ष की साधना सफल नहीं हो सकती । यह भेद-विज्ञान तभी होगा, जबकि आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जायगी। सम्यक् दर्शन के अभाव में न मोक्ष की साधना ही को जा सकती और न वह किसी भी प्रकार से फलवती ही हो सकती है। भेद-विज्ञान का मूल आधार सम्यक् दर्शन ही है । सम्यक् दर्शन के अभाव में जीवन की एक भी क्रिया मोक्ष का अंग नहीं बन सकती, प्रत्युत उससे संसार की अभिवृद्धि ही होती है । मोक्ष की साधना के लिए साधक को जो कुछ करना है, वह यह है कि वह शुभ और अशुभ दोनों से दूर हो जाए । न शुभ को अपने अन्दर आने दे और न अशुभ को ही अपने अन्दर आने दे । जब तक अन्दर के शुभ एवं अशुभ के विकल्प एवं विकार दूर नहीं होंगे, तब तक मोक्ष की सिद्धि नहीं की जा सकेगी। आस्रव से वन्ध और बन्ध से फिर आसव, यह चक्र आज का नहीं, अनादि काल का है, परन्तु इससे विमुक्त होने के लिए, आत्म-ज्ञान और अपनी सत्ता का
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संसार और मोक्ष | ३१७
पूर्ण विश्वास जाग्रत होना ही चाहिए। शुभ और अशुभ के विकल्प जब तक बने रहेंगे, तब तक संसार का अन्त नहीं हो सकता, भले ही हम कितना ही प्रयत्न क्यों न कर लें ।
संसार के विपरीत मोक्ष मार्ग की साधना करना ही अध्यात्मवाद है । मोक्ष का अर्थ है - आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था जिसमें आत्मा का किसी भी विजातीय तत्व के साथ संयोग नहीं रहता और समग्र विकल्प एवं विकारों का अभाव होकर, आत्मा स्व स्वरूप में स्थिर हो जाता है । जिस प्रकार संसार के दो कारण हैं- आस्रव और बन्ध | उसी प्रकार मोक्ष के भी दो कारण हैं-संवर और निर्जरा । संवर क्या है ? प्रतिक्षण कर्म दलिकों का जो आत्मा में आगमन है, उसे रोक देना । प्रतिक्षण आत्मा कषाय और योग के वशीभूत होकर, नवीन कर्मों का उपार्जन करता रहता है, उन नवीन कर्मों के आगमन को रोक देना ही, संवर कहा जाता है । निर्जरा क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि पूर्ववद्ध कर्मों का एक देश से आत्मा से अलग हटते रहना ही निर्जरा है । इस प्रकार धीरे-धीरे जब पूर्वबद्ध कर्म आत्मा से अलग होता रहेगा, तब एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जबकि आत्मा सर्वथा कर्म-विमुक्त बन जाय । वस्तुतः इसी को मोक्ष कहा जाता है । संवर और निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं। क्योंकि ये दोनों आस्रव और बन्ध के विरोधी तत्व हैं । इस आधार पर यह कहा जा सकता है, कि जब तक सवर और निर्जरा रूप धर्म की साधना नहीं की जाएगी, तब तक मुक्ति की उपलब्धि भी सम्भव नहीं है । मोक्ष प्राप्त करने के लिए संवर और निर्जरा की साधना आवश्यक है, इसके बिना आत्मा को स्वस्वरूप की उपलब्धि नहीं हो सकती ।
मैं आपसे कह रहा था कि सप्त तत्वों में अथवा नव जीव ही प्रधान है । जीव के अतिरिक्त अन्य जितने भी तत्व हैं, वे सब किसी न किसी प्रकार जीव से ही सम्बन्धित हैं । जीव की सत्ता के कारण ही आस्रव और बन्ध की सत्ता रहती है। ओर जीव के कारण ही संवर एवं निर्जरा की सत्ता रहती है। मोक्ष भी क्या है, जीब की ही एक सर्वथा शुद्ध अवस्थाविशेष है । इस दृष्टि से विचार करने पर फलितार्थ यही निकलता है, कि जीव की प्रधानता है । समग्र अध्यात्म-विद्या का आधार ही यह जीब है, अतः जीव के स्वरूप को समझने की ही सबसे बड़ी आवश्यकता है । जीव के स्वरूप
पदार्थों में पदार्थ एवं
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३१८ | अध्यात्म प्रवचन का परिज्ञान हो जाने पर और यह निश्चय हो जाने पर, कि मैं पुद्गल से भिन्न चेतन तत्व हूँ, फिर आत्मा में किसी प्रकार का मिथ्यात्व और अज्ञान का अन्धकार शेष नहीं रह सकता। अज्ञान
और मिथ्यात्व का अन्धकार तभी तक रहता है, जब तक 'पर' में स्वबुद्धि रहती है और 'स्व' में पर-बुद्धि रहती है। स्व में पर बुद्धि का रहना भी वन्धन है और पर में स्व बुद्धि का रहना भी बन्धन है । स्व में स्व बुद्धि का रहना ही वस्तुतः भेद विज्ञान है । जब स्व में स्वबुद्धि हो गई, तब पर में परबुद्धि तो अपने आप ही हो जाती है, उसके लिए किसी प्रकार के प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती। प्रयत्न की आवश्यकता केवल स्व स्वरूप को समझने की है। जिसने स्व स्वरूप को समझ लिया उसे फिर अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रहती।
एक बार हम कुछ सन्त बिहार-यात्रा कर रहे थे। संयोग की बात है, एक क्षेत्र में कुछ अधिक दिनों तक ठहरने का प्रसंग आ गया। एक विरक्त गृहस्थ भाई भी अपने साथ था ओर गोचरी करके भोजन लाता था । बचा हुआ भोजन गली के कुत्ते को डाल देता था। जब हमने वहाँ से विहार किया, तो वह कुत्ता भी साथ हो लिया। उसे दूर करने का बहुत प्रयत्न किया गया, किन्तु कुछ दूर जाकर फिर लोट आता, साथ के श्रावकों ने भी उसे वापिस गाँव में ले जाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु उस कुत्ते ने उस भाई का साथ नहीं छोड़ा। यह एक साधारण सी घटना है, किन्तु विचार करने पर इसमें से एक बहत बड़ा जीवन का मर्म निकलता है। जिस प्रकार रोटी का एक टुकड़ा डालने से कुत्ता साथ नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार संसार के ये कर्म-पुद्गल भी कुत्ते के समान हैं । राग एवं द्वेष का टुकड़ा डालने पर वे आत्मा के साथ चिपट जाते हैं, फिर सहज ही आत्मा का साथ नहीं छोड़ते। राग द्वेष का टुकड़ा जब तक डाला जाता रहेगा, तब तक कर्म रूप कुत्ता पीछा कैसे छोड़ सकता है ? संसार एक बाजार है। आप जानते हैं कि बाजार में हजारों दुकानें होती हैं, जिनमें नाना प्रकार की सामग्री भरी रहती है। बाजार में अच्छी चीज भी मिल सकती है और बुरी से बुरी चीज भी मिलती है। बाजार में कम कीमत की चीज भी मिल सकती है और अधिक मूल्य की वस्तु भी बाजार में उपलब्ध हो सकती है। यह खरीदने वाले की भावना पर है, कि वह क्या खरीदता है और क्या
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संसार और मोक्ष | ३१६ नहीं खरीदता है ? यदि कोई व्यक्ति वस्तु खरीद लेता है तो वह उसे लेनी होगी, और उसकी कीमत चुकानी होगी। यदि कोई बाजार में से तटस्थ दर्शक के रूप में गुजरता है, कुछ भी नहीं खरीदता है, तो उसे दुकान की किसी वस्तु को लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है, और न मूल्य चुकाने के लिए ही कोई दबाब डाला जा सकता है । संसार के बाजार में भी सभी कुछ है, वहाँ विष भी है
और अमृत भी है। वहाँ सुख भी है ओर दुःख भी है। वहाँ स्वर्ग भी है और नरक भी है। यदि आपकी दृष्टि कुछ भी खरीदने की नहीं है, मात्र दर्शक ही हैं आप, तब तो समस्त बाजार में से पार होकर भी आप किसी वस्तु को लेने के लिए बाध्य न होंगे। बाजार की वस्तु उसी के चिपकती है, जो उसे खरीदता है। जो व्यक्ति कुछ खरीदता ही नहीं, उस व्यक्ति के साथ कोई भी वस्तु उसकी इच्छा के विरुद्ध चिपक नहीं सकती। यदि आप संसार रूप बाजार की यात्रा खरीददार बनकर कर रहे हैं, संसार की वस्तुओं के साथ रागात्मक या द्वषात्मक भाव रख रहे हैं, तो तन्निमित्तक कर्म आपके साथ अवश्य चिपक जाएगा। इसके विपरीत यदि आप संसार रूप बाजार की यात्रा केवल एक दर्शक के रूप में कर रहे हैं, रागद्वेष का भाव नहीं रख रहे हैं, तो एक भी कर्म आपके साथ सम्बद्ध न हो सकेगा। इसीलिए मैं कहता है कि आप संसार के बाजार की यात्रा एक दर्शक के रूप में कीजिए खरीददार बनकर नहीं। यदि एक बार भी कहीं कुछ खरीदा, राग द्वष का भाव किया, तो समस्या ही खड़ी हो जाएगी। राग और द्वेष के वशीभूत होकर ही यह आत्मा अच्छे एवं बुरे कर्मों का उपार्जन करता है, जिसका सुख दुःखात्मक फल उसे भोगना पड़ता है।
यहां पर मुझे एक पठान की कहानी याद आ रही है, जो हास्यात्मक होकर भी मानव जीवन के एक गहन मर्म को प्रकाशित करती है। घटना इस प्रकार है, कि काबुली पठान को एक बार कहीं दिल्ली जैसे शहर में सोहन हलुवा खाने को मिला। उसने अपने जीवन में यह पहली बार खाया था। सोहन हलुवा पठान को बहुत हो रुचिकर और प्रिय लगा । उसने उस व्यक्ति की बड़ी प्रशंसा की, जिसने उसे सोहन हलुवा खिलाया था। पठान ने विदा लेते समय बहुत ही कृतज्ञता व्यक्त की और कहा, कि आपने मुझे एक ऐसी सुन्दर वस्तु खिलाई है, जिसे मैं अपने जीवन में नहीं भूल सकता।
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३२० | अध्यात्म प्रवचन
संयोग की बात कि कुछ वर्षों बाद वही पठान फिर उसी नगर में किसी कार्यवश आया । एक दिन पठान नगर के बाजार में इधर से उधर घूम रहा था, कि उसने एक दुकान पर सोहन हलुवे के आकार की और खा-रूप की बहुत सी साबुन की टिकियाँ रक्खी देखीं । पठान सोहन हलुवा खाने की इच्छा का संवरण नहीं कर सका। साबुन की टिकिया को सोहन हलुवा समझकर दुकानदार से टिकिया तोल देने को कहा, दुकानदार से टिकिया खरीदकर पठान ने झोले में डाली और चल दिया। कुछ दूर चलकर एक वृक्ष की शीतल छाया में बैठ गया और खाने लगा । पठान ने ज्योंही एक डली मुँह में रखी, तो उसे बहुत खारापन प्रतीत हुआ, वह अपने मन में सोचने लगा, शायद सोहन हलुवा दो प्रकार का होता हो, मीठा भी और खारा भी । वह साबुन को सोहन हलुवा समझकर खाता रहा, आखिर उसके मुँह में आग सी लगने लगी, पेट कटने लगा और उसकी हालत बुरी हो गई । एक सज्जन व्यक्ति ने पठान की इस बुरी हालत को देखकर कहा, "पठान ! यह क्या खा रहे हो ?" पठान बोला- “ दीखता नहीं है तुम्हें, सोहन हलुवा खा रहा हूँ ।" आगन्तुक सज्जन ने पठान को समझाते हुए कहा -- " भले आदमी ! यह सोहन हलुवा नहीं है, यह तो साबुन की टिकिया है । यह खाने के काम की नहीं है, कपड़े धोने के काम आती है । इसे फेंक दो, मत खाओ, नहीं तो इसे खाकर तुम मर जाओगे ।" पठान बोला, "मरू या जीऊँ, इससे तुम्हें क्या मतलब ? मैंने मुफ्त में नहीं, अपनी जेब से पैसा खर्च करके खरीदा है और जब खरीदा है तो खाना ही है, फिर चाहे वह मीठा हो, चाहे खारा हो ।" संसारी मोहबद्ध आत्मा की स्थिति भी उस काबुली पठान - जैसी ही है ? संसार का प्रत्येक मोह-मुग्ध आत्मा वैसा ही कार्य करता है, जैसा कि पठान ने किया था। आप भी जब संसार के बाजार से वस्तुओं के प्रति राग एवं द्वेष का कुछ सौदा खरीद लाते हैं तो बन्धन में बद्ध होकर उसका फल भोगने के लिए विवश हो जाते हैं । जब कोई ज्ञानी आपसे उसे छोड़ने की वा कहता है, तब आप उसकी बात पर विश्वास नहीं करते । ज्ञानी कहता है, कि संसार के बाजार में से शुभाशुभ विकल्पों से तटस्थ होकर निकलो । न पाप का सौदा खरीदो, और न पुण्य का । पुण्य भी अन्ततः दुःखरूप ही है, सुखरूप नहीं । वह भी वस्तुतः साबुन के तुल्य है, उसे धर्मरूप सोहनहलुवा समझकर अपनाने की
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अध्यात्म प्रवचन | ३२१ भूल मत करो। परन्तु आप उस ज्ञानी की बात पर विश्वास नहीं करते और उस सुख दुःखात्मक अथवा पाप पुण्यात्मक साबुन की टिकिया को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं । यह बात निश्चित है, कि जब तक आप शुभ या अशुभ का त्याग नहीं करेंगे, तब तक विशुद्ध भाव का आनन्द भी आप नहीं ले सकेंगे। __ मैं आपसे कह रहा था कि अध्यात्म-साधना में सफलता प्राप्त करने के लिये, राग और द्वष के विकल्पों को जीतने की आवश्यकता है। जब तक जीवन में अनासक्ति का भाव और वीतरागता का भाव नहीं आएगा, तब तक जीवन का कल्याण नहीं हो सकेगा। वीतरागता को वह कला प्राप्त करो, जो ऐसी अद्भुत है, कि संसार-सागर में गोता लगाने पर भी, उसकी एक भी बंद आप पर न ठहर सके, और यह कला राग-द्वेष के विकल्प को जीतने की ही हो सकती है। जब आत्मा में वीतराग भाव आ जाता है, तब संसार के किसी भी पदार्थ का उसके जीवन पर अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। मैं आपसे कह रहा था, कि संसार का विपरीत भाव ही मोक्ष है। जैसे दूध-दूध है और पानी-पानी है, यह दोनों की शुद्ध अवस्था है । जब दोनों को मिला दिया जाता है, तब यह दोनों की अशुद्ध अवस्था कहलाती है । इसी प्रकार जीव और पुद्गल की संयोगावस्था संसार है और इन दोनों की वियोगावस्था ही मोक्ष हैं। इस मोक्ष अवस्था में जीव, जीव रह जाता है और पुद्गल पुद्गल रह जाता है। वस्तुतः यही दोनों की विशुद्ध स्थिति है।
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१८
सम्यग् दर्शन के विविध रूप
सम्यक् दर्शन में दो शब्द हैं-सम्यक् और दर्शन । दर्शन का सामान्यतः अर्थ है --किसी वस्तु का देखना अर्थात् साक्षात्कार करना। परन्तु यहाँ पर मोक्ष और उसके स्वरूप का वर्णन चल रहा है, अतः उसके साधन के अर्थ में प्रयुक्त दर्शन शब्द का कोई विशेष अर्थ होना चाहिए । और वह विशेष अर्थ क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहना है कि यहाँ दर्शन शब्द का अर्थ केवल देखना ही नहीं है। प्रस्तुत प्रसंग में दर्शन शब्द के दो अर्थ हैं-दष्टि और निश्चय । जब दर्शन शब्द का अर्थ दष्टि और निश्चय किया जाता है, तब इसका अर्थ यह होगा, कि दृष्टि भ्रान्त भी हो सकती है और निश्चय गलत भी हो सकता है। उस भ्रान्त दष्टि और गलत निश्चय का निषेध करने के लिए ही, दर्शन से पूर्व सम्यक् शब्द जोड़ा जाता है जिसका अर्थ होता है-वह दृष्टि, जिसमें किसी भी प्रकार की भ्रान्ति न हो, और वह निश्चय, जो अयथार्थ न होकर यथार्थभूत हो ।।
एक बात यहाँ पर और भी विचारणीय है, और वह यह कि प्रत्येक मत और प्रत्येक पंथ, अपने को सच्चा समझता है और दूसरे को झुठा समझता है। वास्तव में कौन सच्चा है और कौन झूठा है, इसकी परीक्षा करना भी आवश्यक हो जाता है। मैं समझता हूँ जो धर्म और दर्शन सत्य की उपासना करता है, फिर भले ही वह सत्य
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सम्यक् दर्शन के विविध रूप | ३२३
