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________________ १८६ | अध्यात्म-प्रवचन मैं अभी आपसे कह रहा था, कि क्रोध, मान, माया और लोभ आदि विकारों में असंख्य विकार ऐसे हैं, जिनके नाम का भी हमें पता नहीं है। हमें केवल आत्मा के इने-गिने कुछ ही विकारों के नाम आते हैं। उदाहरण के लिए क्रोध को ही लीजिए, उसके चार रूपों को हम जानते हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, अप्रत्याख्यानी क्रोध, प्रत्याख्यानी क्रोध, और संज्वलनी क्रोध । ये क्रोध के बहुत ही स्थूल भेद हैं, जिन्हें हम जानते हैं, किन्तु इनमें से एक-एक भेद के भी असंख्यात एवं अनंत भेद प्रभेद होते हैं, जिनका हमें कुछ भी पता नहीं है और जिसके स्वरूप का प्रतिपादन करने के लिए हम अपनी भाषा में कोई शब्द नहीं पाते । जो बात क्रोध के सम्बन्ध में है, वही बात मान, माया एवं लोभ के सम्बन्ध में भी है। इस प्रकार आत्मा के विकार एवं विकल्पों के असंख्यात एवं अनन्त भेद हैं, जिनमें से आत्मा गुजरती रहती है । याद रखिए, बाहर का यह संसार तो बहुत छोटा है और उसकी तुलना में अन्तर्जगत बहत विशाल है। अध्यात्मनिष्ठ महापुरुषों ने एवं अनुभवी शास्त्रकारों ने अन्तर्जगत के इन विकार एवं विकल्पों के भय एवं आतंकों को स्वप्न के भय एवं आतक के समान कहा है। इन भय एवं आतंकों से बचने के लिए आध्यात्मिक जागरण की आवश्यकता है । अन्दर का जागरण आया नहीं कि ये सब भाग खड़े होते हैं । जब तक आत्मा का भान तहीं होता, और जब तक स्व का जागरण नहीं होता, तथा जब तक यह चैतन्य पर स्वरूप से स्व स्वरूप में नहीं आता, तब तक विकार एवं विकल्पों के भय एवं आतंक से आत्मा का मुक्ति पाना सम्भव नहीं है। आत्म दर्शन रूप सम्यक् दर्शन का जागरण ही उन विकल्प एवं विकारों से मुक्ति करा सकता है । अज्ञान के भय एवं आतंक को दूर करने का एकमात्र उपाय सम्यक् दर्शन ही है। ___ मैं आपसे सम्यक दर्शन को चर्चा कर रहा था। यह मैं मानता हैं कि सम्यक् दर्शन की चर्चा बहुत गहन एवं गम्भीर है, किन्तु उसकी गहनता और गम्भीरता को देखकर उसका परित्याग नहीं किया जा सकता । सम्यक् दर्शन के अभाव में हमारी साधना का जीवन-पथ ही अन्धकाराच्छन्न हो जाएगा। अज्ञान और मिथ्यात्व के उस घोर अन्धकार में यह आत्मा अनन्त काल से भटकती रही है और उसके अभाव में भविष्य में भी अनन्त काल तक भटकती ही रहेगी । अतः जीवन के उद्धार एवं उत्थान के लिए, सम्यक् दर्शन की उपलब्धि अत्यन्त आवश्यक है ? परन्तु सबसे बड़ा सवाल यह है, कि वह सम्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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