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________________ जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | ३०३ विभिन्न सम्प्रदायों के पण्डितों ने एक दूसरे को पराजित करने के लिए दलीलों की अखाड़ेबाजी जमा दी थी। उस समय का एक मात्र ध्येय यही था, कि अपने से भिन्न पन्थ के पण्डित को किसी भी प्रकार से निरुत्तर कर दिया जाए। इस युग को साहित्य के इतिहास में न्याययुग और तर्क-युग कहा जाता है। इस युग के जैन-विद्वानों में भी तर्क-युग का प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य समन्तभद्र अपनेअपने ग्रन्थों में तर्क और यूक्ति के बल पर ही, अनेकान्तवाद की भव्य स्थापना की है। फिर आगे चलकर अकलंक और हरिभद्र ने इस तर्क वादी मोर्चे को सम्भाला और विभिन्न प्रकार के तर्कों के बदले प्रति तर्क उपस्थित किये। सबसे अन्त में न्याय-युग के प्रखर पण्डित वाचक यशोविजयजी ने इस तर्कवादी मोर्चे को सम्भाला और नवीन न्याय की शैली में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया । परन्तु इस तर्क-युग में तर्क और प्रति तर्क करते हुए भी जैन विद्वान अपने अध्यात्मवादी दृष्टिकोण को भूले नहीं। सम्यक् दर्शन के मूल स्वरूप का प्रतिपादन किसी न किसी रूप में प्रत्येक विद्वान ने अपने ग्रन्थ में किया ही है । जैन विद्वानों ने भले ही अपने ग्रन्थ की रचना संस्कृत भाषा में की हो अथवा प्राकृत भाषा में की हो, और वह रचना करने वाला विद्वान भारत के किसी भी प्रान्त का क्यों न रहा हो, किन्तु उन सब के विचारों में और उन सब की वाणियों में कोई मौलिक भेद नहीं रहा, भले ही प्रतिपादन की शैली भिन्न अवश्य रही हो। उन विद्वानों की रचना और कृति हमारे लिए एक सुन्दर, स्वादु और पौष्टिक भोजन के समान सिद्ध हुई है। उन्होंने बिखरे मोतियों को एक सूत्र में पिरोकर एक सुन्दर हार बनाकर और उसे सजाकर अपने युग को जन-चेतना के समक्ष प्रस्तुत कर दिया था। वह एक सूत्र क्या था, जिसमें बिखरे हुए मोतियों को उन्होंने एक सुन्दर हार बना दिया ? वह एक सूत्र था-सम्यक् दर्शन । सम्यक् दर्शन को आधार बना कर ही, उन्होंने अहिंसा ओर अनेकान्त के अमृतमय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। सम्यक् दर्शन है, तो सब कुछ है । यदि सम्यक् दर्शन नहीं है, तो अन्य सव कुछ होते हुए भी सब शून्य-हो-शून्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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