अपना हो अथवा दूसरों का हो, बिना किसी मताग्रह एवं पूर्वाग्रह के तटस्थ भाव से सत्य को सत्य समझना ही वास्तविक सम्यक् दर्शन है । मैं आपसे पहले कह चुका हूँ, कि सप्त तत्वों पर निश्चित दृष्टि, प्रतीति अर्थात् श्रद्धान ही मोक्ष-साधन का प्रथम अंग है । अध्यात्म साधना में सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक होता है, कि आत्म-धर्म क्या है और आत्म-स्वभाव क्या है ? आत्मा और अनात्मा में भेद - विज्ञान को अध्यात्म भाषा में सम्यक् दर्शन कहा जाता है । आत्म स्वरूप का स्पष्ट दर्शन और कल्याण पथ की दृढ़ आस्था, यही सम्यक् दर्शन है । कभी-कभी हमारी आस्था में और हमारी श्रद्धा में भय से और लोभ से चलता और मलिनता आ जाती है । इस प्रकार के प्रसंग पर भेदविज्ञान के सिद्धान्त से ही, उस चलता और मलिनता को दूर हटाया जा सकता है । सम्यक दर्शन की ज्योति जगते ही, तत्व का स्पष्ट दर्शन होने लगता है । स्वानुभूति और स्वानुभव यहो, सम्यक् दर्शन की सबसे संक्षिप्त परिभाषा हो सकती है । कुछ विचार-मूढ़ लोग बाह्य जड़ क्रिया काण्ड में ही सम्यक् दर्शन मानते हैं । किन्तु सम्यक् दर्शन का सम्बन्ध किसी भी जड़ क्रियाकाण्ड से नहीं है, उसका एक मात्र सम्बन्ध है, आत्म-भाव की विशुद्ध परिणति से । सम्यक् दर्शन का सम्बन्ध न किसी देश विशेष से है, न किसी जाति - विशेष से है, और न किसी पंथ - विशेष से ही है । जब तक यह आत्मा स्वाधीन सुख को प्राप्त करने की ओर उन्मुख नहीं होता है, तब तक किसी भी प्रकार की धर्म - साधना से कुछ भी लाभ नहीं हो सकता । अपनी आत्मा में अविचल आस्था करना ही जब सम्यक् दर्शन का वास्तविक अथ है, तब शरीरापेक्ष किसी भी बाह्य जड़ क्रिया काण्ड में और उसके विविध विधिनिषेध में सम्यक् दर्शन नहीं हो सकता ।
मैं आपसे सम्यक् दर्शन की बात कह रहा था । सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है, किन्तु सम्यक् दर्शन एक ऐसा विषय है, कि जीवन भर भी यदि इस पर विचार किया जाए, तब भी इस विषय का अन्त नहीं आ सकता, फिर भी सम्यक् दर्शन पर कुछ आवश्यक बातों पर विचार-विनिमय हो जाना आवश्यक है । जब सम्यक् दर्शन में दर्शन पद का सामान्य रूप से देखना अर्थ किया जाता है, तब प्रश्न उठता है, कि क्या देखना, क्यों देखना, और किसको देखना ? क्यों देखना, यह एक प्रश्न है, जिसके उत्तर में कहा जाता है, कि जिसके पास दृष्टि है और देखने की शक्ति है, वह अच्छी
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३२४ ! अध्यात्म प्रवचन और बुरी वस्तु को देखेगा ही। मनुष्य की दृष्टि के समक्ष जैसी भी वस्तु आ जाती है, वह उसे देखता ही है, और देखकर उस पर कोई न कोई अच्छा या बुरा विचार भी करता है । सम्यक् दर्शन कहता है, कि जब अच्छी वस्तु को देखकर मन पर अच्छे संस्कार पड़ते हैं और बुरी वस्तु को देखकर मन पर बुरे संस्कार पड़ते हैं, तब बुरी वस्तु को छोड़कर अच्छी वस्तु को ही क्यों न देखा जाय ? कल्पना कीजिए, आपके सामने दो स्त्रियां खड़ी हुई हैं । दोनों तरुणी हैं, नव यौवना है, और दोनों ही रूपवती हैं। परन्तु उनमें से एक सती एवं साध्वी है और दूसरी कुलटा एवं वेश्या है, दोनों में स्त्रीत्व समान होने पर भी, साध्वी को देखकर हृदय में अध्यात्म-विचार उठते हैं और वेश्या को देखकर हृदय में वासनामय ज्वार उठता है । इसलिए अध्यात्म साधक को किसी भी पदार्थ को देखने के समय यह विचार करना चाहिए, कि मैं इस पदार्थ को क्यों देख रहा है ? संसार के किसी भी पदार्थ को रागात्मक दृष्टि से देखना निश्चय ही अधर्म है, और उसे स्वरूपबोध को दृष्टि से देखना, निश्चय ही धर्म है। किसको देखना? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है, कि इस संसार में अनन्त पदार्थ हैं, तुम किस-किस को देखोगे? यह जटिल समस्या है। अतः किसी ऐसे पदार्थ को देखो, जिसके देखने से अन्य किसी के देखने की इच्छा ही न रहे और वह पदार्थ अन्य कोई नहीं, एक मात्र आत्मा ही है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि किसको देखना, इस प्रश्न का एक ही समाधान है, कि आत्मा को ही देखो। आत्मा को देखने पर ही हम अपने लक्ष्य को अधिगत कर सकेंगे । कैसे देखना ? इस प्रश्न के उत्तर में मुझे केवल इतना ही कहना है, कि अभी तक यह आत्मा अनन्त काल से संसार के पदार्थों को मिथ्या दृष्टि से ही देखता रहा है किन्तु जब तक सम्यक दृष्टि से नहीं देखा जायगा, तब तक आत्मा का कल्याण एवं उत्थान नहीं हो सकता । इस प्रकार जब हम वस्तु स्थिति का अध्ययन करते हैं, तब हमें जीवन की वास्तविकता का परिबोध हो जाता है।
मिथ्या दर्शन को जब अधर्म कहा जाता है, तब इसका अर्थ यही होता है, कि सम्यक् दर्शन ही सच्चा धर्म है। धर्म क्या है ? यह भी एक विकट समस्या है। आज के युग में जितने भी मतवाद, पंथवाद और सम्प्रदायवाद हैं, सब अपने को धर्म कहते हैं । विचारणीय प्रश्न
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सम्यक् दर्शन के विविध रूप | ३२५ यह है, कि पंथ और सम्प्रदाय धर्म हैं अथवा धर्म की प्रयोगभूमि हैं। मैं पंथ और सम्प्रदाय को धर्म न मानकर धर्म की प्रयोगभूमि और साधना-भूमि ही मानता है। मेरे विचार में धर्म का सम्बन्ध किसी बाह्य वस्तु से नहीं है । मनुष्य के आन्तरिक जीवन की विशुद्धि को ही वस्तुतः धर्म कहा जाना चाहिए। केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि समग्र चेतना के सम्बन्ध में यही कहना चाहिए, कि चेतन की अंतरंग विशुद्ध परिणति को ही, धर्म कहा जाता है। कुछ आचार्यों ने इसो आधार पर वस्तु-स्वभाव को धर्म कहा है। प्रत्येक वस्तु का अपना निज स्वभाव ही धर्म है, तथा प्रत्येक वस्तु का स्वभाव से च्युत होना ही अधर्म है । आत्मा जब तक अपने स्व स्वरूप में स्थित है, वह धर्मी रहता है और जब वह स्व स्वरूप को छोड़कर पर स्वरूप में स्थित होता है, तब वह अधर्मी बन जाता है । सम्मक् दर्शन आत्मा का स्व स्वरूप है और मिथ्या दर्शन आत्मा का परस्वरूप है। शान्त रहना स्व स्वरूप है और क्रुद्ध होना परस्वरूप है । आत्मा के स्वस्वरूप से च्युत होने का कारण है, अपने स्वस्वरूप और अपनी सीमा का अज्ञान । जब आत्मा स्वस्वरूप को भूल जाता है, तब वह अपनी सीमा में न रहकर पर की सीमा में प्रवेश कर जाता है और यही सबसे बड़ा मिथ्यात्व है । शास्त्रकारों ने बतलाया है, स्वानुभूति और स्वस्वरूपस्थिति हो वास्तविक धर्म है; इसके अतिरिक्त जो भी कुछ बाह्य क्रिया काण्ड और विधि-विधान है, वे उपचार से ही धर्म कहे जा सकते हैं। वास्तविक रूप में वे धर्म नहीं कहे जा सकते।
मैं जहाँ तक अध्ययन कर पाया हूँ, सम्यक् दर्शन की परिभाषा के तीन प्रकार उपलब्ध होते हैं-तत्त्वार्थ श्रद्धान, देव-गुरु-धर्म पर विश्वास और आत्मा अनात्मा का भेद-विज्ञान । विभिन्न आचार्यों ने अपने विभिन्न ग्रन्थों में उक्त तीन रूपों का ही कथन किया है। कहीं पर संक्षेप से वर्णन है और कहीं पर विस्तार के साथ । एक ने जिसको मुख्य माना तो दूसरे ने उसी को गौण मान लिया। परन्तु इन तीन रूपों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा रूप नहीं है सम्यक् दर्शन का, जिसका उल्लेख किया जा सके । तत्त्वार्थ श्रद्धान दार्शनिक जगत की वस्तु रहा, भेद-विज्ञान अध्यात्म-शास्त्र का विषय रहा और देव-गुरु एवं धर्म पर विश्वास, यह एक सम्प्रदाय सम्बन्धी सम्यक् दर्शन रहा। किन्तु निश्चय दृष्टि से विचार करने पर आत्मा अनात्मा का भेद
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३२६ / अध्यात्म-प्रवचन
विज्ञान ही, सम्यक् दर्शन है । इसके अभाव में न तत्त्वों पर श्रद्धान होगा। न देव-गुरु पर विश्वास हो । मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि बाहर के किसी भी पूजा-पाठ में अथवा बाहर के किसी भी क्रियाकलाप में सम्यक दर्शन मानना उचित नहीं है। वीतराग वाणी में विश्वास भी तभी जमता है, जबकि आत्मा पर आस्था जम गई हो । घूम फिर कर एक ही तथ्य पर दृष्टि केन्द्रित होती है, कि आत्मा को जानना ही सच्चे अर्थों में सम्यक् दर्शन माना जा सकता है। यदि आत्मा को नहीं जाना, तो सब कुछ को जानने से भी किसी प्रकार का लाभ नहीं हो सकता । और यदि आत्मा को जान लिया और उसके स्वरूप की पहचान कर ली तो मैं समझता हूँ, हमने सब कुछ प्राप्त कर लिया। अध्मात्म-साधना में सबसे मुख्य बात आत्मस्वरूप को समझने की और आत्म-स्वरूप पर स्थिर दृष्टि करने की ही है। किसी भी वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए उसके मूल स्वरूप को समझने का ही प्रयत्न होना चाहिए, इसी में उसका यथार्थ दर्शन होता है।
सम्यक् दर्शन चेतना का धर्म है, परन्तु खेद है कि आज के युग में उस समाज, राष्ट्र और वर्ग एवं वर्ण के साथ भी जोड़ा जा रहा है । सम्प्रदायवादी लोग यह सोचते और समझते रहे हैं कि इस संसार में धर्म के सच्चे दावेदार हम ही हैं, अन्य कोई नहीं । एक अंग्रेज यह विश्वास करता है, कि संसार में गोरी जाति शासन करने के लिए है और काली जाति शासित होने के लिए है । कुछ लोग यह सोचते हैं कि स्त्री जाति पुरुष जाति की अपेक्षा हीन है-बल में भी, बुद्धि में भी और जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में भी। कुछ लोग यह सोचते हैं, कि मानव जाति में अमूक वर्ग और अमुक वर्ण श्रेष्ठ हैं, दूसरे निकृष्ट हैं । कुछ लोग यह सोचते हैं, कि हमारा राष्ट्र सबसे बड़ा है और सबसे श्रेष्ठ है। कुछ लोग यह भी सोचते रहे हैं, कि अमुक भाषा पवित्र है और अमुक भाषा अपवित्र है। परन्तु मैं इन सबको मिथ्या विकल्प और मिथ्या विचार समझता हूँ। मानवमानव में भेद, घृणा और द्वेष फैलाना किसी भी प्रकार से धर्म नहीं हो सकता । संसार के इतिहास को पढ़ने से पता लगता है, कि किस प्रकार विश्व की जातियाँ पंथ की रक्षा के लिए धर्म के नाम पर लड़ती रही हैं । भारतवर्ष में ब्राह्मणों के द्वारा अन्य वर्गों का तिरस्कार और जर्मन में यहूदी जाति का बहिष्कार कुछ इस प्रकार के कृत्य हैं,
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सम्यक् दर्शन के विविध रूप ! ३२७ जिन्हें धर्म के नाम पर किया गया था, किन्तु वस्तुतः उसमें धर्म की आत्मा नहीं थी। आज के इस वर्तमान युग में हम यह देख रहे हैं कि हिन्दी-रक्षा और हिन्दी-विरोध में तथा गौ-रक्षा और गौ-विरोध में जो कुछ किया जा रहा है, उसमें धर्म नहीं, पंथवादी मानव वृत्ति ही अधिक काम कर रही है। दक्षिण भारत में राम को गाली देना और रामायण को अग्नि में जला देना, यह सब कुछ धर्म के नाम पर और संस्कृति के नाम पर किया जा रहा है। द्रविड़ लोग यह विश्वास रखते हैं, कि द्राविड़ संस्कृति ऊँची है और आर्य संस्कृति नीची है। जाति के नाम पर रावण की पूजा करना और राम का तिरस्कार एवं अनादर करना किस भाँति धर्म कहा जा सकता है ? इस प्रकार के कृत्यों से यदि कोई व्यक्ति यह सोचता है, कि मैं अपनी संस्कृति और अपने धर्म की उन्नति कर रहा है, तो वह धर्म और संस्कृति की रक्षा नहीं, अपितु हत्या ही करता है। मैं इन सभी प्रकार के अन्ध विश्वासों को, जो सम्यक् दर्शन के नाम पर प्रचलित हैं, मिथ्या दर्शन ही मानता हूँ। किसी भी राष्ट्र के प्रति, किसी भी जाति के प्रति, किसी भी समाज के प्रति और किसी भी वर्ग विशेष के प्रति घणा की भावना रखना धर्म नहीं कहा जा सकता, सम्यक् दर्शन नहीं कहा जा सकता। ___मैं आपसे यह कह रहा था, कि किसी युग में लोगों ने पंथ और सम्प्रदाय को ही धर्म मानकर जो कुछ दूसरे पंथ और वर्ग पर अन्याय और अत्याचार किया, उसे भी लोगों ने अपनी मतान्धता के कारण धर्म मान लिया । औरङ्गजेब का विश्वास था, कि जितने भी अधिक हिन्दुओं को मुस्लिम बनाया जा सके, उतना ही अधिक धर्म होगा । इसी विश्वास के आधार पर अपनी तलवार की शक्ति से उसने हजारों हिन्दुओं को मुसलमान बनाया। ईसाई लोग और उनके धर्म गुरु पादरी आज मानव-जाति की सेवा के नाम पर जन धन का प्रलोभन देकर, पिछड़ी जातियों को ईसाई बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। उनका विश्वास है, कि इस कार्य को करके, हम ईसा के सच्चे भक्त बन जाएंगे। परन्तु इस विषय पर गम्भीरता के साथ सोचने के बाद बुद्धिमान व्यक्ति इसी निर्णय पर पहँचता है, कि इस प्रकार के कृत्यों में न धर्म है और न संस्कृति । एक व्यक्ति, यदि वह ब्राह्मण से मुसलमान बन जाए अथवा ब्राह्मण से ईसाई बन जाए, तो यह तो उसके चोटी और दाढ़ी आदि के रूप में तन का परिवर्तन हुआ, मन का
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३२८ | अध्यात्म प्रवचन
परिवर्तन नहीं । और इस तन के परिवर्तन को ही धर्म मानना, सबसे बड़ा अज्ञान और सबसे बड़ा मिथ्यात्व है । इस प्रकार के परिवर्तनों से जीवन की समस्या का हल नहीं हो सकता । इस प्रकार के कार्यों से धर्म की रक्षा और संस्कृति की रक्षा करने का विश्वास मूलतः प्रान्त ही है ।
मैं आपसे यह कह रहा था, कि सम्यक् दर्शन तन का धर्म नहीं है वह आत्मा का धर्म है । तन को बदलने से जीवन में चमत्कार नहीं आएगा, आत्मा को बदलने से ही उसमें विशुद्धि और पवित्रता आ सकती है। आप किसी भी देश के हों, आप किसी भी जाति के हों, आप किसी भी वर्ग एवं वर्ण के हों और आप किसी भी पंथ एवं सम्प्रदाय के हों, इससे हमें कोई प्रयोजन नहीं है। हम केवल एक ही बात जानना चाहते हैं, कि आपको अपनी आत्मा पर विश्वास है, या नहीं ? यदि आपने अपनी आत्मा पर आस्था कर ली है और उसके स्वरूप को समझ लिया है, तो निश्चय ही आपको सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो चुकी है। इसमें किसी भी प्रकार के विवाद को अवकाश नहीं रहता ।
