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________________ १७ संसार और मोक्ष सम्यक् दर्शन की चर्चा बहुत हो चुकी है, फिर भी चर्चा को किनारा कहाँ मिला है ? क्योंकि सम्यक् दर्शन एक ऐसा विषय है, जिस पर सम्पूर्ण जीवन भर भी लिखा जाए अथवा बोला जाए, तो उसका अन्त नहीं आ सकता । अन्त आ भी कैसे सकता है ? क्योंकि प्रत्येक गुण जब अपने शुद्ध स्वरूप में पहुँच जाता है, तब वह अनन्त हो जाता है । यद्यपि तत्त्व श्रद्धानरूप मूलस्वरूप की दृष्टि से सम्यक् - दर्शन में किसी प्रकार का भेद अथवा खण्ड नहीं होता, किन्तु किसी एक व्यक्ति की अपेक्षा अथवा देश और काल आदि की अपेक्षा, उसके भेद एवं प्रभेदों की कोई इयत्ता नहीं है, और तदनुसार सम्यक् दर्शन की व्याख्या एवं परिभाषाओं की भी कोई एक सीमा नहीं रहती है । गंगा की एक ही निर्मल एवं अखंड धारा होती है। गंगा का जल जब अपनी मूल धारा में प्रवाहित रहता है, तो उसमें किसी प्रकार का भेद उपस्थित नहीं होता, परन्तु जब धारा के जल को व्यक्ति अपने-अपने पात्र विशेष में बन्द कर लेते हैं, तब वह जल एक होकर भी अनेक बन जाता है । इसी प्रकार सम्यक् दर्शन अपने आप में एक अखण्ड तत्व होते हुए भी उसकी अभिव्यक्ति विभिन्न देश और विभिन्न काल के विभिन्न व्यक्तियों में होने के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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