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३०२ | अध्यात्म-प्रवचन तत्वों की अपेक्षा सर्शप्रथम सम्यक् दर्शन को ही महत्व दिया गया है । जैन दर्शन के प्रत्येक ग्रन्थकार ने किसी न किसी रूप में सम्यक् दर्शन का वर्णन अवश्य ही किया है। यह वर्णन किसी ग्रन्थ में विस्तार के साथ हैं, तो किसी ग्रन्थ में संक्षेप में है। परन्तु इतना अवश्य ही ध्यान देने योग्य है, कि एक भी ग्रन्थकार सम्यक् दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सका है, बल्कि कुछ ग्रन्थकारों ने तो अपने ग्रन्थ का मूल आधार ही सम्यक् दर्शन को बनाया है। साधक दो प्रकार के होते है-श्रद्धावादी और तर्कवादी। श्रद्धावादी, श्रद्धा को ही मुख्यता प्रदान करता है, जबकि तर्कवादी तर्क को ही प्रधानता देता है । वस्तुतः श्रद्धा केवल श्रद्धा नहीं होनी चाहिए, उसके साथ तर्क का योग भी चाहिए और तर्क भी केवल तर्क नहीं होना चाहिए, अपितु उसके साथ श्रद्धा का समन्वय भी चाहिए। श्रद्धा और प्रज्ञा का सुन्दर समन्वय ही, साधना का राजमार्ग है। आगमों में हम देखते हैं, सुनते हैं और पढ़ते हैं, कि, कि गणधर गौतम, भगवान महावीर से प्रश्न पूछते हैं और भगवान उसका उत्तर देते हैं। समाधान न होने पर गौतम फिर प्रश्न उपस्थित करते हैं और भगवान फिर उसका समाधान करते हैं । इस प्रकार तर्क और युक्ति चलती रहती है। परन्तु सत्य अधिगत होते ही गणधर गौतम उसे स्वीकार कर लेते हैं। जब सत्य की उपलब्धि हो गई, तब तर्क और युक्ति का अपने आप में कोई महत्व नहीं रहता । तके और युक्ति सत्य के उपलब्धि के साधन हैं, साध्य नहीं । जैन दर्शन में एकान्त तर्क और एकान्त श्रद्धा को जरा भी स्थान नहीं है। यद्यपि जैन दर्शन तक और बुद्धि का द्वार बन्द नहीं करता है यहाँ गौतम के समान कोई भी भक्त प्रभु से तर्क और युक्ति कर सकता है, परन्तु उस तर्क और युक्ति का आधार सत्य का अनुसंधान होना चाहिए । जब सत्य की उपलब्धि हो जाय, तब तर्क और युक्ति विश्वास एवं श्रद्धा में परिणत हो जाते हैं । कितना भी तर्क किया जाए, अन्त में गुरु के हाथों में शिष्य को अपना मस्तिष्क अर्पित करना ही पड़ेगा। जब एक शिष्य गुरु के समक्ष अपना मस्तक समर्पित कर देता है, तब इसका अर्थ यह होता है, कि उसने श्रद्धा एवं विश्वास को स्वीकार कर लिया है । श्रद्धा को स्वीकार करने का अर्थ है-उसने अपने आत्मस्वरूप पर विश्वास कर लिया है और आत्मस्वरूप पर विश्वास करना ही, निश्चय सम्यक् दर्शन है। एक युग आया था, जिसमें
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