सम्यक् दर्शन के दो भेद हैं-निश्चय सम्यक् दर्शन और व्यवहार सम्यक् दर्शन । निश्चय नय परनिरपेक्ष आत्मस्वरूप को कहता है । उसकी दृष्टि परम पारिणामिक चैतन्य भाव पर रहती है । शास्त्र में निश्चय नय को भूतार्थ और व्यवहार मय को अभूतार्थ कहा गया है । भूतार्थ और अभूतार्थ का क्या अर्थ है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है कि अनौपचारिक रूप से वस्तु के शुद्ध स्वरूप को ग्रहण करने वाला भूतार्थं होता है और उपचार रूप से वस्तु स्वरूप को ग्रहण करने वाला अभूतार्थ होता है । संसारी आत्माएँ विभाव पर्यायों को धारण करके नाना रूप में परिणत हो रही हैं । इस परिणमन में मूलद्रव्य की स्थिति जितनी सत्य और भूतार्थ है, उतनी ही उसकी विभाव परिणतिरूप व्यवहार स्थिति भी सत्य और भूतार्थ है । यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए, कि पदार्थ परिणमन की दृष्टि से निश्चय और व्यवहार दोनों भूतार्थ और सत्य हैं । परन्तु निश्चय जहाँ परनिरपेक्ष द्रव्य-स्वभाव को विषय करता है, वहाँ व्यवहार परसापेक्ष भाव को विषय करता है, यहाँ दोनों में मौलिक भेद है । तात्पर्य यह है कि परनिरपेक्षता निश्चय का विषय है और परसापे
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सम्यक् दर्शन के विविध रूप | ३२६ क्षता व्यवहार का विषय है । जब एक व्यक्ति यह कहता है मैं रंक हूँ, मैं राजा हैं, मैं बलवान है, मैं निर्बल हैं, मैं काला है और मैं गोरा हूँ। यह कथन अभूतार्थ है, क्यों कि यह परसापेक्ष है। इसके अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं न शरीर हूँ, न इंद्रिय हूँ, न मन हूँ, मैं चैतन्यरूप हैं, शुद्ध एवं बुद्ध है, तो उसका यह कथन भूतार्थ कहा जाता है, क्यों कि यह परनिरपेक्ष है । मैं आपसे यह कह रहा था कि सम्यक दर्शन भी दो प्रकार का है-निश्चय और व्यवहार तथा भूतार्थ और अभूतार्थ । जब साधक की दृष्टि आत्म स्वरूप पर स्थिर रहती है और जब वह अपनी आत्मा पर आस्था करता है, तो उसका यह निश्चय सम्यक् दर्शन है। देव, गुरु और धर्म की श्रद्धा को व्यवहार सम्यक दर्शन कहा जाता है। परन्तु जब यह आत्मा भेद-विज्ञान हो जाने पर स्वयं अपने आपको ही देव, स्वयं अपने आपको ही गुरु और स्वयं अपने आपको ही धर्म मानता है, तब वह निश्चय सम्यक् दर्शन होता है । आत्मा के मूल स्वरूप की प्रतीति को निश्चय सम्यक् दर्शन कहा जाता है । शेष सब व्यवहार सम्यक् दर्शन है।
मैं आपसे यह कहूँगा, कि निश्चय हमारी मूल दृष्टि है, वही हमारा साध्य और लक्ष्य भी है, किन्तु व्यवहार का भी लोप नहीं करना है। जिन-शासन में न एकान्त निश्चय सुन्दर कहा गया है और न एकान्त व्यवहार को ही समीचीन कहा गया है। दोनों का समन्वय एवं सन्तुलन ही यहाँ पर अभीष्ट है। केवल निश्चय की बात कहकर व्यवहार का लोप करना न तर्क-संगत है और न शास्त्र-संगत ही। इतनी बात अवश्य है कि हम व्यावहाराभासरूप लोक-व्यवहार के झमेले में पड़ कर कहीं अपने लक्ष्य को न भूल जाएँ। अपने आत्मलक्ष्य को न भूल बैठे, इसलिए निश्चय दृष्टि और निश्चय नय की आवश्यकता रहती है । व्यवहार तभी तक ग्राह्य है, जब तक कि वह परमार्थ दृष्टि की साधना में सहायक रहता है। अतः निश्चय और व्यवहार दोनों का समन्वित और सन्तुलित रूप ही शास्त्रीय दृष्टि से समीचीन कहा गया है।
सम्यक दृष्टि आत्मा वह है, जिसे इस लोक और परलोक का भय नहीं रहता। परलोक का अर्थ है-मरणोत्तर जीवन । प्रत्येक पंथ और सम्प्रदाय यह दावा करता है, कि जो कोई व्यक्ति उसके बताए पथ पर चलेगा वह परलोक में सुखी और समृद्ध होगा । अन्य
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३३० | अध्यात्म-प्रवचन सम्प्रदायों में ही नहीं, जैन-धर्म में भी परलोक के सुखों का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है । स्वर्ग, नरक और मोक्ष का सांगोपांग वर्णन अध्यात्मवादी सभी पंथों में उपलब्ध होता है । परन्तु वस्तुतः परलोक क्या है और उसे कैसे सुधारा जा सकता है ? इस पर बहुत कम लोग विचार कर पाते हैं। परलोक की जो सबसे व्यापक और सर्वमान्य परिभाषा हो सकती है, वह यह है, कि जब आत्मा एक स्थूल शरीर को छोड़कर अन्य योनि में पहुँच कर अन्य स्थूल शरीर को धारण करता है, तब यही परलोक कहलाता है। जो आत्मा सम्यक दृष्टि होता है। उसे न परलोक का भय रहता है और न इस लोक का ही भय उसे रहता है। जब सम्यक दृष्टि ने मिथ्यात्वमूलक पाप का परित्याग कर दिया, तब फिर उसे इस जन्म में, या पर जन्म में भय किस बात का ? परलोक का एक अद्यतन अर्थ सामाजिक भी है, कि अपने से भिन्न लोक अर्थात् जनता । इस अर्थ में यदि परलोक का अर्थ किया जाता है, तो परलोक सुधारने का अर्थ होगा-मानव-समाज का सुधार । मानव मात्र के ही नहीं, बल्कि प्राणिमात्र के सुधार में विश्वास रखना, यह भी एक प्रकार का सम्यक् दर्शन है। मानव-समाज का सुख एवं दुःख बहुत कुछ अंशों में तत्कालीन समाज-व्यवस्था का परिणाम होता है। अतः अपने सत्प्रयत्नों से स्वस्थ समाज के निर्माण की दिशा में कर्तव्य को मोड़ देना ही चाहिए। इस अर्थ में परलोक का सम्यक् दर्शन यही है, कि जिस परलोक का सुधार हमारे हाथ में है, उसका सुधार अहिंसा और समता के आधार पर यदि हम करें, तो निश्चय ही मानव-जाति का बहुत कुछ कल्याण किया जा सकता है। यहाँ करने का अर्थ कर्तृत्व का अहं नहीं, मात्र निमित्तता है ।।
जैन-दर्शन इस सत्य को स्वीकार करता है, कि अपना उत्थान और अपना पतन, स्वयं आत्मा के अपने हाथ में है। जीव का जैसा कर्म होता है, शुभ अथवा अशुभ, वैसा ही उसे फल मिल जाता है । इसके अतिरिक्त यह कहना कि कर्म हम करते हैं और उसका फल कोई अन्य देता है, सबसे बड़ा मिथ्यात्व है । मनुष्य स्वयं अपने भाम्य का विधाता है। वह स्वयं अपने कर्म का कर्ता है और वह स्वयं ही उसके फल का भोक्ता भी है। बन्धन-बद्ध रहना आत्मा का स्वभाव नहीं है, बंधन से विमुक्त रहना ही आत्मा का निज स्वरूप है। परन्तु इस संसारी आत्मा की स्थिति उस पक्षी के समान है, जो चिरकाल से पिंजड़े में बन्द रहने के कारण अपनी स्वतन्त्रता को भूल चुका है।
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सम्यक् दर्शन के विविध रूप | ३३१
कर्म का बन्धन अवश्य है, किन्तु मैं कर्म से विमुक्त हो सकता हैं, इस प्रकार का विश्वास ही कर्मवादी सम्यक् दर्शन है । कर्म वादी सम्यक् दर्शन में आत्मा यह विचार करता है, कि मैं स्वयं ही बँधा हूँ और मैं स्वयं ही अपनी शक्ति से विमुक्त हो सकता हूँ । मेरे अतिरिक्त अन्य कोई शक्ति ऐसी नहीं है जो मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध बन्धन में डाल सके । कर्मवादी सम्यक् दृष्टि आत्मा यह भी आस्था रखता है, कि मैं अपने पुरुषार्थ से कर्म के बन्धन को दूर कर सकता हूँ। मैं पीछे बता आया हूँ, कि प्रतिक्षण प्रत्येक वस्तु में अनेक परिणामों की परिणति होती रहती है । जैसा निमित्त और जैसी सामग्री मिल जाएगी, तदनुकूल योग्यता का परिणमन होकर, उस आत्मा का वैसा विकास हो जाएगा । कर्म की शक्ति अवश्य है, परन्तु कर्म के विषय में यह सोचना और विश्वास करना, कि कर्म के बिना कुछ भी नहीं हो सकता - यह विचार सम्यक् विचार नहीं है । इसका अर्थ यह होगा, कि हमने चेतन की शक्ति को स्वीकार न करके जड़ की शक्ति को ही सब कुछ स्वीकार कर लिया है । मैं पूछता हूँ आपसे कि जब आत्मा अपने पुरुषार्थ से बद्ध हो सकता है, तब वह अपने पुरुषार्थ से मुक्त क्यों नहीं हो सकता ? वस्तुतः बात यह है, कि अनादि कालीन बन्धन के कारण यह आत्मा अपने स्वरूप को भूल बैठा है । उसे अपने पर विश्वास नहीं रहा, और कर्म की शक्ति पर ही उसने विश्वास कर लिया है । इसीलिए वह अपने जीवन में दीनता एवं हीनता का अनुभव करता है । यह आत्मा अपने स्वरूप और अपनी शक्ति को कैसे भूल गया, इस तथ्य को समझने के लिए एक रूपक कहा जाता है । कल्पना कीजिए, एक वेश्या है, मनुष्य उसके रूप से विमुग्ध होकर उसके वशीभूत हो जाता है । वह इतना परवश हो जाता है कि अपनी शक्ति को भूलकर वह उस वेश्या को ही सर्वस्व समझने लगता है । परन्तु एक दिन जब वह वेश्या की मोह की परिधि से बाहर निकल जाता है, तब वह अपने वास्तविक स्वरूप को समझकर अपनी शक्ति पर विश्वास करने लगता है । यही स्थिति जीव और कर्म पुद्गल की है । जीव पुद्गल के मोह में आसक्त होकर अपने स्वरूप और अपनी शक्ति को भूल कर पुद्गल के अधीन हो गया है । किन्तु स्व स्वरूप की उपfब्ध होते ही, वह अपने विस्मृत स्वरूप को फिर प्राप्त कर लेता है । और अपनी अनन्त शक्ति का उसे परिज्ञान हो जाने पर फिर वह बन्धन बद्ध नहीं रह सकता है ।
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३३२ | अध्यात्म प्रवचन
मैं आपसे सम्यक् दर्शन की चर्चा कर रहा था, और यह बता रहा था, कि अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में सम्यक् दर्शन के कितने विविध रूप हो सकते हैं । सम्यक् दर्शन के विविध रूपों की संक्षेप में मैंने यहाँ चर्चा की है । अध्यात्मवादी सम्यक् दर्शन, सांस्कृतिक सम्यक् दर्शन, सामाजिक सम्यक् दर्शन, परलोकवादी सम्यक् दर्शन और कर्मवादी सम्यक् दर्शन का संक्षेप में मैं परिचय दे चुका है। एक सम्यक् दर्शन और है - जिसे शास्त्रवादी अथवा पोथीवादी सम्यक् दर्शन भी कहा जा सकता है । जो पंथ और परम्परा किसी पुस्तक विशेष में अथवा किसी पोथी विशेष में विश्वास रखता है और कहता है, कि जो कुछ इसमें विहित है, वही सत्य है, वही कर्तव्य है और वही धर्म है । यह एक प्रकार का विश्वास है, जिसका प्रसार और प्रचार प्राचीनकाल में भी था और आज भी है । सत्य किसी पोथी विशेष में नहीं रहता, बल्कि वह तो मानव के चिन्तन और अनुभवों में ही रहता है । पोथीवादी परम्पराओं का प्रभाव जैन-संस्कृति पर एवं जैन धर्म पर भी पड़ा और उसमें भी शास्त्रवादी एवं पोथीवादी सम्यक् दर्शन का प्रसार होने लगा । जीवन के प्रत्येक सत्य को जब किसी पुस्तक की कसौटी पर कसा जाता है, तब उस सत्य के साथ यह एक प्रकार का अन्याय ही होता है । सत्य स्वयं अपने आप में अखण्ड एवं अनन्त होता है, किन्तु एक पंथवादी व्यक्ति यह विचार करता है, और यह विश्वास करता है, कि जो कुछ मेरी पोथी में उल्लिखित है, वही सत्य है । उससे बाहर कहीं पर भी सत्य नहीं है । यह एक पंथवादी मनोवृत्ति का पोथीवादी विश्वास कहा जा सकता है, किन्तु वास्तविक विश्वास नहीं । वास्तविक सम्यक् दर्शन तो यही है, अपनी आत्मा में आस्था रखना ।
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सम्यग् दर्शन के लक्षण : अतिचार
यह जगत् आदिहोन और अन्तहोत है । इसका प्रवाह अनन्त काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता ही रहेगा । यह जगत अतीत में कभी नहीं था, यह नहीं कहा जा सकता । और यह जगत् भविष्य में कभी नहीं रहेगा, यह भी नहीं कहा जा सकता । इस अनादि और अनन्त जगत् में आत्मा अनादि काल से ससरण करता आ रहा है । जब तक आत्मा में मिथ्यात्व भाव और कषायभाव विद्यमान है, तब तक जन्म और मरण के परिचक्र को परिसमाप्त नहीं किया जा सकता । सम्यक् दर्शन की साधना और सम्यक् दर्शन की आराधना से ही, इस आत्मा का यह अनादि संसरण समाप्त हो सकता है और उसे स्वस्वरूप की उपलब्धि हो सकती है । सम्यक् दर्शन में वह दिव्य शक्ति है, जो अपनी पूर्ण विशुद्ध कोटि में पहुँचकर एक दिन आत्मा के समग्र विकल्प और विकारों को दूर कर सकती है । जिस किसी भी आत्मा में सम्यक् दर्शन की ज्योति का आविर्भाव हो जाता है, यह निश्चित है कि वह आत्मा देर सवेर में मोक्ष की
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३३४ | अध्यात्म प्रवचन
प्राप्ति अवश्य हो करेगा । एक क्षणमात्र का सम्यक् दर्शन भी अनन्त जन्म मरण का नाश करने वाला है । सम्यक् दर्शन के अभाव में जीव अनन्त काल में अन्य अनेक साधनाएँ कर चुका है, परन्तु बन्धन की एक कड़ी भी टूट नहीं पाई । यदि एक क्षण के लिए भी यह जीव सम्यक् दर्शन प्रकट करे, तो उसकी मुक्ति हुए बिना न रहे । सम्यक् दर्शन ही साधक की सर्वप्रथम अध्यात्म-साधना है । सम्यक् दर्शन की साधना के बल पर ही यह आत्मा अपने विविध भवों के मूल बीज को मिटा सकता है। जब तक आत्मा में मिथ्यात्व भाव और कषायभाव किसी भी रूप में रहता है, तब तक भव- बन्धन से विमुक्ति मिलना कथमपि सम्भव नहीं है । जिस आत्मा में सम्यक् दर्शन की ज्योति प्रकट हो गई, वही ज्ञानी है, वही चरित्रवान है, वही शाश्वत सुख को प्राप्त करने वाला साधक है । सम्यक् दर्शन की विमल साधना करने वाला व्यक्ति कभी-न-कभी अवश्य ही इन संसारी बन्धनों से विमुक्त हो सकेगा ।
आपके समक्ष सम्यक् दर्शन का वर्णन चल रहा है । सम्यक् दर्शन की महिमा एवं सम्यक् दर्शन की गरिमा के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है और बहुत कुछ कहा जा सकता है । अब सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में कुछ अन्य बातों पर भी विचार कर लें, जिन पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता हैं । सर्वप्रथम यह प्रश्न उपस्थित होता है, कि सम्यक् दर्शन आत्मा का अमूर्त गुण है । आत्मा एक अमूर्त तत्व है, फलतः गुण भी अमूर्त ही हैं, फिर उन्हें हम कैसे देख सकते है, और कैसे जान सकने हैं ? इस स्थिति में हमें यह पता कैसे चले कि अनुक आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो चुकी है, अथवा नहीं ? प्रश्न बड़े ही महत्व का है । इसके समाधान में शास्त्रकारों ने एवं अन्य विभिन्न ग्रन्थकारों ने यह बतलाया है, कि प्रत्येक वस्तु को जानने के लिए, लक्षण की आवश्यकता है । बिना लक्षण के लक्ष्य को नहीं जाना जा सकता । यहाँ पर सम्यक् दर्शन लक्ष्य है, हम उसका परिबोध करना चाहते हैं, अतः उसके लक्षण की आवश्यकता है । आत्मा के सम्यक् दर्शन गुण को जानने के लिए पाँच लक्षण बताये गए हैं- प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । ये पाँचों अथवा इनमें से कोई भी एक लक्षण यदि मिलता है, तो समझना चाहिए कि उस आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो चुकी है । परन्तु इतना ध्यान रखिए, कि यह लक्षण व्यवहार नय
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सम्यग् दर्शन के लक्षण : अतिचार | ३३५
की अपेक्षा से कहे गए हैं, निश्चय नय की अपेक्षा से तो स्वस्वरूप पर आस्था होना ही सम्यक् दर्शन का वास्तविक लक्षण है । मैं यहाँ पर संक्षेप में यह बतलाने का प्रयत्न करूँगा कि इन पाँच लक्षणों का वास्तविक स्वरूप क्या है ?
