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________________ संसार और मोक्ष | ३०५ वह एक होकर भी अनेक हो जाता है । सम्यक् दर्शन के इस विशाल एवं विराट रूप को समझने के लिए, किसी न किसी प्रकार का आधार अवश्य चाहिए । प्रश्न है, वह आधार क्या हो और कैसा हो ? भूतकाल के ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में उसका कैसा अंकन एवं चित्रण किया है ? यह प्रश्न बड़ा ही महत्वपूर्ण है । मुझे उक्त प्रश्न के समाधान में केवल इतना ही कहना है, कि यदि आप उन ग्रन्थकारों के शब्दों को पकड़ेंगे, तब तो समाधान यह होगा कि जितने ग्रन्थकार हैं, उतने ही सम्यक् दर्शन की व्याख्या, परिभाषा और लक्षण हैं । इसके विपरीत जब आप उन ग्रन्थकारों की भाषा को न पकड़ कर, मुलभाव को ग्रहण करें, तब सबका लक्षण एक ही होगा, सबकी व्याख्या एक ही होगी और सबकी परिभाषा भी एक ही होगी । उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं हो सकता । सबसे पहला और सबसे मुख्य प्रश्न यह है, कि सम्यक् दर्शन क्या वस्तु है ? उसका क्या स्वरूप है और उसका क्या लक्षण है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि सप्त तत्व और नव पदार्थ पर श्रद्धान करना ही सम्यक् दर्शन है। जैन दर्शन में यह कहा गया है, कि पञ्च अस्तिकाय, षड़द्रव्य, सप्त तत्व और नवपदार्थ पर श्रद्धान करना, सम्यक् दर्शन है । सम्यक् दर्शन का यह लक्षण ऐसा है, जिसे घूम फिर कर सभी ग्रन्थकारों ने स्वीकार किया है । ग्रन्थकारों की ही बात नहीं है, मूल आगम में भी सम्यक् दर्शन का यही लक्षण किया गया है, और ग्रन्थकारों ने इसी को अपना आधार बनाया है । किसी भी युग का आचार्य क्यों न हो, उसका मूल आधार तो वीतरागवाणी आगम ही रहेगा । आज मैं भी आपके समक्ष सम्यक् दर्शन की जो परिभाषा एवं व्याख्या उपस्थित कर रहा हूँ, उसका आधार भी वीतरागवाणी आगम ही है । हमारा सौभाग्य है, कि हम एक ऐसे युग में पैदा हुए हैं, जिसमें आगम और आगम के बाद के विशिष्ट आचार्यों का चिन्तन हमें उपलब्ध हुआ है। जैसे मूल आगम से आचार्यों ने भाव ग्रहण करके, उसे पल्लवित किया है, वैसे ही आज हम भी आगम और उत्तरकालीन ग्रन्थों के चिन्तन को लेकर उसे पल्लवित कर देते हैं। क्योंकि सत्य सदा त्रैकालिक होता है, वह न कभी नया होता है और न कभी पुराना होता है । सत्य एक ही होता है, किन्तु उसे अभिव्यक्त करने वाली पद्धति और शैली युगानुकूल बदलती रहती है । मैं आज आपके समक्ष जो सम्यक् दर्शन के स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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