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३२८ | अध्यात्म प्रवचन
परिवर्तन नहीं । और इस तन के परिवर्तन को ही धर्म मानना, सबसे बड़ा अज्ञान और सबसे बड़ा मिथ्यात्व है । इस प्रकार के परिवर्तनों से जीवन की समस्या का हल नहीं हो सकता । इस प्रकार के कार्यों से धर्म की रक्षा और संस्कृति की रक्षा करने का विश्वास मूलतः प्रान्त ही है ।
मैं आपसे यह कह रहा था, कि सम्यक् दर्शन तन का धर्म नहीं है वह आत्मा का धर्म है । तन को बदलने से जीवन में चमत्कार नहीं आएगा, आत्मा को बदलने से ही उसमें विशुद्धि और पवित्रता आ सकती है। आप किसी भी देश के हों, आप किसी भी जाति के हों, आप किसी भी वर्ग एवं वर्ण के हों और आप किसी भी पंथ एवं सम्प्रदाय के हों, इससे हमें कोई प्रयोजन नहीं है। हम केवल एक ही बात जानना चाहते हैं, कि आपको अपनी आत्मा पर विश्वास है, या नहीं ? यदि आपने अपनी आत्मा पर आस्था कर ली है और उसके स्वरूप को समझ लिया है, तो निश्चय ही आपको सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो चुकी है। इसमें किसी भी प्रकार के विवाद को अवकाश नहीं रहता ।
सम्यक् दर्शन के दो भेद हैं-निश्चय सम्यक् दर्शन और व्यवहार सम्यक् दर्शन । निश्चय नय परनिरपेक्ष आत्मस्वरूप को कहता है । उसकी दृष्टि परम पारिणामिक चैतन्य भाव पर रहती है । शास्त्र में निश्चय नय को भूतार्थ और व्यवहार मय को अभूतार्थ कहा गया है । भूतार्थ और अभूतार्थ का क्या अर्थ है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है कि अनौपचारिक रूप से वस्तु के शुद्ध स्वरूप को ग्रहण करने वाला भूतार्थं होता है और उपचार रूप से वस्तु स्वरूप को ग्रहण करने वाला अभूतार्थ होता है । संसारी आत्माएँ विभाव पर्यायों को धारण करके नाना रूप में परिणत हो रही हैं । इस परिणमन में मूलद्रव्य की स्थिति जितनी सत्य और भूतार्थ है, उतनी ही उसकी विभाव परिणतिरूप व्यवहार स्थिति भी सत्य और भूतार्थ है । यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए, कि पदार्थ परिणमन की दृष्टि से निश्चय और व्यवहार दोनों भूतार्थ और सत्य हैं । परन्तु निश्चय जहाँ परनिरपेक्ष द्रव्य-स्वभाव को विषय करता है, वहाँ व्यवहार परसापेक्ष भाव को विषय करता है, यहाँ दोनों में मौलिक भेद है । तात्पर्य यह है कि परनिरपेक्षता निश्चय का विषय है और परसापे
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