प्रशम क्या वस्तु है और प्रशम का स्वरूप क्या है ? इस सम्वन्ध में यह कहा गया है, कि आत्मा में कषाय भाव अनन्त काल से रहा है । यह कषाय भाव कभी तीव्र हो जाता है और कभी मन्द हो जाता है । जब कषाय की तीव्रता बढ़ती है, तब आत्मा अपने स्वरूप से विमुख हो जाता है । और कषाय मन्द होता है, तब यह आत्मा अपने स्वरूप की ओर उन्मुख होता है । कषाय की मन्दता ही वस्तुतः प्रशम है । एक व्यक्ति क्रोध आने पर भी जब शान्त रहता है, तब समझना चाहिए कि उससे प्रशम गुण है । एक व्यक्ति लोभ का प्रसंग आने पर भी संतोष रखता है, तब कहना चाहिए कि उसमें प्रशम गुण है । अभिमान और माया के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए । कषायभाव की मन्दता को ही प्रशम कहा जाता है और इस प्रशम गुण की अभिव्यक्ति जिस किसी भी जीवन में होती है, समझना चाहिए कि वह जीवन सम्यक् दर्शन गुण से विशिष्ट है । प्रशम गुण आत्मा की उस विशुद्ध स्वरूप की स्थिति का परिचय कराता है, जिसमें आत्मा कषाय का उदय होने पर भी उसका उपशमन करता रहता है । कषाय के उदय काल में कषाय का उपशमन करना सहज और आसान नहीं है कषायों का दमन करना और कषायों का उपशमन करना अपने आप में एक बहुत बड़ा तप है और अपने आप में एक बहुत बड़ी साधना है । विकार का कारण रहने पर भी विकार की अभिव्यक्ति न होने देना, यह एक आत्मा का असाधारण गुण है । इस गुण को प्रशम, उपशम और उपशमन भी कहा जाता है । यह सम्यक्त्व का पहला लक्षण है ।
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सम्यक् दर्शन का दूसरा लक्षण है - संवेग । संवेग का अर्थ क्या है, और उसका स्वरूप क्या है ? इस सम्बन्ध में यह कहा जाता है, कि आत्मा के ऊर्ध्वमुखी भाव-वेग को ही संवेग कहा जाता है । वेग का अर्थ है - गति एवं गमन । जब यह गमन अधोमुखी होता है, तब आत्मा पतन की ओर जाता है और जब यह गमन सम् अर्थात् अध्यात्म भाव में ऊर्ध्वमुखी होता है, तब आत्मा उत्थान की ओर जाता है । संवेग का एक दूसरा अर्थ भी किया जाता है कि भव-भीति
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३३६ / अध्यात्म-प्रवचन ही संवेग है। जब आत्मा संसार के दुःखों एवं क्लेशों को देखकर भयभीत होता है, तो उसके मन में दुःखों एवं क्लेशों से छूटने का निर्मलभाव पैदा होता है, यही सवेग है। संवेग का तीसरा अर्थ हैभव-बन्धन से विमुक्त होने की अभिरुचि । संवेग शब्द के तीन अर्थों पर यहाँ पर विचार किया गया है-गमन, भव-भीति और मोक्ष की अभिरुचि । यह ग्रन्थकारों की अपनी बुद्धि का चमत्कार है, कि वे किस प्रसंग पर किस शब्द का क्या अर्थ करते हैं। किन्तु संवेग का अर्थ-मोक्ष की अभिरुचि ही अधिक संगत प्रतीत होता है। क्योंकि जब आत्मा में प्रशम और उपशमन भाव आ जाता है, तब उस आत्मा में मोक्ष की अभिरुचि का होना भी सहज हो जाता है। मोक्ष की अभिरुचि का अर्थ है कि संसार के अन्य पदार्थों की अभिरुचि का अभाव । संसार के पदार्थों की अभिरुचि का अभाव और मोक्ष की अभिरुचि का भाव-इन दोनों का तात्पर्य है, कि स्व में स्व की अभिरुचि । जब आत्मा अपने अतिरिक्त अन्य किसी की अभिरुचि नहीं रखता, तब उसे न भव बन्धनों का भय रहता है और न अध-पतन का ही भय रहता है । संवेग की यह परिभाषा और व्याख्या जब जीवन में साकार हो जाती है, तब समझना चाहिए कि उस जीवन में सम्यक् दर्शन के पीयूष का वर्षण हो रहा है।
सम्यक् दर्शन तीसरा लक्षण है-निवेद । निर्वेद शब्द में जो वेद है, उसका अर्थ है-अनुभव करना । वेद के पूर्व जब निर् लगा देते हैं तब वह निर्वेद बन जाता है। निर्वेद शब्द का अर्थ है-वैराग्य, विरक्ति और अनासक्ति । यह संसारी आत्मा अनन्त काल से संसार के पदार्थों में आसक्त और अनुरक्त रहा है। जिस किसी भी पदार्थ को वह देखता है, उसे रागवश ग्रहण करने की इच्छा उसके मन में पैदा हो जाती है, इतना ही नहीं, बल्कि उस पदार्थ के उपभोग की कामना में भान भूल जाता है। संसारी आत्मा को काम और भोग सदा प्रिय रहे हैं । वह काम और भोगों में सदा बद्ध रहा है, इसी कारण वह अपने वास्तविक स्वरूप को जान नहीं सका । संसार के काम और भोगों के प्रति जब किसी · आत्मा में वैराग्य-भाव, विरक्ति और अनासक्ति आ जाती है, आत्मा की उस विशुद्ध स्थिति को ही यहां निर्वेद कहा गया है। निर्वेद का अर्थ है-जीवन की वह विशुद्ध स्थिति जब काम और भोगों के रहने पर भी उनकी रागरूप आसक्ति का अनुभव न हो अथवा काम और भोगों के रहने पर भी उनके प्रति
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सम्यग् दर्शन के लक्षण: अतिचार | ३३७
लोलुपता की अनुभुति न रहकर केवल आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का ही परिबोध हो, वस्तुतः आत्मा की इसी स्थिति को निर्वेद कहा जाता है । जिस आत्मा में निर्वेद की अभिव्यक्ति हो जाती है, वह आत्मा फिर संसार के किसी भी पदार्थ में स्वरूपविच्युतिकारक आसक्ति और अनुरक्ति नहीं रखता । जिस व्यक्ति के हृदय में मोक्ष की अभिरुचि होती है, उसी के हृदय में यह निर्वेद स्थिर हो पाता है। निर्वेद का दिव्य दीपक जिस घट में आलोकित होता है, उस व्यक्ति के मन में फिर संसार के किसी भी पदार्थ के प्रति किसी भी प्रकार का स्वरूपानुभूति को भ्रष्ट करने वाला तीव्र आकर्षण नहीं रहता । यह निर्वेदभाव जिस किसी भी जीवन में स्थिर हो जाता है, तो समझिए उस आत्मा को सम्यक् दर्शन की ज्योति की उपलब्धि हो चुकी है ।
सम्यक् दर्शन का चतुर्थ लक्षण है-अनुकम्पा । अनुकम्पा, दया और करुणा- इन तीनों का एक ही अर्थ है । संसार में अनन्त प्राणी हैं, और वे सब समान नहीं हैं। कोई सुखी है, तो कोई दुखी है । कोई निर्धन है, तो कोई धनवान । कोई मूर्ख है, तो कोई विद्वान | इस प्रकार संसार के प्रत्येक प्राणी की स्थिति दूसरे प्राणी से भिन्न प्रकार की है । इस विषमतामय संसार में कहीं पर भी समता और समानता दृष्टिगोचर नहीं होती । इस विचित्रता और विषमता के आधार पर ही ससार को संसार कहा जाता है। संसार के सुखी जीव को देखकर प्रसन्न होना, प्रमोद भावना है, और संसार के दुःखी जीव को देखकर, उसके दुःख से द्रवित होना, यह करुणा भावना है । करुणा और दया का अर्थ है - हृदय की वह सुकोमल भावना, जिसमें व्यक्ति अपने दुःख से नहीं, बल्कि दूसरे के दुःख से द्रवित हो जाता है । पर दुःख कातरता और परदुःखद्रवणशीलता यह आत्मा का एक विशिष्ट गुण है । निर्दय और क्रूर व्यक्ति के हृदय में कभी भी करुणा का और दया का भाव जागृत नहीं होता है । करुणा रस सब रसों से अधिक व्यापक माना जाता है । मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि जो समर्थ व्यक्ति अपने जीवन में किसी के आँसू न पोंछ सका, वह व्यक्ति किसी भी प्रकार की धर्म - साधना कैसे कर सकता है । सम्यक् दर्शन की उपलब्धि के लिए अन्य सभी गुणों की अपेक्षा इस अनुकम्पा की ही सबसे बड़ी आवश्यकता है । जिस व्यक्ति के हृदय में दया का सागर तरंगित होता रहता है, वह आत्मा एक दिन अवश्य ही सम्यक् दर्शन के प्रकाश
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३३८ | अध्यात्म प्रवचन
को अधिगत कर लेता है। सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में दया और करुणा एक अनिवार्य कारण है।
सम्यक् दर्शन के लक्षणों में पांचवा लक्षण है-आस्तिक्य । आस्तिक्य का अर्थ है-आस्था अर्थात विश्वास । परन्तु किसमें विश्वास ? पुदगल में नहीं, आत्मा में ही विश्वास होना चाहिए । जिस व्यक्ति की आस्था अपनी आत्मा में है, उसका विश्वास कर्म में भी होगा और परलोक में भी होगा और मुक्ति में भी होगा। जो आत्मा जैसे अतीन्द्रिय पदार्थ हैं, उन पर विश्वास करना ही, आस्था एवं आस्तिक्य कहा जाता है । जो व्यक्ति वीतराग साधना पर श्रद्धा रखता है, वह सम्यक दृष्टि कहा जाता है। सम्यक् दृष्टि आत्मा मेरे विचार में वही हो सकता है, जो कम से कम अपनी आत्मा पर आस्था अवश्य ही रखता है। आत्मविश्वास ही, सबसे बड़ा सम्यक् दर्शन है । यदि आपको अपनी आत्मा पर आस्था नहीं है, और शेष संसारी पदार्थों पर आप विश्वास रखते हैं, तब उस स्थिति में आप सम्यक दृष्टि नहीं हो सकते । इसके विपरीत यदि आपको भले ही संसार के किसी अन्य पदार्थ पर विश्वास न हो, किन्तु आपको अपनी आत्मा पर अटल विश्वास है, तो आप निश्चय ही सम्यक् दृष्टि हैं। मैं आपसे सम्यक् दर्शनों के लक्षणों के विषय में चर्चा कर रहा था और यह बता रहा था, कि उक्त पाँच लक्षणों में से यदि आत्मा में पाँचों लक्षण अथवा कोई भी एक लक्षण विद्यमान है, तो वह आत्मा सम्यक् दृष्टि कहा जाता है । सम्यक् दृष्टि उसे कहा जाता है, जिसने सम्यक् दर्शन की ज्योति को प्राप्त कर लिया है। प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य-ये पाँचों लक्षण इस बात के प्रतीक हैं, कि जिस आत्मा में इनकी अभिव्यक्ति होती है, उस आत्मा ने सम्यक् दर्शन के प्रकाश को प्राप्त कर लिया है। किन्तु यह सब व्यवहार-मार्ग है, निश्चय-मार्ग नहीं । निश्चय की स्थिति तो बड़ी ही विलक्षण है। ऐसी भी स्थिति भी होती है कि व्यवहार में उक्त लक्षणों की प्रतीति न हो, परन्तु अन्तरंग में सम्यक दर्शन की ज्योति प्रदीप्त हो जाए। निश्चय में शब्द मुख्य नहीं, अनुभुति मुख्य है।
सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में एक बात और विचारणीय है । यदि किसी व्यक्ति ने सम्यक् दर्शन के प्रकाश को प्राप्त कर लिया है, तो उसके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह रहता है, कि उस प्रकाश को स्थायी
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सम्यक् दर्शन के लक्षण : अतिचार | ३३ε एवं अक्षुण्ण कैसे रखा जाए ? जैसे घर में प्रकाश फैलाने वाला दीपक पवन का झोंका लगने से बुझ जाता है, वैसे ही कुछ दोष हैं, जिनके कारण सम्यक् दर्शन की ज्याति एक बार प्राप्ति के बाद भी, विलुप्त हो सकती है । सम्यक् दर्शन के पाँच दोष बताए गए हैं, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में अतिचार कहा जाता है । सम्यक् दर्शन के पाँच अतिचार होते हैं, जो इस प्रकार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर-पाषंड प्रशंसा और परपाषंडसंस्तव । अतिचार का अर्थ है- किसी भी प्रकार की अंगीकृत मर्यादा का उल्लंघन करना । मेरे कहने का तात्पर्य यह है, कि मनुष्य ने अपने अनियंत्रित जीवन को नियंत्रित रखने के लिए जो मर्यादा ग्रहण की है, आत्मविशुद्धि का जो अंश जागृत किया है, उसको दूषित करना अतिचार कहा जाता है । सम्यक्त्व एवं व्रतों के मूलदोष चार माने जाते हैं—-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार | किसी भी स्वीकृत साधना को भंग करने का जो संकल्प उठता है -- उसे अतिक्रम कहा जाता है, और भंग करने के संकल्प के अनुसार साधन एवं सामग्री जुटाना, व्यतिक्रम कहा जाता है । स्वीकृत साधना को किसी अंश में सुरक्षित रखना और किसी अंश में भंग कर देना, इसको अतिचार कहा जाता है । जब स्वीकृत साधना सर्वथा भंग कर दी जाए, उस स्थिति को अनाचार कहा जाता है । इन चार में से अतिचार तक तो व्रत साधना किसी न किसी रूप में संरक्षित रहती है, परन्तु अनाचार की स्थिति में पहुँचकर वह बिलकुल भंग हो जाती है । मैं आपसे अतिचार के सम्बन्ध में कह रहा था और यह बता रहा था, कि सम्यक्त्व को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है, कि उसको पाँचों अतिचारों से बचाया जाए। क्योंकि ये पाँच अतिचार सम्यक्त्व में मलिनता उत्पन्न करते हैं । यदि सावधानी न रखी जाए और अतिचार रूप दूषण बढ़ता ही चला जाए, तो उस स्थिति में सम्यक्त्व के निर्मल रूप को खतरा उपस्थित हो जाता है । अतः उस खतरे से बचने के लिए यह आवश्यक है, कि साधक सदा सजग और सदा सावधान रहे। एक क्षण का प्रमाद भी हमारे धर्म की सम्पत्ति को नष्ट कर सकता है । जिस अध्यात्म सम्पत्ति को इतने आत्म पुरुषार्थ से उपार्जित किया है, उसे नष्ट हो जाने देना, बुद्धिमत्ता का कार्य नहीं है । अतः अतिचार रूप दोष से बचने का प्रयत्न
करते रहिए ।
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३४० । अध्यात्म-प्रवचन
सम्यक् दर्शन की साधना में सबसे पहला औरसब से बड़ा खतरा - शंका | शंका अर्थात् संशय साधक के मन की दुर्बलता है । अपनी साधना में किसी भी प्रकार की शंका का होना, संदेह का रहना शुभ नहीं है । शंका रहते हुए न जीवन का विकास हो पाता है और न अध्यात्म-साधना में सफलता ही मिलती है । जब साधक के मन में अपनी साधना के प्रति किसी भी प्रकार की शका रहती है, तब वह शंका उसके सत्संकल्प में और उसकी स्थिरता-शक्ति में दृढ़ता नहीं आने देती । वह साधक अपनी राह में हर कदम पर ठोकर खा सकता है, जिसके मन में शंका एवं संशय बना हुआ है । शंका एक ऐसा दुर्गा है, जो साधना में दृढ़ता नहीं आने देता । दृढ़ता के बिना साधक, अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए, साधना में अपेक्षित आन्तरिक बल प्राप्त नहीं कर सकता । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यह आवश्यक है, कि हम शंका और संशय के वातावरण से दूर रहें। मैं यह नहीं कहता कि संशय और शंका एकान्त रूप से बुरी वस्तु है । यदि शंका और संशय न हो तो जिज्ञासा कैसे उत्पन्न होगी ? और जब जिज्ञासा ही नहीं है, तब नवीन ज्ञान का द्वार कैसे खुलेगा ? यहाँ पर मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है, कि किसी तत्व को समझने एवं जानने के लिए शंका और तद्नुसार प्रश्न आदि अवश्य किया जाना चाहिए, किन्तु एक बार जब किसी तत्व का सम्यक् समाधान हो जाता है और जब सम्यक् प्रकार से स्वीकृत सिद्धान्त को जीवन में साकार करने का प्रसंग उपस्थित होता है, उस समय साधना में जो शंका एवं संशय उत्पन्न होता है, वह साधक - जीवन की सबसे भयंकर बुरी स्थिति होती है । उस स्थिति से बचने के लिए ही यहाँ पर शंका रूप दोष से बचने के लिए, साधक को चेतावनी दी गई है । संशय, साधना में एक प्रकार का विष होता है ।
सम्यक्त्व के पाँच अतिचारों में दूसरा अतिचार है- कांक्षा किसी-किसी ग्रन्थ में कांक्षा के स्थान पर आकांक्षा शब्द का प्रयोग भी किया जाता रहा है । दोनों का एक ही सामान्य अर्थ है - इच्छा और अभिलाषा । परन्तु यहाँ पर कांक्षा शब्द का सामान्य अर्थ अभिप्रेत नहीं है यहाँ पर इसका एक विशेष अर्थ में प्रयोग किया गया है ॥ air क्या अर्थ है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि जब एक साधक किसी अन्य व्यक्ति की पूजा और प्रतिष्ठा को देखकर, उसके वैभव और विलास को देख कर अपनी साधना के प्रति आस्था
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सम्यग दर्शन के लक्षण : अतिचार | ३४१ छोड़ देता है, और पूजा एवं प्रतिष्ठा की अभिलाषा करता है, यही कांक्षा है । साधक का मन जब अपनी साधना में स्थिर नहीं रह पाता, तब वह इधर-उधर भटकना प्रारम्भ कर देता है। उस स्थिति में अपने पथ की प्रतिकूलता उसे पथ भ्रष्ट कर सकती है। संसार के भोग-विलासों का आकर्षण एक प्रकार की कांक्षा ही है। जब साधक किसी भी प्रकार के भोग को लालसा के वशीभूत हो जाता है, तब यह निश्चित है कि वह अपने मन की सन्तोष-सुधा को भूल कर ही वैसा करता है । कुछ आचार्यों ने कांक्षा शब्द का अर्थ यह भी किया है, कि अपने पंथ और सम्प्रदाय को छोड़कर दूसरे के पंथ और सम्प्रदाय की ओर आकर्षित होना । साधना-क्षेत्र में किसी भी प्रकार की कांक्षा, आकांक्षा, कामना, अभिलाषा और इच्छा को अवकाश नहीं है। इन सबका मूल प्रलोभन में है। जब तक साधक के मन में किसी भी प्रकार का प्रलोभन विद्यमान रहता है, तब तक वह किसी न किसी प्रकार की कांक्षा की आग में जलता ही रहेगा। कांक्षा चाहे किसी पंथ की हो, चाहे किसी पदार्थ की हो और चाहे किसी व्यक्ति विशेष की हो, वह साधक के लिए कभी हितकर नहीं होती। अतः अध्यात्म-साधना करते हुए सभी प्रकार की काक्षांओं से और इच्छाओं से दूर रहने का प्रयत्न करते रहना चाहिए, तभी साधक अपनी साधना के अभीष्ट फल को प्राप्त कर सकता है ।
सम्यक्त्व का तीसरा दूषण है-विचिकित्सा। यह दूषण एक ऐसा दूषण है, जो साधक को उसकी किसी भी साधना में स्थिर और एकाग्र नहीं बनने देता । विचिकित्सा शब्द का अर्थ है-फल-प्राप्ति में सन्देह करना । जब साधक को अपनी साधना के फल में संशय और सन्देह हो जाता है, तब साधना करने में उसे न किसी प्रकार का आनन्द आता है और न उसके मन में किसी प्रकार का उत्साह ही रहता है। कल्पना कीजिए किसी एक व्यक्ति को जो आपके घर पर आया है, आपने बड़े आदर से सून्दर थाल में स्वादिष्ट भोजन परोसकर उसके सामने रख दिया और वह व्यक्ति उस भोजन को बड़े आनन्द के साथ खाने भी लगा है। परन्तु उस प्रसंग पर यदि उसे किसी प्रकार यह ज्ञात हो जाए, कि सम्भवतः इस भोजन में विष डाल दिया गया है तो उस व्यक्ति का वह सारा आनन्द विलुप्त हो जाएगा और उसके मन की सारी एकाग्रता नष्ट हो जाएगी। क्योंकि
