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________________ जैन-दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | ३०१ और रूप केवल शरीर तक ही सीमित रह जाते हैं । जब इस नाम रूपात्मक शरीर में से शिव निकल जाता है, आत्मा निकल जाता है, तब केवल शव ही शेष रह जाता है, जिसे अन्त में अग्नि की भेंट कर दिया जाता है । स्पष्ट है कि संसार में नाम और रूप स्थिर नहीं है, केवल स्वरूप ही स्थिर रहता है, और यही जीवन की वास्तविकता है ।" मैं आपसे पहले कह चुका हूँ, कि सिद्धों में द्रव्य चरित्र नहीं, भाव - चरित्र रहता है | चारित्र के दो भेद हैं - निश्चय चारित्र और व्यवहार चारित्र । व्यवहार चारित्र को ही द्रव्य चारित्र कहा जाता है और इसी को क्रियात्मक एवं व्रतरूप चारित्र भी कहा जाता है । यह चारित्र सिद्धों में नहीं रहता, परन्तु स्वरूपरमणता, स्वरूप में लीनतारूप जो निश्चय चारित्र है, वह कभी नष्ट नहीं होता। यह निश्चय चारित्र ही सिद्धों में रहता है । इसी प्रकार सम्यक् दर्शन के भी दो भेद किए गए हैं - व्यवहार सम्यक् दर्शन और निश्चय सम्यक् दर्शन । व्यवहार सम्यक् दर्शन चाहे कितनी भी बार क्यों न हो जाए, किन्तु उससे आत्मा के लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती है । व्यवहार सम्यक् दर्शन अनन्त अतीत में न जाने कितनी बार हो चुका है, परन्तु उससे कार्य की सिद्धि नहीं हो सकी । निश्चय सम्यक् दर्शन ही वास्तविक सम्यक् दर्शन है । निश्चय सम्यक् दर्शन के अभाव में, मात्र व्यवहार सम्यक् दर्शन आत्मा में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकता । आत्मस्वरूप की उपलब्धि निश्चय सम्यक् दर्शन से ही होती है । निश्चय सम्यक् दर्शन को त्रिकाली सत्य कहा जाता है । व्यवहार की बात केवल समय-विशेष के लिए होती है, समय-विशेष के बाद उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है । इसीलिए मैं कहता हूँ, व्यवहार पर आश्रित जो भी कुछ है, वह स्थायी नहीं होता । इसके विपरीत निश्चय, जो कि आत्मा का अपना शुद्ध स्वरूप है, वही त्रिकाली सत्य हैं । जब तक निश्चय में लीनता नहीं होगी, तब तक परमार्थ भाव की उपलब्धि भी नहीं हो सकेगी । आपके सामने सम्यक् दर्शन की चर्चा चल रही है | अध्यात्मवादी दर्शन के अनुसार सम्यक् दर्शन आत्मा का एक दिव्य प्रकाश है । मिथ्यात्व के अन्धकार को दूर करने के लिए, सम्यक् दर्शन रूप सूर्य की नितान्त आवश्यकता है । सम्यक् दर्शन के अभाव में आत्मा का विकास हो ही नहीं सकता । यही कारण है, कि जैन-दर्शन में अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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