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________________ सम्यक् दर्शन की महिमा | १८७ दर्शन है क्या वस्तु ? सम्यक् दर्शन की परिभाषा बताते हुए कहा गया है, कि 'तत्त्वार्थ श्रद्धान' ही सम्यक दर्शन है। तत्वों की श्रद्धा को सम्यक दर्शन कहा गया है। इस आत्मा में अतत्त्व का श्रद्धान या तत्त्व का अश्रद्धान अनन्त काल से रहा है। विचार कीजिए, निगोद की स्थिति में यह आत्मा अनन्तकाल तक रहा। फिर यह आत्मा पृथ्वीकाय, जल-काय, अग्निकाय, वायु-काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय में भी असंख्यात काल तक रहा। वहाँ पर जन्म और मरण करते हुए असंख्यात अवसर्पिणी और असंख्यात उत्सर्पिणी जितना दीर्घकाल गुजर गया, किन्तु आत्मा को सम्यक् दर्शन की ज्योति प्राप्त न हो सकी । इस अनन्त काल में यदि आत्मा को अतत्त्व का श्रद्धान नहीं हआ, तो उसे तत्त्व का श्रद्धान भी कहाँ था ? निगोद आदि में अतत्त्व का श्रद्धान नहीं था, तो तत्त्व की श्रद्धा भी कहाँ थी ? अतत्त्व की श्रद्धा के समान तत्त्व की श्रद्धा न होना भी सबसे बड़ा मिथ्यात्त्व है। कल्पना कीजिए, आत्मा अनन्त काल से निगोद में जन्म एवं मरण करता रहा । एक साँस में जहाँ अठारह बार जन्म एव मरण होता हो, तो विचार कीजिए, वहाँ जीवन कितनी देर रहा ? जीवन के नाम पर वहाँ इतना भी समय नहीं मिला कि मानव-जितना एक साँस भी पूरा ले सके । कितनी भयंकर वेदना की स्थिति है, यह । इतनी भयंकर वेदना उठाने पर भी इस आत्मा को सम्यक् दर्शन का प्रकाश नहीं मिल सका । सम्यक् दर्शन का प्रकाश मिलता भी कैसे ? जब तक साधक जीवन में से मोह निद्रा का अभाव नहीं होगा, तब तक आत्मा के शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि कैसे होगी? इसीलिए अध्यात्म शास्त्र में उपदेश दिया गया है, कि साधक ! जागृत हो, सतर्क हो, सावधान बन, प्रमाद को छोड़कर अप्रमत्त बन, उठ, जाग और अध्यात्म-साधना के पथ पर आगे बढ़ । जीवन में चाहे दुःख हो अथवा चाहे सुख हो, किन्तु एक क्षण के लिए भी आत्म-भाव को विस्मृत मत होने दो । अध्यात्म-साधना में क्षण मात्र के लिए भी स्वरूप का प्रमाद भयंकर विपत्ति उत्पन्न कर सकता है, इसलिए स्व के सम्बन्ध में क्षणमात्र का भी प्रमाद मत करो। अतीत काल में अनन्त बार जन्म-मरण कर चुके हो, उसे भूल जाओ और एक ही बात याद रखो कि वर्तमान में और भविष्य में फिर कभी जन्म मरण के परिचक्र में न फँस जाओ। आत्म-विवेक के अभाव में यह आत्मा अदेव को देव समझता रहा, अगुरु को गुरु समझता रहा और अधर्म को धर्म समझता रहा । परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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