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३४२ | अध्यात्म-प्रवचन वह यह सोचता है, कि इस विषमिश्रित भोजन को करने में स्वस्थ एवं जीवित नहीं रह सकता। यद्यपि उस भोजन में विष डालने का एकान्त निश्चय उसे नहीं है, फिर भी सन्देह के कारण उसके मन में भोजन के प्रति एक प्रकार की विचिकित्सा तो पैदा हो ही गई है। यहाँ प्रकृत में इस तथ्य को इस प्रकार समझिए, कि जब साधक कोई भी साधना प्रारम्भ करता है, और कुछ दूर दृढ़ता के साथ उस पथ पर आगे बढ़ता भी रहता है, किन्तु जिस क्षण उसके मन में यह भावना पैदा हो जाती है, कि मैं जिस साधना का पालन कर रहा हूँ अथवा मैं जिस व्रत का पालन कर रहा हूँ, उसका फल भी मुझं कभी मिलेगा अथवा नहीं ? इस प्रकार की लड़खड़ाती और डगमगाती मनोवृत्ति ही विचिकित्सा कही जाती है। विचिकित्सा किसी भी प्रकार की क्यों न हो, वह अध्यात्म-साधना का एक दूषण है और वह साधक की निष्ठा-शक्ति को दुर्बल एवं कमजोर बनाती है। इससे बचने का एक ही उपाय है, कि मन में फल की आकांक्षा किये बिना, अपनी साधना को निरन्तर करते रहना । यही एक मात्र साधना का राजमार्ग है।
सम्यक्त्व-साधना का चतुर्थ और पंचम दोष है-परपाषंड-प्रशंसा और परपाषंड संस्तव । हमें यहाँ पर यह विचार करना है, कि प्रशंसा और संस्तव का क्या अर्थ है ? प्रशंसा का अर्थ है-किसी की स्तुति करना, किसी के गुणों का उत्कीर्तन करना। संस्तव का अर्थ हैकिसी से परिचय करना, किसी से मेल-जोल बढ़ाना । सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि प्रशंसा और परिचय को अतिचार दोष और दूषण क्यों माना गया है ? इसके सम्बन्ध में यह कहा गया है, कि प्रशंसा और संस्तव अपने आप में न अच्छे हैं, न बुरे हैं । यह तो व्यक्ति के ऊपर निर्भर है कि वह कैसा है ? यहाँ पर पाषण्ड की प्रशंसा और संस्तव निषिद्ध है। मनुष्य के मन पर संगति और वातावरण का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है। अच्छी संगति मनुष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाती है और बुरी संगति मनुष्य को उन्मार्ग की ओर ले जाती है । इसी प्रकार अच्छे वातावरण से मनुष्य अच्छा बनता है और बुरे वातावरण से मनुष्य बुरा बन जाता है। एक मिथ्या दृष्टि व्यक्ति की संगति में और वातावरण में रहने वाला व्यक्ति कभी न कभी अपने मार्ग को छोड़ कर उसके रंग में अवश्य रंग जाएगा।
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सम्यग् दर्शन के लक्षण : अतिचार | ३४३ मनुष्य के मन पर निकट के व्यक्तियों के विचार और आचार का प्रभाव बहुत शीघ्रता से पड़ता है । यहाँ पाखंड शब्द का अर्थ भी समझने के योग्य है । पाषड शब्द के विविध ग्रन्थों में अनेक अर्थ किए गए हैं । पाषंड शब्द का एक अर्थ है - पथ भ्रष्ट व्यक्ति, पाषंड का दूसरा अर्थ है - पंथ एवं सम्प्रदाय, और पाखंड का तीसरा अर्थ हैव्रत । इस प्रकार पाषंड शब्द के अर्थ विभिन्न युग के आचार्यों ने विभिन्न किए हैं, परन्तु सम्यक्त्व के वर्णन के प्रसंग पर इसका अर्थसम्प्रदाय एवं पंथ ही लेना चाहिए । यहाँ पाषण्ड से पूर्व 'पर' शब्द जुड़ा है, अतः पर पाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्ड संस्तव का अर्थ होता है - दूसरे मिथ्यात्वी एवं कुमार्गी पाषण्ड अर्थात् मत आदि की प्रशंसा और परिचय करना । इस प्रसंग पर मुझे यह कहना चाहिए, कि जब तक उदारता के साथ विचार नहीं किया जाएगा, तब तक इसमें अनर्थ होने की सम्भावना बनी रहेगी । इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे पंथों एवं पंथ वालों से घृणा की जाए, उनकी निन्दा की जाए, यथावसर विषम स्थिति में उन्हें उचित सहयोग न दिया जाय । यह अलग रहने की बात प्राथमिक श्रेणी के दुर्बल साधकों के लिए है । एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति के सम्पर्क में रहने बाला सम्यक् दृष्टि व्यक्ति, यदि दुर्बल विचार वाला है, तो उसके मिथ्या दृष्टि व्यक्ति के चंगुल में फँस जाने की सम्भावना है । इसलिए जब तक विचारों में परिपक्वता न आ जाए, अथवा स्व समय एवं पर समय का दृढ़ परिबोध न हो जाए, तब तक पर पाषण्ड को प्रशंसा और संस्तव से बचना आवश्यक है । इसी अभिप्राय से सम्यक्त्व के दोषों का वर्णन करते हुए यह कहा गया है, कि अतिचारों को समझो अवश्य, किन्तु उनका आचरण कभी भूल कर भी मत करो । पाप को समझना तो आवश्यक है, किन्तु पाप का आचरण नहीं करना चाहिए । उसका समझना इसलिए आवश्यक है, ताकि हम समय पर उस पाप से बच सकें । जब शास्त्रकार यह कहते हैं, कि पाप को भी समझो और पुण्य को भी समझो, तथा धर्म को भी समझो और अधर्म को भी समझो, तब इस कथन का अभिप्राय केवल इतना ही होता है, कि पाप से बचने के लिए और अधर्म से बचने के लिए पाप और अधर्म को पहचानना आवश्यक है ।
आज के वर्णन में मैंने दो बातों का स्पष्टीकरण किया है - सम्यक्त्व के लक्षण और सम्यक्त्व के अतिचार । किसी भी साथना में
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३४४ | अध्यात्म प्रवचन
सफलता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक होता है, कि उस पथ की विशेषताओं को भी समझा जाए। और उस पथ में आने वाली विघ्नबाधाओं को भी समझा जाए । विशेषताओं को समझने की अपेक्षा भी यह अधिक आवश्यक है, कि उस पथ में आने वाली रुकावट और अड़चन को भली प्रकार समझा जाए, जिससे कि मार्ग पर कदम बढ़ाते हुए प्रतिकूल स्थिति आने पर साधक व्याकुल न बने । जब तक स्वीकृत पथ में अचल आस्था न होगी, तब तक उसमें सफलता के बीज का आधान नहीं किया जा सकता । द्वादश व्रतों का वर्णन करने से पहले सम्यक्त्व का वर्णन इसी अभिप्राय से किया जाता है, कि इन व्रत तथा नियमों की सार्थकता तभी है, जबकि उनके मूल में शुद्ध सम्यक्त्व हो । सम्यक्त्व की अपार महिमा है, सम्यक्त्व की अपार गरिमा है और आत्मा के सम्यक्त्व गुण की अपार एवं अद्भुत शक्ति है ।
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आठ अंग और सात भय
सम्यक् दर्शन का स्वरूप क्या है ? उसकी व्याख्या क्या है और उसकी परिभाषा क्या है ? इस सम्बन्ध में आपको विस्तार के साथ बताया जा चुका है। सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में जो मुख्य-मुख्य सिद्धान्त हैं उनका परिचय आपको करा दिया गया है। अब सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में एक बात शेष रह जाती है, वह यह है, कि जिस व्यक्ति में सम्यक् दर्शन होता है, उस व्यक्ति का आचरण कैसा होता है । शास्त्रीय भाषा में इसको दर्शनाचार कहते हैं । सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर जीवन के आचरण में जो एक प्रकार की विशेषता आ जाती है, उसे दर्शनाचार कहा जाता है, इसके आठ अंग हैं-निश्शंकता, निष्कांक्षता, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टिता, उपहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना।।
निश्शंकता, सम्यक्त्व का प्रथम अंग हैं। इसका अर्थ है-सर्वज्ञ एवं वीतराग कथित तत्व में किसी भी प्रकार की शंका न रखना। कुछ आचार्य इसका एक दूसरा अर्थ भी करते हैं। उनका कहना है, कि मोक्ष मार्ग पर, आध्यात्मिक साधना पर दृढ़ विश्वास रखना ही निश्शंकता है। जब तक जीवन में निश्शंकता का भाव नहीं आएगा तब तक साधना में किसी भी प्रकार की दृढ़ता नहीं आ सकेगी। श्रद्धा
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३४६ | अध्यात्म-प्रवचन
एवं विश्वास के बिना जीवन का विकास नहीं हो सकता। साधना चाहे कितनी भी कठोर क्यों न हों और चाहे कितनी भी दीर्घकालीन क्यों न हो, श्रद्धा के अभाव में वह मोक्ष का अंग नहीं बन सकती है। जीवन में सत्य के प्रति अगाध आस्था ही वस्तुतः निश्शंकता है।
निष्कांक्षता, दर्शनाचार का दूसरा अंग माना जाता है । निष्काक्षता का अर्थ है-किसी भी प्रकार के अविहित एवं मर्यादाहीन भोग-पदार्थ की इच्छा और अभिलाषा न करना । जीवन में सुख और दुःख दोनों आते हैं, दोनों को समभाव से सहन करना ही सच्ची साधना है। सांसारिक सुख का प्रलोभन साधक को साधना के मार्ग से विचलित कर देता है। सुखों के आकर्षण का संवरण न कर सकने के कारण जब साधक भौतिक वैभव के जाल में फंस जाता है, तब वह साधना कैसे कर सकता है। साधना की सफलता के लिए यह आवश्यक है, कि मन में किसी भी पदार्थ के प्रति साधना पथ से पतित करने वाला आकर्षण न हो। इन्द्रिय-सुख को साधक इतना महत्व न दे, कि उसके लिए वह अन्याय, अत्याचार तथा अनाचार करने को तैय्यार हो जाए, बस इसी को निष्कांक्षता कहा जाता है।
निविचिकित्सा का अर्थ है-शरीर के दोषों पर दृष्टि न रखते हुए, आत्मा के सद्गुणों से प्रेम करना। सम्यक् दृष्टि में जब तक सद्गुणों के प्रति अभिरुचि पैदा न होगी। तब तक वह अपने जीवन को श्रेष्ठ नहीं बना सकेगा । गुण-दृष्टि और गुणानुराग ही निर्विचिकित्सा का प्रधान उद्देश्य है। निर्विचिकित्सा का एक अर्थ यह भी किया जाता है, कि मन में अपनी साधना के प्रति यह विकल्प नहीं रहना चाहिए, कि जो कुछ साधना मैं कर रहा हूँ, उसका फल मुझे मिलेगा, या नहीं ? साधक का कर्तव्य है, साधना करना । फल की आकांक्षा करना उसका कर्तव्य नहीं है। निर्विचिकित्सा का एक अर्थ यह भी लिया जाता है, कि संयमपरायण एवं तपोधन मुनि के मलक्लिा कृशतन और वेश को देख कर ग्लानि न करना । इस प्रकार निर्विचिकित्सा के विभिन्न अर्थ किए गए हैं, जो मुलतः एक ही भाव रखते है। विचिकित्सा अर्थात् ग्लानि एक प्रकार का कषाय भाव है। इसलिए वह पाप है, और पाप का त्याग करना, यही साधना का मुख्य उद्देश्य है।
दर्शनाचार का चौथा अंग है, अमूढदृष्टिता। सम्यक् दृष्टि को
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आठ अंग और सात भय | ३४७
कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक होता है, अतः उसके समस्त कार्य विवेक पूर्वक ही होते हैं। जीवन में विवेक स्थिर कैसे रहे, इसके लिए मूढ़ता का परित्याग करना आवश्यक है । मूढ़ता का अर्थ है - अज्ञान, भ्रम, संशय और विपर्यास । सम्यक् दृष्टि का विचार पवित्र रहना चाहिए । यदि विचार पवित्र नहीं रहा, तब वह साधना - मार्ग से कभी भ्रष्ट भी हो सकता है । विचार को स्वच्छ और पावन रखने के लिए मूढ़ता का परित्याग परमावश्यक है । शास्त्र में अनेक प्रकार की मूढ़ताओं का वर्णन किया गया है, उनमें मुख्य ये हैं- लोक मूढ़ता, शास्त्रमूढ़ता और गुरु- मूढ़ता । लोक- मूढ़ता का क्षेत्र सबसे अधिक विशाल है । इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि किसी नदी - विशेष में स्नान करने में धर्म मानना, पर्वत से गिर कर मरने में धर्म मानना, अथवा अग्नि में जल कर मरने में धर्म मानना इत्यादि लोकमूढ़ता है। लोकमूढ़ता में उन सब पापों का समावेश हो जाता है, जो लोक एवं समाज की अन्ध-श्रद्धा के बल पर चलते हैं । समाज में प्रचलित रूढ़ियाँ भी लोक- मूढ़ता का ही एक रूप है । शास्त्र - मूढ़ता भी सम्यक् दृष्टि में नहीं होनी होनी चाहिए। सम्यक् दृष्टि जीव किसी भी शास्त्र को तभी मानता है, जबकि वह उसकी कसोटी कर लेता है । शास्त्र के नाम पर और पोथी पन्नों के नाम पर भी संसार में अनेक प्रकार की मूढ़ताएँ चलती रहती हैं कल्पना कीजिए, जब एक व्यक्ति यह कहता है, कि मेरी सम्प्रदाय का शास्त्र ही सच्चा है, अन्य सब झूठे हैं, तो यह भी एक प्रकार की शास्त्र - मूढ़ता ही है । दूसरा व्यक्ति कहता है, संस्कृत में लिखित शास्त्र ही सच्चे हैं, अन्य सब मिथ्या हैं, तो यह भी एक प्रकार की शास्त्र - मूढ़ता ही है । क्यों कि सत्य न किसी पोथी में बन्द है, न किसी सम्प्रदाय में बन्द है और न किसी भाषा में बन्द है । देव- मूढ़ता का अर्थ है - काम, क्रोध, मोह आदि विकारों के पूर्ण विजेता और परिपूर्ण शुद्ध वीतराग देव को देव न मानकर, अन्य विकारी देव को देव मानना । जीवन - विकास के लिए सच्चे देव की पहिचान आवश्यक है । जब तक सच्चे देव की उपासना नहीं की जाएगी, तब तक देव - मूढ़ता का अन्त नहीं होगा । रागी देव को देव मानना ही, देव- मूढ़ता का वास्तविक लक्षण है । आत्म-विवेक की साधना करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है, कि वह सुदेव की उपासना करने का निरन्तर अभ्यास करे, और उसके बतलाए हुए पथ पर निरन्तर आगे बढ़ता रहे। गुरु- मूढ़ता भी एक प्रकार का पाप
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३४८ | अध्यात्म प्रवचन ही है । गुरु का अर्थ है, साधना का मार्ग बताने वाला। जो व्यक्ति स्वयं साधना-भ्रष्ट है, जो स्वयं कामी है और जो स्वयं लोभी है, उसे गुरु मानना ही गुरु-मूढ़ता है। गुरु-मूढ़ता का अर्थ यह भी लिया जाता है, कि परीक्षा किए बिना ही हर किसी को गुरु स्वीकार कर लेना और फिर स्वार्थ सिद्ध न होने पर परित्याग कर फिर किसी अन्य को अन्धभाव से गुरु बना लेना । गुरु-मूढ़ता भी त्याज्य है ।
उपवृहण, यह दर्शनाचार का पाँचवाँ अंग माना जाता है । इसका अर्थ है-वृद्धि करना, बढ़ाना या पोषण करना । स्व और पर की धार्मिक भावना को बढ़ाना ही उपवहण कहा जाता है। न अपने सत्कर्म की अवहेलना करनी चाहिए, और न दूसरे के सत्कर्म की । जहाँ तक बन सके, सद्गुणों एवं सत्कर्मों को बढ़ावा ही देना चाहिए । उपवृहण के स्थान पर उपगृहन शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। उसका अर्थ है-'छुपाना ।' धर्म की निन्दा को और धर्म की अप्रभावना को छुपाना ही उपगूहन कहा जाता है। सम्यक् दृष्टि को ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए, जिससे उसके धर्म और उसकी संस्कृति की लोक में निन्दा हो। कदाचित् किसी कारण से उसके धर्म की अवहेलना होती भी हो, तो उसे दूर करना ही उपग्रहन कहा जाता है। परदोषदर्शन की प्रवृत्ति बड़ी ही भयंकर है। जिसके मुख को एक बार परनिन्दा का रस लग जाता है, फिर उसका छूटना कठिन हो जाता है । दूसरे के दोषों का सुधार तो करना चाहिए परन्तु उसकी निन्दा के ढोल नहीं बजाने चाहिए। दूसरे के दोषों का उपगृहन कर उसके गणों का आदर करो, उसके गुणों की अभिवृद्धि करो, यही इस अंग का प्रधान उद्देश्य है।
दर्शनाचार का छठा अंग है-स्थिरीकरण । इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई मनुष्य अपने धर्म के मार्ग से गिर रहा है, तो उसे सहारा देकर फिर धर्म में स्थिर कर देना । व्यक्ति आपत्ति में फंसकर अथवा प्रलोभन में फंसकर अपने धर्म से गिर जाता है। उस गिरते हुए को ऊपर उठाना, उसे फिर कल्याण के मार्ग पर लगा देना, यह साधारण बात नहीं है । निःस्वार्थ और पवित्र हृदय वाला व्यक्ति ही इस प्रकार का कार्य कर सकता है । जिसके ठोकर लग चुकी है, उसे साहस बंधा कर फिर धर्म पर आरूढ़ करना, इसी को स्थिरीकरण कहा जाता है। संघ में जो व्यक्ति निर्धन हैं और अभावग्रस्त हैं, और जो अपनी
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आठ अंग और सात भय | ३४६ अभावग्रस्तता के कारण अथवा अपनी निर्धनता के कारण, अपनी संस्कृति और अपने धर्म से दूर हट रहे हैं, उनकी समस्याओं को सुलझाकर और उनके मानसिक विकल्पों को दूर कर पुनः धर्म के पथ पर उन्हें लगा देना ही स्थिरीकरण का अभिप्राय है।
वात्सल्य का अर्थ है-प्रेम और स्नेह । यह दर्शनाचार का सातवां अंग है। जिस प्रकार माता-पिता अपनी संतान पर वात्सल्यभाव रखते हैं, प्रेम और स्नेह के साथ उनका लालन-पालन करते हैं, उसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में भी जी व्यक्ति इस उदात्तभावना को लेकर चलता है और अपने सह धर्मी के प्रति निर्मल एवं निष्काम वात्सल्यभाव रखता है, वह व्यक्ति धर्मसंघ में सबसे अधिक आदरणीय है। वात्सल्य का अर्थ है-समाज-भावना और परिवार-भावना। जिस प्रकार व्यक्ति अपने कुटुम्ब पर स्नेह और प्रेम रखता है, उसी प्रकार अपनी समाज के हर व्यक्ति पर प्रेम और स्नेह रखना ही, वात्सल्य भाव है। स्वधर्मी के प्रति किया जाने वाला प्रेम वस्तुतः धर्म-प्रेम का ही एक अंग माना जाता है। दर्शनाचार का यह सातवाँ अंग वात्सल्य, संघ और समाज की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है । ____दर्शनाचार का आठवाँ अंग है-प्रभावना। प्रभावना का अर्थ है-महिमा और कोति । जिस कार्य के करने से अपने धर्म और अपनी संस्कृति की महिमा का प्रसार हो, और कीर्ति का प्रचार हो, वह प्रभावना है । धर्म को प्रभावना का कोई एक मार्ग और कोई एक पद्धति नहीं हो सकती । ज्ञान का प्रचार करने से, सदाचार को पवित्र रखने से तथा लोगों के साथ मधुर व्यवहार करने से धर्म की महिमा बढ़ती है। स्वयं शुद्ध आचार का पालन करना और दूसरों को शुद्ध आचार का पालन करने के लिए प्रेरित करना, यह भी प्रभावना का एक अंग है। त्याग, तपस्या और संघ-सेवा भी प्रभावना का एक मुख्य अंग माना जाता है। ___ मैं आपसे यह कह रहा था, कि जिस व्यक्ति को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है, उस व्यक्ति का व्यवहार और आचरण कितना सुन्दर हो जाता है ? वह व्यक्ति दूसरे के लिए केवल धर्म प्रेरणा का निमित्त ही नहीं बनता, बल्कि स्वयं भी उस दिव्य सिद्धान्त को अपने जीवन-धरातल पर उतारता है, जो उसने अपनी अध्यात्म साधना के द्वारा प्राप्त किया है।
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३५० | अध्यात्म प्रवचन
सम्यक् दर्शन के इन आठ अंगों के आचरण से यह अभिव्यक्त हो जाता है, कि इस व्यक्ति ने सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है। यह अंग, जीवन में सन्तुष्ट एवं सूखी रहने की कला सिखाते हैं, फलतः संसार में सुख की अभिवृद्धि भी करते हैं। इसी आधार पर इन्हें कल्याण-मार्ग का अंग कहा जाता है। उक्त आठ अंगों का आचरण इस तथ्य को प्रमाणित करता है, कि सत्य की उपलब्धि हो जाने पर साधक का जीवन, परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए अभिशाप नहीं, बल्कि एक सुन्दर वरदान होता है।
सम्यक दृष्टि आत्मा के जीवन में अन्य क्या विशेषता होती है, जिसके आधार पर यह जाना जा सके, कि यह सम्यक दृष्टि है। सम्यक् दृष्टि के आचार विचार के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है, फिर भी एक बात शेष रह जाती है, जिसका कथन और प्रतिपादन करना अत्यन्त आवश्यक है। सम्यक दष्टि के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है-निर्भयता। जहां भय है, वहाँ धर्म नहीं रह सकता, संस्कृति नहीं रह सकती है । जहाँ भय है, वहाँ सत्य नहीं रह सकता और जहाँ सत्य है, वहाँ भय नहीं ठहर सकता। भय, मन की एक कमजोरी है, भय आत्मा की एक दुर्बलता है । भय एक अन्धकार है। जहाँ भय का अन्धकार रहता है, वहाँ किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक साधना सफल नहीं हो सकती । शास्त्र में कहा गया है, कि जो व्यक्ति सत्य की साधना करना चाहता है और जो व्यक्ति सत्य की उपासना करना चाहता है, उसके लिए यह आवश्यक है, कि वह अपने मन के भय को दूर कर दे । जो व्यक्ति कदम-कदम पर भयभीत होता है, वह धर्म की साधना कैसे कर सकता है ? धर्म की आराधना के लिए निर्भयता की आवश्यकता है। निर्भयता का अर्थ है-मन की वह वृत्ति, जिससे साधक में एक ऐसी अद्भुत शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जो विकट संकट के क्षण में भी उस साधक को धर्म में स्थिर रखती है । जब तक यह शक्ति साधक को नहीं मिलती, तब तक वह अपने साधना-पथ पर न अग्रसर हो सकता है और न उसे अपनी धर्म साधना का दिव्य फल ही मिल सकता है। सम्यक् दृष्टि के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए शास्त्र में कहा गया है, कि सम्यक् दृष्टि आत्मा को सात प्रकार का भय नहीं होता। वे सात भय कौन से हैं, इसके सम्बन्ध में कहा गया है, कि इहलोकभय, परलोकभय, वेदना-भय, मरण-भय, आदान-भय, अपयश-भय और अकस्माद्भय । इन सात
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आठ अंग और सात भय | ३५१ प्रकार के भयों में से एक भी भय जिसके मन में न हो, वही सच्चा सम्यक् दृष्टि है। - इहलोक-भय, सात भयों में सबसे पहला भय है। इहलोक का अर्थ है-मनुष्य के लिए अपना सजातीय मनुष्य-समाज, और परलोक का अर्थ है-विजातीय समाज । परलोक में पशु-पक्षी और सुर-असुर आदि सभी का समावेश हो जाता है । इस लोक का भय और परलोक का भय किस प्रकार होता है, यह बताने से पहले यह आवश्यक है, कि यहाँ पर जो भयों की परिगणना की गई है, वह केवल सम्यक दृष्टि के जीवन को लक्ष्य करके ही की गई है । सम्यक् दृष्टि के जीवन में किसी भी प्रकार का किसी भी अंश में भय नहीं रहता, यह कहने का यहाँ उद्देश्य नहीं है । यहाँ तो केवल इतना ही कहना अभीष्ट है, कि उक्त सात प्रकार के भयों में से सम्यक्त्व ज्योति का विघातकजैसा किसी भी प्रकार का भय सम्यक् दृष्टि को होता नहीं है। ___इहलोक-भय के अनेक कारण हैं, किन्तु हम उनको दो भागों में विभक्त कर सकते हैं इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोग। इष्ट-वियोग का अर्थ है-किसी भी प्रिय वस्तु का वियोग हो जाना । प्रिय वस्तु के दो भेद किए जा सकते हैं-चेतन और अचेतन । चेतन में माता, पिता, पति, पत्नी, भ्राता, भगिनी, पुत्र एवं पुत्री आदि चेतन का समावेश हो जाता है । अचेतन में धन, सम्पत्ति एवं भोग्य-पदार्थ आदि सभी जड़ का समावेश हो जाता है । जड़ और चेतन रूप अपनी किसी भी इष्ट वस्तु का वियोग हो जाने पर सम्यक दृष्टि के मन में व्याकुलता नहीं होती। क्योंकि वह इस तथ्य को भलीभांति जानता है, कि जो भी, जितना भी और जैसा भी संयोग है, उसका एक दिन वियोग अवश्य होगा । संयोग का वियोग होना और वियोग का संयोग होना, यही तो संसार का खेल है। सम्यक् दृष्टि आत्मा इस संसार को खेल का एक मैदान समझता है और अपने आपको उसका एक खिलाडी । संसार के इस खेल में कभी जय और कभी पराजय होती ही रहती है। कभी संयोग और कभी वियोग चलता ही रहता है। सम्यक् दृष्टि आत्मा सोचता है, कि जो कुछ आता है वह पर है, और जो पर है, वह एक दिन जाएगा भी अवश्य ही । अतः जड़ और चेतन के किसी भी प्रकार के वियोग से वह विचलित नहीं होता।
अब रही अनिष्ट-संयोग की बात, इस अनिष्ट-संयोग से भी
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३५२ | अध्यात्म प्रवचन सम्यक् दृष्टि आत्मा विचलित एवं व्याकुल नहीं होता है। आप पूछ सकते हैं, कि अनिष्ट-संयोग का क्या तात्पर्य है ? इस सम्बन्ध में मेरा यही कहना है, कि इस संसार में जितनी भी अनिष्ट वस्तुएं हैं, चाहे वे चेतन हो, चाहे अचेतन हों, उनकी प्राप्ति ही अनिष्ट-संयोग है। कल्पना कीजिए, एक पिता का पुत्र कपूत है, उद्धत है और अविनीत है । पिता उसे अपने घर में देखना नहीं चाहता, किन्तु फिर भी पिता की इच्छा के विरुद्ध वह पुत्र उसके घर में रहता है, यह अनिष्ट संयोग है । कल्पना कीजिए, कि घर में पति-पत्नी के विचार नहीं मिलते हैं। कभी-कभी इस प्रकार की स्थिति आ जाती है, कि मास पर मास निकलते जाते हैं और वे दीनों एक दूसरे से नहीं बोलते । बोलना तो दूर रहा, वे एक दूसरे को देखना भी पसन्द नहीं करते, किन्तु फिर भी उन्हें एक ही घर में रहना पड़ता है। यह भी एक प्रकार का अनिष्ट संयोग ही है । कल्पना कीजिए, भयंकर गर्मी का समय है, आपको प्यास लगी है। उस समय आपके हृदय में अभिलाषा है कि कहीं शीतल और मधुर जल मिल जाए, किन्तु इसके विपरीत आपको मिलता है, गरम और खारा जल जो आपको इष्ट नहीं है। यह भी एक प्रकार का अनिष्ट संयोग है। आपके हृदय में यह अभिलाषा रहती है, कि मुझे खाने के लिए अमुक वस्तु मिले, किन्तु संयोगवश उसके विपरीत ही आपको दूसरी वस्तु मिलती है, किन्तु अपनी तीव्र भूख को शान्त करने के लिए आपको वह ही खाना पड़ता है यह भी एक प्रकार का अनिष्ट संयोग ही है। इस प्रकार के अनिष्ट सयोगों में भी सम्यक् दृष्टि आत्मा स्थिर रहता है । घृणा और बैर के विकल्पों में उलझकर अपने को पथभ्रष्ट नहीं करता है।
परलोकभय का अर्थ है-अपने से भिन्न विजातीय किसी पशु एवं देव आदि से प्राप्त होने वाला भय । सम्यग् दृष्टि विचारता है कि दूसरा कोई किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकता । दूसरा दूसरे का कर्ताधर्ता कैसे हो सकता है ? जो कुछ मुझे दूसरे से मिल रहा है, वह मेरा किया हुआ ही मुझे मिल रहा है । इस प्रकार वह दूसरों से घृणा नहीं करता । परलोक भय का अर्थ, दूसरे लोक का भय भी किया जाता है। इसका अर्थ है-दूसरे लोक में उपलब्ध होने वाले सुख एवं दुख की चिन्ता करना। परन्तु जिसका जीवन पवित्र एवं निर्भीक है, उसे परलोक का भय नहीं सताता । सम्यक् दृष्टि आत्मा के कर्तव्य-मार्ग में परलोक का भय बाधक नहीं बन सकता । सम्यक् दृष्टि को अपने
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आठ अंग और सात भय | ३५३ वर्तमान जीवन की पवित्रता एवं निर्मलता पर विश्वास होता है। वह सोचता है, कि जब मैंने अपने जीवन में किसी भी प्रकार का पाप नहीं किया है, और जब मैंने दूसरे किसी का अहित नहीं किया है, तब मुझे भयभीत होने की आवश्यकता ही क्या ? सम्यक् दृष्टि आत्मा को न अपने से भिन्न किसी मनुष्य का भय होता है, न पशूपक्षी का भय होता है और न किसी देव का भय होता है । न परलोक का ही भय होता है कि मरने के बाद मेरा वहाँ क्या हाल होगा? वह अपने मन में यही विचार करता है. कि जो कुछ शुभ और अशुभ कर्म मैंने किया है, उसका फल मुझे स्वयं को ही भोगना है । दूसरा व्यक्ति न मुझे सूख दे सकता है, और न दुःख दे सकता है। इस प्रकार सुख-दुःख के सम्बन्ध में उसके मानस में यह ध्रुव धारणा रहती है, कि कोई किसी को सुख-दुःख नहीं दे सकता । सम्यक् दृष्टि के मन में न स्वर्ग का प्रलोभन होता है, और न नरक का भय । अपने वर्तमान जीवन में पवित्र जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति के हृदय में न इहलोक का भय होता है और न परलोक का भय होता है। इसी आधार पर यह कहा जाता है, कि सम्यक् दृष्टि को अपने इस वर्तमान जीवन में. अपने साधना के पथ से न इस लोक का भय हटा सकता है और न परलोक का भय ही हटा सकता है।
सात भयों में तीसरा भय है, वेदना-भय । वेदना का अर्थ हैपीड़ा या कष्ट । जीवन में किसी भी प्रकार का संकट उपस्थित हो जाने पर सम्यक् दृष्टि विचलित नहीं होता है । सबसे भयंकर वेदना वर्तमान जीवन में रोग को मानी जाती है। जब शरीर में किसी भी प्रकार का रोग उत्पन्न हो जाता है, तब वह बड़े से बड़े वीर पुरुष को भी अधैर्यशील बना देता है। कहा गया है, कि इस शरीर के रोम-रोम में रोग भरे हए हैं। न जाने किस समय कौन सा रोग फूट पड़े । जब मनुष्य स्वस्थ होता है, तब उसके मन में प्रसन्नता रहती है, और उसके तन में स्फूर्ति रहती है, परन्तु ज्यों ही वह रोगग्रस्त हो जाता है, तो उसके मन की प्रसन्नता और उसके तन की स्फूर्ति न जाने कहाँ चली जाती है ! इस विशाल विश्व में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो यह चाहता हो कि मैं बीमार पड़ जाऊँ, रोग ग्रस्त हो जाऊँ। इसके विपरीत सभी लोग यह चाहते हैं, कि हम सदा स्वस्थ एवं प्रसन्न बने रहें । किन्तु जो कुछ मनुष्य चाहता
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३५४ | अध्यात्म-प्रवचन
है, वही तो संसार में नहीं होता । होता वही है, जो कुछ होना होता है । जीवन के इसी स्वर्णिम सूत्र को पकड़ कर सम्यक दृष्टि आत्मा सर्व प्रकार की व्याधिजन्य वेदनाओं की व्याकुलता से विमुक्त हो जाता है । वेदना किसी भी प्रकार की क्यों न हो? चाहे वह शारीरिक हो अथवा मानसिक हो, सम्यक् दृष्टि को वह व्याकुल नहीं बना सकती। कारण स्पष्ट है, कि मुख्य रूप से सम्यक् दृष्टि की दृष्टि, इस देह पर नहीं, इस देह में निवास करने वाले देही पर ही होती है। इस तन के विनाश को वह अपना विनाश नहीं समझता । वह समझता है, कि शरीर में जो रोग उत्पन्न हुआ है, वह मेरे अपने स्वयं के असातावेदनीय कर्म का ही फल है, और वह मुझे ही भोगना है । ___ सात भयों में चौथा भय है-मरण-भय । मरण-भय का अर्थ हैमृत्यु का भय । कहा जाता है, कि संसार में जितने भी प्रकार के भय हो सकते हैं, उनमें सबसे भयंकर भय मृत्यु का ही होता है । जिस समय जीवन देहलो पर मृत्यु की छाया आकर खड़ी होती है, उस समय संसार के बड़े-बड़े कोटिभट जैसे वीर भी प्रकम्पित हो जाते हैं। जब मृत्यु शब्द भी लोक में प्रिय नहीं है, तब लोक में साक्षात् मृत्यु प्रिय कैसे हो सकती है ? संसार का प्रत्येक प्राणी इस संसार में अमर होकर जीवित रहना चाहता है । भगवान महावीर की भाषा में जीवन का यह परम सत्य है, कि जीवन सबको प्रिय है और मरण किसी को भी प्रिय नहीं होता। जिस समय किसी मनुष्य के प्राणों पर आपत्ति आती है, तब वह प्राणों से भी अधिक प्रिय धन को एवं जन को भी अपने जीवन की रक्षा के लिए छोड़ने को तैयार हो जाता है। इतना भयंकर होता है, मृत्यु का भय ! किन्तु सम्यक दृष्टि आत्मा इस भय से भी विचलित नहीं होता। वह अपनी अध्यात्म-भाषा में कहता है, कि जब जीवन आया है, तब एक दिन वह जाएगा भी । जो आया है, उसे एक दिन अवश्य जाना ही होगा। जिसका जन्म हुआ है, उसका मरण न हो, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? सम्यक दृष्टि सोचता है, कि मैं अविनाशी हूँ, अजर हूँ, अमर हूँ । आत्मा का नाश चिरकाल में कभी भी नहीं होता । नाश होता है देह का । देह पर है, अतः उसका नाश होता है तो उससे मेरी क्या हानि हो सकती है ? अपने जीवन के प्रति यह अध्यात्म-भावना और अध्यात्म-दृष्टि ही सम्यक् दृष्टि को निर्भय बना देती है।
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आठ अंग और सात भय | ३५५ सात भयों में पाँचवाँ भय है-आदान-भय । इसको अत्राण-भय भी कहा जाता है । इसका अभिप्राय यही है, कि सम्यक् दृष्टि आत्मा को कभी भी अशरण का, अरक्षकता और अत्राण का भय नहीं होता। क्योंकि सम्यक दृष्टि जीवन के इस तथ्य को भली भाँति समझता है, कि इस ससार में न कोई किसी को शरण दे सकता है और न कोई अन्य किसी की रक्षा ही कर सकता है। अपनी आत्मा ही एक मात्र अपने को शरण देने वाला और रक्षा करने वाला है। पाप कर्म का विपाक-समय आने पर उसके कटु फल से न माता-पिता बचा सकते हैं, न भाई-बहिन बचा सकते हैं, न पुत्र-पुत्री बचा सकते हैं और न पति-पत्नी ही एक दूसरे की रक्षा कर सकते हैं। और तो क्या, न्याय और अन्याय से मनुष्य ने जिस धन का संचय किया है, वह धन भी अन्त में उसकी रक्षा नहीं कर सकता । आत्मा से भिन्न अन्य कोई भी पदार्थ, फिर भले हो वह जड़ हो या चेतन, मुझे त्राण और रक्षा नहीं दे सकता, इस प्रकार का दृढ़ विश्वास सम्यक दृष्टि की अन्तर आत्मा में होता है । इसीलिए जीवन में विकट, विपरीत और संकटमय क्षण आने पर भी वह अपने जीवन की रक्षा के लिए एवं अपने जीवन के बाण के लिए, अपने प्राणों की किसी से भीख नहीं मांगता। जो लोग इस मरण-भय से मुक्त नहीं होते हैं, वे अपनी या अपने प्रियजन की जीवन रक्षा के लिए देवी देवताओं पर पशुबलि चढ़ाते हैं, निरोह मूक पशुओं का रक्त बहाते हैं। अन्य अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों के शिकार हो जाते हैं। साधक को मरण-भय से मुक्त होना चाहिए । अतः सम्यक् दृष्टि में आदान-भय और अत्राणभय भी नहीं रहता । इस अपेक्षा से भी उसका जीवन सदा निर्भय रहता है।
सात भयों में छठा भय है-अपयश का भय । इसको अश्लोकभय भी कहते हैं । प्रत्येक मनुष्य को अपनी प्रशंसा प्रिय होती है और निन्दा अप्रिय होती है । प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता हैं, कि संसार में मेरा आदर एवं सत्कार हो, और आस-पास के समाज में मेरी पूजा एवं प्रतिष्ठा हो। मनुष्य अपने जीवन में प्रशंसा तो बहुत बटोर सकता है, किन्तु अपयश का एक कण भी उसे स्वीकार नहीं होता। किन्तु सम्यक् दृष्टि यह विचार करता है, कि मेरे यश का आधार मेरा सत्य है । सत्य हैं तो सब कुछ है और सत्य नहीं है तो कुछ भी
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३५६ | अध्यात्म प्रवचन
नहीं है । सत्य की रक्षा के लिए मैं निन्दा भी स्वीकार कर लंगा, अपमान भी स्वीकार कर लूंगा और अपयश भी सहन कर लूंगा, किन्तु सत्य को खोकर प्रशंसा, आदर, सत्कार, पूजा और प्रतिष्ठा मुझे किसी भी प्रकार ग्राह्य नहीं हैं। अपने सत्य की रक्षा के लिए, अपने धर्म की रक्षा के लिए और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए, सम्यक्दृष्टि आत्मा अपयश और निन्दा से भयभीत नहीं होता है। ___ सातभयों में सातवाँ भय है-अकस्माद्-भय । इसको आकस्मिक भय भी कहते हैं । अकस्माद्-भय एवं आकस्मिक भय का अर्थ यही है, कि वह भय, जिसकी मनुष्य कल्पना भी नहीं कर पाता है। इस भय की व्याख्या करते हुए कहा गया है, कि किसी प्रकार की दुर्घटना का घटना, घर पर चोर एवं डाकुओं का अचानक आक्रमण होना, जंगल से किसी जंगली जानवर का अचानक आक्रमण कर देना, और घर आदि का अचानक गिर पड़ना, अथवा आग लग जाना आदिआदि आकस्मिक भय के अगणित एवं असंख्यात प्रकार हैं। सम्यक दृष्टि आत्मा को अपनी आत्मा की अमरता एवं शाश्वतता पर विश्वास होता है । इसलिए यह अकस्मात् भय भी उसे कभी व्याकुल और परेशान नहीं करता है।
मैं आपसे यह कह रहा था कि सम्यक् दृष्टि आत्मा का व्यवहार और आचार कैसा होता है ? सम्यक् दृष्टि के जीवन में सम्यक दर्शन के आठ अंगों की अभिव्यक्ति होती रहती है और उसके जीवन में, सात प्रकार के भयों में से, किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता। आठ अंगों की साधना से और सात प्रकार के भयों की विमुक्ति से उसका जीवन सदा सुन्दर, मधुर और शान्त रहता है । वह निरन्तर अपने स्वरूप में ही स्थिर रहने का प्रयत्न करता है।
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२१
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तीन प्रकार की चेतना
भारतीय दर्शन में आत्मा के स्वरूप का वर्णन एवं प्रतिपादन बहुत ही विस्तार के साथ किया गया है। एक चार्वाक दर्शन को छोड़ कर भारत के शेष समस्त दर्शन आत्मा की सत्ता में विश्वास रखते हैं और अपने-अपने विश्वास के अनुसार उसके स्वरूप के प्रतिपादन का प्रयत्न भी करते हैं। ___ आत्मा, चेतन और जीव-ये तीनों पर्यायवाची शब्द हैं। अध्यात्मशास्त्र में आत्मा के सम्बन्ध में कहा गया है, कि वह ज्ञाता और द्रष्टा है। ज्ञाता का अर्थ है-जानने वाला, और द्रष्टा का अर्थ है-देखने वाला । प्रमाण-शास्त्र में आत्मा को प्रमाता कहा गया है। इस प्रकार आत्मा के जितने भी नाम हैं, उन सबमें चेतना प्रतिभासित होती है । अतः चेतना ही आत्मा का मुख्य लक्षण है। चेतना को ही उपयोग भी कहते हैं । आत्मा चेतन है, इसका अर्थ है कि वह ज्ञानस्वरूप है । आत्मा के जितने भी नाम हैं, उन सबमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण दो नाम हैं-ज्ञाता और द्रष्टा । ज्ञाता और द्रष्टा कहने से आत्मा का परिपूर्ण बोध हो जाता है। जब हम यह कहते हैं, कि आत्मा प्रमाता है, तब इसका अर्थ यह होता है कि वह विश्व के सभी पदार्थों की प्रामाणिकता का बोध करने वाला है।
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३५८ | अध्यात्म-प्रवचन
वह
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा तो है ही, किन्तु साथ में कर्ता और भोक्ता भी है। विश्व की प्रत्येक आत्मा अपने शुभ एवं अशुभ कर्म का कर्ता है और स्वयंकृत कर्म का भोक्ता भी है । परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आत्मा के अनन्त गुणों में चेतना शक्ति ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । यदि अन्य समस्त गुण हों और चेतना न हो, तो आत्मा चेतन न रह कर जड़ बन जाएगा । चेतना के बिना आत्मा के अन्य गुणों का कुछ भी महत्व न रहेगा । चेतना का अर्थ है- उपयोग और उपयोग का अर्थ हैज्ञान एवं दर्शन । आत्मा को चेतन बनाने वाला गुण एकमात्र चेतना ही है । यही कारण है कि भारत में प्रत्येक आस्तिक दर्शनकार ने आत्मा के अन्य गुणों की अपेक्षा उसके चेतना गुण को ही अधिक महत्व दिया है । चेतना के सम्बन्ध में जैन दर्शन में तो यहाँ तक कहा गया है, कि चेतन सत्ता पर ही संसार और मोक्ष दोनों ही आधारित हैं । चेतना के अभाव में न संसार की ही सत्ता रह सकती है और न मोक्ष की ही । संसार और मोक्ष अथवा बन्ध और मोक्ष तथा सुख और दुःख एवं पाप और पुण्य इन सबकी व्यवस्था बिना चेतना के नहीं हो सकती । यही कारण है कि शास्त्रकारों ने आत्मा के अनन्त गुणों में से उसके चेतना गुण को सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी माना है । यदि आत्मा में चेतना न हो, तो फिर वह ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता और भोक्ता भी कैसे हो सकता है ? चेतना के अभाव में यह आत्मा न बद्ध हो सकता है और न मुक्त ही । बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था का एक मात्र आधार आत्मा का ज्ञान रूप चेतना गुण ही है ।
मैं आपसे चेतना की बात कह रहा था। मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि अपने चेतना गुण के आधार पर ही आत्मा चेतन है । आत्मा का बन्ध भी उसके चेतन भाव में ही है, जड़ भाव में नहीं । उसका मोक्ष भी उसके चेतन-भाव में ही है, जड़ भाव में नहीं । चेतन की चेतना में ही बन्ध है और चेतन की चेतना में ही मोक्ष है । प्रश्न होता है, कि बन्ध कहाँ से आया और मोक्ष कहाँ से आया ? इस प्रश्नः के समाधान में कहा गया है, कि न बन्ध ही कहीं बाहर से आया और न मोक्ष ही कहीं बाहर से आया । चेतना में ही बन्ध है और चेतता में ही मोक्ष है । आप कह सकते हैं, कि बन्ध और मोक्ष दोनों परस्पर
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तीन प्रकार की चेतना | ३५६
विरोधी अवस्थाएँ हैं, फिर वे दोनों एक चेतन में कैसे हो सकते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भारत के तत्वचिन्तकों ने बहुत कुछ लिखा है और बहुत कुछ कहा है । इस तथ्य को समझने के लिए, उन्होंने एक बहुत सुन्दर रूपक कहा है, जो इस प्रकार है । शिष्य प्रश्न करता है, "भगवन् ! इस अनन्त आकाश में मेघ कहाँ से आ रहा है तथा उसे कौन लाता है ?" गुरु ने अपने शिष्य के प्रश्न के उत्तर में कहा"मेघ कहीं बाहर से नहीं आता, इस अनन्त आकाश में प्रवह मान पवन ने ही इसे उत्पन्न कर दिया है ।" शिष्य ने फिर पूछा "इस मेघ को नष्ट कौन करता है ?" गुरु ने कहा - " जो पवन उसे उत्पन्न करता है, वह पवन ही उसे नष्ट भी कर देता है ।" पवन में एक ऐसी शक्ति है, जिससे वह मेघ को उत्पन्न भी कर सकता है और नष्ट भी कर सकता है । पवन ही इस अनन्त गगन में घटाओं का निर्माण करता है और पवन ही उन्हें बिखेर भी देता है । यह मैंने आपसे बाह्यप्रकृति की बात कही, किन्तु अन्दर में, आत्मा में क्या होता है ? इस आत्मरूपी आकाश में बन्ध रूपी मेघ कहाँ से आता है और फिर कौन उसे छिन्न भिन्न कर डालता है ? याद रखिए, चिदाकाश में एक घटा नहीं, अनन्त - अनन्त घटाएँ घुमड घुमड कर आती हैं, सुख-दुख की वर्षाएँ होती हैं और फिर छिन्न-भिन्न हो जाती हैं । जब चिदाकाश में कर्म की घटाएँ उमड़ घुमड़ कर छा जाती हैं, उस समय जीवन अन्धकारमय बन जाता है, कुछ भी सूझता नहीं है, उस समय निरन्तर सुख-दुख की वर्षा होती रहती है । इस प्रकार की स्थिति में यह कौन विचार कर सकता है, कि इस चिदाकाश में से इन कारी कजरारी मेघ घटाओं का कभी अभाव भी होगा ? परन्तु निश्चय ही एक दिन चिदाकाश में से कर्म रूपी घटाओं का अन्त हो जाता है । पर प्रश्न यह है, कि इन कर्म रूपी घटाओं को उत्पन्न करने वाला कौन है और अन्त करने वाला कौन है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि स्वयं आत्मा ही अपने अनन्त चिदाकाश में कर्म की मेघ घटाओं को उत्पन्न करता है और स्वयं आत्मा ही उनको छिन्न-भिन्न एवं नष्टभ्रष्ट भी कर डालता है । इसीलिए मैंने आप से यह कहा था, कि बन्ध भी चेतन में ही है और मोक्ष भी चेतन में ही है । चेतन से बाहर न बन्ध है और न मोक्ष है । जिस प्रकार पवन स्वयं हो मेघों को उत्पन्न करता है और स्वयं ही उन्हें नष्ट भी कर देता है, उसी प्रकार स्वयं आत्मा ही अपनी चेतना शक्ति से कर्मों को उत्पन्न करता
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३६० / अध्यात्म-प्रवचन
है और नष्ट भी कर डालता है। इस दृष्टि से बन्ध भी आत्मा में है और मोक्ष भी आत्मा में है। याद रखिए, जहाँ चेतन है, वहीं पर कर्म है और जहाँ कर्म हैं, वहीं उसका भोग भी है और जहाँ भोग है, वहीं उसका मोक्ष भी है। बन्ध और मोक्ष दोनों आत्मा में ही रहते हैं । अतः यह ज्ञानस्वरूप आत्मा एक विलक्षण शक्ति है। ___ मैं आपसे चेतना की बात कह रहा था । चेतना एक शक्ति है जो चेतन में रहती है । इस चेतना के आधार से ही चेतन, चेतन कहलाता है। चेतना एक विशिष्ट गुण है । इस गुण को सत्ता से ही आत्मा संसार के विविध भावों को जान सकता है और देख सकता है । चेतना से ही यह चेतन आत्मा जड़ पदार्थों से भिन्न परिलक्षित होता है। जड़ और चेतन पदार्थों में यदि कोई भेद-रेखा है, तो वह चेतन की चेतना ही है । शास्त्रों में चेतना के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा गया है । केवल लिखा ही नहीं गया, बल्कि जो कुछ अनुभव किया गया था, उसे ही लिपिबद्ध किया गया है।
जन-दर्शन में चेतना के तीन भेद माने गये हैं-कर्म चेतना, कर्म फल चेतना और ज्ञान-चेतना। इन तीनों चेतनाओं के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है, कि चेतना यद्यपि अपने आप में अखण्ड और एक तत्व है, किन्तु उसके साथ तीन विशेषण लगे हए हैं-कर्म, कर्मफल और ज्ञान । सबसे पहले कर्म चेतना का विवेचन किया गया है कि कर्म को केवल कर्म ही मत समझना, क्योंकि उसके साथ चेतना भी है। और इसी कारण से बन्ध भी होता है। यदि कर्म के साथ चेतना न हो तो बन्ध भी नहीं हो सकता। कल्पना कीजिए आप एक भव्य भवन में बैठे हैं और उसकी छत में लटकने वाला पंखा किसी कारण वश नीचे गिर पड़ता है, नीचे बैठे लोगों में से अनेक व्यक्तियों का सिर फट जाता है। यह एक कमें है, जो पंखे में हुआ है । आप बतलाइए, उस पंखे को कौन सा कर्म लगा? अथवा उस पंखे को कौन सा बन्ध हुआ? इसी बात को दूसरे प्रकार से समझिए, कहीं चन्दन रखा हुआ है अथवा जलती हुई अगरबत्ती रखी है, वहाँ से गुजरने वाले सभी व्यक्ति उसकी भीनी सुगन्ध का आनन्द लेते हैं । यह भी एक प्रकार का कर्म है । आप बतलाइए, उस चन्दन को और अगरबत्ती को कौन सा बन्ध हुआ? आप कहेंगे, उसे बन्ध कैसे हो सकता है, क्योंकि वे तो जड़ है। परन्तु मैं कहता है कि के
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तीन प्रकार की चेतना [ ३६१ जड़ तो अवश्य हैं, पर कर्म और क्रिया तो उनमें हैं, क्योंकि जैन-दर्शन के अनुसार पुद्गल में भी क्रिया-शक्ति रहती ही है, तब बन्ध क्यों नहीं होता? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा गया है, कि पखे में कर्म एवं क्रिया होते हुए भी अथवा चन्दन एवं अगरबत्ती में कर्म एवं क्रिया होते हुए भी चेतना नहीं है, इसी लिए वहाँ बन्ध नहीं होता। मैं आपसे कह रहा था कि कर्म के साथ जहाँ चेतना होती है, वहीं पर बन्ध होता है । चेतना-शून्य कर्म तो जड़ पदार्थ में भी होता है, किन्तु उसे किसी प्रकार का बन्ध नहीं होता । यहाँ पर एक बात और समझ लेनी है, कर्म का अर्थ है-क्रिया। क्रिया का अर्थ है-चेष्टा और प्रयत्न । क्रिया और चेष्टा दो ही तत्वों में होती है-जीव में और अजीव में, आत्मा और पुदगल में । इतना अन्तर अवश्य है, कि चेतन की क्रियाएँ चेतन में होती हैं और जड़ क्रियाएँ जड़ में होतो हैं । चेतन की क्रिया जड़ में नहीं हो सकती और जड़ की क्रिया चेतन में नहीं हो सकती । मैं आप से कह रहा था, कि खाली कर्म होने पर बन्ध नहीं होता, किन्तु कर्म-चेतना के होने पर ही बन्ध होता है। यदि केवल कर्म हो और उसके साथ चेतना न हो, तो वहाँ बन्ध नहीं होता। जैसा कि मैंने पंखे, चन्दन और अगरबत्ती के उदाहरण में कहा है। उन तीनों में कर्म तो हैं किन्तु कर्म के साथ चेतना नहीं है, इसलिए पंखे को अशुभ बन्ध नहीं होता। प्रत्येक साधक को कर्मचेतना का रहस्य भली भांति समझ लेना चाहिए। कर्म चेतना का अर्थ यह है कि चेतना-पूर्वक जो कर्म किया जाता है, उसी से बन्ध होता है और चेतना-पूर्वक कर्म चेतना में ही सम्भव है। अतः चेतना में ही बन्ध होता है और चेतना में ही मोक्ष होता है । पुद्गल में कर्म होते हुए भी चेतना का अभाव होने से न उसका बन्ध होता है और न उसका मोक्ष होता है । यही कर्म चेतना का मूल रहस्य है । ___मैं आपसे कर्म चेतना की बात कर रहा था। जब हमारे अन्तर में राग से या द्वष से क्रिया की स्फुरणा होती है, और कर्म की भाव लहरी लहराने लगती है, तब भाववती शक्ति से आत्म-चेतना विविध विकल्प करती है । वे विकल्प इस प्रकार के होते हैं-यह करू', यह न करू, वह करू, वह न करूं, क्या करूँ, क्या न करू ? इस प्रकार के विकल्पों की अन्तर में जो ध्वनि निरन्तर उठा करती है, यही कर्म चेतना है । यह सब चेतना एवं स्फुरणा कहाँ से आती हैं ? यह कहीं
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३६२ | अध्यात्म प्रवचन बाहर की नहीं है, हमारे अन्दर की ही है ? यह अन्तर की चेतना ही कर्म चेतना है, भले ही बाहर में तद्नुरूप कोई क्रिया हो या न हो। अध्यात्म जगत में कर्मबन्ध-सम्बन्धी मूल प्रश्न कर्म का नहीं है, बल्कि कर्म-चेतना का है। बाहर की क्रिया की कोई बात नहीं है । अन्तर में जब भी करने एवं न करने का विकल्प होता है, चेतना में जो कर्म मूलक विधि निषेध के विविध विकल्पों की लहरें उठती हैं, चेतना के महासागर में एक प्रकार का तूफान सा आ जाता है, तब आत्मा स्व-स्वरूप में स्थिर नहीं रहने पाता । और जब आत्मा स्व-स्वरूप में स्थिर नहीं होता, तब कर्म बन्ध के चक्र में उलझ जाता है। यद्यपि आत्म-चेतना अपने सहज स्वरूप से शान्त सरोवर के समान है, किन्तु जब उसमें कर्म कर्तृत्व-सम्बन्धी विविध विकल्पों की उर्मियां उठने लगती हैं, तब वह अशान्त बन जाती है। विकल्पों को ये लहरें ही कर्म-चेतना है जो बन्ध का मूल कारण बनती हैं। इस दृष्टि से मैं आपसे कह रहा था, कि कर्म-चेतना ही बन्ध है। शास्त्रकारों ने इसी को चेतन-बन्ध कहा है। बन्ध के दो भेद हैं-चेतन-बन्ध और जड़बन्ध । जैन दर्शन के अनुसार इस विशाल और विराट, विश्व में सर्वत्र कर्मणा बर्गणाओं का अक्षय भण्डार भरा पड़ा है । लोकाकाश का एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है, जहाँ पर अनन्त-अनन्त कार्मण वर्गणाओं की सत्ता न हो। जब चेतना में विविध विकल्पों का तूफान उठता है, तब यही कार्मण वर्गणाएं कर्म का रूप धारण कर लेती हैं और आत्मा से बद्ध हो जाती है । अनन्तकाल से कार्मण वर्गणाएँ कर्म का रूप ले रही हैं और भविष्य में भी लेती ही रहेंगी। प्रत्येक आत्मा प्रतिक्षण नवीन कर्मों का बन्ध कर रहा है और पुरातन कर्मों का क्षय भी करता जा रहा है । जब पुरातन कर्म के साथ नवीन कर्म का बन्ध हो जाता है, तब इसको जड़-बन्ध कहा जाता है । यह बन्ध जड़ का जड़ के साथ होने वाला बन्ध है। परन्तु याद रखिए, भले ही यह जड़ बन्ध है, पर यह जड़ बन्ध बिना कारण के स्वयं नहीं होता है। प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। आत्मप्रदेशों के साथ कर्म परमाणुओं का संश्लेष बन्ध कहा जाता है, किन्तु यह बन्ध बिना कारण के नहीं हो सकता, उसका कोई कारण अवश्य हो होता है। प्रत्येक जड़ बन्ध के पीछे चेतन की विकल्प-शक्ति होती है । कोई काम अपने आप हो जाता है, यह सत्य नहीं है । किसी कार्य के कारण का पता लमे अथवा न लगे, किन्तु वह अकारण नहीं होता है। मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है, कि प्रत्येक कार्य का कारण
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तीन प्रकार की चेतना | ३६३ अवश्य होता है । इसी प्रकार कर्म का जो जड़ बन्ध होता है, वह अपने आप नहीं होता है । उसका भी कारण अवश्य होता है। जड़कर्मबन्धरूप कार्य के प्रति जो चेतना का रागद्वेषात्मक विकल्प निमित्त कारण होता है, उस निमित्त कारण को ही चेतन-बन्ध कहा जाता है । शास्त्र में जड़ कर्म को द्रव्य कर्म और चेतन कर्म को भाव कर्म भी कहा गया है । भाव कर्म से द्रव्य कर्म और द्रव्य कर्म से भाव कर्म का बन्ध होता रहता है। जैन दर्शन कहता है, कि कार्य की अपेक्षा कारण से ही अधिक संघर्ष करने की आवश्यकता है। कारण के टूटने पर कार्य स्वयं टूट जाएगा । कार्य से अधिक महत्वपूर्ण वह कारण है, जो कार्य का जन्म दाता है। जैन दर्शन और जैन साधना में सर्व प्रथम कारण से ही संघर्ष करने की बात कही गई है । यही जीवन का सच्चा लक्ष्य है ।
जैन दर्शन में कर्म चेतना का जो स्वरूप बतलाया है, मैं उसी का प्रतिपादन कर रहा था । मैंने आपसे कहा था, कि जैन दर्शन कार्य में परिवर्तन लाने की अपेक्षा पहले कारण में परिवर्तन लाने की बात कहता है । अभी मैंने आपसे द्रव्य कर्म और भाव कर्म की बात कही थी, जिसे कर्म चेतना कहा जाता है, वस्तुतः वही भाव कर्म है । कर्म चेतना के दो भेद हैं- पुण्य कर्म-चेतना और पाप कर्म चेतना । किसी दुःखी व्यक्ति को देखकर उसके दुःख को दूर करने की भावना से उसे जो दान दिया जाता है अथवा उसकी सेवा की जाती है, वह पुण्य कर्म चेतना है । इसी प्रकार रागात्मक भाव से देव की उपासना करना, गुरु की भक्ति करना आदि भी सब पुण्य कर्म चेतना हैं । पुण्य कर्म चेतना में दूसरे को सुख आदि देने की अनुराग भावना मुख्य रहती है । पुण्य कर्म चेतना भी आत्मा का एक विकल्प है । भले ही वह शुभ ही क्यों न हो, किन्तु है तो विकल्प ही ? आत्मचेतना में जब कभी शुभ कार्य करने का विकल्प उत्पन्न हो, तब वहाँ उसे पुण्य कर्म चेतना ही समझना चाहिए । शास्त्र में कहा गया है, कि आठ प्रकार के कर्मों में से चार कर्म घाती हैं और चार अघाती हैं । चार घाती कर्म ये हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय । चार अघाती कर्म इस प्रकार हैं वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र । घाती कर्म का अर्थ है-आत्मा के ज्ञान आदि गुणों का घात करने वाला कर्म । अघाती कर्म का अर्थ है - वह कर्म जो आत्मा के गुणों का घात तो नहीं करता, किन्तु वह मोक्ष का
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३६४ | अध्यात्म-प्रवचन
प्रतिबन्धक होता है । क्यों कि जब तक यह कर्म रहता है, मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इन आठ प्रकार के कर्मों के बन्धन काल में जब पुण्यमय विकल्प उठता है, तब वह पुण्य कर्म-चेतना कहलाती है । और जब पापमय विकल्प उठता है, तब पाप कर्म चेतना कहलाती है। शुभ विकल्प रूप पुण्यकर्म चेतना से अघाती कर्मों में मुख्य रूप से पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है, परन्तु पापकर्म चेतना से मुख्यत्वेन घाती और अघाती पाप प्रकृतियों का बन्ध होता है, क्योंकि उनके मूल में अशुभ विकल्प रहता है। पूण्य कर्म चेतना से मुख्यत्वेन अघाती कर्मों में तो उत्कृष्ट पूण्य प्रकृति का बन्ध होता है और गौण रूप से पुण्य कर्म चेतना के काल में जो घाती कर्म रूप पाप प्रकृति का बन्ध होता है, वह स्थिति, रस आदि के रूप में अल्प एवं मन्द बन्ध ही होता है, तीव्र नहीं। जिस प्रकार विशाल क्षीर सागर में यदि विष का एक बिन्दु डाल दिया जाए, तो उसका अस्तित्व तो उसमें अवश्य रहता है, किन्तु उसका कोई अनिष्ट प्रभाव नहीं पड़ता । इसी प्रकार पुण्य प्रकृति के साथ जो घाती कर्म का बन्ध होता है, उसका स्थिति-बन्ध और रस-बन्ध बहत ही अल्प होता है। याद रखिए, पूण्य और पाप का बन्ध कभी अकेले नहीं होता है । नीचे के गुणस्थानों में जहाँ पुण्य का बन्ध होता है, वहाँ किसी अंश में पाप का बन्ध भी रहता है, और जहाँ पाप का बन्ध होता है, वहाँ भी किसी अंश में पुण्य का बन्ध होता ही है । वीतराग गुण स्थानों में यद्यपि एक मात्र पुण्य बन्ध होता है, परन्तु वहाँ कषाय के क्षय अथवा उपशम होने से उस पुण्य बन्ध का भी स्थिति बन्ध और रसबन्ध नहीं होता । केवल प्रकृति एवं प्रदेश बन्ध ही होता है और वह भी मात्र एक समय के लिए ही। दूसरे समय में कर्म परमाणु स्वतः ही आत्मा से अलग हो जाते हैं, उन्हें आत्मा से दूर करने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है ।
कर्म बन्ध आत्मा के परिणाम से होता है । बन्ध के समय आत्मा का जैसा परिणाम होता है, वैसा ही बन्ध हो जाता है। एक सम्यक दृष्टि आत्मा जब पुण्य कर्म चेतना द्वारा, पुण्य का बन्ध करता है, तब एक ओर कर्म बन्ध की धारा होती है, तो दूसरी ओर ज्ञान की धारा भी बहती रहती है, जितने-जितने अंशों में विशुद्ध ज्ञान-धारा रहती है, उतने-उतने अंशों में वहाँ संवर एवं निर्जरा अवश्य होती है । हम कहीं एकान्त निर्जरा, कहीं एकान्त बन्ध, कहीं एकान्त पुण्य
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तीन प्रकार की चेतना | ३६५ और कहीं एकान्त पाप की चर्चा करते हैं, परन्तु यह उचित नहीं है । वस्तु स्थिति का विश्लेषण किए बिना ही इस प्रकार का कथन किया जाता है । बात यह है कि जब साधक नीचे का भावभूमिकाओं में कोई भी पुण्य किया करते हैं, तब अन्तर में उसके चार परिणाम होते हैं-पुण्य, पाप, संवर और निर्जरा। सामायिक करना, उपवास करना, गुरु की भक्ति करना और दान करना आदि साधना रूप क्रियाएँ अमुक अंश में शुभ, अमुक अंश में अशुभ हैं और अमुक अंश में शुद्ध भी हैं । उक्त क्रियाओं को करते समय मन्द कषायों की धारा होती है, अतः इस अंश में शुभ उपयोग होने से पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है । कषाय भाव के होने से अमुक अंश में अशुभ उपयोग है, अतः पाप प्रकृति का बन्ध होता है । मन्द कषाय के साथ अमुक अंश में सम भाव रूप शुद्ध उपयोग है अतः अमुक अंश में संवर और निर्जरा भी होती है । मैं यहाँ आपसे पुण्य कर्म चेतना की बात कर रहा था । पुण्य कर्म चेतना का अर्थ है-वह चेतना जिसमें पुण्य की धारा प्रवाहित हो रही है। यह पुण्य की धारा शुभ योग में ही प्रवाहित हो सकती है। शुभ योग में स्थित आत्मा पुण्य प्रकृतियों का बन्ध करता है। - दूसरी चेतना पाप कर्मचेतना है । पाप कर्म चेतना का अर्थ हैवह चेतना जिसमें पाप की धारा प्रवाहित होती रहती है। क्योंकि जिस समय आत्मा अशुभ उपयोग में स्थित होता है, उस समय वह पाप प्रकृतियों का बन्ध करता है। अशुभ उपयोग किस प्रकार का होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि किसी को कष्ट देने का विचार, किसी को दुःख देने की भावना, काम, क्रोध, मोह आदि अशुभ विकल्प अशुभ उपयोग हैं। अशुभ विकल्प में भी धाती कर्म अशुभ और अघाती कर्म दोनों का बन्ध होता है। घातिक कर्म तो सभी अशुभ ही होती है।।
पाप प्रकृति के बन्ध के समय भी अमुक अंश में पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है पर वह स्थिति और रस की दृष्टि से अल्प एवं मन्द होता है । किसी की वस्तु छीनना, किसी को गाली देना, किसी के साथ मारपीट करना ये सब पाप कर्म-चेतना के उदाहरण हैं। मिथ्या दृष्टि आत्मा ही नहीं, सम्यक दृष्टि आत्मा भी यदि इन क्रियाओं को करता है, तो उसे भी पाप प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिथ्या दृष्टि आत्मा पाप करता है, किन्तु पाप के फल को नहीं चाहता
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३६६ ! अध्यात्म प्रवचन पुण्य के फल को चाहता है । सम्यक् दृष्टि आत्मा न पाप के फल को आकांक्षा करता है और न पुण्य के फल की ही आकांक्षा करता है। वह तो दोनों को बन्धन रूप समझता है, पाप भी एक बेड़ी है और पूण्य भी एक बेड़ी है। जिस प्रकार लोहे की बेडी बन्धन है, उसी प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी तो बन्धन ही है। सम्यक् दृष्टि आत्मा पुण्य और पाप दोनों बन्धनों से मुक्त होकर जीवन के शुद्ध लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है।
सम्यक् दृष्टि आत्मा कितना भी अधिक संसारी सुख दुःख प्राप्त करले, किन्तु उस सुख दुःख को वह संसार का रूप ही समझता है । विवेक की यह ज्योति उसके जीवन में सदा प्रज्वलित रहती है । सम्यक् दृष्टि आत्मा पाप न करता हो, यह बात नहीं है। उसके जीवन में भी पाप होते है। साधारण पाप क्या, युद्ध जैसे भयंकर पाप भी उसे अपने जीवन में करने पड़ते हैं । चक्रवर्ती भरत ने कितना भयंकर युद्ध किया था और बह युद्ध भी किसी अन्य से नहीं, अपने भाई के साथ ही । आप देखते हैं कि इतना भयंकर युद्ध करने पर भी चक्रवती भरत की उसी जन्म में मुक्ति हो गई । यही स्थिति शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ के जीवन की भी रही है। भरत के जीवन की अपेक्षा इनके जीवन की यह विशेषता थी, कि ये अपने जीवन-काल में चक्रवर्ती भी रहे और अन्त में तीर्थंकर भी बन गए। उक्त जीवन-गाथाओं से यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि संसार के ऊँचे से ऊंचे भोग उन लोगों को मिले, किन्तु फिर भी वे मन्दकषायी थे। उन्होंने अपने जीवन में यथा प्रसंग पाप भी किया और पुण्य भी किया, किन्तु फिर भी वे पाप और पुण्य-दोनों के बन्धनों से मुक्त हो गए। कैसे हो गए, यह प्रश्न समाधान चाहता है। बात यह है कि बाहर में वे कैसे भी रहे हों, किन्तु अन्तर में मन्द कषायी थे, 'उदासीन' परिणति वाले थे । सम्यक् दृष्टि आत्मा के पाप ऐसे होते हैं, जैसे नवीन सूखे वस्त्र पर धूलि-कण बैठ गए हों। जरा झटकारने से ही जैसे वे दूर हो जाते हैं, वैसे ही सम्यक दृष्टि आत्मा के पाप शुद्धोपयोग रूप एक झटके से समाप्त हो जाते हैं। जो आत्मा अध्यात्म-भाव में स्थिर हो गया है, उसे न पाप पकड़ सकता है और न पुण्य रोक सकता है।
भगवान महावीर ने साधक जीवन के सम्बन्ध में एक बहत सुन्दर
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तीन प्रकार की चेतना | ३६७ रूपक कहा है । पंक्षी के पाँख पर तभी तक धूलि-कण पड़े रहते हैं, जब तक कि वह पंख नहीं फड़फड़ाता है। जैसे ही उसने अपने पंख फड़फड़ाये कि सब धूलि साफ हो जाती है। अध्यात्म-साधक के जीवन में लगने वाले पाप और पुण्य भी इसी प्रकार दूर हो जाते हैं। शुद्धोपयोग की धारा में पाप और पुण्य के सब विकार साफ हो जाते हैं और साधक की बन्धन मुक्ति क्षणभर में हो जाती है। ___ मैं आपसे तीन प्रकार की चेतनाओं की बात कह रहा था। दूसरी चेतना है-कर्मफल चेतना । कर्मफल चेतना का अर्थ है-जिसमें जीव अपने शुभ एवं अशुभ कर्म के फल का अनुभव करते समय शुभफल को पाकर वह प्रसन्न हो जाता है और अशुभ फल को पाकर वह खिन्न हो जाता है। उसकी दष्टि पुण्य पाप और उनके फल में ही उलझी रहती है । कर्म-फल-चेतना में जीव को अपने स्वरूप का भान नहीं हो पाता। वह कर्मों के भार से इतना दबा रहता है, कि कर्म और कर्मफल से अतिरिक्त अविनाशी शुद्ध आत्म-तत्व पर उसकी दृष्टि ही नहीं पहुँचती । यह सुख भोग लूं, वह सुख भोग लूँ, यह दुःख न भोगं और वह दुःख न भोग-इस प्रकार भोगने और न भोगने के विकल्पों में उलझ रहना ही कर्मफल चेतना है। इस प्रकार आत्मा स्वभाव को भूल कर पर भाव में ही रचा-पचा रहता है । उसकी दृष्टि अन्तमुखी न होकर बहिर्मुखी ही होती है । इन्द्रियजन्य भोगों में वह इतना आसक्त हो जाता है, कि उसे कर्म-फल के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का ध्यान ही नहीं रह पाता। उसके जीवन की यह स्थिति बडी विकट है।
संसार में जितने भी प्रकार के शुभ या अशुभ विकल्प हैं, वे किसी भी स्थिति में और किसी भी काल में क्यों न हों, कर्म बन्धन के कारण होते हैं । कर्मफल चेतना वाला व्यक्ति अपने आध्यात्मिक आनन्द को, अपने आन्तरिक सुख को भूल जाता है। उसे यह भान ही नहीं होने पाता, कि जिस आनन्द एवं सुख की खोज मैं कर रहा हूँ, वह सुख और आनन्द भौतिक पदार्थों में और इन्द्रियों के विषयों में नहीं, बल्कि अपनो अन्तर आत्मा में ही है । वह बहिर्मुखी होने के कारण आनन्द और सुख को खोज बाहर में ही करता है। इसके सम्बन्ध में एक कथानक है, जो इस प्रकार है :
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३६८ | अध्यात्म प्रवचन
एक बार की बात है, एक सेठ अकेला ही विदेश के लिए चल पड़ा । उसने अपने साथ से किसी को नहीं लिया । मार्ग लम्बा और विकट था, फिर भी उसके मन में इसकी चिन्ता न थी । उसे अपने आप पर विश्वास था । उसे अपनी बुद्धि और अपने विवेक पर विश्वास था । वह हमेशा अपनी स्वयं की बुद्धि और विवेक पर चलता था ।
मार्ग में जब वह चला जा रहा था, तब उसे एक व्यक्ति मिला । दोनों परस्पर साथी बन गए । सेठ ने भी सोचा, चलो एक से दो भले । दूसरा साथी वस्तुतः सच्चा साथी नहीं था, वह तो एक ठग था । लोगों को ठगना ही उसका काम था। पहले वह दूसरों का साथी बनता और फिर विश्वास साध कर धीरे-धीरे उसे ठगता । उसने कुछ दूर चलने पर सेठ पर भी अपना हाथ साफ करने का विचार किया । चलते-चलते सन्ध्या हो जाने पर एक गाँव के बाहर रात्रि निवास के लिए वे ठहरे । रात्रि को सोने से पहले उस ठग ने सेठ से कहा - "यह गाँव ठीक नहीं है, अपनी सम्पत्ति को संभाल कर ठीक से रखना ।" सेठ ने अपना बटुआ दिखाकर उस ठग साथी से कहा – “यदि यह मेरा है, तो कहीं जा नहीं सकता और यदि यह मेरा नहीं है, तो फिर इसकी हिफाजत किसी तरह की नहीं जा सकती ।" उस ठग ने समझ लिया, कि यह सेठ पूरा बुद्ध है । इस पर हाथ साफ करना कठिन नहीं, आसान है ।
रात्रि में सेठ सो गया । वह ठग भी सोया तो नहीं, किन्तु सोने का नाटक करने लगा। जब उसने देखा कि सेठ को गहरी नींद आगई है, तब वह उठा और सेठ के वस्त्रों की तलाशी करने लगा । बहुत देर तक तलाश करने पर भी उसके हाथ वह बटुआ नहीं लगा । आखिर थक कर और परेशान होकर वह ठग भी सो गया । प्रातःकाल जब दोनों उठे, तब उस ठग साथी ने सेठ से कहा, कि "अपनी पूँजी को सँभाल लो, वह सुरक्षित है या नहीं !" सेठ ने सहज भाव से कहा, "क्या सँभाल लें, सब ठीक है । देखो यह बटुआ मेरे पास ही है ।" वह ठग सारी रात जिस बटुए की तलाश करता रहा, प्रातःकाल उसे सेठ के पास देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। दूसरे दिन और तीसरे दिन भी इसी प्रकार घटना घटी। वह ठग सोचने लगा- आखिर, यह बात क्या है ? इसके पास ऐसा कौनसा जादू है, जिससे वह रात में इस बटुए को गायब कर देता है । आखिर उसने सेठ से पूछा"सेठ ! मैं तुम्हारे साथ धनापहरण के लिए रहा, परन्तु उसमें में
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तीन प्रकार की चेतना | ३६६ सफल नहीं हो सका। मैं इस रहस्य को जानना चाहता हूँ, कि दिन में वह बटुआ आपके पास रहता है, किन्तु रात्रि में कहाँ चला जाता है ?" सेठ ने हँस कर कहा-“जिस दिन पहली बार तुम मुझे मिले, उसी दिन तुम्हारे मुख की आकृति देखकर मैं यह समझ गया था, कि तुम एक ठग हो । बात यह है, कि बटुआ कहीं जाता-आता नहीं था, फर्क इतना ही था, कि दिन में वह मेरी जेब में रहता था और रात्रि को वह तुम्हारी जेब में रहता था। मैंने यह सोच लिया था, कि ठग सदा दूसरे को जेब ही तलाश किया करता है, वह कभी अपनी जेब नहीं देखता, इसी विश्वास के आधार पर मैं यह हेरा-फेरी किया करता था ।"
वस्तुतः यह परम सत्य है कि अपनी तलाश करना ठग का काम नहीं साहकार का काम है । ठग को सदा अपनी जेब खाली लगती है और दूसरों की जेब भरी हुई लगती है, क्योंकि उसकी दृष्टि पर में रहती है । जिसकी दृष्टि अपने पर न रह कर दूसरे पर रहती है, उसे सत्य का बटुआ कैसे मिल सकता है ? सेठ के जीवन में जो घटना घटी और उससे जो सिद्धान्त निकला है, वही सिद्धान्त आध्यात्मिक जीवन पर भी लागू होता है। यह आत्मा जब तक पर परिणति में रहता है, तब तक इसे सच्चा सुख और आनन्द प्राप्त नहीं होता। अनादिकाल से मिथ्या दृष्टि आत्मा पर पदार्थों में सुख की गवेषणा करता रहा है, उन्हीं के पीछे दौड़ता रहा है तथा स्वयं को कंगाल एवं भिखारी समझता रहा है । मिथ्या दृष्टि का लक्ष्य दूसरों की जेब तलाश करने का रहता है और सम्यक् दृष्टि की दृष्टि अपने जेब में हाथ डालने और खोज करने की रहती है। सम्यक दृष्टि सोचता है, कि जिस आनन्द की खोज, मैं करता है, वह कही बाहर में नहीं, मेरे अन्दर में है । मैं ऐश्वर्यशाली हूँ, मैं परम सौभाग्यशाली हूँ, मेरे पास क्या नहीं है, मेरे पास सब कुछ है। मेरे पास अनन्तज्ञान है, मेरे पास अनन्त दर्शन है, मेरे पास अनन्त सुख है और मेरे पास अनन्तशक्ति हैं फिर मैं अपने आपको भिखारी क्यों समझें, मैं अपने आपको कंगाल क्यों समझं? यह अध्यात्म दृष्टि जब तक जीवन में नहीं आती है, तब तक जीवन में आनन्द और सुख की प्राप्ति अथवा उपलब्धि नहीं हो सकती है।
तीसरी जान चेतता है । ज्ञान चेतना में साधक संसार से पराङ
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३७० | अध्यात्म प्रवचन
मुख होकर मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। ज्ञान चेतना वीतराग भाव की एक पवित्र धारा है। ज्ञान चेतना में साधक बहिर्मुखी न रहकर अन्तर्मुखी बन जाता है । जब स्व का उपयोग स्व में चलता है, वस्तुतः उसी स्थिति का नाम ज्ञान चेतना है । स्वयं में स्व का 'उपयोग अथवा अपने अन्दर में अपने स्वरूप का ज्ञान, यही सबसे बड़ी साधना है और यही सबसे बड़ा धर्म है । ज्ञान चेतना को अखण्डधारा सम्यक् दर्शन की साधना से विकसित होते-होते सिद्ध दिशा तक पहुँच जाती है । यद्यपि ज्ञान चेतना में भी बीच-बीच में शुभ धारा आती अवश्य है, पर ज्ञान चेतना होने से वे विकल्प अधिक स्थिर नहीं रह पाते । वस्तुतः शुभ और अशुभ विकल्पों को तोड़ना ही हमारी साधना का एकमात्र लक्ष्य है । मन के विकल्प अन्य किसी प्रकार से नहीं टूटते, उनको तोड़ने का एकमात्र साधन ज्ञान-चेतना ही है । निश्चय दृष्टि में एक आत्मस्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी अपना नहीं है और वह आत्म-स्वरूप स्थिति ही ज्ञान चेतना है ।
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